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BAATON BAATON MEIN - 20: INTERVIEW OF SHAMSHAD BEGUM (PART-3)

बातों बातों में - 20

पार्श्वगायिका शमशाद बेगम से गजेन्द्र खन्ना की बातचीत
भाग-3


"मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि अल्लाह ने मुझे मौक़ा दिया कि दूसरों की मदद करूँ, बिना किसी फ़ायदे के "  




नमस्कार दोस्तो। हम रोज़ फ़िल्म के परदे पर नायक-नायिकाओं को देखते हैं, रेडियो-टेलीविज़न पर गीतकारों के लिखे गीत गायक-गायिकाओं की आवाज़ों में सुनते हैं, संगीतकारों की रचनाओं का आनन्द उठाते हैं। इनमें से कुछ कलाकारों के हम फ़ैन बन जाते हैं और मन में इच्छा जागृत होती है कि काश, इन चहेते कलाकारों को थोड़ा क़रीब से जान पाते, काश; इनके कलात्मक जीवन के बारे में कुछ जानकारी हो जाती, काश, इनके फ़िल्मी सफ़र की दास्ताँ के हम भी हमसफ़र हो जाते। ऐसी ही इच्छाओं को पूरा करने के लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ने फ़िल्मी कलाकारों से साक्षात्कार करने का बीड़ा उठाया है। । फ़िल्म जगत के अभिनेताओं, गीतकारों, संगीतकारों और गायकों के साक्षात्कारों पर आधारित यह श्रृंखला है 'बातों बातों में', जो प्रस्तुत होता है हर महीने के चौथे शनिवार को। आज इस स्तंभ में हम आपके लिए लेकर आए हैं फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका शमशाद बेगम से गजेन्द्र खन्ना की बातचीत। गजेन्द्र खन्ना के वेबसाइट www.shamshadbegum.com पर यह साक्षात्कार अंग्रेज़ी में पोस्ट हुआ था जनवरी 2012 में। गजेन्द्र जी की अनुमति से इस साक्षात्कार को हिन्दी में अनुवाद कर हम ’रेडियो प्लेबैक इन्डिया’ पर प्रस्तुत कर रहे हैं। पिछले महीने हमने पेश किए थे इस साक्षात्कार का दूसरा भाग; आज प्रस्तुत है इसका तीसरा और अन्तिम भाग।

    


दोस्तों, पिछली कड़ी में शमशाद जी ने अपनी शुरुआती फ़िल्म - ’तक़दीर’ और ’पन्ना’ के बारे में विस्तार से हमें बताया। साथ ही उमराओ ज़िआ बेगम और ज़ोहराबाई अम्बालेवाली से अपनी दोस्ती की बातें बताईं। और फिर कुछ ऐसे संगीतकारों को याद किया जो आज लगभग भूला दिए गए हैं जैसे कि पंडित गोबिन्दराम, पंडित अमरनाथ, हुस्नलाल-भगतराम, बुलो सी. रानी, ग़ुलाम मोहम्मद, फ़िरोज़ निज़ामी, उस्ताद झंडे ख़ाँ, विनोद, ज्ञान दत्त, ख़ुर्शीद अनवर और ख़ान मस्ताना। आइए अब बातचीत का सिलसिला वहीं से आगे बढ़ाते हैं।


शमशाद जी, आपने नौशाद साहब के लिए भी बहुत सारे गाने गाए हैं।

जी हाँ, ’शाहजहाँ’ के गाने हिट होने के बाद मैं उनकी मेन सिंगर बन गई थी।

उनके साथ बहुत से रेकॉर्डिंग् आपने किए हैं, कोई ख़ास वाकिया याद है उनसे जुड़ा?

जी हाँ, एक बताती हूँ। तलत (महमूद) उस वक़्त बम्बई में नए नए आए थे। वो कुछ म्युज़िक डिरेक्टरों के लिए गा चुके थे पर अभी तक टॉप पर नहीं पहुँचे थे। नौशाद साहब ने उन्हें बुलाया मेरे साथ "मिलते ही आँखें दिल हुआ दीवाना किसी का" गाने के लिए। रिहर्सलें हुईं। तलत की आवाज़ बहुत नर्म थी और उनकी एक काँपती हुई आवाज़ थी जो उनकी गायिकी की ख़ासियत थी। फ़ाइनल टेक देते वक़्त तलत नर्वस हो गए। उस वक़्त नौशाद टॉप कम्पोज़र थे और मैं टॉप सिंगर। शायद यही बात उनके दिमाग़ में चल रही होगी जिस वजह से उनकी आवाज़ और ज़्यादा काँपने लगी टेक दर टेक। नौशाद साहब को यह बात पसन्द नहीं आ रही थी और रेकॉर्डिंग् में देर होती जा रही थी। एक वक़्त तो नौशाद साहब ने यह भी सोचा कि तलत साहब को हटा दिया जाए अन्द मुझसे इस बारे में कहा। मैंने उन्हें समझाया कि तलत की आवाज़ बहुत अच्छी है पर वो ज़रा नर्वस हो गए हैं, हमें उनका हौसला अफ़ज़ाई करना चाहिए और तभी रेकॉर्डिंग् समय पर हो पाएगी। मैंने नौशाद साहब को उनका हौसला बढ़ाने के लिए कहा। मैंने उनसे कहा कि वो रेकॉर्डिंग् रूम में जाएँ और तलत को मुस्कुराते चेहरे से ’थम्प्स-अप’ दिखाए चाहे वो कैसे भी गाएँ! ऐसा करने पर उन्हें उनका फ़ाइनल टेक जल्दी ही मिल जाएगा। जैसे ही नौशाद साहब अन्दर चले गए, मैंने तलत से कहा कि आपकी आवाज़ बहुत अच्छी है, बस आप ज़रा नर्वस हो रहे हैं। इस तरह से नर्वस होकर तो आप अपन अकरीयर बिगाड़ लेंगे। कुछ समय के लिए यह भूल जाइए कि मैं और नौशाद बड़े फ़नकार हैं। दिल में रब का नाम लीजिए और गाना शुरु कीजिए, सब ठीक हो जाएगा। हमें आप अपने कलीग मानिए और अपना पूरा जी-जान लगा दीजिए इस गीत में। अरे अगर मरना ही है तो डर के क्यों मरो, लड़ के मरो। ऐसा कहने पर उन्हें हिम्मत मिली और पहला टेक पहले से काफ़ी बेहतर हुआ। नौशाद के ’थम्प्स-अप’ को देख कर उन्हें और हिम्मत मिली और फ़ाइनली तीसरा टेक ओ.के. हो गया।


यह बहुत ही अच्छा क़िस्सा आपने बताया। आप वैसे भी हमेशा सब की मदद की है। मैंने कहीं पढ़ा था कि आपके नुसखे गायक मुकेश के भी काम आए?

जी हाँ, एक वक़्त ऐसा था जब मुकेश की तबीयत ठीक नहीं थी जिस वजह से उनकी रेकॉर्डिंग्स कैन्सल हो रही
थी एक के बाद एक। मुझे अफ़सोस हो रहा था कि उनका माली नुकसान हो रहा है, उस वक़्त वो स्ट्रगल ही कर रहे थे। एक दिन मेरी उनके साथ रेकॉर्डिंग् थी और मैंने उ्नसे इस बारे में बात की। शुरु शुरु में तो वो हिचकिचा रहे थे मुझे बताने से, लेकिन फिर बोले। उसकी नाभी खिसक रही थी। मैंने पूछा कि क्या सिर्फ़ यही बात है? इसका हल आपके घर के औरतों को ज़रूर पता होगा। औरतों में यह आम बीमारी है। मैंने उनसे कहा, हार पिरोने वाला सूत सात दफ़ा इकट्ठा करो और पैर के बड़े अंगूठे से लूज़-टाइट बाँध दो। यह नुसखा उनके काम आ गई। और उन्होंने मुझे इस इलाज के लिए शुक्रिया भी कहा। मैं हमेशा लोगों की मदद करना चाहती थी। मैंने चित्रगुप्त जी के करीयर को भी दुबारा उपर लाना चाहा उनके लिए स्टण्ट फ़िल्मों में गा गा कर जैसे कि ’सिंदबाद जहाज़ी’, हालाँकि लोगों ने मुझे चेतावनी दी थी कि ऐसा करना मेरे लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि मेन-स्ट्रीम सिंगर्स के लिए ऐसी फ़िल्मों में गाना करीयर के लिए ठीक नहीं। इस तरह की फ़िल्मों में दूसरी स्तर की गायिकाएँ गाती हैं। नाशाद ने भी बुरा वक़्त देखा है। मैंने उनके लिए ’दादा’ में गाया था। 1953 में मैंने उनके लिए ’नगमा’ फ़िल्म के लिए बूकिंग् दी थी जिसने उनके करीयर को बढ़ावा दिया। आज तक वो मेरे उस गीत "काहे जादू किया जादूगर बालमा" के लिए याद किए जाते हैं!

आप ने राज कपूर की भी मदद की थी उनकी पहली फ़िल्म ’आग’ में गीत गा कर?

जी हाँ, वो मेरे पास आए थे और कहने लगे कि मैं पृथ्वीराज कपूर का बेटा हूँ, मैंने उनकी मदद की। उन्होंने मेरा
शुक्रिया अदा किया, लेकिन बाद में बहुत सालों के बाद जब मिले तो अफ़सोस ज़ाहिर की और माफ़ी भी माँगी कि उन्होंने मेरे लिए कुछ कर नहीं सके। मैंने मदन मोहन, सी. रामचन्द्र, ओ. पी. नय्यर और भी कई नए नए संगीतकारों की शुरुआती फ़िल्मों में गाया। इन संगीतकारों के इन शुरुआती गीतों ने उन्हें इंडस्ट्री में स्थापित किया। मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि अल्लाह ने मुझे मौक़ा दिया कि दूसरों की मदद करूँ, बिना किसी ख़ुद के फ़ायदे के।

किशोर कुमार एक और ऐसे गायक थे जो आपके एहसानमन्द थे।

जी हाँ, फ़िल्म ’बहार’ में मेरे साथ गाते हुए उनको अपना मेजर ब्रेक मिला था, और वहीं से उनके करीयर ने कामयाबी की सीढी पकड़नी शुरु की। उसने दरियादिली से मेरा शुक्रिया अदा किया क्योंकि मेरे साथ गाने की वजह से उन्हें पहचान मिली।


आप महबूब ख़ान के क़रीब थीं और ’मदर इण्डिया’ के गाने भी बहुत लोकप्रिय हुए थे।

यहाँ उषा रात्रा जी बताती हैं....

जी हाँ, हम महबूब साहब के एहसानमन्द हैं। यह ज़्यादा लोगों को मालूम नहीं कि उन्होंने मम्मी के करीयर को
एक बार नहीं बल्कि दो बार बढ़ावा दिया था। पहली बार की बात तो मम्मी बता चुकी हैं। मेरे डैडी का 1955 में अचानक इन्तकाल हो गया, जिससे मेरी मम्मी को बहुत बड़ा शौक लगा।  वो हमेशा रोती रहती थीं, अल्लाह को याद करती रहती थीं। लगभग एक साल तक उन्होंने कोई गाना नहीं गाया। उस समय महबूब ख़ान ’मदर इण्डिया’ पर काम कर रहे थे। उनकी इच्छा थी कि बस मम्मी ही उनकी फ़िल्म के लिए गाए। नौशाद साहब ने उन्हें बताया कि मम्मी तो आजकल गा नहीं रही हैं, फिर भी महबूब साहब ने नौशाद साहब से कहा कि आप उनसे दरख्वास्त कीजिए कि वो गाने के लिए तैयार हो जाएँ। लेकिन मम्मी ने नौशाद साहब को ना कह दिया। उस पर नौशाद साहब ने कहा कि अगर आप नहीं चलेंगी तो मैं आपको ज़बरदस्ती उठा ले जाऊँगा।


आगे की दासतान शमशाद जी बताती हैं...

उन्होंने कहा, जब मेरे हँसने वाले गाने गाए तो क्या आपको कभी दुख नहीं था? आप एक उम्दा आर्टिस्ट हो। आप फ़ीलिंग्स बहुत अच्छी तरह से माइक के सामने गा सकती हो चाहे आपके अन्दर जो भी फ़ीलिंग्स चल रही हों! उनके लिए मेरे दिल में बहुत इज़्ज़त है और आख़िर में कहा कि मैं आपको निराश नहीं करूँगी। रिहर्सलें शुरु हुईं। पहला गाना जो रेकॉर्ड हुआ, वह था "होली आई रे कन्हाई" जो एक ही टेक में ओ.के. हो गई। मुझे अब तक याद है कि "पी के घर" गीत के रेकॉर्डिंग् के वक़्त वहाँ मौजूद सभी आर्टिस्ट्स रो रहे थे।

आप भी रो रही थीं?

(हँसते हुए) नहीं, मैं रोती तो टेक कैसे होता? इस गीत के बाद भी मेरे बहुत से हिट गीत आए, और काम करते करते धीरे धीरे मैं अपने वालिद की मौत के ग़म से बाहर निकली।

आपने मद्रास के कई स्टुडियोज़ के लिए भी बहुत गीत गाई हैं? उन लोगों के साथ भी आपका बहुत अच्छा रिश्ता बन गया था।

जी हाँ, वो लोग मुझे बूक करते थे और मैं 15 दिनों के लिए मद्रास जाया करती थी रेकॉर्डिंग्स के लिए। उन दिनों में होटल से स्टुडियो, और वापस स्टुडियो से होटल, लगातार करती रहती थी। रात के दस बजे होटल वापस लौटती थी, फिर सुबह उठ कर वापस स्टुडियो के लिए निकल जाती। इस वजह से मद्रास शहर को देखने का ज़्यादा मौक़ा नहीं मिला। लेकिन वहाँ के लोगों ने मेरे काम की बहुत तारीफ़ की।

फ़िल्म ’आन’ के तमिल वर्ज़न में भी आपने गाया था?

जी हाँ, लेकिन अफ़सोस कि मुझे मालूम नहीं वो मौजूद हैं भी या नहीं!

मुझे भी वो कहीं पर नहीं मिले। हमें उम्मीद है कि इस साक्षात्कार को पढ़ने वाले पाठकों में से कोई पाठक उन्हें ढूंढ़ने में कारगर साबित होंगे। शमशाद जी, यह वाक़ई हैरान कर देने वाली बात है कि आप इतनी बड़ी फ़नकार होते हुए भी इतनी आमफ़हम हैं, इतनी ज़मीन पर हैं। 

जी हाँ, मेरी पैदाइश ही ऐसी है। जैसा कि मैंने कहा था कबीर वाली बात कि ्ना काहु संग दोस्ती ना काहु संग बैर। मेरे लिए यह जुमला काम कर गई।


यहाँ उषा रात्रा जी बताती हैं...

जी हाँ, मम्मी ने कभी रेकॉर्डिंग् कैन्सल नहीं की। मुझे याद है एक बार उन्हें 102 डिग्री बुखार था और फिर भी
ज़िद करने लगी कि रेकॉर्डिंग् पे जाएगी। मैंने पूछा कि ऐसी क्या मजबूरी है ऐसी हालत में रेकॉर्डिंग् पे जाने की? क्या आपको पैसों की ज़रूरत है? तो वो हँसने लगी और कहा कि बेटा, मैं वहाँ म्युज़िशियनों के लिए जा रही हूँ। जब रेकॉर्डिंग् कैन्सल हो जाती है तो उन्हें ख़ाली हाथ घर लौटना पड़ता है और भूखे पेट भी कई दफ़ा रहने पड़ते हैं। उनके दिल में मेरे लिए बहुत इज़्ज़त है और मेरे रेकॉर्डिंग् पर बजा कर उन्हें बहुत ख़ुशी मिलती है। वो कहते कि अगर आज वो आ रही हैं तो हमें भी आज खाना मिलेगा। उन लोगों ने मुझे ऐसी इज़्ज़त दी है कि मैं उन्हें निराश या तकलीफ़ नहीं पहुँचा सकती। इसलिए मैं हमेशा रेकॉर्डिंग् पर जाती हूँ, यह ज़रूरी नहीं कि मैं क्या फ़ील कर रही हूँ। इस तरह की इंसान हैं ये। इन्होंने हमेशा सादगी भरी ज़िन्दगी जी है और पूरे समर्पण के साथ काम किया है।

इसमें कोई शक़ नहीं। मैंने कहीं पढ़ा है कि एक बार सी. रामचन्द्र जी के साथ एक रेकॉर्डिंग् पर किसी ग़लतफ़हमी की वजह से 1951 में आपने गाने की किताब को बन्द करके स्टुडियो से निकल गई थीं और कभी उनके पास वापस न आने का इरादा बनाकर। क्या यह सच है?

जी नहीं, यही किसी का ख़याली पुलाव है। ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। जब भी उन्होंने मुझे बुलाया, मैं गई उनके लिए गाने। प्रोड्युसर्स ही हमारी बूकिंग्स किया करते थे। ज़्यादातर जगहों पर कम्पोज़र के पास सिंगर चुनने का ज़्यादा हक़ नहीं होता था। 50 के दशक के दूसरे भाग में भी मैं उनके लिए गा रही थी। उनके गीतों की लिस्ट पर आप ग़ौर करेंगे तो इस बात का पता चलेगा आपको। अफ़सोस कि उस वक़्त उनका करीयर ढलान पर था। मैंने 1970 में अपनी शो पर आने का दावत भी उन्हें दिया था। वो मुझे बहुत इज़्ज़त देते थे और आभारी थे।

जी हाँ, मैंने उस शो की तसवीरें देखी हैं। और उसी शो में आपकी तसवीरें पहली बार प्रकाशित हुई थीं, है ना?

जी हाँ, 1970 के आसपास मैंने दो शो किए थे और उनकी पब्लिसिटी के लिए मुझे एक फ़ोटोशूट करना पड़ा था। आप मेरी जिस तसवीर को लगभग सभी आर्टिकल्स में देखते हैं, वह ’माधुरी’ मैगज़ीन के दफ़्तर में खींची गई थी। इससे जुड़ा एक मज़ेदार क़िस्सा बताती हूँ। मैं उसी फ़ोटो के शूट के लिए जा रही थी। बिल्डिंग् पर पहुँचकर मैं अपनी बेटी के साथ लिफ़्ट में घुसी और कुछ दूसरे लोग भी थे लिफ़्ट में। एक लड़की जो एक जर्नलिस्ट थी, वो किसी को बता रही थी कि वो कितनी ख़ुश है कि आज आख़िरकार उसे शमशाद बेगम को देखने का मौका मिलेगा। वहाँ किसी ने मुझे नहीं पहचाना क्योंकि मेरी कोई तसवीर नहीं थी अब तक। वो बता रही थी कि अगले कुछ ही मिनटों में वो मुझे सामने से देख सकेगी और मैं वहाँ उसकी बगल में ही खड़ी थी और उसे नहीं मालूम!


जो लोग उस शो में मौजूद थे, वो आज भी याद करते हैं कि किस तरह से आपने गुज़रे ज़माने के उन अनमोल नग़मों को गाया था और आपकी आवाज़ में क्या चमक थी तब भी। आपने गाना छोड़ क्यों दिया शमशाद जी?


जिस तरह से उन दिनों रेकॉर्डिंग्स हो रही थी, मैं उससे ख़ुश नहीं थी। मैं कभी काम माँगने के लिए लोगों के पीछे-पीछे नहीं घूमी। यह मेरी आदत नहीं थी। इसलिए धीरे धीरे मेरी बूकिंग् कम होने लगी बावजूद हिट गीत देने के। मैंने एक हिट गीत दी। उससे पहले अगर मुझे 20 गीत मिल रहे होते तो अचानक उस हिट गीत के बाद मुझे 10 गीत मिलने लगे, और इस तरह से कम होते गए। मैं इस बारे में कुछ समय तक सोचती रही। मेरी बेटी की शादी भी हो चुकी थी तब तक और मैं अपने बेटी-दामाद के साथ पूरे हिन्दुस्तान में घूमने लगी क्योंकि मेरा दामाद फ़ौज (आर्मी) में था। मैं हमेशा फ़न के लिए गाती थी, ना कि पैसों के लिए। मैं बहुत सादा क़िस्म की ज़िन्दगी जीती थी। सिवाय खाने और कपड़ों के मेरा कोई और खर्चें नहीं था। पैसों का मैं क्या करती? मामूली लत्थे की सलवार-कमीज़ पहनती थी उस ज़माने में भी। तीन-चार ख़रीद लिया तो साल भर चल जाते। अब वक़्त बदल गया है। सारे पुराने कम्पोज़र्स चले गए या पीछे रह गए, धुंधले हो गए। और इस वजह से भी मेरे अन्दर रेकॉर्डिंग् की वह जोश कम हो गई थी। इसलिए मैं वो सब कुछ छोड़ कर अपनी बेटी के परिवार में शामिल होना ही ठीक समझा। फिर मैं इनके पोस्टिंग के साथ-साथ घूम रही थी, हिन्दुस्तान के बाहर भी रही। मेरी बेटी और दामाद ने मेरा बहुत अच्छे से ख़याल रखा है। मैं कहूँगी कि हर किसी को उषा जैसी बेटी और योगराज जैसा दामाद मिले।

यह किस वक़्त की बात है?

यह कोई 1971 की बात होगी; मुझे याद है कि यह उन दो शोज़ के बाद के वक़्त की बात है। हालाँकि पहले के रेकॉर्डेड गाने उसके बाद भी रिलीज़ होते रहे।

जहाँ तक मुझे पता है आपके आख़िरी गीतों में से थे 1981 की फ़िल्म ’गंगा माँग रही बलिदान’ के गाने जो आपने प्रेम धवन जी के लिए गाए थे। क्या यह फ़िल्म बहुत से रिलीज़ हुई (लगभग दस साल बाद) या फिर आपने 1981 में ही इन्हें गाया था?

ये मेरे आख़िरी गीतों में से होंगे जैसा कि आपने कहा। मुझे वाक़ई अब याद नहीं कि मैंने इन्हें कब गाया था। मैं हमेशा सफ़र पर रहती थी परिवार के साथ। यह संभव है कि कभी मैंने प्रेम धवन के लिए ये गीत गाए होंगे जिनके साथ मैंने पहले बहुत काम किया हुआ है। अब इस उम्र में मुझे 100% सही से नहीं कह सकती कि ये गानें मैंने कब रेकॉर्ड करवाए थे।

(इन गीतों के फ़िल्मांकन में जुनियर महमूद की उम्र को देखते हुए यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह देर से प्रदर्शित हुई फ़िल्म होगी)

शमशाद जी, मैं किन शब्दों में आपका शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा, पिछले साढ़े छह घंटों से आप इस एक कुर्सी पर बैठी हुईं हमसे बात कर रही हैं। आपसे विदा लेने से पहले एक आख़िरी सवाल पूछना चाहता हूँ जो आपने सभी चाहने वाले पूछना चाहते होंगे शायद, और वह यह कि आपको अपने गाए हुए गीतों में से सबसे पसन्दीदा गाने कौन कौन से हैं?

माँ को सभी बच्चे प्यारे होते हैं! मुझे हर एक गीत गाने में उतना ही मज़ा आया। हर एक गीत का अपना अलग तजुर्बा था और मैं हर गीत को बराबर मानती हूँ। मेरे कई अच्छे गाने ज़्यादा नहीं चले और कई बन्द भी हो गए। लेकिन मैं हर एक गीत से साथ पूरा इंसाफ़ करने की कोशिश करती थी।

और बहुत से गाने ऐसे हैं जिन्हें पब्लिक ने ख़ूब गुनगुनाया, ख़ूब दाद दी। किन किन गीतों के लिए आपको पब्लिक से बहुत ज़्यादा दाद मिली?

अल्लाह का करम है कि मेरी झोली में बहुत सारी हिट गीत दिए हैं और उन गीतों की वजह से आज तक लोगों ने मुझे याद रखा है। उनके रीमिक्स वर्ज़न आज की पीढ़ी को भी नचा रही है। मेरे गीत जैसे कि "एक तेरा सहारा", "छोड़ बाबुल का घर", "सावन के नज़ारे हैं" सदाबहार हैं। मुझे याद है "छोड़ बाबुल का घर" मेरी बेटी की विदाई के मौक़े पर बैण्ड वाले बजा रहे थे। मुझे रोना आ रहा था और तब मेरा ही गाया यह गीत बजने लगा मेरे दिल को बहलाने के लिए।

जी हाँ, ये गीत अब तक याद किए जाते हैं, सुने जाते हैं। मैंने सुना है कि आपको बहुत जल्द Gr8 Women Achievers award function में कोई पुरस्कार मिलने वाला है?

जी हाँ, मुझे बहुत ख़ुशी है कि इस उम्र में आने बाद लोग मुझे याद कर रहे हैं। यह मेरे फ़ैन्स के प्यार का ही नतीजा है और मेरे काम का सच्चा पुरस्कार आज जाकर मुझे मिल रहा है।

यहाँ उषा जी बताती हैं....

जी हाँ, देर से ही सही पर आज जो इन्हें सम्मान मिल रहा है, उससे हम बहुत ख़ुश हैं। जब इन्हें हम पद्मभूषण
पुरस्कार ग्रहण करवाने दिल्ली ले गए थे तब ये बहुत ख़ुश थीं और बहुत सुन्दर तरीके से इसे प्राप्त किया। पर जैसी उनकी प्रोफ़ेशनल आदत थी कि रेकॉर्डिंग् स्टुडियो से सीधे घर चली आती थी, वहाँ भी पुरस्कार लेने के बाद वापस चले आने के लिए अधीर हो उठीं। वहाँ बहुत से लोग आए उन्हें बधाई देने के लिए। गुरशरण कौर (प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की पत्नी) बहुत अच्छे से हमसे मिलीं। अक्षय कुमार और ऐश्वर्या राय को भी पद्म पुरस्कार मिला था, वो दोनों आए मम्मी से आशिर्वाद लेने। एक मज़ेदार क़िस्सा भी उस पार्टी में आगे चलकर। मम्मी को फ़िल्में देखने का ज़्यादा शौक़ नहीं था। अगर आप ’मुग़ल-ए-आज़म’ या ’मदर इण्डिया’ के प्रीमियर की बात करें तो उसमें उन फ़िल्मों से जुड़े सभी लोग शामिल थे एक मम्मी को छोड़ कर। जया बच्चन जी उन्हें बधाई देने के लिए आए और कहा कि मैं आपकी बहुत बड़ी फ़ैन हूँ, जिसके जवाब में मम्मी ने फ़ौरन कहा कि मैं भी आपकी बड़ी फ़ैन हूँ। और यह मम्मी दिल से और ईमानदारी से बोल रही थीं। मम्मी जो आम तौर पर फ़िल्में नहीं देखती, जया जी की अदाकारी की वजह से ’ख़ामोशी’ पूरे तीन बार देखी थी।

शमशाद जी ने गर्व के साथ मुझे अपना ’भारत भूषण’ पुरस्कार दिखाया जो ड्रॉविंग् रूम में रखा हुआ था। उन्होंने बताया कि उन्हें कितनी ख़ुशी हुई थी इसे ग्रहण करते हुए क्योंकि बीते ज़माने के फ़नकारों में से बहुत कम ही फ़नकारों को पद्मभूषण मिला है अब तक (अधिकतर को पद्मश्री मिला है)। लेकिन फिर वो कहती हैं कि उन्हें सबसे ज़्यादा ख़ुशी मिलती है उनके चाहने वालों के प्यार से। वो याद करती हैं अपनी बेटी की बिदाई का मौक़ा जब वो रो रही थीं, पर उनकी आँसू एक पल के लिए जैसे रुक गईं जब बैण्ड वालों ने "छोड़ बाबुल का घर" बजा उठे। शमशाद जी के परिवार ने उनके बहुत सारे कैसेट्स और पुरानी यादों का सामान सहेज कर रखा हुआ है जो किसी ख़ज़ाने से कम नहीं। मैंने ख़ुद देखा कि ढेर सारा फ़ैन-मेल रखा हुआ है और उनमें मेरी लिखी हुई वह कविता भी शामिल है जो मैंने उन्हें भेजा था। रात्रा परिवार ने कुछ दुर्लभ तसवीरें दिखाईं और हमें अपने वेबसाइट पर अपलोड करने की अनुमति दी जिसके लिए हम उनके आभारी हैं।

जैसे हम वहाँ से निकल रहे थे, शमशाद जी ने कहा कि वो अल्लाह का शुक्रगुज़ार हैं जो कुछ भी उन्हें मिला है ज़िन्दगी से, और उन्हें अपनी ज़िन्दगी से कोई शिकवा नहीं है, कोई गिला नहीं है। उनके इस बात पर हमने उनसे विदा ली और उनसे वादा किया कि अगली बार जब मुंबई आना होगा तो उनसे दुबारा मिलेंगे। ईश्वर शमशाद को उम्रदराज़ करें, और उनके परिवार को ढेरों ख़ुशियाँ दे!

इस साक्षात्कार के 16 महीने बाद, 23 अप्रैल 2013 के दिन 94 वर्ष की आयु में शमशाद बेगम ने इस दुनिया-ए-फ़ानी को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। आज शमशाद बेगम ज़िन्दा हैं अपने गीतों के ज़रिए और हमेशा ज़िन्दा रहेंगी!



आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमे अवश्य बताइएगा। आप अपने सुझाव और फरमाइशें ई-मेल आईडी soojoi_india@yahoo.co.in पर भेज सकते है। अगले माह के चौथे शनिवार को हम एक ऐसे ही चर्चित अथवा भूले-विसरे फिल्म कलाकार के साक्षात्कार के साथ उपस्थित होंगे। अब हमें आज्ञा दीजिए। 


साक्षात्कार : गजेन्द्र खन्ना
अनुवाद एवं प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 





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स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

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स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट