एक गीत सौ कहानियाँ - 50
‘महबूबा महबूबा, गुलशन में गुल खिलते हैं!’
15 अगस्त 1975 के दिन प्रदर्शित हुई फ़िल्म 'शोले' हिन्दी सिनेमा के इतिहास का एक सुनहरा पन्ना है। 1999 में BBC ने 'शोले' को 'Film of the Millenium' की उपाधि दी तो शेखर कपूर ने कहा - “There has never been a more defining film on the Indian screen. Indian film history can be divided into Sholay BC and Sholay AD." अनुपमा चोपड़ा ने अपनी किताब 'Sholay: The Making of a Classic' में इस फ़िल्म को हिन्दी सिनेमा का सुनहरा स्तर कहा है। एक तरफ़ तो 'शोले' को अपार लोकप्रियता और मकबूलियत हासिल हुई, और दूसरी तरफ़ उस वर्ष फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में 'शोले' कुछ ख़ास कमाल नहीं दिखा सकी। इस फ़िल्म को केवल एक पुरस्कार मिला 'बेस्ट एडिटिंग' का। आश्चर्य की बात है, क्यों? 'शोले' एक ऐसी फ़िल्म थी जिसकी सफलता के लिए उसे अपने गीत-संगीत पर निर्भर नहीं रहना पड़ा। दूसरे शब्दों में 'शोले' के गाने अच्छे तो थे पर इतने भी अच्छे नहीं कि जो फ़िल्म की कामयाबी को निश्चित कर सके। वैसे इस फ़िल्म के गानें कामयाब ज़रूर हुए। फ़िल्म का होली गीत "होली के दिन दिल खिल जाते हैं..." आज भी होली पर रेडियो के विशेष कार्यक्रमों में सुनाई दे जाता है। "कोई हसीना जब रूठ जाती है तो..." और "जब तक है जान जाने जहान मैं नाचूंगी..." की भी अपनी जगह है रसिकों के दिलों में। दोस्ती पर बनने वाले गीतों में "ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे..." गीत की ख़ास जगह है। कहा जाता है कि इस गीत को शूट करने में 21 दिन लग गए थे। और पाँचवाँ गीत है "महबूबा महबूबा, गुलशन में गुल खिलते है..." की तो बात ही क्या है! अपनी तरह का इकलौता गीत; फिर इसके बाद कोई भी गीत इस तरह का नहीं बन पाया। आज के दौर के आइटम गीत बनाने वालों को "महबूबा महबूबा" से सबक लेनी चाहिए कि आइटम गीत होता क्या है! मेरे ख़याल से फ़िल्म संगीत इतिहास के श्रेष्ठ आइटम गीतों में से एक है "महबूबा महबूबा"।
"महबूबा महबूबा" के बनने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। शुरू शुरू में इस गीत को गाने के लिए किशोर की आवाज़ तय हुई थी, पर किस तरह से यह गीत पंचम की झोली में आ गई, यही एक दिलचस्प कहानी है बताने लायक। हुआ यूँ कि एक बार राहुल देव बर्मन के मामा श्री निर्मल कुमार दासगुप्ता अपनी बहन यानी राहुल देव बर्मन की माँ मीरा देव बर्मन से मिलने मुम्बई आये हुए थे। पंचम और उनके मामा के बीच में बहुत प्यार था; पंचम अपने मामाजी को मोनी दादू कह कर बुलाते थे तो मामाजी अपने भांजे को टुबलू बुलाया करते। तो निर्मल जी मार्च 1975 को बम्बई अपनी बहन मीरा जी से मिलने आए। उन दिनों 'शोले' के गीतों की रेकॉर्डिंग चल रही थी। तो एक दिन शाम को 'शोले' के संगीतकार पंचम एक गीत का स्क्रैच रेकॉर्ड करके घर पहुँचे और उस स्क्रैच को अपने मामाजी को सुनवाने के लिए व्याकुल थे। माँ से पता चला कि मामाजी उपर छत पर चाय पी रहे हैं। तो पंचम सारा ताम-झाम लेकर छत पर ही पहुँच गए और अपने मोनी दादू को वह स्क्रैच सुनवाया। वह स्क्रैच था "महबूबा महबूबा" गाने का। स्क्रैच उस ज़माने में कोई भी डबिंग आर्टिस्ट या संगीतकार ही गा दिया करता था, मुख्य गायक-गायिका को इसके लिए नहीं बुलाते थे। इसलिए किशोर कुमार की आवाज़ में रेकॉर्ड होने वाले इस गीत का स्क्रैच पंचम ख़ुद अपनी आवाज़ में रेकॉर्ड कर लाए थे। पंचम के मामाजी ने जैसे ही यह स्क्रैच सुना तो तुरन्त अपने भांजे से कहा कि अरे, यह तो तुम्हारी आवाज़ में भी बहुत अच्छा लग रहा है, इसे किशोर कुमार से गवाने की क्या ज़रूरत है? पंचम ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया था, वो तो अपने मामाजी को सिर्फ़ गीत की कम्पोज़िशन सुनवाना चाहते थे। इसलिए वो हँस पड़े और मामाजी की बात को टाल दिया। बात वहीं पर ख़त्म हो गई। फिर कुछ दिनों बाद गीत की फ़ाइनल रेकॉर्डिंग की बारी आई। पर किशोर कुमार किसी वजह से स्टुडियो नहीं पहुँच सके। सारा इन्तज़ाम हो चुका था, म्युज़िशियन्स आ चुके थे, रेकॉर्डिंग रद्द करने का मतलब माली नुकसान था। तो उस दिन भी किशोर कुमार का इन्तज़ार करते हुए पंचम साज़िन्दों को लेकर यह गीत खुद ही गा गए। उनकी आवाज़ में इस गीत को सुनते ही रमेश सिप्पी उछल पड़े। कहने लगे कि अब यह गीत आप ही गाओगे! यह फ़िल्म के किसी नायक पर नहीं फ़िल्माया जा रहा, इसलिए ज़रूरी नहीं कि इसे किशोर से गवाया जाये; क्योंकि यह जलाल आग़ा पर फ़िल्माया जाना है और आपकी आवाज़ में बड़ा ही असरदार लग रहा है, इसलिए इसे अब आप ही गाओगे। अपने मामाजी की बात भी पंचम को याद आ गई, और सबकी सहमति पर पंचम ने अपनी ही आवाज़ में यह गीत रेकॉर्ड करवाया। बाद में जब किशोर कुमार ने यह गीत सुना तो उन्होंने भी यह स्वीकार किया कि इस तरह से तो वो भी नहीं गा पाते इस गीत को, और उनका उस दिन रेकॉर्डिंग पर ना पहुँचना ही इस गीत के लिए बेहतर सिद्ध हुआ।
राहुल देव बर्मन और संतूर सम्राट पंडित शिव कुमार शर्मा के बीच गहरी दोस्ती थी। पंडित जी ने पंचम के कई गीतों में संतूर बजाए हैं, और 'शोले' का यह गीत भी उन्हीं में से एक है। पर इस गीत में वाद्य भारतीय संतूर नहीं बल्कि इरानी संतूर था। इस बारे में विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम में एक बार पंडित जी ने विस्तार से बताया था, उन्हीं के वो शब्द यहाँ उद्धृत कर रहे हैं - "अभी पंचम का जब ज़िक्र कर रहे हैं हम लोग, तो जैसा कहते हैं न बहुत जिद्दत की बात सोचते रहते थे वो; कुछ ऐसी बात कि इस बात में से नया क्या निकाले। तो उसी की मैं आपको एक मिसाल बताऊँगा कि फ़िल्म बन रही थी 'शोले'। उसमें वो म्युज़िक दे रहे थे। और एक, जैसा मैंने कहा, जिद्दत कुछ न कुछ करते रहते थे, तो अपने गाने में भी कुछ आवाज़ ऐसी बनाते थे कि अलग अंदाज़ का एक गाना, एक अलग स्टाइल क्रिएट किया। "महबूबा महबूबा" में उन्होंने ईरानी संतूर इस्तेमाल किया। ईरानी संतूर हमारे संतूर से टोनल क्वालिटी में अलग है, शेप भी अलग है, सिस्टम वही है, और यह मेरे पास कैसे आया कि 1969 में मैं इरान गया था 'शिराज़ फ़ेस्टिवल' में बजाने के लिए। इन्टरनैशनल फ़ेस्टिवल हुआ था वहाँ तो वहाँ की सरकार ने मुझे एक गिफ़्ट दिया था। तो पंचम ने क्या किया कि इरानी संतूर को, अब सोचिए कि यह ईलेक्ट्रॉनिक म्युज़िक तो आज हुआ है, 'शोले' कभी की आई थी, राजकमल स्टुडियो में उन्होंने अपनी तरह से एक एक्स्पेरीमेण्ट करके उसकी टोन में कुछ बदलाव किया और एक अलग अंदाज़ का टोन बनाया जो उस गाने के मूड को सूट करे। बड़ा ही प्रॉमिनेण्ट पीस था जो गीत में कई बार सुनने को मिलता है, मुखड़े के दो बार "महबूबा महबूबा" के बीच में यह पीस है और अन्य कई जगहों पर भी है।"
और अब एक और महत्वपूर्ण बात। "महबूबा महबूबा" की धुन पंचम की रचना नहीं है। यह धुन प्रेरित है ग्रीक गायक डेमिस रुसोस के गीत "say you love me" की धुन से। यह गीत जारी हुआ था साल 1974 में, यानी कि 'शोले' के ठीक एक साल पहले। पर मज़े की बात तो यह है कि डेमिस रुसोस की भी यह मूल रचना नहीं है। रुसोस भी प्रेरित हुए थे एक अन्य गीत से। वह गीत था ग्रीक गायक मिकैलिस विओलरिस का गाया "ta rialia" जो बना था साल 1973 में। इस तरह से 1973 में "ta rialia", 1974 में "say you love me" और 1975 में "महबूबा महबूबा" एक ही धुन पर बना और तीनों ही गाने बेहद कामयाब रहे। तो दोस्तों, 'शोले' फ़िल्म से जुड़ी न जाने कितनी कहानियाँ है, न जाने कितने क़िस्से हैं, रेकॉर्ड्स हैं, इतिहास है, पर "महबूबा महबूबा" गीत की दास्तान बस इतनी सी ही है, और अब आप वही चर्चित गीत सुनिए।
"महबूबा महबूबा" के बनने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। शुरू शुरू में इस गीत को गाने के लिए किशोर की आवाज़ तय हुई थी, पर किस तरह से यह गीत पंचम की झोली में आ गई, यही एक दिलचस्प कहानी है बताने लायक। हुआ यूँ कि एक बार राहुल देव बर्मन के मामा श्री निर्मल कुमार दासगुप्ता अपनी बहन यानी राहुल देव बर्मन की माँ मीरा देव बर्मन से मिलने मुम्बई आये हुए थे। पंचम और उनके मामा के बीच में बहुत प्यार था; पंचम अपने मामाजी को मोनी दादू कह कर बुलाते थे तो मामाजी अपने भांजे को टुबलू बुलाया करते। तो निर्मल जी मार्च 1975 को बम्बई अपनी बहन मीरा जी से मिलने आए। उन दिनों 'शोले' के गीतों की रेकॉर्डिंग चल रही थी। तो एक दिन शाम को 'शोले' के संगीतकार पंचम एक गीत का स्क्रैच रेकॉर्ड करके घर पहुँचे और उस स्क्रैच को अपने मामाजी को सुनवाने के लिए व्याकुल थे। माँ से पता चला कि मामाजी उपर छत पर चाय पी रहे हैं। तो पंचम सारा ताम-झाम लेकर छत पर ही पहुँच गए और अपने मोनी दादू को वह स्क्रैच सुनवाया। वह स्क्रैच था "महबूबा महबूबा" गाने का। स्क्रैच उस ज़माने में कोई भी डबिंग आर्टिस्ट या संगीतकार ही गा दिया करता था, मुख्य गायक-गायिका को इसके लिए नहीं बुलाते थे। इसलिए किशोर कुमार की आवाज़ में रेकॉर्ड होने वाले इस गीत का स्क्रैच पंचम ख़ुद अपनी आवाज़ में रेकॉर्ड कर लाए थे। पंचम के मामाजी ने जैसे ही यह स्क्रैच सुना तो तुरन्त अपने भांजे से कहा कि अरे, यह तो तुम्हारी आवाज़ में भी बहुत अच्छा लग रहा है, इसे किशोर कुमार से गवाने की क्या ज़रूरत है? पंचम ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया था, वो तो अपने मामाजी को सिर्फ़ गीत की कम्पोज़िशन सुनवाना चाहते थे। इसलिए वो हँस पड़े और मामाजी की बात को टाल दिया। बात वहीं पर ख़त्म हो गई। फिर कुछ दिनों बाद गीत की फ़ाइनल रेकॉर्डिंग की बारी आई। पर किशोर कुमार किसी वजह से स्टुडियो नहीं पहुँच सके। सारा इन्तज़ाम हो चुका था, म्युज़िशियन्स आ चुके थे, रेकॉर्डिंग रद्द करने का मतलब माली नुकसान था। तो उस दिन भी किशोर कुमार का इन्तज़ार करते हुए पंचम साज़िन्दों को लेकर यह गीत खुद ही गा गए। उनकी आवाज़ में इस गीत को सुनते ही रमेश सिप्पी उछल पड़े। कहने लगे कि अब यह गीत आप ही गाओगे! यह फ़िल्म के किसी नायक पर नहीं फ़िल्माया जा रहा, इसलिए ज़रूरी नहीं कि इसे किशोर से गवाया जाये; क्योंकि यह जलाल आग़ा पर फ़िल्माया जाना है और आपकी आवाज़ में बड़ा ही असरदार लग रहा है, इसलिए इसे अब आप ही गाओगे। अपने मामाजी की बात भी पंचम को याद आ गई, और सबकी सहमति पर पंचम ने अपनी ही आवाज़ में यह गीत रेकॉर्ड करवाया। बाद में जब किशोर कुमार ने यह गीत सुना तो उन्होंने भी यह स्वीकार किया कि इस तरह से तो वो भी नहीं गा पाते इस गीत को, और उनका उस दिन रेकॉर्डिंग पर ना पहुँचना ही इस गीत के लिए बेहतर सिद्ध हुआ।
राहुल देव बर्मन और संतूर सम्राट पंडित शिव कुमार शर्मा के बीच गहरी दोस्ती थी। पंडित जी ने पंचम के कई गीतों में संतूर बजाए हैं, और 'शोले' का यह गीत भी उन्हीं में से एक है। पर इस गीत में वाद्य भारतीय संतूर नहीं बल्कि इरानी संतूर था। इस बारे में विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम में एक बार पंडित जी ने विस्तार से बताया था, उन्हीं के वो शब्द यहाँ उद्धृत कर रहे हैं - "अभी पंचम का जब ज़िक्र कर रहे हैं हम लोग, तो जैसा कहते हैं न बहुत जिद्दत की बात सोचते रहते थे वो; कुछ ऐसी बात कि इस बात में से नया क्या निकाले। तो उसी की मैं आपको एक मिसाल बताऊँगा कि फ़िल्म बन रही थी 'शोले'। उसमें वो म्युज़िक दे रहे थे। और एक, जैसा मैंने कहा, जिद्दत कुछ न कुछ करते रहते थे, तो अपने गाने में भी कुछ आवाज़ ऐसी बनाते थे कि अलग अंदाज़ का एक गाना, एक अलग स्टाइल क्रिएट किया। "महबूबा महबूबा" में उन्होंने ईरानी संतूर इस्तेमाल किया। ईरानी संतूर हमारे संतूर से टोनल क्वालिटी में अलग है, शेप भी अलग है, सिस्टम वही है, और यह मेरे पास कैसे आया कि 1969 में मैं इरान गया था 'शिराज़ फ़ेस्टिवल' में बजाने के लिए। इन्टरनैशनल फ़ेस्टिवल हुआ था वहाँ तो वहाँ की सरकार ने मुझे एक गिफ़्ट दिया था। तो पंचम ने क्या किया कि इरानी संतूर को, अब सोचिए कि यह ईलेक्ट्रॉनिक म्युज़िक तो आज हुआ है, 'शोले' कभी की आई थी, राजकमल स्टुडियो में उन्होंने अपनी तरह से एक एक्स्पेरीमेण्ट करके उसकी टोन में कुछ बदलाव किया और एक अलग अंदाज़ का टोन बनाया जो उस गाने के मूड को सूट करे। बड़ा ही प्रॉमिनेण्ट पीस था जो गीत में कई बार सुनने को मिलता है, मुखड़े के दो बार "महबूबा महबूबा" के बीच में यह पीस है और अन्य कई जगहों पर भी है।"
और अब एक और महत्वपूर्ण बात। "महबूबा महबूबा" की धुन पंचम की रचना नहीं है। यह धुन प्रेरित है ग्रीक गायक डेमिस रुसोस के गीत "say you love me" की धुन से। यह गीत जारी हुआ था साल 1974 में, यानी कि 'शोले' के ठीक एक साल पहले। पर मज़े की बात तो यह है कि डेमिस रुसोस की भी यह मूल रचना नहीं है। रुसोस भी प्रेरित हुए थे एक अन्य गीत से। वह गीत था ग्रीक गायक मिकैलिस विओलरिस का गाया "ta rialia" जो बना था साल 1973 में। इस तरह से 1973 में "ta rialia", 1974 में "say you love me" और 1975 में "महबूबा महबूबा" एक ही धुन पर बना और तीनों ही गाने बेहद कामयाब रहे। तो दोस्तों, 'शोले' फ़िल्म से जुड़ी न जाने कितनी कहानियाँ है, न जाने कितने क़िस्से हैं, रेकॉर्ड्स हैं, इतिहास है, पर "महबूबा महबूबा" गीत की दास्तान बस इतनी सी ही है, और अब आप वही चर्चित गीत सुनिए।
फिल्म शोले : 'महबूबा महबूबा गुलशन में गुल खिलते हैं...' : गायक और संगीतकार - राहुल देव बर्मन
खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र
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