स्वरगोष्ठी – 212 में आज
भारतीय संगीत शैलियों का परिचय : 10 : ठुमरी
‘कौन गली गयो श्याम...’ और ‘आयो कहाँ से घनश्याम...’
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर लघु श्रृंखला ‘भारतीय संगीत शैलियों का परिचय’ की एक और नवीन कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। पाठकों और श्रोताओं के अनुरोध पर आरम्भ की गई इस लघु श्रृंखला के अन्तर्गत हम भारतीय संगीत की उन परम्परागत शैलियों का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जो आज भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे बीच उपस्थित हैं। भारतीय संगीत की एक समृद्ध परम्परा है। वैदिक युग से लेकर वर्तमान तक इस संगीत-धारा में अनेकानेक धाराओं का संयोग हुआ। इनमें से भारतीय संगीत के मौलिक सिद्धान्तों के अनुकूल जो धाराएँ थीं उन्हें स्वीकृति मिली और वह आज भी एक संगीत शैली के रूप स्थापित है और उनका उत्तरोत्तर विकास भी हुआ। विपरीत धाराएँ स्वतः नष्ट भी हो गईं। पिछली पिछली दो कड़ियों में हमने भारतीय संगीत की सर्वाधिक लोकप्रिय ‘ठुमरी’ शैली पर चर्चा की थी। आज के अंक में हम आपको बीसवीं शताब्दी तक महफिलों की प्रचलित ठुमरी का रसास्वादन कराते हैं। आज हम अपने समय की विख्यात गायिका रसूलन बाई की गायी राग जोगिया की ठुमरी प्रस्तुत करेंगे। इसके अलावा पार्श्वगायक मन्ना डे की आवाज़ में राग खमाज की एक फिल्मी ठुमरी भी आप सुनेगे।
उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लखनऊ
में बोलबाँट और बोलबनाव दोनों प्रकार की ठुमरियों का प्रचलन था। 1856 में
अँग्रेजों द्वारा अवध के नवाब वाजिद अली शाह को बन्दी बनाए जाने और उन्हें
तत्कालीन कलकत्ता के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर नज़रबन्द किये जाने के बाद
बंगाल में भी ठुमरी का प्रचार-प्रसार हुआ। उस्ताद अलीबख्श खाँ और उस्ताद
सादिक़ अली खाँ जैसे उच्चकोटि के संगीतज्ञ भी नवाब के साथ लखनऊ से कलकत्ता
जा बसे थे। कुछ समय बाद उस्ताद सादिक़ अली खाँ वापस लखनऊ लौट आए। इसी अवधि
में ग्वालियर के भैया गणपत राव, जो स्वयं ध्रुपद और खयाल के गायक और वीणा
के कुशल वादक थे, ने भी उस्ताद सादिक़ अली खाँ से ठुमरी सीखी। भैया गणपत राव
ने ठुमरी को एक नवीन स्वरूप प्रदान किया। उन्होने तत्कालीन सांगीतिक
परिवेश में विदेशी वाद्य हारमोनियम को ठुमरी से जोड़ कर उल्लेखनीय प्रयोग
किया। अपने लगन और परिश्रम से उन्होने हारमोनियम वादन में उल्लेखनीय दक्षता
प्राप्त की। भैया गणपत राव ठुमरी के प्रभावी गायक ही नहीं बल्कि एक
श्रेष्ठ ठुमरी रचनाकार भी थे। उन्होने ‘सुघरपिया’ उपनाम से अनेक ठुमरियों
की रचनाएँ की थी। पूरब अंग की ठुमरी के इस अंदाज के प्रचार-प्रसार के लिए
उन्होने लखनऊ, बानारस, गया, पटना, कलकत्ता आदि स्थानों का भ्रमण किया और
अनेक शागिर्द तैयार किये। ठुमरी के इस स्वरूप को तत्कालीन राजाओं और नवाबों
के दरबार में समुजित सम्मान मिला। आगे चलकर ब्रिटिश शासन की उपेक्षात्मक
नीति के कारण राज दारबारों से संगीत की परम्परा टूटने लगी तब यह ठुमरी
रईसों की व्यक्तिगत महफिलों में और तवायफ़ों के कोठों पर सुरक्षित रही।
‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक में हम ठुमरी के इसी महफिली स्वरूप का आभास
कराने का प्रयत्न कर रहे हैं।
बीसवीं
शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पूरब अंग की ठुमरी गायिकाओं में विदुषी रसूलन
बाई का नाम शीर्ष पर था। पूरब अंग की उपशास्त्रीय गायकी- ठुमरी, दादरा,
होरी, चैती, कजरी आदि शैलियों की अविस्मरणीय गायिका रसूलन बाई बनारस के
निकट स्थित कछवाँ बाज़ार (वर्तमान मीरजापुर ज़िला) की रहने वाली थीं और उनकी
संगीत शिक्षा बनारस (अब वाराणसी) में हुई थी। संगीत का संस्कार इन्हें अपनी
नानी से विरासत में मिला था। रसूलन बाई के संगीत को निखारने में उस्ताद
आशिक खाँ, नज्जू मियाँ और टप्पा गायकी के अन्वेषक मियाँ शोरी के खानदान के
शम्मू खाँ का बहुत बड़ा योगदान था। पूरब अंग की भावभीनी गायकी की चैनदारी,
बोल-बनाव के लहजे, कहन के खास ढंग और ठहराव, यह सारे गुण रसूलन बाई की
गायकी में था। टप्पा तो जैसे रसूलन बाई के लिए ही बना था। बारीक मुरकियाँ
और मोतियों की लड़ियों जैसी तानों पर उन्हें कमाल हासिल था। उनका पहला
सार्वजनिक प्रदर्शन तत्कालीन धनंजयगढ़ के राज दरबार में हुआ था, जहाँ
उपस्थित राजाओं ने उनकी गायकी को भरपूर सराहा था। इस प्रदर्शन के बाद
उन्हें अनेक राजाओं और जमींदारो की माफ़िलों में आमंत्रित किया जाने लगा।
उपशास्त्रीय संगीत की आजीवन साधनारत रहने वाली इस स्वरसाधिका को खयाल गायन
पर भी कमाल का अधिकार प्राप्त था, परन्तु उन्होने स्वयं को उपशास्त्रीय
शैलियों तक ही सीमित रखा और इन्हीं शैलियों में उन्हें भरपूर यश भी प्राप्त
हुआ। ग्रामोफोन कम्पनी ने रसूलन बाई के अनेक लोकप्रिय रिकार्ड बनाए।
उन्हीं की आवाज में अब आप ठुमरी गायकी का यह अंदाज सुनिए। यह ठुमरी राग
जोगिया और दीपचंदी ताल में निबद्ध है।
ठुमरी राग जोगिया : ‘कौन गली गयो श्याम...’ : रसूलन बाई
कैशिकी दृश्यात्मक गीत भेद होने के कारण ठुमरी गीतों में स्त्रियोचित और
श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यंजना मुख्य रूप से होती है। ऐसे ही भावों की
अभिव्यक्ति के लिए ठुमरी गीतों की शब्द-योजना अधिकतर श्रृंगारपरक होती है।
श्रृंगार के दोनों पक्ष, संयोग और वियोग का चित्रण ठुमरी में पाया जाता है।
भावनाओं की दृष्टि से विभिन्न ठुमरी गीतों में प्रेम, भक्ति, अनुराग,
हर्ष, शोक, मान, उपालम्भ, आशा, निराशा आदि अनेक स्थायी और अस्थायी मनोभावों
की अभिव्यक्ति की जाती है। अधिकतर ठुमरियाँ कृष्णलीला प्रधान रची गई हैं।
कृष्ण, राधा और गोपियों के प्रति ईश्वरीय भाव भी होता है तथा नायक या
नायिका के रूप में लक्ष्य करके लौकिक भाव भी होता है। रसूलन बाई की गायी
उपरोक्त ठुमरी में कृष्ण की बाँसुरी पर मोहित नायिका के वियोग का चित्रण
है। यह भाव ईश्वरीय और मानवीय दोनों चरित्र के प्रति उद्गार हो सकता है। आज
की दूसरी ठुमरी में लक्ष्य तो ‘घनश्याम’ को किया गया है किन्तु यह भी
मानवीय चरित्र के प्रति ही अभिव्यक्ति है। यह भी महफ़िली ठुमरी का एक प्रकार
है और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रचलित ठुमरी गायकी का
प्रतिनिधित्व करती है। 1971 में ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म
‘बुड्ढा मिल गया’ प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म के संगीतकार राहुलदेव बर्मन
थे। राग खमाज और सितारखानी ताल में निबद्ध इस ठुमरी को पार्श्वगायक मन्ना
डे ने अनूठे अंदाज में गाया है। आप यह ठुमरी सुनिए और मुझे आज के इस अंक को
यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।
ठुमरी राग खमाज : ‘आयो कहाँ ते घनश्याम...’ : मन्ना डे : फिल्म – बुड्ढा मिल गया
संगीत पहेली
‘स्वरगोष्ठी’
के 212वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको एक वरिष्ठ गायिका की आवाज़
में कण्ठ संगीत की रचना का एक अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको
निम्नलिखित तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं।
‘स्वरगोष्ठी’ के 220वें अंक की समाप्ति तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक
होंगे, उन्हें इस वर्ष की दूसरी श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया
जाएगा।
1 – संगीत का यह अंश सुन कर बताइए कि यह रचना किस राग में निबद्ध है?
2 – प्रस्तुति के इस अंश में किस ताल का प्रयोग किया गया है? ताल का नाम बताइए।
3 – यह रचना किस शैली में है? हमे उस शैली का नाम बताइए।
आप उपरोक्त तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com
पर इस प्रकार भेजें कि हमें शनिवार, 4 अप्रैल, 2015 की मध्यरात्रि से
पूर्व तक अवश्य प्राप्त हो जाए। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं
होंगे। इस पहेली के विजेताओं के नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 214वें अंक में
प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रकाशित और प्रसारित गीत-संगीत, राग, अथवा
कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच
बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ
के नीचे दिये गए comments के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’
की 210वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको महान गायक उस्ताद बड़े गुलाम
अली खाँ के स्वरों में प्रस्तुत ठुमरी का एक अंश सुनवा कर आपसे तीन में से
किसी दो प्रश्न का उत्तर पूछा गया था। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग
भिन्न षडज, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल कहरवा और तीसरे प्रश्न का
सही उत्तर है- उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ। इस बार पहेली के तीनों प्रश्नों
के सही उत्तर पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया, जबलपुर से क्षिति
तिवारी और हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी ने दिये हैं। तीनों प्रतिभागियों को
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
अपनी बात
मित्रो, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी जारी
श्रृंखला ‘भारतीय संगीत शैलियों का परिचय’ के अन्तर्गत हम ठुमरी गायकी पर
चर्चा कर रहे हैं। आपको यह श्रृंखला कैसी लगी? हमें अवश्य लिखिएगा। अगले
अंक में हम आपका परिचय भारतीय संगीत की एक अन्य शैली से परिचित कराएंगे।
यदि आप भी भारतीय संगीत के किसी भी विषय पर हिन्दी में लेखन की इच्छा रखते
हैं तो हमसे सम्पर्क करें। हम आपकी प्रतिभा का सदुपयोग करेने। ‘स्वरगोष्ठी’
स्तम्भ के आगामी अंकों में आप क्या पढ़ना और सुनना चाहते हैं, हमे आविलम्ब
लिखें। अपनी पसन्द के विषय और गीत-संगीत की फरमाइश अथवा अगली श्रृंखलाओं के
लिए आप किसी नए विषय का सुझाव भी दे सकते हैं। आज बस इतना ही, अगले रविवार
को एक नए अंक के साथ प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर आप सभी
संगीतानुरागियों का हम स्वागत करेंगे।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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