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राग भैरवी : SWARGOSHTHI – 298 : RAG BHAIRAVI




स्वरगोष्ठी – 298 में आज

नौशाद के गीतों में राग-दर्शन – 11 : 98वें जन्मदिवस पर स्वरांजलि

“दिया ना बुझे री आज हमारा...”




नौशाद : जन्मतिथि - 25 दिसम्बर, 1919
 ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी श्रृंखला – “नौशाद के गीतों में राग-दर्शन” की समापन कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज के अंक में हम आपसे राग भैरवी पर चर्चा करेंगे। इस श्रृंखला में हम भारतीय फिल्म संगीत के शिखर पर विराजमान नौशाद अली के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व पर चर्चा कर रहे हैं। श्रृंखला की विभिन्न कड़ियों में हम आपको फिल्म संगीत के माध्यम से रागों की सुगन्ध बिखेरने वाले अप्रतिम संगीतकार नौशाद अली के कुछ राग-आधारित गीत प्रस्तुत कर रहे हैं। श्रृंखला की इस समापन कड़ी का प्रसारण हम आज 25 दिसम्बर को नौशाद अली की 98वीं जयन्ती के अवसर पर कर रहे हैं और तमाम संगीत-प्रेमियों की ओर से स्वरांजलि अर्पित करते हैं। 25 दिसम्बर, 1919 को सांगीतिक परम्परा से समृद्ध शहर लखनऊ के कन्धारी बाज़ार में एक साधारण परिवार में नौशाद का जन्म हुआ था। नौशाद जब कुछ बड़े हुए तो उनके पिता वाहिद अली घसियारी मण्डी स्थित अपने नए घर में आ गए। यहीं निकट ही मुख्य मार्ग लाटूश रोड (वर्तमान गौतम बुद्ध मार्ग) पर संगीत के वाद्ययंत्र बनाने और बेचने वाली दूकाने थीं। उधर से गुजरते हुए बालक नौशाद घण्टों दूकान में रखे साज़ों को निहारा करते थे। एक बार तो दूकान के मालिक गुरबत अली ने नौशाद को फटकारा भी, लेकिन नौशाद ने उनसे आग्रह किया की वे बिना वेतन के दूकान पर रख लें। नौशाद उस दूकान पर रोज बैठते, साज़ों की झाड़-पोछ करते और दूकान के मालिक का हुक्का तैयार करते। साज़ों की झाड़-पोछ के दौरान उन्हें कभी-कभी बजाने का मौका भी मिल जाता था। उन दिनों मूक फिल्मों का युग था। फिल्म प्रदर्शन के दौरान दृश्य के अनुकूल सजीव संगीत प्रसारित हुआ करता था। लखनऊ के रॉयल सिनेमाघर में फिल्मों के प्रदर्शन के दौरान एक लद्दन खाँ थे जो हारमोनियम बजाया करते थे। यही लद्दन खाँ साहब नौशाद के पहले गुरु बने। नौशाद के पिता संगीत के सख्त विरोधी थे, अतः घर में बिना किसी को बताए सितार नवाज़ युसुफ अली और गायक बब्बन खाँ की शागिर्दी की। कुछ बड़े हुए तो उस दौर के नाटकों की संगीत मण्डली में भी काम किया। घर वालों की फटकार बदस्तूर जारी रहा। अन्ततः 1937 में एक दिन घर में बिना किसी को बताए माया नगरी बम्बई की ओर रुख किया।



नौशाद और  लता  मंगेशकर
 मु म्बई आकर फिल्म संगीतकार के रूप में स्वयं को स्थापित करने के लिए नौशाद ने कडा संघर्ष किया। मुम्बई में सबसे पहले नौशाद को चालीस रुपये मासिक वेतन पर ‘न्यू पिक्चर कम्पनी’ के वाद्यवृन्द में पियानो वादक की नौकरी मिली। इसी फिल्म कम्पनी की फिल्म ‘सुनहरी मकड़ी’ के एक गीत को स्वरबद्ध करने पर उनकी तरक्की सहायक संगीतकार के रूप में हो गई। लखनऊ से मुम्बई आने से पहले नौशाद अपने एक परिचित अब्दुल मजीद ‘आदिल’ से उनके बम्बई में रह रहे मित्र अलीम ‘नामी’ के नाम एक पत्र लिखवा कर लाए थे। शुरू में उन्हें अलीम साहब के यहाँ आश्रय भी मिला था। परन्तु ‘न्यू पिक्चर कम्पनी’ की नौकरी मिलने के बाद नौशाद ने अलीम साहब पर बोझ बने रहना उचित नहीं समझा और लखनऊ के ही एक अख्तर साहब के साथ दादर में रहने लगे। इसी बीच उनकी मित्रता गीतकार पी.एल. सन्तोषी से हो गई, जो गीत लिखते समय नौशाद से सलाह लिया करते थे। इस दौरान नौशाद दस रुपये मासिक किराये पर परेल की एक चाल में रहने लगे थे। गीतकार दीनानाथ मधोक नौशाद के सबसे बड़े शुभचिन्तक थे। मधोक की मदद से नौशाद को मिली और 1944 में प्रदर्शित फिल्म ‘रतन’ नौशाद की बेहद सफल फिल्म थी। इस फिल्म के गीतों की साढ़े तीन लाख रुपये रायल्टी अर्जित हुई थी। यह उस समय की बहुत बड़ी रकम थी। 1947 में प्रदर्शित फिल्म ‘दर्द’ इसलिए उल्लेखनीय है कि इस फिल्म में पहली बार नौशाद और गीतकार शकील बदायूनी का साथ हुआ। गीतकार और संगीतकार की यह जोड़ी काफी लम्बी चली। शकील बदायूनी के निधन से पूर्व उनकी चिकित्सा के लिए आर्थिक सहयोग दिलाने हेतु अन्तिम गीत भी नौशाद ने ही लिखवाया था। शकील बदायूनी जब क्षयरोग से ग्रसित होकर एक सेनीटोरियम में भर्ती हुए, उस समय उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। नौशाद ने उनकी आर्थिक मदद के इरादे से 1967-68 में प्रदर्शित तीन फिल्मों; ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’ और ‘संघर्ष’ में गीत लिखने का अनुबन्ध कराया था। फिल्म ‘राम और श्याम’ का एक गीत –“आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले, कल तेरी वज़्म से दीवाना चला जाएगा...” सम्भवतः उनके निधन से पूर्व का अन्तिम लिखा गया गीत है। शकील बदायूनी के गीतों से और नौशाद के संगीत से सजी 1962 में प्रदर्शित फिल्म ‘सन ऑफ इण्डिया’ का एक गीत आज हमारी चर्चा में है। सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार महबूब इस फिल्म के निर्माता, निर्देशक और लेखक थे। शकील बदायूनी के लिखे फिल्म के एक गीत –“दिया ना बुझे री आज हमारा...” की स्वरयोजना नौशाद ने राग भैरवी में की थी। यह नृत्य-गीत लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ में है। आइए, सुनते हैं, यह लुभावना गीत जो नृत्यांगना-अभिनेत्री कुमकुम और साथियों पर फिल्माया गया था।

राग भैरवी : “दिया ना बुझे री आज हमारा...” : लता मंगेशकर और साथी : फिल्म – सन ऑफ इण्डिया


 राग भैरवी में ऋषभ, गान्धार, धैवत और निषाद सभी कोमल स्वरों का प्रयोग किया जाता है। इस राग का वादी स्वर मध्यम और संवादी स्वर षडज होता है। राग भैरवी के आरोह स्वर हैं, सा, रे॒ (कोमल), ग॒ (कोमल), म, प, ध॒ (कोमल), नि॒ (कोमल), सां तथा अवरोह के स्वर, सां, नि॒ (कोमल), ध॒ (कोमल), प, म ग (कोमल), रे॒ (कोमल), सा होते हैं। यूँ तो इस राग के गायन-वादन का समय प्रातःकाल, सन्धिप्रकाश बेला में है, किन्तु आम तौर पर इसका गायन-वादन किसी संगीत-सभा अथवा समारोह के अन्त में किये जाने की परम्परा बन गई है। ‘भारतीय संगीत के विविध रागों का मानव जीवन पर प्रभाव’ विषय पर अध्ययन और शोध कर रहे लखनऊ के जाने-माने मयूर वीणा और इसराज वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र से जब मैंने राग भैरवी पर चर्चा की तो उन्होने स्पष्ट बताया कि भारतीय रागदारी संगीत से राग भैरवी को अलग करने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यदि ऐसा किया गया तो मानव जाति प्रातःकालीन ऊर्जा की प्राप्ति से वंचित हो जाएगा। राग भैरवी मानसिक शान्ति प्रदान करता है। इसकी अनुपस्थिति से मनुष्य डिप्रेशन, उलझन, तनाव जैसी असामान्य मनःस्थितियों का शिकार हो सकता है। प्रातःकाल सूर्योदय का परिवेश परमशान्ति का सूचक होता है। ऐसी स्थिति में भैरवी के कोमल स्वर- ऋषभ, गान्धार, धैवत और निषाद, मस्तिष्क की संवेदना तंत्र को सहज ढंग से ग्राह्य होते है। कोमल स्वर मस्तिष्क में सकारात्मक हारमोन रसों का स्राव करते हैं। इससे मानव मानसिक और शारीरिक विसंगतियों से मुक्त रहता है। भैरवी के विभिन्न स्वरों के प्रभाव के विषय में श्री मिश्र ने बताया कि कोमल ऋषभ स्वर करुणा, दया और संवेदनशीलता का भाव सृजित करने में समर्थ है। कोमल गान्धार स्वर आशा का भाव, कोमल धैवत जागृति भाव और कोमल निषाद स्फूर्ति का सृजन करने में सक्षम होता है। भैरवी का शुद्ध मध्यम इन सभी भावों को गाम्भीर्य प्रदान करता है। धैवत की जागृति को पंचम स्वर सबल बनाता है। इस राग के गायन-वादन का सर्वाधिक उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है।


मालिनी राजुरकर
 भैरवी के स्वरों की सार्थक अनुभूति कराने के लिए अब हम आपको राग भैरवी में निबद्ध आकर्षक टप्पा और तराना का गायन सुनवा रहे हैं। इसे प्रस्तुत कर रहीं हैं, ग्वालियर परम्परा में देश की जानी-मानी गायिका विदुषी मालिनी राजुरकर। 1941 में जन्मीं मालिनी जी का बचपन राजस्थान के अजमेर में बीता और वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा भी सम्पन्न हुई। आरम्भ से ही दो विषयों- गणित और संगीत, से उन्हें गहरा लगाव था। उन्होने गणित विषय से स्नातक की पढ़ाई की और अजमेर के सावित्री बालिका विद्यालय में तीन वर्षों तक गणित विषय पढ़ाया भी। इसके साथ ही अजमेर के संगीत महाविद्यालय से गायन में निपुण स्तर तक शिक्षा ग्रहण की। सुप्रसिद्ध गुरु पण्डित गोविन्दराव राजुरकर और उनके भतीजे बसन्तराव राजुरकर से उन्हें गुरु-शिष्य परम्परा में संगीत की शिक्षा प्राप्त हुई। बाद में मालिनी जी ने बसन्तराव जी से विवाह कर लिया। मालिनी जी को देश का सर्वोच्च संगीत-सम्मान, ‘तानसेन सम्मान’ से नवाजा जा चुका है। खयाल के साथ-साथ मालिनी जी टप्पा, सुगम और लोक संगीत के गायन में भी कुशल हैं। लीजिए, मालिनी जी के स्वरों में सुनिए राग भैरवी का मोहक टप्पा और तराना। आप इस टप्पा का रसास्वादन कीजिए और हमें आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।

राग भैरवी : टप्पा - “लाल वाला जोबन...” और तराना : विदुषी मालिनी राजुरकर




संगीत पहेली

 ‘स्वरगोष्ठी’ के 298वें और 299वें अंक में हम आपसे संगीत पहेली में हम आपसे कोई भी प्रश्न नहीं पूछ रहे हैं। पहेली को निरस्त करने का कारण यह है कि हमारे अगले दो अंक संगीत पहेली के महाविजेताओं की प्रस्तुतियों पर ही केन्द्रित है। ‘स्वरगोष्ठी’ के 300वें अंक से हम संगीत पहेली का सिलसिला पुनः आरम्भ करेंगे।

पिछली पहेली के विजेता

 ‘स्वरगोष्ठी’ क्रमांक 296 की संगीत पहेली में हमने आपको वर्ष 1960 में प्रदर्शित फिल्म ‘कोहिनूर’ से एक राग आधारित गीत का अंश सुनवा कर आपसे तीन प्रश्न पूछा था। आपको इनमें से किसी दो प्रश्न का उत्तर देना था। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग – हमीर, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल – तीनताल और तीसरे प्रश्न का सही उत्तर है- गायक – मोहम्मद रफी

 इस बार की पहेली में हमारे नियमित प्रतिभागियों में से वोरहीज़, न्यूजर्सी से डॉ. किरीट छाया, चेरीहिल, न्यूजर्सी से प्रफुल्ल पटेल, जबलपुर से क्षिति तिवारी, पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया और हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी। आप सभी प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की हार्दिक बधाई।


अपनी बात

 मित्रो, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर अपने सैकड़ों पाठकों के अनुरोध पर अब तक जारी लघु श्रृंखला “नौशाद के गीतों में राग-दर्शन” की यह समापन कड़ी थी। आज के अंक में आपने राग भैरवी की प्रस्तुतियों का रसास्वादन किया। इस श्रृंखला के लिए हमने संगीतकार नौशाद के आरम्भिक दो दशकों की फिल्मों के गीत चुने थे। श्रृंखला के आलेख को तैयार करने के लिए हमने फिल्म संगीत के जाने-माने इतिहासकार और हमारे सहयोगी स्तम्भकार सुजॉय चटर्जी और लेखक पंकज राग की पुस्तक ‘धुनों की यात्रा’ का साभार सहयोग लिया था। गीतों के चयन के लिए हमने अपने पाठकों की फरमाइश का ध्यान रखा था। यदि आप भी किसी नई श्रृंखला, राग, गीत अथवा कलाकार को सुनना चाहते हों तो अपना आलेख या गीत हमें शीघ्र भेज दें। हम आपकी फरमाइश पूर्ण करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। आपको हमारी यह श्रृंखला कैसी लगी? हमें ई-मेल swargoshthi@gmail.com पर अवश्य लिखिए। अगले रविवार को संगीत पहेली के महाविजेताओ की प्रस्तुतियों पर आधारित एक नए अंक के साथ प्रातः 8 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर आप सभी संगीतानुरागियों का हम स्वागत करेंगे।


प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र  


रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

Comments

Unknown said…
श्री क्रीष्णमोहन जी,
इस अंकमें आपने राग भैरवी के बारेमें सुंदर वर्णन दिया वह बहुत जरुरी था।
किसी भी संगीत के प्रोग्राम का अंत राग भैरवीसे ही होता है कयों कि इस राग के चारों कोमल स्वर शुद्ध मध्यम के साथ शान्त रस का प्रसारन करते हैं। असल में प्रोग्राम की शुरुआत 4 बजे शामसे होकर सुबह तक होती थी जब भैरवी गाने-बजानेका समय आ पहुंचता था। तो हर प्रोग्राम इस सम्पूर्ण राग भैरवीसे होने लगा। कोइ भी प्रोग्राम किसी भी समय पर राग भैरवीसे ही अंत होने लगा।
यह अंक भी खुब रसप्रद है। आपको धन्यवाद और आभार स्वीकार करना ही होगा।

विजया राजकोटीया
Pennsylvania, USA.

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