एक गीत सौ कहानियाँ - 60
‘ज़िन्दगी फूलों की नहीं...’
कमचर्चित संगीतकारों में एक महत्वपूर्ण नाम है कानु रॉय का। ’उसकी कहानी’, ’अनुभव’ और ’गृह प्रवेश’ जैसी फ़िल्मों में अर्थपूर्ण और कर्णप्रिय संगीत देने के लिए आज भी कानु रॉय को संगीत प्रेमी सम्मान से याद करते हैं। सालों पहले गुलज़ार साहब ’फ़िल्मफ़ेअर’ में एक स्तंभ प्रस्तुत किया करते थे ’दिल ढूंढ़ता है’ शीर्षक से। उसके एक अंक में उन्होंने कानु रॉय के बारे में बताते हुए फ़िल्म ’गृह प्रवेश’ के एक गीत "ज़िन्दगी फूलों की नहीं..." के बनने की कहानी बताई थी। आज ’एक गीत सौ कहानियाँ’ में वही दास्तान पढ़िए। गुलज़ार साहब बताते हैं...
जब संगीतकर कोई धुन सुनाते हैं, तो उसके मीटर को सही-सही पकड़ने के लिए गीतकार उस धुन पर डमी शब्द डाल कर गाते हैं। इससे संगीतकार को यह पता चल जाता है कि गीतकार को मीटर समझ में आ गया या नहीं। और डमी शब्दों की बात करें तो आम तौर पर मेरी जान, मेरी जान, जानेमन जानेमन, तू मेरी जान जैसे शब्द, या फिर तुकबन्दी में बहारें, राहें, बाहें ज॒इसे शब्द, या फिर मेरे सनम, और कुछ लोग तो केवल ध्वनियों जैसे कि दा दा दा दा, ला ला ला ला, रा रा रा रा, का प्रयोग करते हैं। पर कानु रॉय एकमात्र ऐसे संगीतकार थे जो ति ता ति ति, ति ता ति ति जैसी ध्वनियों का प्रयोग करते थे। सुनने में बड़ा मज़ा आता था। उनकी इस अदा की पीछे क्या कारण था यह तो पत नहीं, पर उनकी यह अदा उन्हें अन्य संगीतकारों से अलग करती थी। कानु रॉय ने अपना करीअर सलिल दा के सहायक के रूप में काम करते हुए शुरू किया था। व्यवसायिक रूप से वो एक वेल्डर थे और कम उम्र में उन्होंने हावड़ा ब्रिज के एक बड़े रिपेयरिंग् के प्रकल्प में काम कर चुके थे। कानु रॉय एक शान्त स्वभाव के, बेचारा दिखने वाले इंसान थे। बासु भट्टाचार्य ने उन्हें ’उसकी कहानी’ में ब्रेक दिया था। बासु की फ़िल्में लो-बजट की होती थी और उनके पास कलाकारों को देने के लिए पैसे नहीं होते थे। कानु को कभी 6 या 8 साज़िन्दों से ज़्यादा नहीं मिलते थे, और शान्त स्वभाव वाले कानु के पास उसी से काम चलाने के सिवाय कोई और चारा नहीं होता था। हालाँकि उनके कम्पोज़िशन्स उच्चस्तरीय होते थे, पर बासु के साथ सौदा करने की क्षमता नहीं थी। बासु के बैनर के बाहर उन्हें ख़ास कोई काम भी नहीं मिला। उनकी शख़्सियत ही ऐसी थी कि वो किसी से जाकर काम माँगने की स्थिति में भी नहीं थे। वो उस तरह के इंसान ही नहीं थे। वो अपने आप को बेचना नहीं जानते थे। मुझे याद है कई बार तो ऐसा भी हुआ कि वो बासु से एक या दो अतिरिक्त वायलिन की भीख माँगते नज़र आए। कानु और बासु अच्छे दोस्त भी थे। जब भी कानु बासु से अतिरिक्त साज़ की माँग करते, बासु साफ़ कह देते कि अपने पैसे से ख़रीद लो। पर कानु के पास पैसे होते ही कहाँ थे? बहुत मिन्नतें करने के बाद बासु तरस खा कर एक वायलिन या सरोद का बन्दोबस्त करवा देते थे। इस तरह से कानु को काम करना पड़ता था। वो तारदेओ के भन्साली स्टुडियो को सुबह-सुबह 3 या 4 घण्टों के लिए बूक करते रेगुलर रेकॉर्डिंग् शिफ़्ट शुरो होने से पहले। इन विपरित परिस्थितियों में भे कानु रॉय ने कैसे कैसे गाने बनाए, जैसे कि "मेरी जाँ, मुझे जाँ ना कहो" (अनुभव), "लोगों के घरों में रहता हूँ" "बोलिये सुरीली बोलियाँ", "मचल के जब भी आँखों से", "ज़िन्दगी फूलों की नहीं, फूलों की तरह महकती रहे" (गृह प्रवेश)।
Kanu Roy |
ये थी गुलज़ार साहब की कही हुई बातें कानु रॉय और "ज़िन्दगी फूलों की तरह..." गीत के बनने से जुड़ी। यह इत्तेफ़ाक़ ही है कि इस गीत के बोल कानु रॉय के जीवन से मिलती जुलती है। "जब कहीं कोई गुल खिलता है, आवाज़ नहीं आती लेकिन, ख़ुशबू की ख़बर आ जाती है, ख़ुशबू महकती रहे..."। कानु रॉय भी बिना आवाज़ इस संगीत जगत में आए और चुपचाप अपना काम करते रहे। पर उनके संगीत की सुगन्ध आज भी हमारे मन को महका रही है, और यह महक आने वाली कई पीढ़ियों तक आती रहेगी। कानु रॉय की संगीत साधना को नमन!
अब आप फिल्म 'गृह प्रवेश' का वही गीत सुनिए, जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है।
फिल्म गृह प्रवेश : 'ज़िंदगी फूलों की तरह...' : गायक - भूपेन्द्र : संगीत - कनू राय
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खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र
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