स्वरगोष्ठी – 211 में आज
भारतीय संगीत शैलियों का परिचय : 9 : ठुमरी 
‘छोड़ो छोड़ो कन्हाई नारी देखे सगरी...’ 
 ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक 
स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर लघु श्रृंखला ‘भारतीय संगीत शैलियों का 
परिचय’ की एक और नवीन कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब 
संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। पाठकों और श्रोताओं के अनुरोध
 पर आरम्भ की गई इस लघु श्रृंखला के अन्तर्गत हम भारतीय संगीत की उन 
परम्परागत शैलियों का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जो आज भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी 
हमारे बीच उपस्थित हैं। भारतीय संगीत की एक समृद्ध परम्परा है। वैदिक युग 
से लेकर वर्तमान तक इस संगीत-धारा में अनेकानेक धाराओं का संयोग हुआ। इनमें
 से भारतीय संगीत के मौलिक सिद्धान्तों के अनुकूल जो धाराएँ थीं उन्हें 
स्वीकृति मिली और वह आज भी एक संगीत शैली के रूप स्थापित है और उनका 
उत्तरोत्तर विकास भी हुआ। विपरीत धाराएँ स्वतः नष्ट भी हो गईं। पिछली कड़ी 
से हमने भारतीय संगीत की सर्वाधिक लोकप्रिय ‘ठुमरी’ शैली पर चर्चा शुरू की 
थी। इस शैली के अन्तर्गत पूरब अंग की ‘बोलबनाव’ और ‘बोलबाँट’ ठुमरियों के 
सोदाहरण परिचय प्रस्तुत किये थे। आज के अंक से हम ठुमरी के पंजाब अंग और 
कथक नृत्य में प्रयोग की जाने वाली ठुमरियों पर चर्चा करेंगे और उस्ताद बड़े
 गुलाम अली खाँ और पण्डित बिरजू महाराज की आवाज़ में दो ठुमरियाँ प्रस्तुत 
करेंगे।
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक 
स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर लघु श्रृंखला ‘भारतीय संगीत शैलियों का 
परिचय’ की एक और नवीन कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब 
संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। पाठकों और श्रोताओं के अनुरोध
 पर आरम्भ की गई इस लघु श्रृंखला के अन्तर्गत हम भारतीय संगीत की उन 
परम्परागत शैलियों का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जो आज भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी 
हमारे बीच उपस्थित हैं। भारतीय संगीत की एक समृद्ध परम्परा है। वैदिक युग 
से लेकर वर्तमान तक इस संगीत-धारा में अनेकानेक धाराओं का संयोग हुआ। इनमें
 से भारतीय संगीत के मौलिक सिद्धान्तों के अनुकूल जो धाराएँ थीं उन्हें 
स्वीकृति मिली और वह आज भी एक संगीत शैली के रूप स्थापित है और उनका 
उत्तरोत्तर विकास भी हुआ। विपरीत धाराएँ स्वतः नष्ट भी हो गईं। पिछली कड़ी 
से हमने भारतीय संगीत की सर्वाधिक लोकप्रिय ‘ठुमरी’ शैली पर चर्चा शुरू की 
थी। इस शैली के अन्तर्गत पूरब अंग की ‘बोलबनाव’ और ‘बोलबाँट’ ठुमरियों के 
सोदाहरण परिचय प्रस्तुत किये थे। आज के अंक से हम ठुमरी के पंजाब अंग और 
कथक नृत्य में प्रयोग की जाने वाली ठुमरियों पर चर्चा करेंगे और उस्ताद बड़े
 गुलाम अली खाँ और पण्डित बिरजू महाराज की आवाज़ में दो ठुमरियाँ प्रस्तुत 
करेंगे।  उत्तर भारतीय संगीत में बोलबाँट की 
‘पछाहीं ठुमरी’ और बोलबनाव की ‘पूरबी ठुमरी’ के बारे में पिछले अंक में हम 
चर्चा कर चुके हैं। इन दोनों शैलियों के अलावा ‘पंजाब अंग’ की ठुमरी भी आज 
लोकप्रिय है। विद्वानों का मत है की पंजाब में ठुमरी गायन की परम्परा 
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में आरंभ हुई थी। सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ 
पण्डित दिलीपचन्द्र बेदी के मतानुसार पंजाबी शैली की ठुमरी का आरम्भ कसूर, 
पटियाला के सुप्रसिद्ध गायक अली बख्श खाँ द्वारा किया गया था। उन्हें ठुमरी
 का ज्ञान लखनऊ कथक घराने के संस्थापक महाराज बिन्दादीन, उनके भाई महाराज 
कालिका प्रसाद और ठाकुर नवाब अली खाँ के माध्यम से हुआ। बाद में ‘पंजाब 
अंग’ की ठुमरी को प्रतिष्ठित करने वालों में गायक अली बख्श खाँ के दोनों 
सुपुत्रों, उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और उस्ताद बरकत अली खाँ का नाम विशेष 
रूप से उल्लेखनीय है। उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ को पंजाब अंग की ठुमरी गान 
शैली का आधार स्तम्भ माना जाता है। एक साक्षात्कार में उन्होने स्वयं 
स्वीकार किया है कि ‘पंजाब अंग’ की ठुमरी ‘पूरब अंग’ की ठुमरियों के आधार 
पर ही विकसित हुई है। खाँ साहब के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध
 में पंजाब के गवैयों ने ‘पूरब अंग’ की ठुमरियों को गाना शुरू किया था। आगे
 चल कर उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और उनके भाई उस्ताद बरकत अली खाँ ने पंजाब
 के लोकधुनों का रंग और टप्पा शैली की छोटी-छोटी तानों के प्रयोग से ठुमरी 
के सजाया और द्रुत लय को महत्व दिया। ठीक उसी प्रकार जैसे बनारस पहुँच कर 
ठुमरी में पूर्वाञ्चल की लोकगायकी, कजरी, चैती आदि का रंग मिश्रित हुआ और 
यहाँ अधिकतर ठुमरी मध्य लय में गायी जाने लगी। पंजाब अंग की ठुमरियों के 
सिद्ध गायक उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ की आवाज़ में अब हम आपके लिए इस शैली 
का एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यह राग भिन्न षडज और कहरवा ताल में बँधी
 ठुमरी है, जिसके बोल हैं, ‘याद पिया की आए...’।
उत्तर भारतीय संगीत में बोलबाँट की 
‘पछाहीं ठुमरी’ और बोलबनाव की ‘पूरबी ठुमरी’ के बारे में पिछले अंक में हम 
चर्चा कर चुके हैं। इन दोनों शैलियों के अलावा ‘पंजाब अंग’ की ठुमरी भी आज 
लोकप्रिय है। विद्वानों का मत है की पंजाब में ठुमरी गायन की परम्परा 
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में आरंभ हुई थी। सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ 
पण्डित दिलीपचन्द्र बेदी के मतानुसार पंजाबी शैली की ठुमरी का आरम्भ कसूर, 
पटियाला के सुप्रसिद्ध गायक अली बख्श खाँ द्वारा किया गया था। उन्हें ठुमरी
 का ज्ञान लखनऊ कथक घराने के संस्थापक महाराज बिन्दादीन, उनके भाई महाराज 
कालिका प्रसाद और ठाकुर नवाब अली खाँ के माध्यम से हुआ। बाद में ‘पंजाब 
अंग’ की ठुमरी को प्रतिष्ठित करने वालों में गायक अली बख्श खाँ के दोनों 
सुपुत्रों, उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और उस्ताद बरकत अली खाँ का नाम विशेष 
रूप से उल्लेखनीय है। उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ को पंजाब अंग की ठुमरी गान 
शैली का आधार स्तम्भ माना जाता है। एक साक्षात्कार में उन्होने स्वयं 
स्वीकार किया है कि ‘पंजाब अंग’ की ठुमरी ‘पूरब अंग’ की ठुमरियों के आधार 
पर ही विकसित हुई है। खाँ साहब के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध
 में पंजाब के गवैयों ने ‘पूरब अंग’ की ठुमरियों को गाना शुरू किया था। आगे
 चल कर उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और उनके भाई उस्ताद बरकत अली खाँ ने पंजाब
 के लोकधुनों का रंग और टप्पा शैली की छोटी-छोटी तानों के प्रयोग से ठुमरी 
के सजाया और द्रुत लय को महत्व दिया। ठीक उसी प्रकार जैसे बनारस पहुँच कर 
ठुमरी में पूर्वाञ्चल की लोकगायकी, कजरी, चैती आदि का रंग मिश्रित हुआ और 
यहाँ अधिकतर ठुमरी मध्य लय में गायी जाने लगी। पंजाब अंग की ठुमरियों के 
सिद्ध गायक उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ की आवाज़ में अब हम आपके लिए इस शैली 
का एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यह राग भिन्न षडज और कहरवा ताल में बँधी
 ठुमरी है, जिसके बोल हैं, ‘याद पिया की आए...’। 
ठुमरी पंजाब अंग : ‘याद पिया की आए...’ : उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ
 
 ‘स्वरगोष्ठी’ के पिछले अंक में हम यह 
चर्चा कर चुके हैं कि एक शैली के रूप में ठुमरी का विकास अवध के नवाब वाजिद
 अली शाह के दरबार में हुआ था। नवाब संगीत और नृत्य के प्रेमी और संरक्षक 
ही नहीं बल्कि रचनाकार भी थे। ‘अख्तरपिया’ के उपनाम से उनकी ठुमरियाँ आज भी
 गायी जाती हैं। उन्हीं के दरबार में प्रसिद्ध गवैये उस्ताद सादिक़ अली खाँ 
और लखनऊ कथक घराने के संस्थापक महाराज बिन्दादीन को बहुत मान-सम्मान 
प्राप्त था। प्रयोग के आधार पर नवाब के दरबार में ही ठुमरी के दो प्रकार, 
‘गानप्रधान’ और ‘नृत्यप्रधान’ ठुमरियों का विकास हुआ था। महाराज बिन्दादीन 
‘नृत्यप्रधान’ ठुमरियों के प्रमुख स्तम्भ थे। नृत्य में बोलबाँट की 
ठुमरियों का प्रयोग किया जाता था। इन ठुमरियों पर नर्तक या नृत्यांगना 
द्वारा दो प्रकार से भावाभिव्यक्ति की जाती है। अधिकतर ठुमरियों में नर्तक 
या नृत्यांगना खड़े होकर पूरे आंगिक अभिनय के साथ नृत्य कराते हैं, जबकि बैठ
 कर अभिनयात्मक हावभाव के साथ ठुमरी प्रस्तुत करते हैं। दूसरे प्रकार की 
ठुमरी को ‘बैठकी की ठुमरी’ कहा जाता है। ऐसी ठुमरियों के प्रदर्शन में 
पण्डित शम्भू महाराज अद्वितीय थे। नृत्यप्रधान ठुमरियों में अधिकतर 
राधा-कृष्ण की लीलाओं का चित्रण होता है। इनमे भक्ति और श्रृंगार का भाव 
प्रबल होता है। इस प्रकार की ठुमरियों के उदाहरण के लिए अब हम प्रस्तुत कर 
रहे हैं, महाराज बिन्दादीन रचित, छेदछाड़ से युक्त लोकप्रिय ठुमरी। इस ठुमरी
 को लखनऊ कथक घराने के संवाहक और आधुनिक कथक के शीर्षस्थ कलासाधक पण्डित 
बिरजू महाराज ने स्वर दिया है। आप इस नृत्यप्रधान ठुमरी की रसानुभूति कीजिए
 और हमे इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।
‘स्वरगोष्ठी’ के पिछले अंक में हम यह 
चर्चा कर चुके हैं कि एक शैली के रूप में ठुमरी का विकास अवध के नवाब वाजिद
 अली शाह के दरबार में हुआ था। नवाब संगीत और नृत्य के प्रेमी और संरक्षक 
ही नहीं बल्कि रचनाकार भी थे। ‘अख्तरपिया’ के उपनाम से उनकी ठुमरियाँ आज भी
 गायी जाती हैं। उन्हीं के दरबार में प्रसिद्ध गवैये उस्ताद सादिक़ अली खाँ 
और लखनऊ कथक घराने के संस्थापक महाराज बिन्दादीन को बहुत मान-सम्मान 
प्राप्त था। प्रयोग के आधार पर नवाब के दरबार में ही ठुमरी के दो प्रकार, 
‘गानप्रधान’ और ‘नृत्यप्रधान’ ठुमरियों का विकास हुआ था। महाराज बिन्दादीन 
‘नृत्यप्रधान’ ठुमरियों के प्रमुख स्तम्भ थे। नृत्य में बोलबाँट की 
ठुमरियों का प्रयोग किया जाता था। इन ठुमरियों पर नर्तक या नृत्यांगना 
द्वारा दो प्रकार से भावाभिव्यक्ति की जाती है। अधिकतर ठुमरियों में नर्तक 
या नृत्यांगना खड़े होकर पूरे आंगिक अभिनय के साथ नृत्य कराते हैं, जबकि बैठ
 कर अभिनयात्मक हावभाव के साथ ठुमरी प्रस्तुत करते हैं। दूसरे प्रकार की 
ठुमरी को ‘बैठकी की ठुमरी’ कहा जाता है। ऐसी ठुमरियों के प्रदर्शन में 
पण्डित शम्भू महाराज अद्वितीय थे। नृत्यप्रधान ठुमरियों में अधिकतर 
राधा-कृष्ण की लीलाओं का चित्रण होता है। इनमे भक्ति और श्रृंगार का भाव 
प्रबल होता है। इस प्रकार की ठुमरियों के उदाहरण के लिए अब हम प्रस्तुत कर 
रहे हैं, महाराज बिन्दादीन रचित, छेदछाड़ से युक्त लोकप्रिय ठुमरी। इस ठुमरी
 को लखनऊ कथक घराने के संवाहक और आधुनिक कथक के शीर्षस्थ कलासाधक पण्डित 
बिरजू महाराज ने स्वर दिया है। आप इस नृत्यप्रधान ठुमरी की रसानुभूति कीजिए
 और हमे इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए। 
नृत्यप्रधान ठुमरी : ‘छोड़ो छोड़ो कन्हाई नारी देखे सागरी...’ : पण्डित बिरजू महाराज 
 
संगीत पहेली 
 
‘स्वरगोष्ठी’
 के 211वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको पुरानी ठुमरी गायन शैली के 
उदाहरण का एक अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको निम्नलिखित दो प्रश्नों 
के उत्तर देने हैं। पहेली क्रमांक 220 के सम्पन्न होने तक जिस प्रतिभागी के
 सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष की दूसरी श्रृंखला (सेगमेंट) का 
विजेता घोषित किया जाएगा। 
1 – गीत के इस अंश में किस राग का आभास हो रहा है? राग का नाम बताइए। 
2 – प्रस्तुत रचना किस ताल में निबद्ध है? ताल का नाम बताइए। 
आप इन प्रश्नों के उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com
 पर ही शनिवार, 28 मार्च, 2015 की मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। COMMENTS 
में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 
213वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत किये गए गीत-संगीत, 
राग अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम
 सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस मंच पर स्वागत करते हैं। आप 
पृष्ठ के नीचे दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। 
पिछली पहेली के विजेता  
‘स्वरगोष्ठी’
 की 209वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको विदुषी गिरिजा देवी के स्वरों
 में प्रस्तुत की गई ठुमरी का एक अंश सुनवा कर आपसे तीन में से किन्हीं दो 
प्रश्नों के उत्तर पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- गायिका विदुषी 
गिरिजा देवी, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- राग भैरवी और तीसरे प्रश्न का 
सही उत्तर है- ताल दीपचन्दी। इस बार की पहेली में पूछे गए प्रश्नो के सही 
उत्तर जबलपुर से क्षिति तिवारी, हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी और 
पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों 
को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई। 
अपनी बात 
 
मित्रो,
 ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर इन 
दिनों हमारी लघु श्रृंखला ‘भारतीय संगीत शैलियों का परिचय’ जारी है। 
श्रृंखला के आज के अंक से हमने आपसे ठुमरी के पंजाब अंग और कथक नृत्य में 
भाव-प्रदर्शन के लिए प्रयोग की जाने वाली ठुमरी गीतों पर चर्चा की। इस 
श्रृंखला में आप भी योगदान कर सकते हैं। भारतीय संगीत की किसी शैली पर अपना
 परिचयात्मक आलेख अपने नाम और परिचय के साथ हमारे ई-मेल पते पर भेज दें। आप
 अपनी फरमाइश या अपनी पसन्द का आडियो क्लिप भी हमें भेज सकते हैं। अगले 
रविवार को प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के नये अंक के साथ हम उपस्थित होंगे। 
अगले अंक भी हमें आपकी प्रतीक्षा रहेगी। 
प्रस्तुति :कृष्णमोहन मिश्र 
  
 
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