कहकशाँ - 2
उस्ताद अब्दुल रशीद ख़ाँ (रसन पिया) को खिराज
"रसन बचे जो भुजंगन से, सो कोटिन लक्ष निछावर पावे"
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम। दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेशकीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी महफ़िल, कहकशाँ। आज पेश है हाल ही में दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कहने वाले शास्त्रीय संगीत के चमकदार सितारे उस्ताद अब्दुल रशीद ख़ाँ (रसन पिया) को खिराज उन्हीं की गायी हुई एक रचना से।
'रसन पिया'
अचम्भा सा जगाती लगभग सौ बरस की पकी हुई उम्र में
भरे-पूरे जराजीर्ण बरगद की तरह है तुम्हारा होना
हज़ारों लोग बैठ सकते जिसकी छाया तले इत्मीनान से
और एक कशिश जैसी कोई चीज़ सुन सकते तुम्हारी आवाज़ में
जहाँ से राख नहीं आज भी बसन्त के पीले फूल झरते हैं
पता नहीं क्या है उस्ताद
ठुमरी और दादरा के अंतरालों में जादू जैसा
जहाँ बहुत कुछ अभी भी बचा है ऐसा
जिस पर भरोसा किया जा सकता है
और यह बात हमें परेशानी में डालती है
ऐसे अराजक समय में सिर्फ संगीत के सहारे
तुम कैसे अभी तक रहते चले आये अप्रतिहत
यह एक विचित्र बात है उस्ताद
सौ बरस के महाकाव्य से लगते जीवन में तुम्हें
गायक से साथ-साथ रसन पिया बनने की क्यों सूझी
गोया, कविता कहे बगैर संगीत कुछ कम सुरीला लगता
तुम्हारे सम्पन्न घराने में
या बंदिश रचते समय तुम आसानी से पकड़ लेते
किसी सुर को उसके सपनों के साथ............
उस्ताद अब्दुल रशीद ख़ाँ जब 104 बरस के हुए थे, तब लखनऊ के यतीन्द्र मिश्र ने उन पर 'रसन पिया' के नाम से एक लम्बी कविता लिखी थी, जो उनकी संगीत व कलाओं पर निबंधों की पुस्तक 'विस्मय का बखान' में भी शामिल है। उसी कविता की कुछ लाईने हमने उपर प्रस्तुत की।
107 वर्ष की आयु में गत 18 फ़रवरी को शास्त्रीय संगीत के स्तंभ, वयोवृद्ध और पुरोधा गायक उस्ताद
अब्दुल रशीद ख़ाँ साहब का इन्तकाल हो गया। वे उम्र के इस आख़िरी पड़ाव तक बेहद सक्रिय थे संगीत में डूबे हुए और अपने शिष्यों को संगीत सिखा रहे थे। उनकी एक शताब्दी से लम्बी रचनात्मक उपस्थिति की जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी। वे एक बहुत बड़े बंदिशकार भी थे और 'रसन पिया' के नाम से पद लिखते व शास्त्रीय संगीत में ठुमरी और खयाल की शक्ल में गाते थे। ख़ाँ साहब का जन्म संगीतज्ञों के परिवार में हुआ था, उनके पूर्वज बहराम ख़ाँ पारम्परिक ग्वालियर घराना गायकी के गायक थे। अब्दुल रशीद साहब के ताऊ जी (पिता के बड़े भाई) बड़े युसुफ़ ख़ाँ और उनके पिता छोटे युसुफ़ ख़ाँ ने उन्हें संगीत की पहली तालीम दी। उसके बाद उनके परिवार के ही दूसरे बड़े-बुज़ुर्ग़ों नें उनमें ग्वालियर घराने की गायकी को मज़बूत किया। इनमें शामिल थे चाँद ख़ाँ, बरख़ुरदार ख़ाँ और महताब ख़ाँ। लेकिन अब्दुल रशीद ख़ाँ ने आगे चलकर अपना अलग स्टाइल इख़ितियार किया और अपने आप को भीड़ से अलग किया। अपने लम्बे सफ़र में उन्हें असंख्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें पद्मभूषण, संगीत नाटक अकादमी, रस सागर, काशी स्वर-गंगा, ITC, और दिली सरकार द्वारा प्रदत्त Lifetime Achievement पुरस्कार शामिल हैं।
आइए आज ’रसन पिया’ को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं उन्हीं के द्वारा स्वरबद्ध एक शिव रचना से जिसे कोलकाता स्थित ITC- Sangeet Research Academy ने वर्ष 2011 में रेकॉर्ड किया था। गायन में उनका साथ दिया है शुभमय भट्टाचार्य ने, हारमोनियम पर संगत है अनिर्बान दास की, तानपुरे पर शुभमय भट्टाचार्य और पम्पा मुखर्जी तथा तबले पर हैं पंडित समर साहा
बेदी मे बैठी जपे शिउ शंकर।
गौरा की भांवर कौन करावे।
नागिन की फुफकारन से
कि नावन नेग नगीच न आवे।
पंडित थर थर कांप रहे
कि को गठ बंधन गाँठ जुरावे।
’रसन’ बचे जो भुजंगन से
सो कोटिन लक्ष निछावर पावे।
बम-बम बम-बम भोला भोला
जटा धर भभूत रमाए
आए खाए भंग का गोला
पुन्य त्रिशूल गड़े रुनडन माला
खाल बिछाए बाघम्बर की
देहो दरस मोहे अनमोला
अचम्भा सा जगाती लगभग सौ बरस की पकी हुई उम्र में
भरे-पूरे जराजीर्ण बरगद की तरह है तुम्हारा होना
हज़ारों लोग बैठ सकते जिसकी छाया तले इत्मीनान से
और एक कशिश जैसी कोई चीज़ सुन सकते तुम्हारी आवाज़ में
जहाँ से राख नहीं आज भी बसन्त के पीले फूल झरते हैं
पता नहीं क्या है उस्ताद
ठुमरी और दादरा के अंतरालों में जादू जैसा
जहाँ बहुत कुछ अभी भी बचा है ऐसा
जिस पर भरोसा किया जा सकता है
और यह बात हमें परेशानी में डालती है
ऐसे अराजक समय में सिर्फ संगीत के सहारे
तुम कैसे अभी तक रहते चले आये अप्रतिहत
यह एक विचित्र बात है उस्ताद
सौ बरस के महाकाव्य से लगते जीवन में तुम्हें
गायक से साथ-साथ रसन पिया बनने की क्यों सूझी
गोया, कविता कहे बगैर संगीत कुछ कम सुरीला लगता
तुम्हारे सम्पन्न घराने में
या बंदिश रचते समय तुम आसानी से पकड़ लेते
किसी सुर को उसके सपनों के साथ............
उस्ताद अब्दुल रशीद ख़ाँ जब 104 बरस के हुए थे, तब लखनऊ के यतीन्द्र मिश्र ने उन पर 'रसन पिया' के नाम से एक लम्बी कविता लिखी थी, जो उनकी संगीत व कलाओं पर निबंधों की पुस्तक 'विस्मय का बखान' में भी शामिल है। उसी कविता की कुछ लाईने हमने उपर प्रस्तुत की।
107 वर्ष की आयु में गत 18 फ़रवरी को शास्त्रीय संगीत के स्तंभ, वयोवृद्ध और पुरोधा गायक उस्ताद
अब्दुल रशीद ख़ाँ साहब का इन्तकाल हो गया। वे उम्र के इस आख़िरी पड़ाव तक बेहद सक्रिय थे संगीत में डूबे हुए और अपने शिष्यों को संगीत सिखा रहे थे। उनकी एक शताब्दी से लम्बी रचनात्मक उपस्थिति की जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी। वे एक बहुत बड़े बंदिशकार भी थे और 'रसन पिया' के नाम से पद लिखते व शास्त्रीय संगीत में ठुमरी और खयाल की शक्ल में गाते थे। ख़ाँ साहब का जन्म संगीतज्ञों के परिवार में हुआ था, उनके पूर्वज बहराम ख़ाँ पारम्परिक ग्वालियर घराना गायकी के गायक थे। अब्दुल रशीद साहब के ताऊ जी (पिता के बड़े भाई) बड़े युसुफ़ ख़ाँ और उनके पिता छोटे युसुफ़ ख़ाँ ने उन्हें संगीत की पहली तालीम दी। उसके बाद उनके परिवार के ही दूसरे बड़े-बुज़ुर्ग़ों नें उनमें ग्वालियर घराने की गायकी को मज़बूत किया। इनमें शामिल थे चाँद ख़ाँ, बरख़ुरदार ख़ाँ और महताब ख़ाँ। लेकिन अब्दुल रशीद ख़ाँ ने आगे चलकर अपना अलग स्टाइल इख़ितियार किया और अपने आप को भीड़ से अलग किया। अपने लम्बे सफ़र में उन्हें असंख्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें पद्मभूषण, संगीत नाटक अकादमी, रस सागर, काशी स्वर-गंगा, ITC, और दिली सरकार द्वारा प्रदत्त Lifetime Achievement पुरस्कार शामिल हैं।
आइए आज ’रसन पिया’ को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं उन्हीं के द्वारा स्वरबद्ध एक शिव रचना से जिसे कोलकाता स्थित ITC- Sangeet Research Academy ने वर्ष 2011 में रेकॉर्ड किया था। गायन में उनका साथ दिया है शुभमय भट्टाचार्य ने, हारमोनियम पर संगत है अनिर्बान दास की, तानपुरे पर शुभमय भट्टाचार्य और पम्पा मुखर्जी तथा तबले पर हैं पंडित समर साहा
बेदी मे बैठी जपे शिउ शंकर।
गौरा की भांवर कौन करावे।
नागिन की फुफकारन से
कि नावन नेग नगीच न आवे।
पंडित थर थर कांप रहे
कि को गठ बंधन गाँठ जुरावे।
’रसन’ बचे जो भुजंगन से
सो कोटिन लक्ष निछावर पावे।
बम-बम बम-बम भोला भोला
जटा धर भभूत रमाए
आए खाए भंग का गोला
पुन्य त्रिशूल गड़े रुनडन माला
खाल बिछाए बाघम्बर की
देहो दरस मोहे अनमोला
आलेख व प्रस्तुति: सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
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