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‘ज़िन्दगी फूलों की नहीं...’ - गुलज़ार से जानिए कमचर्चित संगीतकार कानु रॉय और इस गीत की कहानी


एक गीत सौ कहानियाँ - 60

 

ज़िन्दगी फूलों की नहीं...’ 





रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़े दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 60-वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म ’गृह प्रवेश’ के गीत "ज़िन्दगी फूलों की नहीं, फूलों की तरह महकती रहे..." के बारे में जिसे भूपेन्द्र ने गाया था...



कमचर्चित संगीतकारों में एक महत्वपूर्ण नाम है कानु रॉय का। ’उसकी कहानी’, ’अनुभव’ और ’गृह प्रवेश’ जैसी फ़िल्मों में अर्थपूर्ण और कर्णप्रिय संगीत देने के लिए आज भी कानु रॉय को संगीत प्रेमी सम्मान से याद करते हैं। सालों पहले गुलज़ार साहब ’फ़िल्मफ़ेअर’ में एक स्तंभ प्रस्तुत किया करते थे ’दिल ढूंढ़ता है’ शीर्षक से। उसके एक अंक में उन्होंने कानु रॉय के बारे में बताते हुए फ़िल्म ’गृह प्रवेश’ के एक गीत "ज़िन्दगी फूलों की नहीं..." के बनने की कहानी बताई थी। आज ’एक गीत सौ कहानियाँ’ में वही दास्तान पढ़िए। गुलज़ार साहब बताते हैं...


जब संगीतकर कोई धुन सुनाते हैं, तो उसके मीटर को सही-सही पकड़ने के लिए गीतकार उस धुन पर डमी शब्द डाल कर गाते हैं। इससे संगीतकार को यह पता चल जाता है कि गीतकार को मीटर समझ में आ गया या नहीं। और डमी शब्दों की बात करें तो आम तौर पर मेरी जान, मेरी जान, जानेमन जानेमन, तू मेरी जान जैसे शब्द, या फिर तुकबन्दी में बहारें, राहें, बाहें ज॒इसे शब्द, या फिर मेरे सनम, और कुछ लोग तो केवल ध्वनियों जैसे कि दा दा दा दा, ला ला ला ला, रा रा रा रा, का प्रयोग करते हैं। पर कानु रॉय एकमात्र ऐसे संगीतकार थे जो ति ता ति ति, ति ता ति ति जैसी ध्वनियों का प्रयोग करते थे। सुनने में बड़ा मज़ा आता था। उनकी इस अदा की पीछे क्या कारण था यह तो पत नहीं, पर उनकी यह अदा उन्हें अन्य संगीतकारों से अलग करती थी। कानु रॉय ने अपना करीअर सलिल दा के सहायक के रूप में काम करते हुए शुरू किया था। व्यवसायिक रूप से वो एक वेल्डर थे और कम उम्र में उन्होंने हावड़ा ब्रिज के एक बड़े रिपेयरिंग् के प्रकल्प में काम कर चुके थे। कानु रॉय एक शान्त स्वभाव के, बेचारा दिखने वाले इंसान थे। बासु भट्टाचार्य ने उन्हें ’उसकी कहानी’ में ब्रेक दिया था। बासु की फ़िल्में लो-बजट की होती थी और उनके पास कलाकारों को देने के लिए पैसे नहीं होते थे। कानु को कभी 6 या 8 साज़िन्दों से ज़्यादा नहीं मिलते थे, और शान्त स्वभाव वाले कानु के पास उसी से काम चलाने के सिवाय कोई और चारा नहीं होता था। हालाँकि उनके कम्पोज़िशन्स उच्चस्तरीय होते थे, पर बासु के साथ सौदा करने की क्षमता नहीं थी। बासु के बैनर के बाहर उन्हें ख़ास कोई काम भी नहीं मिला। उनकी शख़्सियत ही ऐसी थी कि वो किसी से जाकर काम माँगने की स्थिति में भी नहीं थे। वो उस तरह के इंसान ही नहीं थे। वो अपने आप को बेचना नहीं जानते थे। मुझे याद है कई बार तो ऐसा भी हुआ कि वो बासु से एक या दो अतिरिक्त वायलिन की भीख माँगते नज़र आए। कानु और बासु अच्छे दोस्त भी थे। जब भी कानु बासु से अतिरिक्त साज़ की माँग करते, बासु साफ़ कह देते कि अपने पैसे से ख़रीद लो। पर कानु के पास पैसे होते ही कहाँ थे? बहुत मिन्नतें करने के बाद बासु तरस खा कर एक वायलिन या सरोद का बन्दोबस्त करवा देते थे। इस तरह से कानु को काम करना पड़ता था। वो तारदेओ के भन्साली स्टुडियो को सुबह-सुबह 3 या 4 घण्टों के लिए बूक करते रेगुलर रेकॉर्डिंग् शिफ़्ट शुरो होने से पहले। इन विपरित परिस्थितियों में भे कानु रॉय ने कैसे कैसे गाने बनाए, जैसे कि "मेरी जाँ, मुझे जाँ ना कहो" (अनुभव), "लोगों के घरों में रहता हूँ" "बोलिये सुरीली बोलियाँ", "मचल के जब भी आँखों से", "ज़िन्दगी फूलों की नहीं, फूलों की तरह महकती रहे" (गृह प्रवेश)।


Kanu Roy
"ज़िन्दगी फूलों की तरह" बासु का यमक था शब्दों पर। हम ’गृह प्रवेश’ के एक गाने के सिचुएशन पर बातचीत कर रहे थे। हमेशा की तरह इस बार भी बासु मेरे उपर अपने heavy duty thoughts लाद रहे थे जो वो इस गीत में चाहते थे। जैसे जैसे वो बोलते चले जा रहे थे तो मैंने उनके द्वारा कही हुई बांगला की एक पंक्ति को हिन्दी में अनुवाद करके यूंही कह दी कि ज़िन्दगी फूलों की नहीं। उन्हें यह लाइन बहुत पसन्द आई पर मुझे इसमें कोई ख़ास बात नज़र नहीं आ रही थी। मैंने उनसे कहा कि यह कोई काव्य नहीं है, बस शब्दों का खेल है। पर वो इस लाइन को रखने पर ज़ोर देने लगे तो इसे रख लिया गया। और जब कानु ने इसकी धुन बनाई तो सुनने में अच्छा लग रहा था। संगीतप्रेमी आज भी इस गीत को पसन्द करते हैं। और मैं आज तक यही मानता हूँ कि इसमें कोई अच्छी शायरी या काव्य नहीं है। पर यह बात भी सच है कि शायरी और संगीत में दलिल नहीं चलती। या तो आपको पसन्द है या नहीं है। आप किसी को कोई गीत पसन्द करवाने के लिए बहस नहीं कर सकते। बासु को अपनी फ़िल्मों में हँसी मज़ाक बिल्कुल पसन्द नहीं था। उनके सीन और गाने भी गम्भीर क़िस्म के होते थे। इस बात पर मेरी उनसे बहुत बहस होती थी। पर कानु पूरी ईमानदारी के साथ जो उनके पास काम आता था, करते चले जाते थे। उनका करीअर उनके जीवन के साथ समाप्त हो गया। हालाँकि हम लोग उन्हें जानते थे, वो हमेशा सबसे दूर रहते थे। उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी के बारे में किसी को पता नहीं था। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने शादी भी की थी। अफ़सोस की बात है कि वो ग़रीबी में जिये और ग़रीबी में ही चल बसे। संगीत जगत में उन्होंने एक बहुत ही छोटी सी भूमिका निभाई, लेकिन पता नहीं क्या कारण है कि वो आज भी हमारी यादों में बसा हुआ है। और यह उसकी कृतियों का ही कमाल है। उनके साथ-साथ उन संगीत भी संगीत प्रेमियों के दिलों में बसा हुआ है।

ये थी गुलज़ार साहब की कही हुई बातें कानु रॉय और "ज़िन्दगी फूलों की तरह..." गीत के बनने से जुड़ी। यह इत्तेफ़ाक़ ही है कि इस गीत के बोल कानु रॉय के जीवन से मिलती जुलती है। "जब कहीं कोई गुल खिलता है, आवाज़ नहीं आती लेकिन, ख़ुशबू की ख़बर आ जाती है, ख़ुशबू महकती रहे..."। कानु रॉय भी बिना आवाज़ इस संगीत जगत में आए और चुपचाप अपना काम करते रहे। पर उनके संगीत की सुगन्ध आज भी हमारे मन को महका रही है, और यह महक आने वाली कई पीढ़ियों तक आती रहेगी। कानु रॉय की संगीत साधना को नमन!

अब आप फिल्म 'गृह प्रवेश' का वही गीत सुनिए, जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है। 


फिल्म गृह प्रवेश : 'ज़िंदगी फूलों की तरह...' : गायक - भूपेन्द्र : संगीत - कनू राय




अब आप भी 'एक गीत सौ कहानियाँ' स्तंभ के वाहक बन सकते हैं। अगर आपके पास भी किसी गीत से जुड़ी दिलचस्प बातें हैं, उनके बनने की कहानियाँ उपलब्ध हैं, तो आप हमें भेज सकते हैं। यह ज़रूरी नहीं कि आप आलेख के रूप में ही भेजें, आप जिस रूप में चाहे उस रूप में जानकारी हम तक पहुँचा सकते हैं। हम उसे आलेख के रूप में आप ही के नाम के साथ इसी स्तम्भ में प्रकाशित करेंगे। आप हमें ईमेल भेजें cine.paheli@yahoo.com के पते पर। 



खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र 




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