Skip to main content

Posts

Showing posts with the label lata mangeshkar

"डफ़ली वाले डफ़ली बजा..." - शुरू-शुरू में नकार दिया गया यह गीत ही बना फ़िल्म का सफ़लतम गीत

कभी-कभी ऐसे गीत भी कमाल दिखा जाते हैं जिनसे निर्माण के समय किसी को कोई उम्मीद ही नहीं होती। शुरू-शुरू में नकार दिया गया गीत भी बन सकता है फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत। एक ऐसा ही गीत है फ़िल्म 'सरगम' का "डफ़ली वाले डफ़ली बजा"। यही है आज के 'एक गीत सौ कहानियाँ' के चर्चा का विषय। प्रस्तुत है इस शृंखला की १७-वीं कड़ी सुजॉय चटर्जी के साथ... एक गीत सौ कहानियाँ # 17 फ़िल्म इंडस्ट्री एक ऐसी जगह है जहाँ किसी फ़िल्म के प्रदर्शित होने तक कोई १००% भरोसे के साथ यह नहीं कह सकता कि फ़िल्म चलेगी या नहीं, यहाँ तक कि फ़िल्म के गीतों की सफ़लता का भी पूर्व-अंदाज़ा लगाना कई बार मुश्किल हो जाता है। बहुत कम बजट पर बनी फ़िल्म और उसके गीत भी कई बार बहुत लोकप्रिय हो जाते हैं और कभी बहुत बड़ी बजट की फ़िल्म और उसके गीत-संगीत को जनता नकार देती है। मेहनत और लगन के साथ-साथ क़िस्मत भी बहुत मायने रखती है फ़िल्म उद्योग में। संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के संगीत सफ़र का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था फ़िल्म 'सरगम' का संगीत। १९७९ में प्रदर्शित इस फ़िल्म का "ड

प्रयोगधर्मी संगीतज्ञ कुमार गन्धर्व और राग नन्द

स्वरगोष्ठी – ६५ में आज ‘उड़ जाएगा हंस अकेला, जग-दर्शन का मेला...’ कुमार गन्धर्व भारतीय संगीत की एक नई प्रवृत्ति और नई प्रक्रिया के पहले कलासाधक थे। घरानों की पारम्परिक गायकी की अनेक शताब्दी पुरानी जो प्रथा थी उसमें संगीत तो जीवित रहता था, किन्तु संगीतकार के व्यक्तित्व और प्रतिभा का विसर्जन हो जाता था। कुमार गन्धर्व ने पारम्परिक संगीत के कठोर अनुशासन के अन्तर्गत ही कलासाधक की सम्भावना को स्थापित किया। ‘स्व रगोष्ठी’ के मंच पर आपका यह सूत्रधार कृष्णमोहन मिश्र, एक बार पुनः आपके अभिनन्दन हेतु तत्पर है। आज आठ अप्रैल का दिन है। वर्ष १९२४ में आज के ही दिन बेलगाम, कर्नाटक के पास सुलेभवी नामक स्थान में एक संगीत-प्रेमी परिवार में एक बालक का जन्म हुआ था, जिसका माता-पिता का रखा नाम तो था शिवपुत्र सिद्धरामय्या कोमकलीमठ, किन्तु आगे चल कर संगीत-जगत ने उसे कुमार गन्धर्व के नाम से पहचाना। आज के अंक में हम इन्हीं प्रयोगधर्मी संगीत-साधक द्वारा सम्पादित कुछ अनूठे कार्यों का स्मरण करते हुए उनके प्रिय राग- नन्द की चर्चा करेंगे। भारतीय संगीत के बेहद मनमोहक राग- नन्द के सौन्दर्य का आ

"जब से पी संग नैना लागे" - क्यों लता नहीं गा सकीं ओ.पी.नय्यर के इस पहले पहले कम्पोज़िशन को

लता मंगेशकर और ओ.पी.नय्यर के बीच की दूरी फ़िल्म-संगीत जगत में एक चर्चा का विषय रहा है। आज इसी ग़लतफ़हमी पर एक विस्तारित नज़र ओ.पी.नय्यर की पहली फ़िल्म 'आसमान' के एक गीत के ज़रिए सुजॉय चटर्जी के साथ, 'एक गीत सौ कहानियाँ' की पाँचवी कड़ी में... एक गीत सौ कहानियाँ # 5 स्वर्ण-युग के संगीतकारों में बहुत कम ऐसे संगीतकार हुए हैं जिनकी धुनों पर लता मंगेशकर की आवाज़ न सजी हो। बल्कि यूं भी कह सकते हैं कि हर संगीतकार अपने गानें लता से गवाना चाहते थे। ऐसे में अगर कोई संगीतकार उम्र भर उनसे न गवाने की क़सम खा ले, तो यह मानना ही पड़ेगा कि उस संगीतकार में ज़रूर कोई ख़ास बात होगी, उसमें ज़रूर दम होगा। ओ.पी. नय्यर एक ऐसे ही संगीतकार हुए जिन्होने कभी लता से गाना नहीं लिया। अपनी पहली पहली फ़िल्म के समय ही किसी मनमुटाव के कारण जो दरार लता और नय्यर के बीच पड़ी, वह फिर कभी नहीं भर सकी। लता और नय्यर, दोनों से ही लगभग हर साक्षात्कार में यह सवाल ज़रूर पूछा जाता रहा है कि आख़िर क्या बात हो गई थी कि दोनों नें कभी एक दूसरे की तरफ़ क़दम नहीं बढ़ाया, पर हर बार ये दोनों असल बात को टालते रहे हैं

"ऐ मेरे वतन के लोगों" - इस कालजयी देशभक्ति गीत को न गा पाने का मलाल आशा भोसले को आज भी है

कालजयी देशभक्ति गीत "ऐ मेरे वतन के लोगों" के साथ केवल पंडित नेहरू की यादें ही नहीं जुड़ी हुई हैं, बल्कि इस गीत के बनने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। आज गणतन्त्र दिवस की पूर्वसंध्या पर इसी गीत से जुड़ी कहानियाँ सुजॉय चटर्जी के साथ 'एक गीत सौ कहानियाँ' की चौथी कड़ी में... एक गीत सौ कहानियाँ # 4 देशभक्ति गीतों की बात चलती है तो कुछ गीत ऐसे हैं जो सबसे पहले याद आ जाते हैं, चाहे वो फ़िल्मी हों या ग़ैर-फ़िल्मी। लता मंगेशकर की आवाज़ में एक ऐसी ही कालजयी रचना है "ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा करो क़ुर्बानी"। कवि प्रदीप के लिखे और सी. रामचन्द्र द्वारा स्वरबद्ध इस गीत को जब भी सुनें, रोंगटे खड़े हुए बिना नहीं रहते, आँखें नम हुए बिना नहीं रहतीं, हमारे वीर शहीदों के आगे नतमस्तक हुए बिना हम नहीं रह पाते। इस गीत को १९६२ के भारत-चीन युद्ध के शहीदों को समर्पित किया गया था। कहते हैं कि रेज़ांग् ला के प्रथम युद्ध में १३ - कुमाऊं रेजिमेण्ट, सी-कंपनी के आख़िरी मोर्चे में परमवीर मेजर शैतान सिंह भाटी के दुस्साहस और बलिदान से प्रभावित

निंदिया से जागी बहार....और लता जी के पावन स्वरों से जागा संसार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 760/2011/200 न मस्कार दोस्तों!! आज हम आ पहुंचे हैं लता जी पर आधारित श्रृंखला ‘मेरी आवाज ही पहचान है....’ की अंतिम कड़ी पर. लता जी ने हजारों गाने गाये और उनमें से १० गाने चुन कर प्रस्तुत करना बड़ा ही मुश्किल है. मजे की बात तो यह है कि हमने आपने ये सारे गाने कई बार सुने हैं पर हमेशा इन गानों में ताजगी झलकती है. आप इन गानों को सुन कर बोर नहीं हो सकते. बेमिसाल और सर्वदा शीर्ष पर रहने के बावजूद लता ने बेहतरीन गायन के लिए रियाज़ के नियम का हमेशा पालन किया, उनके साथ काम करने वाले हर संगीतकार ने यही कहा कि वे गाने में चार चाँद लगाने के लिए हमेशा कड़ी मेहनत करती रहीं. लता जी के लिए संगीत केवल व्यवसाय नहीं है. उनकी जीवन शैली में ही एक प्रकार का संगीत है. लता जी ने अपना संपूर्ण जीवन संगीत को समर्पित कर दिया. संगीत ही उनके जीवन की सबसे बडी़ पूंजी है. आज के युग में जब संगीत के नाम पर फूहड़ता और अश्लीलता परोसी जा रही है और लोकप्रियता के लिए गायक हर परिस्थिति से समझौता करने को तैयार है, हमारे लिए लता जी एक प्रेरणा-ज्योति की तरह हैं जो संगीत के अंधकारपूर्ण भविष्य को देदीप्यमान

मिला है किसी का झुमका....नटखट बोल शैलेन्द्र के और चहकती आवाज़ लता की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 758/2011/198 ‘आ वाज’ के सभी पाठकों और श्रोताओं को अमित तिवारी का नमस्कार. लता जी का कायल हर संगीतकार था. मदन मोहन ने एक बार कहा था कि मैं इतनी मुश्किल धुनें बनाता हूँ कि लता के सिवा कोई और इन्हें नहीं गा सकता. एक बार फिल्म उद्योग के साजिंदों की हड़ताल हुई थी तब संगीतकारों की मीटिंग में सचिन देव बर्मन कई बार पूछ चुके थे कि "भाई लोता गायेगा न?" साथी संगीतकार कहते "हाँ दादा", तो दादा यह कह कर फिर चुप हो जाते, "तो फिर हम ‘सेफ’ हैं." लता जी की एक सबसे बड़ी खासियत है उनका दृढ निश्चय. कुछ लोग उन्हें इसके लिए अक्खड़ मानते हैं. उनके सिद्धांतों से उन्हें कोई नहीं डिगा सकता. उन्होंने पहले से ही तय कर रखा था कि फूहड़ व अश्लील शब्दों के प्रयोग वाले गीत वे नहीं गाएंगी. राजकपूर द्वारा निर्देशित फिल्म ‘संगम’ का गीत ‘मैं क्या करूं राम मुझे बुढ्ढा मिल गया’, जैसे गाने को वे आज भी अपनी भारी भूल मानती हैं. उन्होंने अपने कॅरियर में केवल तीन कैबरे गीत गाए. ये तीन कैबरे गीत थे ‘मेरा नाम रीटा क्रिस्टीना’ (फिल्म-अप्रैल फूल, 1964), ‘मेरा नाम है जमीला’-( फिल

रातों को जब नींद उड़ जाए....सलिल दा के संगीत की मासूमियत और लता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 757/2011/197 न मस्कार साथियों, लता जी अपने आप में एक ऐसी किताब हैं जिसको जितना भी पढ़ो कम ही है. गाना चाहे कैसा भी हो अगर उनकी आवाज आ जाए तो क्या कहना? गाने में शक्कर अपने आप घुल जाती है. ओ.पी.नय्यर को छोड़कर लता मंगेशकर ने हर बड़े संगीतकार के साथ काम किया, मदनमोहन की ग़ज़लें और सी रामचंद्र के भजन लोगों के मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ चुके हैं. जितना भी आप सुनें आपका मन नही भरेगा. ओ.पी.नय्यर साहब के साथ लता जी ने कभी काम नहीं करा.एक बार लता जी ने हरीश भिमानी जी से कहा " आप शायद जानते होंगे, कि मैंने नय्यर साहब के लिए गीत क्यों नहीं गाये! ". हरीश जी ने कहा कि मैंने सुना है कि बहुत पहले, नय्यर साहब के शुरुआत के दिनों में, फिल्म सेन्टर में एक रिकॉर्डिंग करते समय आप "सिंगर्स बूथ" में गा रही थीं और वह 'मिक्सर' पर रिकॉर्डिस्ट और निर्देशक के साथ थे और आपने 'इन्टरकोम' पर उन्हें कुछ अपशब्द कहते हुए सुना और वहीँ के वहीं हेडफोन्स उतार कर स्टूडियो से सीधे घर चल दीं, किसी को बताये बगैर. बस फिर उनके लिए कभी गाया ही नहीं. " अच्छा...? &q

कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार.....निर्गुण भक्ति और लता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 756/2011/196 न मस्कार दोस्तों. आज हम आ पहुंचे हैं लता जी को समर्पित ‘मेरी आवाज ही पहचान है....’ श्रृंखला की सातवीं कड़ी पर. सबसे पहले तो ऊँचाइयों पर पहुँचाना कठिन होता है और जब उसे हासिल कर लिया जाए तब वहाँ पर मजबूती के साथ टिके रहना उससे भी कठिन होता है. और वही लता जी के साथ हुआ. वो उस मुकाम पर पहुँची और उन पर कई आरोप लगाये गए. एक संगीन आरोप लगा ‘मोनोपोली’ का. आरोप लगा था कि लता जी के कहने पर म्यूजिक डायरेक्टर दूसरों को गाने का मौका ही नहीं देते. लता जी ही निर्णय करती हैं कि कौन म्यूजिक डायरेक्टर होगा, कितने गाने होंगे आदि आदि ... लता जी से जब पूछा गया था तो वो नाराज होकर बोलीं कि अगर मुझे ही तय करना होता कि म्यूजिक डायरेक्टर कौन होगा तो तब तो आधी से ज्यादा फिल्मों में मेरे भाई हृदयनाथ को म्यूजिक डायरेक्टर होना चाहिए था. इसके विपरीत कविता कृष्णमूर्ती ने एक साक्षात्कार में एक अनुभव शेअर किया था. १९८२ में कविता जी ने निर्माता राजकुमार कोहली की एक निर्माणाधीन फिल्म के लिए, बप्पी दा के संगीत निर्देशन में ‘डबिंग’ गायिका के तौर पर एक गाना गाया था, यह जानते हुए, कि बा

चंदा मामा आरे आवा...एक मधुर लोरी...अरे अरे सो मत जाईयेगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 756/2011/196 सु रों की मल्लिका लता मंगेशकर पर आधारित श्रंखला ‘मेरी आवाज ही पहचान है....' की छठी कड़ी में मैं अमित तिवारी आप सभी गुणी श्रोताओं और पाठकों का स्वागत करता हूँ. लता जी का पसन्दीदा वाद्य है ‘बाँसुरी'. पंडित पन्नालाल घोष की बाँसुरी के लिए उन्होंने कहा था कि 'उनकी बाँसुरी बजती ही नहीं थी, बल्कि गाती थी. फिल्म बसंत बहार के गाने ‘मैं पिया तेरी तू माने या न माने’ में दो गायिकाएं हैं, मैं और पन्नाबाबू की बाँसुरी.' शहनाई उन्हें उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के अलावा किसी और की पसंद ही नहीं आयी. युसूफ भाई यानी कि दिलीप कुमार से लता जी की मुलाकात बड़े ही अजीब ढंग से हुई थी. एक बार अनिल बिस्वास और लता जी ‘फिल्मिस्तान स्टूडियो’ लोकल ट्रेन से जा रहे थे. यह वो समय था जब इन सितारों के पास गाड़ियां नहीं हुआ करती थीं और ट्रेनों में भीड़ भी नहीं हुआ करती थी. बांद्रा स्टेशन से दिलीप कुमार उसी डिब्बे में चढ़े. अनिल दा से दुआ सलाम हुआ. ये लोग आमने-सामने बैठे हुए थे तो अनिल दा ने कहा की युसूफ ये लता मंगेशकर है बहुत अच्छा गाती हैं. तो उन्होंने कहा कि कहाँ की है तो

आप यूँ फासलों से गुजरते रहे...रहस्य की वादियों में हुस्न की पुकार और लता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 755/2011/195 ल ता जी के बारे में जितना लिखा जाये कम ही है. तो आज फिर से "मेरी आवाज ही पहचान है...." श्रृंखला में उनके बारे में कुछ और रोचक बातों को यहाँ पर प्रस्तुत करा जाए. एक बार एक रेडियो इंटरव्यू के दौरान हरीश जी ने लता जी से एक सवाल पूछा थे, " क्या आपको कभी ऐसा महसूस हुआ है, कि आपको अपनी योग्यता से ज्यादा मिला है, धन, ऐश्वर्य, ख्याति? इस विषय में कोई अपराध बोध? " लता जी बड़ी सरलता से बोलीं, " मैं इश्वर की आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे जो कुछ दिया है बहुत ज्यादा दिया है. मेरे से अच्छे गाने वाले और समझने वाले बहुत सारे लोग हैं पर जो कुछ शोहरत मुझे मिली है वह बहुत कम लोगों को मिलती है. मेरे से अच्छा गाने वाले, जैसे बड़े गुलाम अली खान साहब, या फिर अमीर खान साहब. सहगल साहब जैसा तो मैं कभी नहीं गा सकती. " मधुबाला से लेकर माधुरी दीक्षित और काजोल तक हिंदी सिनेमा के स्क्रीन पर शायद ही ऐसी कोई बड़ी तारिका रही हो जिसे लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ उधार न दी हो. बीस से अधिक भारतीय भाषाओं में लता ने 30 हज़ार से अधिक गाने गए, 1991 में ही गिनीस बुक

ए दिले नादान, आरज़ू क्या है....इसके सिवा कि लता जी को मिले लंबी उम्र और उनकी आवाज़ का साया साथ चले हमेशा हमारे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 754/2011/194 ‘ओ ल्ड इज गोल्ड’ के सभी पाठकों की तरफ से लता जी को जन्मदिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएँ. आज लता जी ने अपने जीवन के ८२ साल पूरे कर लिए हैं. हम सभी की कामना है कि वो दीर्घायु हों और हमेशा स्वस्थ रहें. लता जी के लिए अभिनेता-निर्माता ओम प्रकाश जी ने एक बार कहा था, " हे ईश्वर, दुनिया में जितने लोग हैं, उनकी जिंदगी से तू सिर्फ़ एक सेकंड कम कर दे और वह लताजी की जिन्दगी में जोड़ दे. " ऐसी प्रतिभा के लिए एक सेकंड तो क्या १ घंटा भी कम है. लता जी के ८० वें जन्मदिन पर आईबीएन7 के लिए जावेद अख्तर ने उनका इंटरव्यू लिया था. जावेद जी ने कहा था – " सदियों में एकाध बार ऐसा होता है कि कोई इंसान इतना बड़ा होता है कि उसकी तारीफ नहीं की जाती। उसकी तारीफ इसलिए नहीं की जाती क्योंकि उसकी तारीफ की नहीं जा सकती। ऐसे शब्द ही नहीं होते। उसकी तारीफ की जरूरत भी नहीं होती। कोई नहीं कहता कि शेक्सपियर बहुत अच्छा राइटर था। कोई नहीं कहता कि माइकल एंजेलो बहुत अच्छे स्टेच्यू बनाता था। कोई नहीं कहता कि बीथोवन बहुत अच्छा म्यूजिक बनाता था। शेक्सपियर नाम अपने आप ही तारीफ है। उसी त

ए री मैं तो प्रेम दीवानी....भक्ति, प्रेम और समर्पण के भावों से ओत प्रेत ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 753/2011/193 न मस्कार! आप सभी संगीत रसिकों का स्वागत है ‘आवाज’ की महफ़िल में. आज मैं हाजिर हूँ ‘ओल्ड इज गोल्ड’ में लता जी के ऊपर आधारित श्रृंखला ‘मेरी आवाज ही पहचान है....’ की तीसरी कड़ी लेकर. लता जी का बचपन ही शुरू हुआ संगीत के आँचल से. सबसे पहले उन्होंने अपने पिताजी को गाते हुए सुना. के. एल. सहगल की तो भक्त हैं लता जी. छह साल की उम्र में के.एल. सहगल की जो पहली फिल्म देखी थी वो थी ‘चण्डीदास’. फिल्म देख कर घर आयीं तो एलान कर दिया कि मैं तो बड़े होकर सहगल से ही शादी करूंगी. लता जी के गुरु उनके पिता मास्टर दीनानाथ मंगेशकर थे. एक बार लता जी से पूछा गया कि पिता से संगीत की शिक्षा के अलावा कोई ऐसी सीख मिली, जो मन में हमेशा के लिए अंकित हो गयी हो? उन्हें जवाब सोचना नहीं पड़ा और तुरंत उत्तर आया “ हाँ, उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘अगर एक बार तुम्हे विश्वास हो जाये कि जो तुम कर रही हो वह सत्य है, सही है, बस...तो फिर कभी किसी से डरना नहीं. ’”. पिता अपनी पुत्री से बहुत प्यार करते थे. लता की माई (माँ) ने बताया था, मास्टर दीनानाथ जी, ने जिन्हें माई ‘मालक’ कहा करती थीं, अपनी

उड़ के पवन के रंग चलूंगी....उन्मुक्त भावनाओं की उड़ान और लता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 752/2011/192 "मे री आवाज ही पहचान है...." की दूसरी कड़ी में मैं अमित तिवारी आप सब लोगों का तहेदिल से स्वागत करता हूँ. लता जी एक ऐसा नाम है जिसे किसी पहचान की जरूरत नहीं है. लता नाम लेते ही आँखों में जो सूरत आती है वो लता दीदी की होती है. आज कुछ और बातें उनके बारे में. लता जी अपने छोटे भाई और बहनों को छोड़ कर किसी को कभी भी 'तुम' नहीं कहतीं - चाहे वो उम्र में कितना ही छोटा क्यों न हो. सबको सम्मान देना आता है. बात है भी सही, अगर आप दूसरों को सम्मान दोगे तो आपको भी मिलेगा. लता जी की एक और खासियत थी कि वो अपनी रिकॉर्डिंग केवल तभी कैंसिल करती थीं जब उन्हें लगता था कि उनका गला गाने के साथ न्याय नहीं कर पायेगा. सुबह उठ कर, रियाज़ करते वक्त,जहाँ उनको अपनी आवाज उन्नीस-बीस लगी, वहीं उनका फोन आ जाता था कि 'आज तो माफ ही करें'. देवानन्द ने एक बार कहा था कि 'ऐसा आज तक नहीं सुना गया कि लता जी किसी बड़े म्यूजिक डायरेक्टर या बैनर के लिए, किसी नए प्रोड्यूसर या कम्पोजर की रिकॉर्डिंग केंसिल करी हो." यानी अपनी गुणवत्ता पर रत्ती-भर भी संदेह हो तो रि

"हर इन्सान को अपनी ज़िंदगी जीने का पूरा हक़ है..."- युवा अभिनेता युवराज पराशर

अभिनेता युवराज पराशर के पसन्द के ५ लता नम्बर्स ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 60 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का 'शनिवार विशेषांक' में। मैं, सुजॉय चटर्जी, हाज़िर हूँ फिर एक बार फिर एक साक्षात्कार के साथ। आज हम आपको मिलवा रहे हैं हाल में बनी फ़िल्म 'डोन्नो व्हाई न जाने क्यों' के नायक श्री युवराज पराशर से, जो बनाएंगे अपनी इस फ़िल्म के बारे में और साथ ही साथ हमें सुनवाएंगे लता जी के गाए हुए उनके पसन्दीदा पाँच गीत। आइए मिलते हैं युवा अभिनेता युवराज पराशर से। सुजॉय - नमस्कार युवराज, स्वागत है आपका 'हिन्द-युग्म' के 'आवाज़' मंच पर और यह है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का साप्ताहिक विशेषांक। युवराज - नमस्कार, और बहुत बहुत धन्यवाद आपका! सुजॉय - युवराज, क्योंकि लता जी के जनमदिवस के उपलक्ष्य पर इस सप्ताह का यह विशेषांक प्रस्तुत हो रहा है, और आपका भी लता जी से एक तरह का सम्बंध हुआ है आपकी फ़िल्म के ज़रिए, इसलिए बातचीत का सिलसिला भी मैं लता जी से ही शुरु करना चाहूँगा। सबसे पहले तो अपने पाठकों को वह तस्वीर दिखा दें जिसमें आप और कपिल