3 जून 2017 को फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध चरित्र अभिनेता शिवराज का निधन हो गया। पाँच दशकों के दौरान 200 से उपर हिन्दी फ़िल्मों में तरह तरह के किरदारों में नज़र आने वाले शिवराज का हर कहानी को जीवन्त करने में बहुमूल्य योगदान रहा है। किरदार कोई भी हो, अपने सहज और प्रभावशाली अभिनय क्षमता से शिवराज ने हर फ़िल्म में दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ गए। ’पाँच दशक और एक अभिनेता शिवराज’ - आइए आज इस लेख के माध्यम से शिवराज की बातें करें। आज के ’चित्रकथा’ का यह अंक समर्पित है अभिनेता स्वर्गीय शिवराज की पुण्य स्मृति को।
शिवराज (निधन - 3 जून 2017) |
1953-54 दौरान शिवराज ने कुछ और कमचर्चित फ़िल्मों में अभिनय किया जैसे कि ’हमदर्द’, ’डंका’, ’डाकू की लड़की’, और ’बादबान’। ’पतिता’ में भले शिवराज खलनायक के रूप में किरदार में जान डाल दी थी, लेकिन खलनायक का टैग उन पर नहीं लग सका और 1955 की एम. वी. रमण की फ़िल्म ’पहली झलक’ में वो एक बूढ़े फ़कीर की भूमिका में गीत गाते नज़र आए - "ज़मीं चल रही है, आसमाँ चल रहा है, ये किसके इशारे जहाँ चल रहा है"। हेमन्त कुमार की आवाज़ में यह गीत है। अपने करीयर के शुरु से ही वृद्ध की भूमिकाएँ करने की वजह से शिवराज कुछ हद तक टाइपकास्ट हो गए और एक नौजवान होने के बावजूद वो वृद्ध चरित्रों में ज़्यादा नज़र आए। जिस तरह से गायक मन्ना डे को यह शिकायत रही कि उन्हें बूढ़े किरदारों के प्लेबैक के ही मौके मिलते थे, उसी तरह शिवराज ऐसे अभिनेता रहे जिन्हें परदे पर बूढ़े किरदार निभाने को मिलते थे। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि किरदार चाहे कोई भी हो, शिवराज ने हर बार अपना लोहा मनवाया, फिर चाहे एक आदर्श पिता का चरित्र हो या ईमानदार मैनेजर या नौकर का। और उनके इसी जानदार अभिनय क्षमता की वजह से उन्हें उस दौर के कई महत्वपूर्ण फ़िल्मों में अभिनय करने के मौके मिले। 1955 की अमिय चक्रवर्ती की फ़िल्म ’सीमा’ में उन्होंने निकम्मे चाचा काशिनाथ का किरदार निभाया जिनके साथ नूतन शुरु में रहती हैं उनके माँ-बाप के निधन के बाद। इसी साल बिमल रॉय की कालजयी फ़िल्म ’देवदास’ में शिवराज को पारो के पिता नीलकान्त के रूप में दर्शकों ने देखा। 2002 के शाहरुख़ ख़ान वाली ’देवदास’ में यह चरित्र निभाया था सुनिल रेगे ने। ख़ैर, 1955-56 में शिवराज के अभिनय से सजी जो अन्य फ़िल्में आईं वो थीं ’House No. 44', ’अनुराग’, ’New Delhi’, ’मेम साहिब’, और ’भाई भाई’।
1957 की फ़िल्म ’मिस मेरी’ में शिवराज ने एक पादरी (नायिका मीना कुमारी के पिता) की भूमिका अदा की। यह एल. वी. प्रसाद की AVM Productions के बैनर तले निर्मित फ़िल्म थी। इसी साल अमिय चक्रवर्ती की फ़िल्म ’देख कबीरा रोया’ में भी नायिका अनीता गुहा के पिता के चरित्र में वो नज़र आए। यह मज़ेदार बात है कि शिवराज को हमेशा नायिका के पिता के रूप में चुना गया, नायक के पिता के रूप में नहीं। 1957 की ही फ़िल्म ’भाभी’ में भी शिवराज अभिनेत्री नलिनी के पिता बने। 1958 की फ़िल्म ’अमरदीप’ में एक नौकर का रोल निभाने के बाद 1959 में नरेश सहगल की फ़िल्म ’उजाला’ में शिवराज बने आचार्य जी। एक अनाथाश्रम के आचार्य जी की भूमिका में फ़िल्म के नायक शम्मी कपूर को अपराध जगत से दूर जाने और सीधे सरल राह पर चलने की प्रेरणा देते हैं। 1959 की फ़िल्म ’अर्धांगिनी’ में एक बार फिर नायिका (मीना कुमारी) के पिता के रूप में वो नज़र आए। 1961 के आते-आते शिवराज ’पैग़ाम’, ’अपना हाथ जगन्नाथ’, ’आस का पंछी’, ’रेशमी रूमाल’, ’पासपोर्ट’ और ’बॉयफ़्रेन्ड’ जैसी फ़िल्मों में अलग अलग किरदारों में नज़र आ चुके थे। इस साल शम्मी कपूर - सायरा बानो के अभिनय से सजी सुबोध मुखर्जी की ब्लॉकबस्टर फ़िल्म आई ’जंगली’ जिसमें शिवराज ने शम्मी कपूर के वफ़ादार मैनेजर का चरित्र निभाया। 1962-63 में ’राखी’, ’Naughty Boy', ’घर बसाके देखो’, ’दिल ही तो है’, ’भरोसा’ और ’बहूरानी’ जैसी फ़िल्मों में नज़र आने के बाद 1964 में वो फिर एक बार शम्मी कपूर के साथ नज़र आए के. शंकर की यादगार फ़िल्म ’राजकुमार’ में। इस फ़िल्म में वो शम्मी कपूर के एक ऐसे वफ़ादार दीवान बने जो कभी अपने राजकुमार की पाकीज़गी पर शक़ नहीं करते यह देखते हुए भी कि वो अपने दुश्मनों की आँखों में धूल झोंकने के लिए कैसी कैसी चालें चल रहे हैं। 1964 से 1967 के दरमियाँ उनकी फ़िल्में रहीं ’अप्रैल फ़ूल’, ’जानवर’, ’भूत बंगला’, ’प्यार किए जा’, ’मेरा साया’, ’दो बदन’, ’शागिर्द’, ’बहारों के सपने’ और ’अनीता’। ये सभी अपने ज़माने की यादगार फ़िल्में हैं और इनमें शिवराज ने अलग अलग भूमिकाएँ निभाई जैसे कि गुरुजी, नाराज़ पति, चाचा/मामा, डॉक्टर, पुलिस कमिशनर वगेरह।
1968 में ’सरस्वतीचन्द्र’ फ़िल्म में शिवराज ने सरस्वतीचन्द्र के पिता की भूमिका अदा की। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस में नहीं चली लेकिन फ़िल्म के गीतों ने काफ़ी धूम मचाई। 60 के दशक के अन्त तक आते-आते शिवराज का अभिनय और निखर चुका था। ’गौरी’, ’आदमी’, ’दुपट्टा’, और एक बार फिर शम्मी कपूर अभिनीत ’सच्चाई’ में वो नज़र आए। 70 का दशक दस्तक दे रहा था। शम्मी कपूर का दौर बीत चुका था और राजेश खन्ना का दौर शुरु हो रहा था। पर शिवराज का दौर यूंही चलता चला गया। विनोद खन्ना की पहली फ़िल्म ’मन का मीत’ में वो नज़र आए 1969 में। 70 के दशक के प्रथमार्ध की जिन हिट फ़िल्मों में शिवराज ने अभिनय किया, वो थीं ’दो रास्ते’, ’डोली’, ’आया सावन झूम के’, ’पवित्र पापी’, ’मस्ताना’, ’आन मिलो सजना’, ’अधिकार’, ’पराया धन’, ’दूर का राही’, ’कारवाँ’, ’आँखों आँखों में’, ’बनारसी बाबू’, ’अनामिका’, ’नया दिन नई रात’, ’उलझन’। 1973 की नासिर हुसैन की फ़िल्म ’यादों की बारात’ में विजय अरोड़ा के पिता और 1977 की मनमोहन डेसाई की फ़िल्म ’अमर अकबर ऐन्थनी’ में ॠषी कपूर के पिता (इलाहाबादी दर्ज़ी) के रूप में शिवराज आज भी याद किए जाते हैं। संयोग से ये दोनों फ़िल्में लॉस्ट ऐन्ड फ़ाउन्ड फ़ॉर्मुला की फ़िल्में थीं और बेहद कामयाब रही। 70 के दशक के अन्तिम सालों की कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्में थीं ’दुल्हन वही जो पिया मन भाये’, ’कसमें वादे’, ’सरकारी महमाम’ और ’नैया’। 80 के दशक में भी शिवराज सक्रीय थे फ़िल्म जगत में। इस दशक की उनकी कुछ हिट फ़िल्मों के नाम हैं ’नज़राना प्यार का’, ’आशा’, ’मनोकामना’, ’वक़्त की दीवार’, ’हम से बढ़कर कौन’, ’दिल-ए-नादान’, ’अवतार’, ’बड़े दिलवाला’, ’आख़िर क्यों?’, ’मर्द’, ’घर-द्वार’, ’ऐतबार’, ’इलज़ाम’, ’आप के साथ’, ’मेरा लहू’, ’जान हथेली पे’, ’औलाद’, ’जनम जनम’, और ’बड़े घर की बेटी’। और 90 के दशक में भी कुछ फ़िल्मों में उन्हें देखा जा सकता है, जिनमें दो प्रमुख हैं 1995 की फ़िल्म ’बरसात’ और 1997 की फ़िल्म ’मृत्युदंड’। 2008 की फ़िल्म ’यार मेरी ज़िन्दगी’ शिवराज की अन्तिम फ़िल्म थी। 80 और 90 के दशक में दूरदर्शन के कई धारावाहिकों में शिवराज ने अभिनय किया। पाँच दशकों तक दर्शकों के दिलों पर राज करने के बाद शिवराज अब इस फ़ानी दुनिया से बहुत दूर जा चुके हैं, लेकिन सहज-सरल अभिनय का जो पाठ उन्होंने अपनी फ़िल्मों और अभिनय के माध्यम से पढ़ाया है, वो आने वाली कई पीढ़ियों के चरित्र अभिनेताओं का मार्ग दर्शन करते रहेंगे। ’रेडियो प्लेबैक इंडिया’ की ओर से अभिनेता शिवराज को सलाम!
आख़िरी बात
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शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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