स्वरगोष्ठी – 325 में आज
संगीतकार रोशन के गीतों में राग-दर्शन – 11 : राग पहाड़ी
रोशन की जन्मशती पर उनकी स्मृतियों को शताधिक नमन
‘रेडियो
प्लेबैक इण्डिया’ के मंच पर ‘स्वरगोष्ठी’ की जारी श्रृंखला “संगीतकार रोशन
के गीतों में राग-दर्शन” की ग्यारहवीं और समापन कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन
मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। इस सप्ताह की 14
जुलाई 2017 को संगीतकार रोशन की जन्मशती पूर्ण हो तही है। यह श्रृंखला
हमने इसीलिए रोशन की स्मृतियों को समर्पित की है। मित्रों, इस श्रृंखला में
हम फिल्म जगत में 1948 से लेकर 1967 तक सक्रिय रहे संगीतकार रोशन के राग
आधारित गीत प्रस्तुत कर रहे हैं। रोशन ने भारतीय फिल्मों में हर प्रकार का
संगीत दिया है, किन्तु राग आधारित गीत और कव्वालियों को स्वरबद्ध करने में
उन्हें विशिष्टता प्राप्त थी। भारतीय फिल्मों में राग आधारित गीतों को
स्वरबद्ध करने में संगीतकार नौशाद और मदन मोहन के साथ रोशन का नाम भी
चर्चित है। इस श्रृंखला में हम आपको संगीतकार रोशन के स्वरबद्ध किये राग
आधारित गीतों में से कुछ गीतों को चुन कर सुनवाया और इनके रागों पर चर्चा
भी की। इस परिश्रमी संगीतकार का पूरा नाम रोशन लाल नागरथ था। 14 जुलाई 1917
को तत्कालीन पश्चिमी पंजाब के गुजरावालॉ शहर (अब पाकिस्तान) में एक
ठेकेदार के परिवार में जन्मे रोशन का रूझान बचपन से ही अपने पिता के पेशे
की और न होकर संगीत की ओर था। संगीत की ओर रूझान के कारण वह अक्सर फिल्म
देखने जाया करते थे। इसी दौरान उन्होंने एक फिल्म ‘पूरन भगत’ देखी। इस
फिल्म में पार्श्वगायक सहगल की आवाज में एक भजन उन्हें काफी पसन्द आया। इस
भजन से वह इतने ज्यादा प्रभावित हुए कि उन्होंने यह फिल्म कई बार देख डाली।
ग्यारह वर्ष की उम्र आते-आते उनका रूझान संगीत की ओर हो गया और वह पण्डित
मनोहर बर्वे से संगीत की शिक्षा लेने लगे। मनोहर बर्वे स्टेज के कार्यक्रम
को भी संचालित किया करते थे। उनके साथ रोशन ने देशभर में हो रहे स्टेज
कार्यक्रमों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। मंच पर जाकर मनोहर बर्वे जब
कहते कि “अब मैं आपके सामने देश का सबसे बडा गवैया पेश करने जा रहा हूँ” तो
रोशन मायूस हो जाते क्योंकि “गवैया” शब्द उन्हें पसन्द नहीं था। उन दिनों
तक रोशन यह तय नहीं कर पा रहे थे कि गायक बना जाये या फिर संगीतकार। कुछ
समय के बाद रोशन घर छोडकर लखनऊ चले गये और पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे
जी द्वारा स्थापित मॉरिस कॉलेज ऑफ हिन्दुस्तानी म्यूजिक (वर्तमान में
भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय) में प्रवेश ले लिया और कॉलेज के
प्रधानाचार्य डॉ. श्रीकृष्ण नारायण रातंजनकर के मार्गदर्शन में विधिवत
संगीत की शिक्षा लेने लगे। पाँच वर्ष तक संगीत की शिक्षा लेने के बाद वह
मैहर चले आये और उस्ताद अलाउदीन खान से संगीत की शिक्षा लेने लगे। एक दिन
अलाउदीन खान ने रोशन से पूछा “तुम दिन में कितने घण्टे रियाज करते हो”।
रोशन ने गर्व के साथ कहा ‘दिन में दो घण्टे और शाम को दो घण्टे”, यह सुनकर
अलाउदीन बोले “यदि तुम पूरे दिन में आठ घण्टे रियाज नहीं कर सकते हो तो
अपना बोरिया बिस्तर उठाकर यहाँ से चले जाओ”। रोशन को यह बात चुभ गयी और
उन्होंने लगन के साथ रियाज करना शुरू कर दिया। शीघ्र ही उनकी मेहनत रंग आई
और उन्होंने सुरों के उतार चढ़ाव की बारीकियों को सीख लिया। इन सबके बीच
रोशन ने उस्ताद बुन्दु खान से सांरगी की शिक्षा भी ली। उन्होंने वर्ष 1940
में दिल्ली रेडियो केंद्र के संगीत विभाग में बतौर संगीतकार अपने कैरियर की
शुरूआत की। बाद में उन्होंने आकाशवाणी से प्रसारित कई कार्यक्रमों में
बतौर हाउस कम्पोजर भी काम किया। वर्ष 1948 में फिल्मी संगीतकार बनने का
सपना लेकर रोशन दिल्ली से मुम्बई आ गये। श्रृंखला की समापन कड़ी में आज हमने
1966 में प्रदर्शित फिल्म ‘दादी माँ’ से एक युगलगीत चुना है, जिसे रोशन ने
राग पहाड़ी का आधार दिया है। यह गीत मन्ना डे और महेन्द्र कपूर की आवाज़ में
प्रस्तुत है। इसके साथ ही हम इसी राग में एक ठुमरी विदुषी परवीन सुल्ताना
के स्वरों में प्रस्तुत कर रहे हैं।
मन्ना डे |
महेन्द्र कपूर |
इस
सप्ताह की 14 जुलाई को संगीतकार रोशन की जन्मशती पूर्ण हो रही है। जैसा कि
उपरोक्त भूमिका में उल्लेख किया गया है कि रोशनलाल नागरथ का जन्म 17
जुलाई, 1917 को तत्कालीन पश्चिमी पंजाब के गुजरावालॉ शहर (अब पाकिस्तान)
में एक ठेकेदार के परिवार में हुआ था। यह श्रृंखला हम उनकी जन्मशती की
पूर्णता के उपलक्ष्य में प्रस्तुत कर रहे हैं। 1949 में प्रदर्शित फिल्म
‘नेकी और बदी’ रोशन की संगीतबद्ध पहली फिल्म थी। 1968 की फिल्म ‘अनोखी रात’
उनकी अन्तिम फिल्म साबित हुई। इसी के साथ एक और फिल्म ‘अरमान भरा दिल’
तैयार तो थी, किन्तु प्रदर्शित नहीं हुई थी। रोशन ने फिल्म ‘अनोखी रात’ का
संगीत तैयार तो कर दिया था, किन्तु फिल्म का एक गीत, -“महलों का राजा मिला, तुम्हारी बेटी राज करेगी...”
रिकार्ड नहीं हो पाया था। इस गीत को उनकी पत्नी इरा रोशन ने उनके निधन के
बाद स्वयं रिकार्ड कराया और फिल्म पूरी की। रोशन ने फिल्म ‘दूर नहीं मंज़िल’
का केवल एक गीत, -“लिये चल गड़िया ओ मेरे मितवा दूर नहीं मंज़िल...”
रिकार्ड कराया था। उनके निधन के बाद शेष गीत शंकर जयकिशन ने रिकार्ड कराया
था। 16 नवम्बर, 1967 को मुम्बई में हरि वालिया की फिल्म ‘लाट साहब’ की
सफलता की दावत में रोशन को दिल का दौरा पड़ा और उनका असामयिक निधन हो गया।
निधन से कुछ ही दिन पूर्व रोशन ने विविध भारती पर प्रसारित होने वाली विशेष
जयमाला कार्यक्रम की रिकार्डिंग की थी, जिसका प्रसारण 2 दिसम्बर, 1967 को
हुआ था। इस श्रृंखला की पिछली दस कड़ियों में हमने रोशन के राग आधारित गीतों
की सूची से अलग-अलग रागों के गीत चुने है। आज के अंक में हमने रोशन के
स्वरबद्ध किये फिल्म ‘दादी माँ’ का एक गीत चुना है, जिसमें राग पहाड़ी की
झलक है। पार्श्वगायक मन्ना डे और महेन्द्र कपूर के स्वरों में प्रस्तुत इस
युगलगीत के बोल हैं, -“उसको नहीं देखा हमने कभी पर इसकी ज़रूरत क्या होगी...”
गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के इस गीत में माँ की ममता और महत्ता का प्रेरक
चित्रण है। आइए, अब हम संगीतकार रोशन की जन्मशती पूर्णता के अवसर पर उनकी
स्मृतियों को नमन करते हुए उनका संगीतबद्ध किया राग पहाड़ी पर आधारित यह गीत
सुनते हैं।
राग पहाड़ी : “उसको नहीं देखा हमने कभी...” मन्ना डे और महेन्द्र कपूर : फिल्म – दादी माँ
परवीन सुल्ताना |
यह
मान्यता है की प्रकृतिजनित, नैसर्गिक रूप से लोक कलाएँ पहले उपजीं,
परम्परागत रूप में उनका क्रमिक विकास हुआ और अपनी उच्चतम गुणवत्ता के कारण
ये शास्त्रीय रूप में ढल गईं। प्रदर्शनकारी कलाओं पर भरतमुनि प्रवर्तित
ग्रन्थ 'नाट्यशास्त्र' को पंचमवेद माना जाता है। नाट्यशास्त्र के प्रथम
भाग, पंचम अध्याय के श्लोक संख्या 57 में ग्रन्थकार ने स्वीकार किया है कि
लोक जीवन में उपस्थित तत्वों को नियमों में बाँध कर ही शास्त्र प्रवर्तित
होता है। श्लोक का अर्थ है कि इस चर-अचर में उपस्थित जो भी दृश्य-अदृश्य
विधाएँ, शिल्प, गतियाँ और चेष्टाएँ हैं, वह सब शास्त्र रचना के मूल तत्त्व
हैं। भारतीय संगीत के कई रागों का उद्गम लोक संगीत से हुआ है। इन्हीं में
से एक है, राग पहाड़ी, जिसकी उत्पत्ति भारत के पर्वतीय अंचल में प्रचलित लोक
संगीत से हुई है। यह राग बिलावल थाट के अन्तर्गत माना जाता है। राग पहाड़ी
में मध्यम और निषाद स्वर बहुत अल्प प्रयोग किया जाता है। इसीलिए राग की
जाति का निर्धारण करने में इन स्वरों की गणना नहीं की जाती और इसीलिए इस
राग को औड़व-औड़व जाति का मान लिया जाता है। राग का वादी स्वर षडज और संवादी
स्वर पंचम होता है। इसका चलन चंचल है और इसे क्षुद्र प्रकृति का राग माना
जाता है। इस राग में ठुमरी, दादरा, गीत, ग़ज़ल आदि रचनाएँ खूब मिलती हैं। आम
तौर पर गायक या वादक इस राग को निभाते समय रचना का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए
विवादी स्वरों का उपयोग भी कर लेते हैं। मध्यम और निषाद स्वर रहित राग
भूपाली से बचाने के लिए राग पहाड़ी के अवरोह में शुद्ध मध्यम स्वर का प्रयोग
किया जाता है। मन्द्र धैवत पर न्यास करने से राग पहाड़ी स्पष्ट होता है। इस
राग के गाने-बजाने का सर्वाधिक उपयुक्त समय रात्रि का पहला प्रहर माना
जाता है। राग पहाड़ी के स्वरूप को स्पष्ट रूप से अनुभव करने के लिए अब आप
इसी राग में सुनिए, कण्ठ संगीत की एक आकर्षक रचना। इसे प्रस्तुत कर रही
हैं, सुप्रसिद्ध गायिका विदुषी बेगम परवीन सुलताना। आप राग पहाड़ी की यह
ठुमरी अंग की रचना सुनिए और मुझे आज के इस अंक और इस श्रृंखला को यहीं
विराम देने की अनुमति दीजिए।
राग पहाड़ी : ‘जा जा रे कगवा मोरा सन्देशवा पिया पास ले जा...’ : विदुषी परवीन सुलताना
संगीत पहेली
‘स्वरगोष्ठी’
के 325वें अंक की पहेली में आज हम आपको वर्ष 1942 में प्रदर्शित एक पुरानी
फिल्म के एक राग आधारित गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको तीन में
से कम से कम दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। 330वें अंक की पहेली के
सम्पन्न होने तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष के
तीसरे सत्र का विजेता घोषित किया जाएगा।
1 – गीत के इस अंश में आपको किस राग का अनुभव हो रहा है?
2 – रचना के इस अंश में किस ताल का प्रयोग किया गया है?
3 – गीत में किस तालवाद्य का प्रयोग किया गया है?
आप उपरोक्त तीन मे से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार 15 जुलाई, 2017 की मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। COMMENTS
में दिये गए उत्तर मान्य हो सकते हैं, किन्तु उसका प्रकाशन पहेली का उत्तर
देने की अन्तिम तिथि के बाद किया जाएगा। विजेता का नाम हम उनके शहर,
प्रदेश और देश के नाम के साथ ‘स्वरगोष्ठी’ के 327वें अंक में
प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के
बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना
चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे
दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’
की 323वीं कड़ी की पहेली में हमने आपको 1965 में प्रदर्शित फिल्म ‘नई उमर
की नई फसल’ से एक राग आधारित गीत का एक अंश सुनवा कर आपसे तीन में से दो
प्रश्नों का उत्तर पूछा था। पहले प्रश्न का सही उत्तर है, राग – पीलू, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है, ताल – दादरा और तीसरे प्रश्न का सही उत्तर है, स्वर – आशा भोसले।
इस अंक की पहेली में हमारे सभी पाँच नियमित प्रतिभागियों ने दो-दो अंक अपने खाते में जोड़ लिये हैं। वोरहीज़, न्यूजर्सी से डॉ. किरीट छाया, चेरीहिल न्यूजर्सी से प्रफुल्ल पटेल, जबलपुर, मध्यप्रदेश से क्षिति तिवारी, पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया और हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी इस सप्ताह के विजेता हैं। उपरोक्त सभी पाँच प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
अपनी बात
मित्रों,
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर हमारी
श्रृंखला ‘संगीतकार रोशन के गीतों में राग-दर्शन’ के इस ग्यारहवें और समापन
अंक में हमने आपके लिए राग पहाड़ी पर आधारित फिल्म ‘दादी माँ’ से रोशन के
एक गीत और इस राग की शास्त्रीय संरचना पर चर्चा की और इस राग का एक
परम्परागत उदाहरण विदुषी परवीन सुल्ताना के स्वरों में प्रस्तुत किया। रोशन
के संगीत पर चर्चा के लिए हमने फिल्म संगीत के सुप्रसिद्ध इतिहासकार सुजॉय
चटर्जी के आलेख और लेखक पंकज राग की पुस्तक ‘धुनों की यात्रा’ का सहयोग
लिया। हम इन दोनों विद्वानों का आभार प्रकट करते हैं। इस कड़ी के साथ ही
हमारी इस श्रृंखला का समापन होता है। आगामी अंक से हम एक नई श्रृंखला का
प्रारम्भ कर रहे हैं। हमारी आगामी श्रृंखला एक नए रंग-रूप के साथ प्रस्तुत
होगी। आगामी श्रृंखलाओं के विषय, राग, रचना और कलाकार के बारे में यदि आपकी
कोई फरमाइश हो तो हमें swargoshthi@gmail.com पर अवश्य लिखिए। अगले अंक में रविवार को प्रातः 8 बजे हम ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर सभी संगीत-प्रेमियों का स्वागत करेंगे।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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रामराम
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