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उठाये जा उनके सितम और जीये जा.....जब लता को परखा निर्देशक महबूब खान ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 536/2010/236 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस स्तंभ में। पिछले हफ़्ते से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ', जिसके अंतर्गत हम कुल चार महान फ़िल्मकारों के फ़िल्मी सफ़र की चर्चा कर रहे हैं और साथ ही साथ उनकी फ़िल्मों से चुन कर पाँच पाँच मशहूर गीत सुनवा रहे हैं। इस लघु शृंखला के पहले खण्ड में पिछले हफ़्ते आप वी. शांताराम के बारे में जाना और उनकी फ़िल्मों के गीत सुनें। आज आज से शुरु करते हैं खण्ड-२, और इस खण्ड में चर्चा एक ऐसे फ़िल्मकार की जिन्होंने भी हिंदी सिनेमा को कुछ ऐसी फ़िल्में दी हैं कि जो सिने-इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो चुकी हैं। आप हैं महबूब ख़ान। एक बेहद ग़रीब आर्थिक पार्श्व और कम से कम शिक्षा से शुरु कर महबूब ख़ान इस देश के महानतम फ़िल्मकारों में से एक बन गये, उनके जीवन से आज भी हमें सबक लेना चाहिए कि जहाँ चाह है वहाँ राह है। महबूब ख़ान का जन्म १९०७ में हुआ था गुजरात के बिलिमोरिया जगह में। उनका असली नाम था रमज़ान ख़ान। वो अपने घर से भाग कर बम्बई चले आये थे और फ़िल्म स्टुडियोज़ म

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (१८).....जब अश्विनी कुमार रॉय ने याद किया नौशाद साहब को

नमस्कार! 'ओल इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों, सभी चाहनेवालों का हम फिर एक बार इस साप्ताहिक विशेषांक में हार्दिक स्वागत करते हैं। हफ़्ते दर हफ़्ते हम इस साप्ताहिक स्तंभ में आपके ईमेलों को शामिल करते चले आ रहे हैं। और हम आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं कि आपने हमारे इस नए प्रयास को हाथों हाथ ग्रहण किया और अपने प्यार से नवाज़ा, और इसे सफल बनाया। हमारे वो साथी जो अब तक इस साप्ताहिक स्तम्भ से थोड़े दूर दूर ही रहे हैं, उनसे भी हमारी ग़ुज़ारिश है कि कम से कम एक ईमेल तो हमें करें अपनी यादें हमारे साथ बांटें। और कुछ ना सही तो किसी गीत की ही फ़रमाइश हमें लिख भेजें बस इतना लिखते हुए कि यह गीत आपको क्यों इतना पसंद है। oig@hindyugm.com के पते पर हम आपके ईमेलों का इंतज़ार किया करते हैं। और आइए अब पढ़ें कि आज किन्होंने हमें ईमेल किया है.... ********************************************** महोदय, नमस्कार! वास्तव में पहले से ही मालूम था कि हमारी सभ्यता और संस्कृति सब से महान थी और आज भी है, आने वाले समय में भी इसकी बराबरी शायद ही कोई कर पाए। जो संगीत मैंने बचपन में सुना था वह आज इंटरनेट के म

नसीब अपना अपना

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की मार्मिक सामयिक कहानी " बांधों को तोड़ दो " का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी " नसीब अपना अपना ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "नसीब अपना अपना" का कुल प्रसारण समय 3 मिनट 31 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।। ~ अनुराग शर्मा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी "दफ्तर के साथी शाम को हाइवे पर एक चाय भजिया के ठेले पर बैठ कर अड्डेबाजी करते थे।" ( अनुराग शर्मा की "नसीब अपना अपना" से एक अंश )

आधा है चंद्रमा रात आधी.....पर हम वी शांताराम जैसे हिंदी फिल्म के लौह स्तंभ पर अपनी बात आधी नहीं छोडेंगें

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 535/2010/235 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' - इस लघु शृंखला के पहले खण्ड के अंतिम चरण मे आज हम पहुँच चुके हैं। इस खण्ड में हम बात कर रहे हैं फ़िल्मकार वी. शांताराम की। उनकी फ़िल्मी यात्रा में हम पहुँच चुके थे १९५७ की फ़िल्म 'दो आँखें बारह हाथ' तक। आज बातें उनकी एक और संगीत व नृत्य प्रधान फ़िल्म 'नवरंग' की, जो आई थी ५० के दशक के आख़िर में, साल था १९५९। इससे पहले की हम इस फ़िल्म की विस्तृत चर्चा करें, आइए आपको बता दें कि ६०, ७० और ८० के दशकों में शांताराम जी ने किन किन फ़िल्मों का निर्देशन किया था। १९६१ में फिर एक बार शास्त्रीय संगीत पर आधारित म्युज़िकल फ़िल्म आई 'स्त्री'। 'नवरंग' और 'स्त्री', इन दोनों फ़िल्मों में वसत देसाई का नहीं, बल्कि सी. रामचन्द्र का संगीत था। १९६३ में वादक व संगीत सहायक रामलाल को उन्होंने स्वतंत्र संगीतकार के रूप में संगीत देने का मौका दिया फ़िल्म 'सेहरा' में। इस फ़िल्म के गानें भी ख़ूब चले। १९६४ की में वी. शांताराम ने अपनी सुपुत्री राजश्री शा

ए मलिक तेरे बंदे हम....एक कालजयी प्रार्थना जो आज तक एक अद्भुत प्रेरणा स्रोत है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 534/2010/234 फ़ि ल्मकार वी. शांताराम द्वारा निर्मित और/ या निर्देशित फ़िल्मों के गीतों से सजी लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का पहला खण्ड इन दिनों जारी है। गीतों के साथ साथ हम शांताराम जी के फ़िल्मी सफ़र की भी थोड़ी बहुत संक्षिप्त में चर्चा भी हम कर रहे हैं। पिछली कड़ी में हमने ४० के दशक के उनकी फ़िल्मों के बारे में जाना। आज हम ज़िक्र करते हैं ५० के दशक की। पिछले दो दशकों की तरह यह दशक भी शांताराम जी के फ़िल्मी सफ़र का एक अविस्मरणीय दशक सिद्ध हुआ। १९५० में शांताराम ने समाज की ज्वलंत समस्या दहेज पर वार किया था फ़िल्म 'दहेज' के ज़रिए। ६० वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन आज भी उनकी यह फ़िल्म उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस ज़माने में थी। इस फ़िल्म में करण दीवान और वी. शांताराम की पत्नी जयश्री शांताराम ने अभिनय किया था। वसंत देसाई का ही संगीत था और जयश्री शांताराम का गाया "अम्बुआ की डाली पे बोले रे कोयलिया" गीत बेहद मकबूल हुआ था। १९५२ में 'परछाइयाँ', १९५३ में 'तीन बत्ती चार रास्ता', १९५४ में 'सुबह का तारा', १९५४ में &#

मोहब्बत की कहानी आँसूओं में पल रही है.. सज्जाद अली ने शहद-घुली आवाज़ में थोड़ा-सा दर्द भी घोल दिया है

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०३ मा फ़ी, माफ़ी और माफ़ी... भला कितनी माफ़ियाँ माँगूंगा मैं आप लोगों से। हर बार यही कोशिश करता हूँ कि महफ़िल-ए-ग़ज़ल की गाड़ी रूके नहीं, लेकिन कोई न कोई मजबूरी आ हीं जाती है। इस बार घर जाने से पहले यह मन बना लिया था कि आगे की दो-तीन महफ़िलें लिख कर जाऊँगा, लेकिन वक़्त ने हीं साथ नहीं दिया। घर पर अंतर्जाल की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए वहाँ से महफ़िलों की मेजबानी करने का कोई प्रश्न हीं नहीं उठता था। अंत में मैं हार कर मन मसोस कर रह गया। तो इस तरह से पूरे तीन हफ़्ते बिना किसी महफ़िल के गुजरे। अब क्या करूँ!! फिर से माफ़ी माँगूं? मैं सोच रहा हूँ कि हर बार क्षमा-याचना करने से अच्छा है कि पहले हीं एक "सूचना-पत्र" महफ़िल-ए-ग़ज़ल के दरवाजे पर चिपका दूँ कि "मैं महफ़िल को नियमित रखने की यथा-संभव कोशिश करूँगा, लेकिन कभी-कभार अपरिहार्य कारणों से महफ़िल अनियमित हो सकती है। इसलिए किसी बुधवार को १०:३० तक आपको महफ़िल खाली दिखे या कोई रौनक न दिखे, तो मान लीजिएगा कि इसके मेजबान को ऐन मौके पर कोई बहुत हीं जरूरी काम निकल आया है। फिर उस बुधवार के लिए मुझे क्षमा करके अगले बु

नैन सो नैन नाहीं मिलाओ....देखिये किस तरह एक देहाती शब्द "गुईयाँ" का सुन्दर प्रयोग किया हसरत ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 533/2010/233 'हिं दी सिनेमा के लौह स्तंभ', इस शृंखला के पहले खण्ड में इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं महान फ़िल्मकार वी. शांताराम पर केन्द्रित हमारी यह प्रस्तुति 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत। आज इसकी तीसरी कड़ी में बातें शांताराम जी के ४० के दशक के सफ़र की। १९४१ में एक फ़िल्म आई थी 'पड़ोसी', जिसकी पृष्ठभूमि थी हिंदू मुसलमान धर्मों के बीच का तनाव। कहानी दो युवा दोस्तों की थी जो इन दो धर्मों के अनुयायी थी, और जो एक साम्प्रदायिक हमले में एक साथ मर जाते हैं। फ़िल्म के क्लाइमैक्स में एक बांध का बम से उड़ा देने का पिक्चराइज़ेशन उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी सरहानीय था। 'पड़ोसी' के बाद वी. शान्ताराम 'प्रभात' से अलग हो गए और अपनी निजी कंपनी 'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना की और अपने आप को पुणे से मुंबई में स्थानांतरित कर लिया। कालीदास की मशहूर कृति 'शकुंतला' पर आधारित १९४३ की फ़िल्म 'शकुंतला' इस बैनर की पहली पेशकश थी, जो बेहद कामयाब सिद्ध हुई। यह भारतीय पहली फ़िल्म थी जिसे व्यावसायिक तौर पर विदेश में प्रदर्शित कि

सुजॉय जी को शादी का तोहफ़ा देने आ गए हैं सलीम-सुलेमान और अमिताभ भट्टाचार्य "बैंड बाजा बारात" के साथ

अभी वक़्त है अपने नियमित ताज़ा सुर ताल का.. ताज़ा सुर ताल यानि कि टी एस टी, जिसके मेजबान मुख्य रूप से सुजॉय जी हुआ करते हैं। मुख्य रूप से इसलिए कहा क्योंकि हर मंगलवार के दिन समीक्षा के दौरान उनसे बातचीत होती है, अब ये बातचीत मैं करूँ या फिर सजीव जी करें... पिछली मर्तबा ये बागडोर सजीव जी ने संभाली थी और उसके पहले कई हफ़्तों तक बातचीत का वो सिरा मेरे हाथ में था.. लेकिन दूसरा सिरा हमेशा हीं सुजॉय जी थामे रहते हैं। आज के दिन और आज के बाद दो-तीन और हफ़्तों तक स्थिति अलग-सी रहने वाली है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सुजॉय जी घर गए हुए हैं.. अपनी ज़िंदगी के उस सिरे को संभालने जिसका दूसरा सिरा उनकी अर्धांगिनी के हाथों में है। जी हाँ, कल हीं सुजॉय जी की शादी थी। शादी बड़ी धूमधाम से हुई और होती भी क्यों नहीं, जब हम सब दोस्तों और शुभचिंतकों की दुआएँ उनके साथ थीं। हम सब तक की तरफ़ से सुजॉय जी को शादी की शुभकामनाएँ, बधाईयाँ एवं बहुत-बहुत प्यार .. (बड़ों की तरफ़ से आशीर्वाद भी).. हम नहीं चाहते थे कि इन मंगल घड़ियों में उन्हें थोड़ा भी तंग किया जाए, इसलिए कुछ हफ़्तों तक ताज़ा सुर ताल मैं अकेले हीं (या फिर कभ

निर्बल से लड़ाई बलवान की, ये कहानी है दीये की और तूफ़ान की....प्रेरणा का स्रोत है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 532/2010/232 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पहली बार बीस कड़ियों की एक लघु शृंखला कल से हमने शुरु की है - 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'। इस शृंखला के पहले खण्ड में आप सुन रहे हैं फ़िल्मकार वी. शांताराम की फ़िल्मों के गीत और पढ़ रहे हैं उनके फ़िल्मी सफ़र का लेखा जोखा। मूक फ़िल्मों से शुर कर कल के अंक के अंत में हम आ पहुँचे थे साल १९३२ में। आज १९३३ से बात को आगे बढ़ाते हैं। इस साल शांताराम ने अपनी फ़िल्म 'सैरंध्री' को जर्मनी लेकर गए आगफ़ा लैब में कलर प्रोसेसिंग् के लिए। लेकिन जैसी उन्हें उम्मीद थी, वैसा रंग नहीं जमा सके। तस्वीरें बड़ी फीकी फीकी थी, वरना यही फ़िल्म भारत की पहली रंगीन फ़िल्म होने का गौरव प्राप्त कर लेती. यह गौरव आर्दशिर ईरानी के 'किसान कन्या' को प्राप्त हुआ आगे चलकर। कुछ समय के लिए शांताराम जर्मनी में रहे क्योंकि उन्हें वहाँ काम करने के तौर तरीक़े बहुत पसंद आये थे। १९३३ में ही 'प्रभात स्टुडियोज़' को कोल्हापुर से पुणे स्थानांतरित कर लिया गया, क्योंकि पुणे फ़िल्म निर्माण का एक मुख्य केन्द्र बनने लगा था। १९३४ में इस

छोड़ आकाश को सितारे ज़मीं पर आये.....जब वी शांताराम पर्दे पर बोलता सपना लेकर आये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 531/2010/231 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और नई सप्ताह में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, हिंदी सिनेमा की अगर हम बात करें, तो वैसे तो अनगिनत फ़िल्मकारों ने अपना अमूल्य योगदान इस जगत को दिया है, लेकिन उनमें भी कुछ फ़िल्मकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने भारतीय सिनेमा को समूचे विश्व पटल पर ला खड़ा कर दिया, और यहाँ की संस्कृति और सभ्यता को पूरी दुनिया में फैलाने में अभूतपूर्व योगदान दिया। ये वो फ़िल्मकार हैं जिन्होंने फ़िल्म निर्माण को केवल अपना व्यावसाय या मनोरंजन का साधन नहीं समझा, बल्कि इस समाज के कल्याण के लिए कई संदेश और उपदेशात्मक फ़िल्में बनाईं। निस्संदेह इन महान फ़िल्मकारों को हम हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ कह सकते हैं। दोस्तों, ऐसे ही चार स्तंभों को चुन कर आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु कर रहे हैं नई शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'। ऐसी बात बिल्कुल नहीं है कि केवल ये ही चार लौह स्तंभ हैं, बस हमने इस शृंखला में चार फ़िल्मकारों को चुना, और आगे चलकर बाकी महान फ़िल्मकारों पर भी शृंखला चलाएँगे। 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (१७)...वादियों में मिले जब दो चाहने वाले तो इस गीत ने दी उनके प्रेम को परवाज़

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस शनिवार विशेषांक में। इसमें हम आपके लिए लेकर आते हैं 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने', जिसमें आप ही में से किसी ना किसी दोस्त के यादों को पूरी दुनिया के साथ बांटा करते हैं जिन्हें आपने हमसे शेयर किए हैं एक ईमेल के माध्यम से। आज भी एक बड़ा ही दिल को छू लेनेवाला ईमेल हम शामिल कर रहे हैं। हाँ, इस ईमेल को पेश करने से पहले आपको बता दें कि जिस शख़्स ने हमें यह ईमेल भेजा है, इन्होंने ना तो अपना नाम लिखा है और ना ही हमारे oig@hindyugm.com के पते पर इसे भेजा है, बल्कि एक गुमनाम आइ.डी से सीधे मेरे व्यक्तिगत ईमेल आइ.डी पर भेज दिया है। कोई बात नहीं, आपके जज़्बात हम तक पहुँच गए, यही बहुत है हमारे लिए। तो ये रहा आपका ईमेल... *************************************************** प्रिय सुजॊय जी, मैं अपना यह ईमेल आप के ईमेल पते पर भेज रहा हूँ, ताकि आप पहले यह जाँच लें कि यह पोस्ट करने लायक है भी या नहीं। अगर सही लगे तो शामिल कर लीजिएगा। मैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का 'ईमेल के बहाने...' बहुत ध्यान से पढ़ता हूँ और सब के

अनुराग शर्मा की कहानी "बांधों को तोड़ दो"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की मार्मिक कहानी " गञ्जा " का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक सामयिक कहानी " बांधों को तोड़ दो ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।कहानी "बांधों को तोड़ दो" का कुल प्रसारण समय 4 मिनट 25 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।। ~ अनुराग शर्मा हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी "बांध के लिए कानपुर, कलकत्ता, दिल्ली को क्यों नहीं डुबाते हैं ये लोग? हमें ही क्यों जाना पडेगा घर छोड़कर?" ( अनुराग शर्मा की "ब

Go Green- दुनिया और पर्यावरण बचाने की अपील- आवाज़ का एक अंतरराष्ट्रीय गीत

हिन्द-युग्म ने इंटरनेट की दुनिया में शुक्रवार की एक नई परम्परा विकसित की है, जिसके अंतर्गत शुक्रवार के दिन इंटरनेटीय जुगलबंदी से रचे गये संगीतबद्ध गीत का विश्वव्यापी प्रदर्शन होता है। हिन्द-युग्म ने संगीत की इस नई और अनूठी परम्परा को देश से निकालकर विदेश में भी स्थापित किया है। वर्ष 2009 में आवाज़ ने भारत में स्थित रूसी दूतावास के लिए भारत-रूस मित्रता के लिए एक गीत 'द्रुज्बा' बनाया था। वह हमारा पहला प्रोजेक्ट था जिसमें हमने एक से अधिक देश की संवेदनाओं को सुरबद्ध किया था। आज हम एक ऐसा गीत लेकर आये हैं, जिसमें अंतर्निहित संवेदनाएँ, चिंताएँ और सम्भावनाएँ वैश्विक हैं। पूरी दुनिया हरियाली के भविष्य को लेकर चिंतित है। यह चिंता पर्यावरणवादियों को खाये जा रही है कि बहुत जल्द पुरी दुनिया फेफड़े भर हवा के लिए मरेगी-कटेगी। हम सब की यह जिम्मेदारी है कि अपनी आने वाली पीढ़ियों को हम कम से कम एक ऐसी दुनिया दे जिसमें हवा-पानी की लड़ाई न हो। शायद इसीलए जो थोड़ा भी संजीदा है, वे 'गो ग्रीन' के साथ है। हमने इस बार फ्यूजन के माध्यम से इसी संदेश को ताज़ा किया है। शास्त्रीय संगीत और पश्विमी

तुम्हारे बिन गुजारे हैं कई दिन अब न गुजरेंगें....विश्वेश्वर शर्मा का लिखा एक गंभीर गीत लता रफ़ी के युगल स्वरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 530/2010/230 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी संगीत रसिकों का बहुत बहुत स्वागत है इस ५३०-वीं कड़ी में। दोस्तों, पिछले दो हफ़्तों से इस स्तंभ में हम सुनते चले आ रहे हैं एक से एक नायाब गीत जिन्हें जादूई शब्दों से संवारे हैं हिंदी के कुछ बेहद नामचीन साहित्यकार और कवियों ने। 'दिल की कलम से' लघु शृंखला में अब तक हमने जिन साहित्यकारों की फ़िल्मी रचनाएँ आपको सुनवाईं हैं, वो हैं पंडित नरेन्द्र शर्मा, वीरेन्द्र मिश्र, गोपालसिंह नेपाली, बालकवि बैरागी, गोपालदास नीरज, अमृता प्रीतम, कवि प्रदीप, महादेवी वर्मा, और डॊ. हरिवंशराय बच्चन। आज इस शृंखला की अंतिम कड़ी के लिए हम चुन लाये हैं एक ऐसे साहित्यकार को जिनका शुमार बेहतरीन हास्यकवियों में होता है। हास्यकवि, यानी कि जो हास्य व्यंग के रस से ओत-प्रोत रचनाएँ लिखते हैं। उनकी लेखनी या काव्य के एक विशेषता होती है उनकी उपस्थित बुद्धि और सेन्स ऒफ़ ह्युमर। हिंदी के कुछ जाने माने हास्यकवियों के नाम हैं ओम प्रकाश आदित्य, अशकरण अटल, शैलेश लोधा, राहत इंदोरी, सुरेन्द्र शर्मा, डॊ. विष्णु सक्सेना, श्याम ज्वालामुखी, जगदिश सोलंकी, महेन्