Skip to main content

क्या क्या कहूँ रे कान्हा...पी सुशीला और रमेश नायडू ने रचा ये दुर्लभ गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 415/2010/115

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं गुज़रे ज़माने के कुछ भूले बिसरे नग़में 'दुर्लभ दस' लघु शृंखला के अन्तर्गत। कल इसमें हमने आपको सुनवाया था दक्षिण की सुप्रसिद्ध गायिका एस. जानकी की आवाज़ में एक बड़ा ही मीठा सा गीत। जब दक्षिण की गायिकाओं का ज़िक्र आता है, तो एस. जानकी के साथ साथ एक और नाम का ज़िक्र करना आवश्यक हो जाता है। और वो नाम है पी. सुशीला। दक्षिण में तो सुना है कि इन दोनों गायिकाओं के चाहनेवाले बहस में पड़ जाते हैं कि इन दोनों में कौन बेहतर हैं। ठीक वैसे ही जैसे कि हिंदी सिने संगीत जगत में लता और आशा के चाहनेवालों में होती है। तो इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना एस. जानकी के बाद एक गीत पी. सुशीला जी की आवाज़ में भी सुन लिया जाए। पी. सुशीला की आवाज़ में जिस दुर्लभ गीत को हमने खोज निकाला है वह गीत है फ़िल्म 'पिया मिलन' का, जिसके बोल हैं "क्या क्या कहूँ रे कान्हा, तू ने चुराया दिल को"। इस गीत को सुनते हुए आपको दक्षिण भारत की याद ज़रूर आएगी। गीत का संगीत दक्षिणी अंदाज़ में तैयार किया गया है, साज़ भी वहीं के हैं, और इसके लिए श्रेय जाता है संगीतकार रमेश नायडू को। दरअसल यह दक्षिण की ही फ़िल्म थी जो बनी थी सन् १९५८ में और जिसका निर्देशन किया था टी. आर. रघुनाथ ने। फ़िल्म की नायिका थीं वैजयंतीमाला।

दोस्तों, आज हम आपको जानकारी देंगे संगीतकार रमेश नायडू के बारे में। रमेश नायडू का जन्म सन् १९३३ में हुआ था आंध्रप्रदेश के कोंडापल्ली में जो कृष्णा ज़िले में स्थित है। उनका पूरा नाम था पसुपुलेटी रमेश नायडू। उनका मुख्य योगदान ७० और ८० के दशकों के तेलुगू फ़िल्मों में रहा है। उनके रचे संगीत में फ़िल्म 'मेघ संदेशम' को उनकी सर्वोत्तम कृति मानी जाती है जिसके लिए उन्हे १९८३ में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। बहुत ही कम उम्र में वो घर से भाग गए थे और एक साज़ों की दुकान पर सहायक के रूप में काम करने लगे। वहीं पर उन्होने कई साज़ बजाने सीखे और वहीं पर उन्हे हिंदी और मराठी के कई संगीतकारों से मिलने के सुयोग नसीब हुए। केवल १४ वर्ष की उम्र में उन्हे मराठी फ़िल्म 'बंदवल पहिजा' में संगीत देने का मौका मिला। कृष्णावेणी ने उन्हे जिस तेलुगू फ़िल्म में पहला मौका दिलवाया, वह फ़िल्म थी 'दाम्पत्यम'। रमेश नायडू फिर बम्बई चले गए और फिर कलकत्ते का रुख़ किया। एक बंगाली लड़की से विवाह के पश्चात्‍ उन्होने १० साल तक बंगला, नेपाली और ओड़िया फ़िल्मों में संगीत देते रहे और १९७२ में वो लौटे तेलुगू फ़िल्म जगत में फ़िल्म 'अम्मा माता' के साथ। हिंदी फ़िल्म संगीत जगत में रमेश नायडू बहुत ज़्यादा सक्रीय नहीं हो सके। उनके संगीत से सजी हिंदी फ़िल्में हैं - हैमलेट (१९५४), पिया मिलन (१९५८), जय सिंह (१९५९), नर्तकी चित्रा (१९६५), गंगा भवानी (१९७९), आज़ादी की ओर (१९८६), हम भी कुछ कम नहीं (१९९१)। और दोस्तों, आपको यह भी बता दें कि फ़िल्म 'पिया मिलन' में पी. सुशीला के अलावा लता मंगेशकर, उषा मंगेशकर, ओम वर्मा और जगमोहन बक्शी ने भी गानें गाए। लता, उषा और जगमोहन की आवाज़ों में इस फ़िल्म का "ओ साथी रे तू आ भी जा" भी अपने आप में एक दुर्लभ गीत है जिसे हम फिर किसी दिन आपको सुनवाने की कोशिश करेंगे। तो आइए आज इस महफ़िल को महकाया जाए सुरीली गायिका पी. सुशीला की आवाज़ के साथ।



क्या आप जानते हैं...
कि गायिका डॊ. पी. सुशीला एक ट्रस्ट चलाती हैं जिसके ज़रिए वो ना केवल संगीत कलाकारों को पुरस्कृत करती हैं, बल्कि ज़रूरतमंद संगीत के छात्रों को आर्थिक मदद भी देती हैं।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत के संगीतकार वो हैं जो किसी ज़माने में नौशाद साहब के सहायक हुआ करते थे और जिन्हे फ़िल्मी गीतों में मटके का प्रयोग प्रचलित करने का श्रेय दिया जाता है। संगीतकार का नाम बताएँ। २ अंक।

२. गीत के मुखड़े में शब्द है "ठिकाना"। गीत बताइए। ३ अंक।

३. इसी शीर्षक से एक और फ़िल्म भी बनी थी जिसमें लता और किशोर ने ख़य्याम साहब की धुन पर एक बेहद सुरीला युगल गीत गाया था जिसके मुखड़े में "ज़ुल्फ़" शब्द का प्रयोग हुआ है। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।

४. इस गीत की गायिका वो हैं जिन्होने अनवर के साथ मिलकर राज कपूर की एक बेहद कामयाब फ़िल्म में एक गीत गाया था। गायिका का नाम बताएँ। २ अंक।

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम -

शरद जी स्वागत, आपका खाता २ अंकों के साथ खुल गया है, अवध जी १० अंकों पर हैं और पराग जी ३ अंकों पर. बधाई...अवध जी, दों अलग अलग शख्सियतें हैं....दुविधा में मत पडिये

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Comments

नमस्तेजी सभी को.
जनगणना में ऐसे फंसे है न हम तो कि चाह कर भी समय नही दे प रहे.
पर सभी प्रतियोगियों को हमारी ओर से बधाई और शुभकामनायें .
AVADH said…
अगर मैं गलत नहीं हूँ तो संगीतकार होने चाहिए गुलाम मोहम्मद जो नौशाद साहेब के सहायक थे और इसी वजह से उनके इंतकाल के बाद नौशाद साहेब ने पाकीज़ा फिल्म का संगीत पूरा करने में मदद की थी.
अवध लाल
गायिका : सुधा मलहोत्रा
पिछ्ली पहेली में मेरा खाता ३ अंकों से खुलना चाहिए न कि २ से ।
आईये जानें .... क्या हम मन के गुलाम हैं!

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की