अंक - 2
बिमल रॉय की मृत्यु की अजीबोग़रीब दास्तान
“अमृत कुंभ की खोज में...”
फ़िल्मकार बिमल रॉय एक कहानी पर फ़िल्म बना रहे थे। फ़िल्म तो नहीं बनी पर उस कहानी की एक घटना बिमल रॉय के साथ यूं के यूं घट गई। यह उनके जीवन की आख़िरी घटना थी। यह उनकी मृत्यु की घटना थी। आइए आज ’चित्रकथा’ में इसी अजीबोग़रीब घटना के बारे में जाने जिसका उल्लेख गुलज़ार साहब ने उनकी लघुकथाओं की पुस्तक ’रावी पार’ में ’बिमल दा’ नामक लेख में किया है।
कुछ कलाकार ऐसे होते हैं जो एक बहुत ही कम कार्यकाल में या छोटी सी आयु में अपनी कला, लगन और परिश्रम से ऐसा कुछ कर जाते हैं कि फिर वो अमर हो जाते हैं। बिमल रॉय एक ऐसे ही फ़िल्मकार थे जिन्होंने केवल एक दशक में इतने सारे हिट और उच्चस्तरीय फ़िल्में भारतीय सिनेमा को दी है कि उन्हें अगर भारतीय सिनेमा के स्तंभ फ़िल्मकारों में से एक कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। बिमॉल रॉय एक ऐसी संस्था का नाम है जो आज तक प्रेरणास्रोत बनी हुई है। लेकिन आज हम बिमल रॉय की फ़िल्मों की समीक्षा नहीं कर रहे हैं, बल्कि एक ऐसी आश्चर्यजनक घटना से आपका परिचय करवाने जा रहे हैं कि जिसे पढ़ कर आप भी दंग रह जायेंगे। अगर फ़िल्म की कहानी के नायक से साथ घटने वाली घटना ख़ुद फ़िल्मकार के साथ घट जाए, और वह भी उसी दिन जिस दिन कहानी में वह घटना घटने वाली हो, तो फिर इसे आप क्या कहेंगे? सिर्फ़ संजोग या कुछ और?
से। बात 1955 की रही होगी जब बिमल रॉय ’देवदास’ बना रहे थे। शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की इस उपन्यास पर फ़िल्म बनाने के बाद उन्होंने एक और बांगला उपन्यासकार समरेश बसु की एक उपन्यास पढ़ना शुरु किया। उपन्यास पूरी पढ़ डाली। उपन्यास का नाम था "अमृतो कुंभेर संधाने" (अमृत कुंभ की खोज में)। वो इस पर एक बांगला-हिन्दी द्विभाषी फ़िल्म बनाना चाहते थे। हिन्दी संस्करण वाले फ़िल्म का नाम रखा गया ’अमृत कुंभ की खोज में’। समरेश बसु की उपन्यास की कहानी महाकुंभ मेले में होने वाले प्रचलित स्नान पर आधारित थी। ऐसी मान्यता है कि मेले के नौवे दिन, यानी कि जोग-स्नान के दिन प्रयाग के संगम में स्नान करने से व्यक्ति को लम्बी आयु और स्वस्थ जीवन मिलता है। समरेश बसु की उपन्यास के हिसाब से कहानी का मुख्य पात्र बलराम को टी.बी (काली खाँसी) हो जाती है, और वो दिन-ब-दिन कमज़ोर होता जाता है। इस वजह से वो अपनी लम्बी उम्र के लिए इलाहाबाद महाकुंभ के नौवे दिन, यानी कि जोग-स्नान वाले दिन स्नान करने आता है, पर दुर्भाग्य से बलराम पहले ही दिन भगदड़ में मारा जाता है। समरेश बसु की इस कहानी में जिस भगदड़ का पार्श्व रखा गया है, वह हक़ीक़त में 1954 के कुंभ मेले में हुई थी। 3 फ़रवरी के दिन हुई इस भगदड़ में 800 से अधिक लोग मारे गए थे और 2000 बुरी तरह से घायल हुए थे। यह मौनी अमावस्या का स्नान था। इसी भगदड़ का उल्लेख हमें विक्रम सेठ की 1993 की उपन्यास ’A Suitable Boy' में भी मिलता है।
ख़ैर, बिमल रॉय को यह कहानी बहुत पसन्द आई, और उन्हें लगा कि इस कहानी के माध्यम से समाज को एक सशक्त संदेश दिया जा सकता है और साथ ही नाटकीय क्लाइमैक्स की वजह से फ़िल्म आम जनता को भी पसन्द आएगी। मगर कहानी की एक बात उन्हें बहुत खटक रही थी और वह यह कि बलराम का पहले ही दिन मर जाना उन्हें कुछ ठीक नहीं लगा। आख़िर वो एक फ़िल्मकार थे और फ़िल्म बनाना चाह रहे थे। मुख्य नायक के पहले ही दिन मर जाने से वो सहमत नहीं थे। फ़िल्म के फ़्लॉप होने का खतरा उन्हें नज़र आ रहा था। फिर भी उन्होंने इस कहानी पर स्क्रिप्ट लिखने का काम गुलज़ार को दे दिया। यह बात होगी सन् 1959 की। गुलज़ार साहब ने अगले तीन साल तक स्क्रिप्ट पर काम करना जारी रखा। जब जब समय मिलता वो बिमल रॉय से नोट्स लेते और लिखने बैठ जाते। काम अपनी गति से चलने लगा।
’अमृत कुंभ की खोज में’ के नायक की भूमिका के लिए पहले-पहले दिलीप कुमार का नाम तय हुआ था,
1960 में इलाहाबाद के अर्धकुंभ में फ़िल्माए गए स्टॉक शॉट्स में से एक |
1943 में ’Bengal Famine' नामक फ़िल्म से अपना करीयर शुरु करने के बाद पचास के दशक में बिमल रॉय भारतीय सिनेमा के एक स्तंभ फ़िल्मकार बन चुके थे। 1953 में ’परिणीता’, ’दो बिघा ज़मीन’, 1954 में ’बिराज बहू’, ’बाप बेटी’, 1955 में ’देवदास’, 1958 में ’यहूदी’ और ’मधुमती’, 1959 में ’सुजाता’ और 1960 में ’परख’ जैसी फ़िल्में देकर बिमल दा शोहरत की बुलन्दी पर जा पहुँचे थे। पर काल के आगे किसी का बस नहीं चलता। उनके इस सफलता को कोई बुरी नज़र लग गई। इस एक दशक के अन्दर उन्हें 11 फ़िल्मफ़ेअर और 6 राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। उनकी एक और कालजयी फ़िल्म ’बन्दिनी’ उनकी मृत्यु के बाद प्रदर्शित हुई।
’अमृत कुंभ की खोज में’ तो फिर नहीं बन सकी, पर 1960 के इलाहाबाद के अर्धकुंभ में जो शॉट्स लिए गए थे, उन फ़ूटेज को 11 मिनट की एक लघु वृत्तचित्र के रूप में जारी किया गया। दरसल बिमल दा की मृत्यु के बाद यह फ़ूटेज भी खो गई थी, या यूं कहिए कि इस पर किसी का ध्यान नहीं गया। पर तीन दशक बाद, मार्च 1999 में बिमल दा के पुत्र जॉय रॉय को अकस्मात यह फ़ूटेज मिल गई और वह भी उत्तम अवस्था में। उन्हें जैसे कोई अमूल्य ख़ज़ाना मिल गया हो! तब जॉय ने इन फ़ूटेजों को जोड़ कर 11 मिनट का एक लघु वृत्तचित्र तैयार किया ’Images of Kumbh Mela' शीर्षक से। इस दुर्लभ वृत्तचित्र को नीचे दिए गए यू-ट्युब लिंक पर देखा जा सकता है।
आपकी बात
’चित्रकथा’ की पहली कड़ी को आप सभी ने सराहा, जिसके लिए हम आपके आभारी हैं। इस कड़ी की रेडरशिप 13 जनवरी तक 154 आयी है। हमारे एक पाठक श्री सुरजीत सिंह ने यह सुझाव दिया है कि क्यों ना इसे हिन्दी और अंग्रेज़ी, दोनों भाषाओं में प्रकाशित की जाए! सुरजीत जी, आपका सुझाव बहुत ही अच्छा है, लेकिन फ़िलहाल समयाभाव के कारण हम ऐसा कर पाने में असमर्थ हैं। भविष्य में अवकाश मिलने पर हम इस बारे में विचार कर सकते हैं, पर इस वक़्त ऐसा संभव नहीं, इसके लिए हमें खेद है।
आख़िरी बात
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शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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