Skip to main content

चित्रकथा - 26: पाँच दशक और एक अभिनेता शिवराज: श्रद्धांजलि अंक

अंक - 26

पाँच दशक और एक अभिनेता शिवराज


"ज़मीं चल रही है, आसमाँ चल रहा है..." 



’रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं। बीसवीं सदी के चौथे दशक से सवाक् फ़िल्मों की जो परम्परा शुरु हुई थी, वह आज तक जारी है और इसकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही चली जा रही है। और हमारे यहाँ सिनेमा के साथ-साथ सिने-संगीत भी ताल से ताल मिला कर फलती-फूलती चली आई है। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें बातें होंगी चित्रपट की और चित्रपट-संगीत की। फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत से जुड़े विषयों से सुसज्जित इस पाठ्य स्तंभ में आपका हार्दिक स्वागत है। 



3 जून 2017 को फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध चरित्र अभिनेता शिवराज का निधन हो गया। पाँच दशकों के दौरान 200 से उपर हिन्दी फ़िल्मों में तरह तरह के किरदारों में नज़र आने वाले शिवराज का हर कहानी को जीवन्त करने में बहुमूल्य योगदान रहा है। किरदार कोई भी हो, अपने सहज और प्रभावशाली अभिनय क्षमता से शिवराज ने हर फ़िल्म में दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ गए। ’पाँच दशक और एक अभिनेता शिवराज’ - आइए आज इस लेख के माध्यम से शिवराज की बातें करें। आज के ’चित्रकथा’ का यह अंक समर्पित है अभिनेता स्वर्गीय शिवराज की पुण्य स्मृति को।


शिवराज (निधन - 3 जून 2017)



हिन्दी फ़िल्मों के चरित्र अभिनेता वो लोग हैं जिन्हे शायद फ़िल्मों के सबसे महत्वपूर्ण पहलू तो नहीं कहे जा सकते, पर यह बात भी सच है कि इन चरित्र अभिनेताओं के सशक्त अभिनय के बिना फ़िल्म की कहानी पूरी नहीं हो सकती। नायक, नायिका और मुख्य खलनायक के अलावा जितने किरदार हम फ़िल्मों में देखते हैं, उन चरित्र अभिनेताओं को कम ही याद किया जाता रहा है, पर अगर ध्यान से मंथन किया जाए तो पाएंगे कि इनमें से बहुत से अभिनेताओं ने फ़िल्म इंडस्ट्री पर कई दशकों तक राज किया है। नायक-नायिकाएँ का फ़िल्मी सफ़र भले एक-आध दशकों का होता हो, चरित्र अभिनेता उम्र के हर पड़ाव में परदे पर बने रह सकते हैं। और ऐसे ही एक लम्बी पारी खेलने वाले अभिनेता थे शिवराज जिनका हाल ही में देहवसान हो गया। यूं तो शिवराज पाँच दशकों तक फ़िल्मों में नज़र आते रहे, पर 50 और 60 के दशकों में उन्होंने सबसे ज़्यादा फ़िल्में की और उस दौर में वो एक जाना-पहचाना चेहरा बन गए थे। IMDB डेटाबेस के अनुसार शिवराज ने 167 हिन्दी फ़िल्मों में अभिनय किया है, लेकिन कुछ फ़िल्म इतिहासकारों का मानना है कि यह संख्या 200 से उपर है। ख़ैर, शिवराज ने फ़िल्म जगत में क़दम रखा साल 1951 में, शमीम भगत निर्देशित फ़िल्म ’बड़ी बहू’ से, जिसमें शेखर (नायक) और निम्मी (नायिका) थे। इसी साल फणी मजुमदार निर्देशित फ़िल्म ’आंदोलन’ में भी वो नज़र आए। फिर 1952 की दो फ़िल्मों - ’नौबहार’, ’तमाशा’ - में एक डॉक्टर की भूमिका अदा करने के बाद इसी साल उन्हें उनका पहला बड़ा ब्रेक मिला। राज कपूर - नर्गिस अभिनीत फ़िल्म ’आशियाना’ में वो नर्गिस के पिता का चरित्र निभाया। इसमें उन्होंने नर्गिस के साथ-साथ राज कपूर के साथ बहुत से फ़्रेमों में नज़र आए और इनको अभिनय में बराबर का टक्कर दिया। इस फ़िल्म से वो एक सशक्त अभिनेता के रूप में स्थापित हो गए। इस फ़िल्म के बाद तो उनके अभिनय से सजी फ़िल्मों की कतार लग गई। 1953 में अमिय चक्रवर्ती की मशहूर फ़िल्म ’पतिता’ में उन्होंने एक बलात्कारी खलनायक का किरदार अदा कर के सब्को चकित कर दिया। यह वह समय था जब फ़िल्मों की कहानी में बलात्कार जैसे विषय नहीं हुआ करते थे। हाल ही में अपना करीयर शुरु करने वाले शिवराज के लिए ऐसा किरदार निभाना खतरे से ख़ाली नहीं था। पर उन्होंने यह साहसी क़दम उठाया और फिर एक बार सिद्ध किया कि वो केवल डॉक्टर या बूढ़े पिता के रूप में ही नहीं बल्कि एक जघन्य दरिन्दे के किरदार को भी बख़ूबी निभा सकते हैं। एक नौजवान अमीर खलनायक जो उसी के शैन्टी में रहने वाली लड़की (फ़िल्म की नायिका) पर अपनी हवस की प्यास बुझाता है और उसे ब्लैकमेल करता है। उस ज़माने के हिसाब से यह एक बेहद बोल्ड सब्जेक्ट थी।


1953-54 दौरान शिवराज ने कुछ और कमचर्चित फ़िल्मों में अभिनय किया जैसे कि ’हमदर्द’, ’डंका’, ’डाकू की लड़की’, और ’बादबान’। ’पतिता’ में भले शिवराज खलनायक के रूप में किरदार में जान डाल दी थी, लेकिन खलनायक का टैग उन पर नहीं लग सका और 1955 की एम. वी. रमण की फ़िल्म ’पहली झलक’ में वो एक बूढ़े फ़कीर की भूमिका में गीत गाते नज़र आए - "ज़मीं चल रही है, आसमाँ चल रहा है, ये किसके इशारे जहाँ चल रहा है"। हेमन्त कुमार की आवाज़ में यह गीत है। अपने करीयर के शुरु से ही वृद्ध की भूमिकाएँ करने की वजह से शिवराज कुछ हद तक टाइपकास्ट हो गए और एक नौजवान होने के बावजूद वो वृद्ध चरित्रों में ज़्यादा नज़र आए। जिस तरह से गायक मन्ना डे को यह शिकायत रही कि उन्हें बूढ़े किरदारों के प्लेबैक के ही मौके मिलते थे, उसी तरह शिवराज ऐसे अभिनेता रहे जिन्हें परदे पर बूढ़े किरदार निभाने को मिलते थे। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि किरदार चाहे कोई भी हो, शिवराज ने हर बार अपना लोहा मनवाया, फिर चाहे एक आदर्श पिता का चरित्र हो या ईमानदार मैनेजर या नौकर का। और उनके इसी जानदार अभिनय क्षमता की वजह से उन्हें उस दौर के कई महत्वपूर्ण फ़िल्मों में अभिनय करने के मौके मिले। 1955 की अमिय चक्रवर्ती की फ़िल्म ’सीमा’ में उन्होंने निकम्मे चाचा काशिनाथ का किरदार निभाया जिनके साथ नूतन शुरु में रहती हैं उनके माँ-बाप के निधन के बाद। इसी साल बिमल रॉय की कालजयी फ़िल्म ’देवदास’ में शिवराज को पारो के पिता नीलकान्त के रूप में दर्शकों ने देखा। 2002 के शाहरुख़ ख़ान वाली ’देवदास’ में यह चरित्र निभाया था सुनिल रेगे ने। ख़ैर, 1955-56 में शिवराज के अभिनय से सजी जो अन्य फ़िल्में आईं वो थीं ’House No. 44', ’अनुराग’, ’New Delhi’, ’मेम साहिब’, और ’भाई भाई’।

1957 की फ़िल्म ’मिस मेरी’ में शिवराज ने एक पादरी (नायिका मीना कुमारी के पिता) की भूमिका अदा की। यह एल. वी. प्रसाद की AVM Productions के बैनर तले निर्मित फ़िल्म थी। इसी साल अमिय चक्रवर्ती की फ़िल्म ’देख कबीरा रोया’ में भी नायिका अनीता गुहा के पिता के चरित्र में वो नज़र आए। यह मज़ेदार बात है कि शिवराज को हमेशा नायिका के पिता के रूप में चुना गया, नायक के पिता के रूप में नहीं। 1957 की ही फ़िल्म ’भाभी’ में भी शिवराज अभिनेत्री नलिनी के पिता बने। 1958 की फ़िल्म ’अमरदीप’ में एक नौकर का रोल निभाने के बाद 1959 में नरेश सहगल की फ़िल्म ’उजाला’ में शिवराज बने आचार्य जी। एक अनाथाश्रम के आचार्य जी की भूमिका में फ़िल्म के नायक शम्मी कपूर को अपराध जगत से दूर जाने और सीधे सरल राह पर चलने की प्रेरणा देते हैं। 1959 की फ़िल्म ’अर्धांगिनी’ में एक बार फिर नायिका (मीना कुमारी) के पिता के रूप में वो नज़र आए। 1961 के आते-आते शिवराज ’पैग़ाम’, ’अपना हाथ जगन्नाथ’, ’आस का पंछी’, ’रेशमी रूमाल’, ’पासपोर्ट’ और ’बॉयफ़्रेन्ड’ जैसी फ़िल्मों में अलग अलग किरदारों में नज़र आ चुके थे। इस साल शम्मी कपूर - सायरा बानो के अभिनय से सजी सुबोध मुखर्जी की ब्लॉकबस्टर फ़िल्म आई ’जंगली’ जिसमें शिवराज ने शम्मी कपूर के वफ़ादार मैनेजर का चरित्र निभाया। 1962-63 में ’राखी’, ’Naughty Boy', ’घर बसाके देखो’, ’दिल ही तो है’, ’भरोसा’ और ’बहूरानी’ जैसी फ़िल्मों में नज़र आने के बाद 1964 में वो फिर एक बार शम्मी कपूर के साथ नज़र आए के. शंकर की यादगार फ़िल्म ’राजकुमार’ में। इस फ़िल्म में वो शम्मी कपूर के एक ऐसे वफ़ादार दीवान बने जो कभी अपने राजकुमार की पाकीज़गी पर शक़ नहीं करते यह देखते हुए भी कि वो अपने दुश्मनों की आँखों में धूल झोंकने के लिए कैसी कैसी चालें चल रहे हैं। 1964 से 1967 के दरमियाँ उनकी फ़िल्में रहीं ’अप्रैल फ़ूल’, ’जानवर’, ’भूत बंगला’, ’प्यार किए जा’, ’मेरा साया’, ’दो बदन’, ’शागिर्द’, ’बहारों के सपने’ और ’अनीता’। ये सभी अपने ज़माने की यादगार फ़िल्में हैं और इनमें शिवराज ने अलग अलग भूमिकाएँ निभाई जैसे कि गुरुजी, नाराज़ पति, चाचा/मामा, डॉक्टर, पुलिस कमिशनर वगेरह।

1968 में ’सरस्वतीचन्द्र’ फ़िल्म में शिवराज ने सरस्वतीचन्द्र के पिता की भूमिका अदा की। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस में नहीं चली लेकिन फ़िल्म के गीतों ने काफ़ी धूम मचाई। 60 के दशक के अन्त तक आते-आते शिवराज का अभिनय और निखर चुका था। ’गौरी’, ’आदमी’, ’दुपट्टा’, और एक बार फिर शम्मी कपूर अभिनीत ’सच्चाई’ में वो नज़र आए। 70 का दशक दस्तक दे रहा था। शम्मी कपूर का दौर बीत चुका था और राजेश खन्ना का दौर शुरु हो रहा था। पर शिवराज का दौर यूंही चलता चला गया। विनोद खन्ना की पहली फ़िल्म ’मन का मीत’ में वो नज़र आए 1969 में। 70 के दशक के प्रथमार्ध की जिन हिट फ़िल्मों में शिवराज ने अभिनय किया, वो थीं ’दो रास्ते’, ’डोली’, ’आया सावन झूम के’, ’पवित्र पापी’, ’मस्ताना’, ’आन मिलो सजना’, ’अधिकार’, ’पराया धन’, ’दूर का राही’, ’कारवाँ’, ’आँखों आँखों में’, ’बनारसी बाबू’, ’अनामिका’, ’नया दिन नई रात’, ’उलझन’। 1973 की नासिर हुसैन की फ़िल्म ’यादों की बारात’ में विजय अरोड़ा के पिता और 1977 की मनमोहन डेसाई की फ़िल्म ’अमर अकबर ऐन्थनी’ में ॠषी कपूर के पिता (इलाहाबादी दर्ज़ी) के रूप में शिवराज आज भी याद किए जाते हैं। संयोग से ये दोनों फ़िल्में लॉस्ट ऐन्ड फ़ाउन्ड फ़ॉर्मुला की फ़िल्में थीं और बेहद कामयाब रही। 70 के दशक के अन्तिम सालों की कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्में थीं ’दुल्हन वही जो पिया मन भाये’, ’कसमें वादे’, ’सरकारी महमाम’ और ’नैया’। 80 के दशक में भी शिवराज सक्रीय थे फ़िल्म जगत में। इस दशक की उनकी कुछ हिट फ़िल्मों के नाम हैं ’नज़राना प्यार का’, ’आशा’, ’मनोकामना’, ’वक़्त की दीवार’, ’हम से बढ़कर कौन’, ’दिल-ए-नादान’, ’अवतार’, ’बड़े दिलवाला’, ’आख़िर क्यों?’, ’मर्द’, ’घर-द्वार’, ’ऐतबार’, ’इलज़ाम’, ’आप के साथ’, ’मेरा लहू’, ’जान हथेली पे’, ’औलाद’, ’जनम जनम’, और ’बड़े घर की बेटी’। और 90 के दशक में भी कुछ फ़िल्मों में उन्हें देखा जा सकता है, जिनमें दो प्रमुख हैं 1995 की फ़िल्म ’बरसात’ और 1997 की फ़िल्म ’मृत्युदंड’। 2008 की फ़िल्म ’यार मेरी ज़िन्दगी’ शिवराज की अन्तिम फ़िल्म थी। 80 और 90 के दशक में दूरदर्शन के कई धारावाहिकों में शिवराज ने अभिनय किया। पाँच दशकों तक दर्शकों के दिलों पर राज करने के बाद शिवराज अब इस फ़ानी दुनिया से बहुत दूर जा चुके हैं, लेकिन सहज-सरल अभिनय का जो पाठ उन्होंने अपनी फ़िल्मों और अभिनय के माध्यम से पढ़ाया है, वो आने वाली कई पीढ़ियों के चरित्र अभिनेताओं का मार्ग दर्शन करते रहेंगे। ’रेडियो प्लेबैक इंडिया’ की ओर से अभिनेता शिवराज को सलाम!



आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!





शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र  



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...