ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं.. ताहिरा सैय्यद ने कुछ यूँ आवाज़ दी दाग़ की दीवानगी और मस्तानगी को
कहकशाँ - 26
ताहिरा सय्यद की आवाज़ में दाग़ दहलवी का कलाम
"ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं..."
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी महफ़िल, कहकशाँ। आज पेश है ताहिरा सय्यद की आवाज़ में दाग़ दहलवी का कलाम।
कोई नामो-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना,
तख़ल्लुस 'दाग़' है और आशिकों के दिल में रहते हैं।
"कौन ऐसी तवाएफ़ थी जो ‘दाग़’ की ग़ज़ल बग़ैर महफिल में रंग जमा सके? क्या मुशाअरे, क्या अदबी मजलिसें, क्या आपसी सुहबतें, क्या महफ़िले-रक्स, क्या गली-कूचें, सर्वत्र ‘दाग़’ का ही रंग ग़ालिब था।" अपनी पुस्तक "शेर-ओ-सुखन: भाग ४" में अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने उपरोक्त कथन के द्वारा दाग़ की मक़बूलियत का बेजोड़ नज़ारा पेश किया है। ये आगे लिखते हैं:
मिर्ज़ा ‘दाग़’ को अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से-बड़े शाइर को अपनी ज़िन्दगी में मयस्सर न हुई। स्वयं उनके उस्ताद इब्राहिम ‘ज़ौक़’ शाही क़फ़समें पड़े हुए ‘तूतिये-हिन्द’ कहलाते रहे, मगर १०० रू० माहवारी से ज़्यादा का आबो-दाना कभी नहीं पा सके। ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’, ‘अमर-शाइर’ ‘गा़लिब’ और ‘आतिश’-जैसे आग्नेय शाइरों को अर्थ-चिन्ता जीवनभर घुन के कीड़े की तरह खाती रही। हकीम ‘मोमिन शेख़’, ‘नासिख़’ अलबत्ता अर्थाभाव से किसी क़द्र निश्चन्त रहे, मगर ‘दाग़’ जैसी फ़राग़त उन्हें भी कहाँ नसीब हुई? जागीर मिलने और उच्च पदवियों से विभूषित होने के अतिरिक्त १५०० रू० मासिक वेतन, राजसी ठाट-बाट और नवाब हैदराबाद के उस्ताद होने का महान गौरव मिर्जा़ ‘दाग़’ को प्राप्त था। सच मानिए तो १९-वीं शताब्दी का अन्तिम युग ‘दाग़’ युग था।
दाग़ की ख्याति का यह आलम था कि उनकी शिष्य मण्डली में सम्मलित होना बहुत बड़ा सौभाग्य एवं गौरव समझा जाता था। हैदराबाद-जैसे सुदूर प्रान्त में ‘दाग़’ के समीप जो शाइर नहीं रह सकते थे, वे लगभग शिष्य संशोधनार्थ ग़ज़लें भेजते थे। ‘दाग़’ का शिष्य कहलाना ही उन दिनों शाइर होने का बहुत बड़ा प्रमाणपत्र समझा जाता था। मिर्जा दाग़ के जन्नत-नशीं होने के बाद एक दर्जन से अधिक शिष्य अपने को ‘जा-नशीने-दाग़’ (गुरुका उत्तराधिकारी शिष्य) लिखने लगे। नवाब ‘साइल’ मिर्जा ‘दाग़’ के दामाद भी थे और शिष्य भी। अतः बहुत बड़ी संख्या उन्हीं को ‘जानशीने-दाग़’ समझती थी। ‘बेखुद’ देहलवी, ‘बेखुद’ बेख़ुद’ बदायूनी, ‘आगा’ शाइर क़िज़िलबाश, ‘अहसन’ मारहरवी’, ‘नूह’ नारवी, भी अपने को ‘जानशीने-दाग़’ लिखने में बहुत अधिक गर्व का अनुभव करते हैं; और किसी कि मजाल नहीं जो उन्हें इस गौरवास्पद शब्द से वंचित कर सके। वास्तविक उत्ताधिकारी कौन है, इस प्रश्न को सुलझाने के लिए वर्षों वाद-विवाद चले हैं।
कहा जाता है कि दाग़ के २००० से अधिक शागिर्द थे। इन शागिर्दों में दो ऐसे भी शागिर्द रहे हैं, जिन्हें उत्तराधिकारी कहे जाने का कोई शौक़ या कोई जिद्द नहीं थी, लेकिन इन्हीं दोनों ने दाग़ का नाम सबसे ज्यादा रोशन किया है। उनमें से एक थे जिगर मुरादाबादी, और दूसरे थे मोहम्मद अल्लामा इक़बाल। इक़बाल अपनी कविताएँ डाक द्वारा ‘दाग़’ देहलवी को संशोधनार्थ भेजा करते थे। महज २२ वर्ष की आयु में ही इक़बाल ऐसी दुरूस्त गज़लें लिखने लगे थे कि मिर्ज़ा दाग़ को भी उनकी काबिलियत का लोहा मानना पड़ा था। दाग़ ने उनकी रचनाएँ इस टिप्पणी के साथ वापस करनी शुरू कर दी कि रचनाएँ संशोधन की मोहताज नहीं हैं।
अभी ऊपर हमने दाग़ के सुपूर्द-ए-खाक होने की बातें कीं, लेकिन इससे पहले जो चार दिन की ज़िंदगी होती है या फिर जन्म होता है, उसका ज़िक्र भी तो लाजिमी है। तो दाग़ का जन्म नवाब मिर्ज़ा ख़ान के रूप में २५ मई १८३१ को हुआ था। इन्होंने बस दस वर्ष की अवस्था से ही ग़ज़ल पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। १८६५ में वे रामपूर चले गए। रामपुर में इनकी मक़बूलियत का हवाला देते हुए हज़रत ‘नूह’ नारवी लिखते हैं कि -"मुझसे रामपुर के एक सिन-रसीदा (वयोवृद्ध) साहब ने ज़िक्र किया कि नवाब कल्ब अली खाँ साहब का मामूल था कि मुशाअरे के वक़्त कुछ लोगों को मुशाअरे के बाहर महज़ इस ख्याल बैठा देते थे कि बाद में ख़त्म मुशाअरा लोग किसका शेर पढ़ते हुए मुशाइरे से बाहर निकलते हैं। चुनाव हमेशा यही होता था कि ‘दाग़’ साहब का शेर पढ़ते हुए लोग अपने-अपने घरों को जाते थे।" २४ साल रामपुर में व्यतीत करने के बाद दाग़ १८९१ के आस-पास हैदराबाद चले गए। यहीं पर १७ फरवरी १९०५ को इन्होंने अंतिम साँसें लीं।
दाग़ के बारे में और जानने के लिए चलिए अब हम निदा फ़ाज़ली साहब की शरण में चलते हैं:
दाग़ के पिता नवाब शम्सुद्दीन ने अपनी बंदूक से देश प्रेम में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी को उड़ा दिया था। नवाब साहब को फाँसी दी गई और उनकी पत्नी अपने पाँच साल के बेटे को रामपुर में अपनी बहन के हवाले करके, जान बचाने के लिए इधर-उधर भागती रहीं। जहाँ उन्हें मदद मिली वहाँ-वहाँ इसकी क़ीमत उन्हें अपने शरीर से चुकानी पड़ी, जिसके नतीजे में दाग़ के एक भाई और बहन अंग्रेज़ नस्ल से भी हुए। यह अभागिन महिला आख़िर में, आख़िरी मुग़ल सम्राट के होने वाले जानशीन मिर्ज़ा फखरू के निकाह में आई। यह १८५७ से पहले का इतिहास है। महल में आने के बाद माँ को रामपुर में छोड़े हुए बेटे की याद आई और किस्मत, बदकिस्मत बेटे को रामपुर से लालकिले में ले आई। १८५७ से एक साल पहले मिर्जा फखरू का देहांत हुआ और उसके बाद माँ और बेटा दोनों फिर से बेघर हो गए. दाग़ उस वक़्त शायर बन चुके थे। मशहूर हो चुके थे। शायरी ने उस समय के रामपुर नवाब को उन पर मेहरबान बनाया और उन्होंने फिर से घर-बार बसाया।
रामपुर में हर साल एक मेला लगता था, जिसमें देश की मशहूर तवायफ़ें अपने गायन और नृत्य का प्रदर्शन करती थीं। उन तवायफों में एक नवाब साहब के भाई की प्रेमिका थी। दाग़ का दिल उसी पर आ गया। उनका नाम था मुन्नी बाई हिजाब। मुहब्बत की दीवानगी में पत्नी के मना करने के बावजूद नवाब साहब के नाम दाग़ ने खत लिख डाला: "नवाब साहब आपको ख़ुदा ने हर ख़ुशी से नवाज़ा है, मगर मेरे लिए सिर्फ़ एक ही ख़ुशी है और वह है मुन्नी बाई।"
नवाब तो दाग़ की शायरी के प्रशंसक थे, उन्होंने मुन्नी बाई के ज़रिए ही उत्तर भेजा। लिखा था - "दाग़ साहब, हमें आपकी ग़ज़ल से ज़्यादा मुन्नी बाई अजीज़ नहीं है।" मुन्नी बाई दाग़ साहब की प्रेमिका के रूप में उनके साथ रहने लगीं। लेकिन जब मन में धन का प्रवेश हुआ तो मन बेचारा बंजारा बन गया और मुन्नी बाई उन्हें छोड़ के चली गईं। इसी बेवफ़ाई पर शायद दाग़ ने यह शेर कहा था:
तू जो हरजाई है अपना भी यही तौर सही
तू नहीं और सही और नहीं, और सही
लखनवी और देहलवी अंदाज़ की शायरी का सम्मिश्रण दाग की शायरी में बखूबी नज़र आता है। अब आप सोच रहे होंगे कि ये दो अंदाज़ हैं क्या और इनमें अंतर क्या है। इसी प्रश्न का जवाब देवी नागरानी आर०पी०शर्मा "महर्षि" से पूछ रही हैं: (साभार: साहित्य कुंज) "देहलवी शायरी में प्रेमी का उसके सच्चे प्रेम तथा दुख-दर्द का स्वाभाविक वर्णन होता है, जब कि लखनवी शायरी अवध की उस समय विलासता से प्रभावित रही। अतः उसमें प्रेम को वासना का रूप दे दिया गया तथा शायरी प्रेमिका के इर्द -गिर्द ही घूमती रही। वर्णन में कृत्रिमता एवं उच्छृंखलता से काम लिया गया। अब लखनवी शायरी में सुधार आ गया है।" ये तो हुई अंतर की बात, लेकिन अगर इनमें मेल-मिलाप जानना हो तो दाग़ के इन शेरों से बढ़कर और मिसाल नहीं मिल सकते:
ग़म से कहीं निजात मिले चैन पाएं हम,
दिल ख़ूं में नहाए तो गंगा नहाएं हम
ख़ूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं,
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना, जो पता एक ने जाना तेरा
दाग़ के बारे में आज हमने बहुत कुछ जाना। महफ़िल तभी सफ़ल मानी जाती है जब शेरों के साथ-साथ शायर की भी दिल खोलकर बातें हो। आज की महफ़िल भी कुछ वैसी ही थी। इसलिए मैं मुतमुईन होकर ग़ज़ल की और बढ़ने को बेकाबू हूँ। चलिए तो अब आज की ग़ज़ल से रूबरू हुआ जाए। इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ से सजाया है मल्लिका पुखराज की सुपुत्री ताहिर सैय्यद ने, जो खुद ही बेमिसाल आवाज़ की मालकिन रही हैं। तो लीजिए पेश-ए-ख़िदमत है आज की ग़ज़ल, जिसमें दाग़ ज़ाहिद से यह दरख्वास्त कर रहे हैं कि ये प्यार में पागल मस्ताने और दीवाने आदमी हैं, इसलिए इन्हें बुरा न कहा जाए:
ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं
तुझ से लिपट पड़ेंगे, दीवाने आदमी हैं
गै़रों की दोस्ती पर क्यों ऐतबार कीजे
ये दुश्मनी करेंगे, बेगाने आदमी हैं
तुम ने हमारे दिल में घर कर लिया तो क्या है
आबाद करते, आख़िर वीराने आदमी हैं
क्या चोर हैं जो हम को दरबाँ तुम्हारा टोके
कह दो कि ये तो जाने-पहचाने आदमी हैं
खोज और आलेख : विश्व दीपक ’तन्हा’
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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