कहकशाँ - 8
नुसरत फ़तेह अली ख़ाँ और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ें
"अब तो आजा कि आँखें उदास बैठी हैं..."
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी महफ़िल, कहकशाँ। आज पेश है जुदाई के रंग में सराबोर दो रचनाएँ, पहली नुसरत फ़तेह अली ख़ाँ की आवाज़ में और दूसरी मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में।
अब तो आजा कि आँखें उदास बैठी हैं,
भूलकर होश-औ-गुमां बदहवास बैठी हैं।
इश्क़ की कशिश ही ऐसी है कि साजन सामने हो तो भी कुछ न सूझे और दूर जाए तब भी कुछ न सूझे। इश्क़ की तड़प ही ऐसी है कि साजन आँखों में हो तो दिल को सुकूं न मिले और दिल में हो तो आँखों में कुछ चुभता-सा लगे। रूह तब तक मोहब्बत के रंग में नहीं रंगता जब तक पोर-पोर में साजन की आमद न हो। लेकिन अगर दिल की रहबर "आँखें" ही साजन के दरश को प्यासी हों तो बिन मौसम सावन न बरसे तो और क्या हो। यकीं मानिए सावन बारहा मज़े नहीं देता :
आँखों से अम्ल बरसे जो दफ़-अतन कभी,
छिल जाए गीली धरती, खुशियाँ जलें सभी।
बाबा नुसरत ने कुछ ऐसे हीअ भावों को अपने मखमली आवाज़ से सराबोर किया है। "बैंडिट क्वीन" से यह पंजाबी गीत आप सबके सामने पेशे खिदमत है। लेकिन उससे पहले नुसरत फ़तेह अली ख़ाँ साहब के बारे में चन्द अलफ़ाज़ पेश है। ख़ास तौर से क़व्वाली को घर घर पहुँचाने और नए ज़माने के लोगों में इसे दिल-अज़ीज़ बनाने में उनका ख़ास योगदान रहा। उनकी आवाज़ की ख़ास बात यह है कि उनकी रूहानी आवाज़ सुनते हुए एक अलग ही दुनिया में हम पहुँच जाते है, और दिल चाहने लगता है कि गाना बस चलता ही जाए, चलता ही जाए! 13 अक्टुबर 1948 में पाक़िस्तान के फ़ैसलाबाद (जो पहले ल्यालपुर था) में जन्मे नुसरत अपने वालिद फ़तेह अली ख़ाँ के पाँचवीं औलाद थे। छह भाई बहनों में सिर्फ़ उन्होंने मौसिक़ी को आगे बढ़ाया। वैसे शुरुआती दिनों में उनके वालिद नहीं चाहते थे कि वो इस क़व्वाली गायन में आए क्योंकि इसे समाज में ऊँची निगाह से नहीं देखा जाता था। लेकिन नुसरत के जुनून और क़व्वाली के लिए इश्क़ को देख कर वालिद को उनके सामने झुकना पड़ा। तबले से शुरू करने के बाद नुसरत ने रागदारी और बोल बन्दिश की तालिम ली। 1964 में वालिद के इन्तकाल के बाद उनके चाचा मुबारक़ अली ख़ाँ और सलामत अली ख़ाँ ने उनकी तालीम को पूरा होने में उनकी मदद की। यह सोच कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि नुसरत साहब का पहला परफ़ॉरमैन्स था उनके वालिद के मज़ार पर, मौक़ा था वालिद का चेहलुम (चेहलुम यानी कि मुसलमानों में किसी की मौत के बाद चालीसवाँ दिन)। उस दिन वालिद की जुदाई में उनके गले से जो सुर निकले थे, शायद वो ही सुर उनके साथ हमेशा रहा, और शायद यही वजह है कि जुदाई के नगमें उनकी आवाज़ पाकर रूहानी बन जाते हैं। फिर चाहे वह "तेरे बिना नहीं जीना मर जाना" हो या "अखियाँ नु चैन न आवे"।
शायर वो क्या जो न झाँके ख़ुद के अंदर में,
क्या रखा है ख़ल्क-खुल्द, माह-ओ-मेहर में?
साहिर ने प्यासा में कहा है: "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है" । इस सुखन के हर एक हर्फ़ से कई मायने निकलते हैं, जो ज़िंदगी को सच्चाई का आईना दिखाते हैं। एक मायना यह भी निकलता है कि "अगर बशर (इंसान) को अपनी ख़ुदी पर यकीं न हो, अपनी हस्ती का दंभ न हो, तो चाहे उसे सारी दुनिया ही क्यों न मिल जाए, इस मुक़ाम को हासिल करने का कोई फायदा नहीं।" जब तक इंसान अपने अंदर न झाँक ले और अपनी ताक़त का ग़ुमां न पाल ले, तवारीख़ गवाह है कि उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। जो इंसान अपने दिल की सुनता है और ख़ुद के बनाए रास्तों पर चलता है, उसे सारी दुनिया एक तमाशे जैसी लगती है और सारी दुनिया को वह कम-अक्ल से ज़्यादा कुछ नहीं। फिर सारी दुनिया उसे नसीहतें देनी शुरू कर देती है। सच ही है:
मेरी ख़ुदी से रश्क़ जो मेरा ख़ुदा करे,
नासेह न बने वो तो और क्या करे।
मिर्जा असदुल्लाह ख़ाँ "ग़ालिब" ने कहा है-
"मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे,
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।"
ग़ालिब की इस ग़ज़ल को कई सारे गुलूकारों ने अपनी आवाज़ से सजाया है। आईये आज हम इस ग़ज़ल को "मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में सुनते हैं और महसूस करते हैं कि इस ग़ज़ल के एक-एक शेर में कितनी कहानियाँ छिपी हुई हैं।
भूलकर होश-औ-गुमां बदहवास बैठी हैं।
इश्क़ की कशिश ही ऐसी है कि साजन सामने हो तो भी कुछ न सूझे और दूर जाए तब भी कुछ न सूझे। इश्क़ की तड़प ही ऐसी है कि साजन आँखों में हो तो दिल को सुकूं न मिले और दिल में हो तो आँखों में कुछ चुभता-सा लगे। रूह तब तक मोहब्बत के रंग में नहीं रंगता जब तक पोर-पोर में साजन की आमद न हो। लेकिन अगर दिल की रहबर "आँखें" ही साजन के दरश को प्यासी हों तो बिन मौसम सावन न बरसे तो और क्या हो। यकीं मानिए सावन बारहा मज़े नहीं देता :
आँखों से अम्ल बरसे जो दफ़-अतन कभी,
छिल जाए गीली धरती, खुशियाँ जलें सभी।
बाबा नुसरत ने कुछ ऐसे हीअ भावों को अपने मखमली आवाज़ से सराबोर किया है। "बैंडिट क्वीन" से यह पंजाबी गीत आप सबके सामने पेशे खिदमत है। लेकिन उससे पहले नुसरत फ़तेह अली ख़ाँ साहब के बारे में चन्द अलफ़ाज़ पेश है। ख़ास तौर से क़व्वाली को घर घर पहुँचाने और नए ज़माने के लोगों में इसे दिल-अज़ीज़ बनाने में उनका ख़ास योगदान रहा। उनकी आवाज़ की ख़ास बात यह है कि उनकी रूहानी आवाज़ सुनते हुए एक अलग ही दुनिया में हम पहुँच जाते है, और दिल चाहने लगता है कि गाना बस चलता ही जाए, चलता ही जाए! 13 अक्टुबर 1948 में पाक़िस्तान के फ़ैसलाबाद (जो पहले ल्यालपुर था) में जन्मे नुसरत अपने वालिद फ़तेह अली ख़ाँ के पाँचवीं औलाद थे। छह भाई बहनों में सिर्फ़ उन्होंने मौसिक़ी को आगे बढ़ाया। वैसे शुरुआती दिनों में उनके वालिद नहीं चाहते थे कि वो इस क़व्वाली गायन में आए क्योंकि इसे समाज में ऊँची निगाह से नहीं देखा जाता था। लेकिन नुसरत के जुनून और क़व्वाली के लिए इश्क़ को देख कर वालिद को उनके सामने झुकना पड़ा। तबले से शुरू करने के बाद नुसरत ने रागदारी और बोल बन्दिश की तालिम ली। 1964 में वालिद के इन्तकाल के बाद उनके चाचा मुबारक़ अली ख़ाँ और सलामत अली ख़ाँ ने उनकी तालीम को पूरा होने में उनकी मदद की। यह सोच कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि नुसरत साहब का पहला परफ़ॉरमैन्स था उनके वालिद के मज़ार पर, मौक़ा था वालिद का चेहलुम (चेहलुम यानी कि मुसलमानों में किसी की मौत के बाद चालीसवाँ दिन)। उस दिन वालिद की जुदाई में उनके गले से जो सुर निकले थे, शायद वो ही सुर उनके साथ हमेशा रहा, और शायद यही वजह है कि जुदाई के नगमें उनकी आवाज़ पाकर रूहानी बन जाते हैं। फिर चाहे वह "तेरे बिना नहीं जीना मर जाना" हो या "अखियाँ नु चैन न आवे"।
शायर वो क्या जो न झाँके ख़ुद के अंदर में,
क्या रखा है ख़ल्क-खुल्द, माह-ओ-मेहर में?
साहिर ने प्यासा में कहा है: "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है" । इस सुखन के हर एक हर्फ़ से कई मायने निकलते हैं, जो ज़िंदगी को सच्चाई का आईना दिखाते हैं। एक मायना यह भी निकलता है कि "अगर बशर (इंसान) को अपनी ख़ुदी पर यकीं न हो, अपनी हस्ती का दंभ न हो, तो चाहे उसे सारी दुनिया ही क्यों न मिल जाए, इस मुक़ाम को हासिल करने का कोई फायदा नहीं।" जब तक इंसान अपने अंदर न झाँक ले और अपनी ताक़त का ग़ुमां न पाल ले, तवारीख़ गवाह है कि उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। जो इंसान अपने दिल की सुनता है और ख़ुद के बनाए रास्तों पर चलता है, उसे सारी दुनिया एक तमाशे जैसी लगती है और सारी दुनिया को वह कम-अक्ल से ज़्यादा कुछ नहीं। फिर सारी दुनिया उसे नसीहतें देनी शुरू कर देती है। सच ही है:
मेरी ख़ुदी से रश्क़ जो मेरा ख़ुदा करे,
नासेह न बने वो तो और क्या करे।
मिर्जा असदुल्लाह ख़ाँ "ग़ालिब" ने कहा है-
"मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे,
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।"
ग़ालिब की इस ग़ज़ल को कई सारे गुलूकारों ने अपनी आवाज़ से सजाया है। आईये आज हम इस ग़ज़ल को "मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में सुनते हैं और महसूस करते हैं कि इस ग़ज़ल के एक-एक शेर में कितनी कहानियाँ छिपी हुई हैं।
खोज और आलेख : विश्वदीपक ’तन्हा’ व सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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