कहकशाँ - 11
छाया गांगुली, इब्राहिम अश्क़, भूपेन्द्र सिंह
"नाज़ था खुद पर मगर ऐसा न था..."
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी महफ़िल, कहकशाँ। आज पेश है छाया गांगुली की आवाज़, इब्राहिम अश्क़ के बोल और भूपेन्द्र सिंह का संगीत।
मुज़फ़्फ़र अली की एक फ़िल्म आई थी "गमन"। फ़ारूख शेख और स्मिता पाटिल की अदाकारियों से सजी इस फ़िल्म में कई सारी दिलकश गज़लें थीं। यह तो सभी जानते हैं कि मुज़फ़्फ़र अली को संगीत का अच्छा-ख़ासा इल्म है, विशेषकर ग़ज़लों का। इसलिए उन्होंने गज़लों को संगीतबद्ध करने का ज़िम्मा उस्ताद अली अकबर ख़ाँ के शागिर्द जयदेव वर्मा को दिया। और मुज़फ़्फ़र अली की दूरगामी नज़र का कमाल देखिए कि इस फ़िल्म के लिए "जयदेव" को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया। भारतीय फिल्म संगीत के इतिहास में अब तक केवल तीन ही संगीतकार हुए हैं जिन्हें तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार (रजत कमल) पाने का गौरव प्राप्त है: जयदेव, ए आर रहमान और इल्लैया राजा। हाँ तो हम "गमन" की गज़लों की बात कर रहे थे। इस फ़िल्म की एक गज़ल "आप की याद आती रही रात भर", जिसे "मक़दू्म मोहिउद्दिन" ने लिखा था, के लिए मुज़फ़्फ़र अली को एक नई आवाज़ की तलाश थी और यह तलाश हमारी आज की फ़नकारा पर खत्म हुई। इस गज़ल के बाद तो मानो मुज़फ़्फ़र अली इस नई आवाज़ के दीवाने हो गए। यूँ तो मुज़फ़्फ़र अली अपनी फ़िल्मों (गमन, उमराव जान) के लिए जाने जाते हैं, लेकिन कम ही लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि इन्होंने कई सारी ही ग़ज़लों को संगीतबद्ध भी किया है। "रक़्स-ए-बिस्मिल","पैग़ाम-ए-मोहब्बत", "हुस्न-ए-जानां" ऐसी ही कुछ ख़ुशकिस्मत ग़ज़लों की एलबम हैं, जिन्हें मुज़फ़्फ़र अली ने अपनी सुरों से सजाया है। बाकी एलबमों की बात कभी बाद में करेंगे, लेकिन "हुस्न-ए-जानां" का ज़िक्र यहाँ लाज़िमी है। अमिर ख़ुसरो का लिखा "ज़िहाल-ए-मस्कीं" न जाने कितनी ही बार अलग-अलग अंदाज़ में गाया जा चुका है, यहाँ तक कि "ग़ुलामी" के लिए गुलज़ार साहब ने इसे एक अलग ही रूप दे दिया था, लेकिन कहा जाता है कि इस गाने को हमारी आज की फ़नकारा ने जिस तरह गाया है, जिस अंदाज में गाया है, वैसा दर्द वैसा ग़म-ए-हिज्र आज तक किसी और की आवाज़ में महसूस नहीं होती। ऐसी है मुज़फ़्फ़र अली की परख और ऐसा है इस फ़नकारा की आवाज़ का तिलिस्म!
उस फ़नकारा के नाम से पर्दा हटाने के पहले मैं आज की गज़ल से जुड़े एक और हस्ती के बारे में कुछ बताना चाहूँगा। आज की ग़ज़ल को साज़ों से सजाने वाला वह इंसान ख़ुद एक कामयाब ग़ज़ल-गायक है। गज़लों से परे अगर बात करें तो कई सारे फ़िल्मी-गानों को उन्होंने स्वरबद्ध किया है। एक तरह से वे गु्लज़ार के प्रिय रहे हैं। "दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात-दिन", "नाम गुम जाएगा", "एक अकेला इस शहर में", "हुज़ूर इस क़दर भी न इतराके चलिए" कुछ ऐसे ही मकबूल गाने हैं, जिन्हें गुलज़ार ने लिखा और "भूपिन्दर सिंह" ने अपनी आवाज़ दी। जी हाँ, हमारी आज की गज़ल के संगीतकार "भूपिन्दर सिंह" जी ही हैं। तो अब तक हम ग़ज़ल के संगीतकार से रूबरू हो चुके है, अब इस महफ़िल में बस ग़ज़लगो और गायिका की ही कमी है। दोस्तों, मुझे उम्मीद है कि मैने गायिका की पहचान के लिए जो हिंट दिए थे, उनकी मदद से आपने अब तक गायिका का नाम जान ही लिया होगा। आप हैं "छाया गांगुली"। छाया गांगुली से जुड़ी मैंने कई सारी बातें आपको पहले ही बता दी हैं, अब उनके बारे में ज़्यादा लिखने चलूँगा तो आलेख लंबा हो जाएगा। इसलिए अच्छा होगा कि मैं अब ग़ज़ल की ओर रूख़ करूँ।
कई साल पहले "नाज़ था ख़ुद पर मगर ऐसा न था" नाम से ग़ज़लों की एक एलबम आई थी। आज हम उसी एलबम की प्रतिनिधि गज़ल आपको सुना रहे हैं। प्रतिनिधि ग़ज़ल होने के कारण यह तो साफ़ ही है कि उस ग़ज़ल के भी बोल यही है..."नाज़ था खुद पर मगर ऐसा न था" । इस सुप्रसिद्ध गज़ल के बोल लिखे थे "इब्राहिम अश्क़" ने। कभी मौका आने पर "इब्राहिम अश्क" साहब के बारे में भी विस्तार से चर्चा करेंगे, अभी अपने आप को बस इस गज़ल तक ही सीमित रखते हैं। इस गज़ल की ख़ासियत यह है कि बस चार शेरों में ही पूरी दुनिया की बात कह दी गई है। गज़लगो कभी खुद पर नाज़ करता है, कभी जहां की तल्ख निगाहों का ब्योरा देता है तो कभी अपने महबूब पर गुमां करता है। भला दूसरी कौन-सी ऐसी गज़ल होगी जो चंद शब्दों में ही सारी कायनात का जिक्र करती हो। शुक्र यह है कि इश्क़-वालों के लिए कायनात बस अपने इश्क़ तक ही सिमटा नहीं है। वैसे इसे शुक्र कहें या मजबूरी, क्योंकि इश्क़-वाले तो ख़ुद में ही डूबे होते हैं, उन्हें औरों से क्या लेना। अब जब औरों को इनकी खुशी न पचे तो ये दुनिया की शिकायत न करें तो क्या करें।
इश्क-वालों ने किए जब अलहदा हैं रास्ते,
राह-भर में खार किसने बोए इनके वास्ते।
तो लीजिए आप सबके सामने पेश-ए-ख़िदमत है आज की ग़ज़ल, लुत्फ़ लें और अगर अच्छी लगे तो हमारे चुनाव की दाद दें:
नाज़ था खुद पर मगर ऐसा न था,
आईने में जब तलक देखा न था।
शहर की महरूमियाँ मत पूछिये,
भीड़ थी पर कोई भी अपना न था।
मंजिलें आवाज़ देती रह गईं,
हम पहुँच जाते मगर रस्ता न था।
इतनी दिलकश थी कहाँ ये ज़िंदगी,
हमने जब तक आपको चाहा न था।
उस फ़नकारा के नाम से पर्दा हटाने के पहले मैं आज की गज़ल से जुड़े एक और हस्ती के बारे में कुछ बताना चाहूँगा। आज की ग़ज़ल को साज़ों से सजाने वाला वह इंसान ख़ुद एक कामयाब ग़ज़ल-गायक है। गज़लों से परे अगर बात करें तो कई सारे फ़िल्मी-गानों को उन्होंने स्वरबद्ध किया है। एक तरह से वे गु्लज़ार के प्रिय रहे हैं। "दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात-दिन", "नाम गुम जाएगा", "एक अकेला इस शहर में", "हुज़ूर इस क़दर भी न इतराके चलिए" कुछ ऐसे ही मकबूल गाने हैं, जिन्हें गुलज़ार ने लिखा और "भूपिन्दर सिंह" ने अपनी आवाज़ दी। जी हाँ, हमारी आज की गज़ल के संगीतकार "भूपिन्दर सिंह" जी ही हैं। तो अब तक हम ग़ज़ल के संगीतकार से रूबरू हो चुके है, अब इस महफ़िल में बस ग़ज़लगो और गायिका की ही कमी है। दोस्तों, मुझे उम्मीद है कि मैने गायिका की पहचान के लिए जो हिंट दिए थे, उनकी मदद से आपने अब तक गायिका का नाम जान ही लिया होगा। आप हैं "छाया गांगुली"। छाया गांगुली से जुड़ी मैंने कई सारी बातें आपको पहले ही बता दी हैं, अब उनके बारे में ज़्यादा लिखने चलूँगा तो आलेख लंबा हो जाएगा। इसलिए अच्छा होगा कि मैं अब ग़ज़ल की ओर रूख़ करूँ।
कई साल पहले "नाज़ था ख़ुद पर मगर ऐसा न था" नाम से ग़ज़लों की एक एलबम आई थी। आज हम उसी एलबम की प्रतिनिधि गज़ल आपको सुना रहे हैं। प्रतिनिधि ग़ज़ल होने के कारण यह तो साफ़ ही है कि उस ग़ज़ल के भी बोल यही है..."नाज़ था खुद पर मगर ऐसा न था" । इस सुप्रसिद्ध गज़ल के बोल लिखे थे "इब्राहिम अश्क़" ने। कभी मौका आने पर "इब्राहिम अश्क" साहब के बारे में भी विस्तार से चर्चा करेंगे, अभी अपने आप को बस इस गज़ल तक ही सीमित रखते हैं। इस गज़ल की ख़ासियत यह है कि बस चार शेरों में ही पूरी दुनिया की बात कह दी गई है। गज़लगो कभी खुद पर नाज़ करता है, कभी जहां की तल्ख निगाहों का ब्योरा देता है तो कभी अपने महबूब पर गुमां करता है। भला दूसरी कौन-सी ऐसी गज़ल होगी जो चंद शब्दों में ही सारी कायनात का जिक्र करती हो। शुक्र यह है कि इश्क़-वालों के लिए कायनात बस अपने इश्क़ तक ही सिमटा नहीं है। वैसे इसे शुक्र कहें या मजबूरी, क्योंकि इश्क़-वाले तो ख़ुद में ही डूबे होते हैं, उन्हें औरों से क्या लेना। अब जब औरों को इनकी खुशी न पचे तो ये दुनिया की शिकायत न करें तो क्या करें।
इश्क-वालों ने किए जब अलहदा हैं रास्ते,
राह-भर में खार किसने बोए इनके वास्ते।
तो लीजिए आप सबके सामने पेश-ए-ख़िदमत है आज की ग़ज़ल, लुत्फ़ लें और अगर अच्छी लगे तो हमारे चुनाव की दाद दें:
नाज़ था खुद पर मगर ऐसा न था,
आईने में जब तलक देखा न था।
शहर की महरूमियाँ मत पूछिये,
भीड़ थी पर कोई भी अपना न था।
मंजिलें आवाज़ देती रह गईं,
हम पहुँच जाते मगर रस्ता न था।
इतनी दिलकश थी कहाँ ये ज़िंदगी,
हमने जब तक आपको चाहा न था।
खोज और आलेख : विश्वदीपक ’तन्हा’
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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