तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 03
गुलशन बावरा
गुलशन कुमार मेहता का जन्म 12 अप्रैल 1937 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रोविन्स के शेख़ुपुरा में हुआ था। यह अब पाक़िस्तान में है। उनके पिता श्री रूप लाल मेहता का कन्स्ट्रक्शन का कारोबार था। रूप लाल मेहता और उनके भाई चमन लाल मेहता के परिवार साथ में उनके पिता श्री लाभ चन्द मेहता की हवेली में रहते थे। रूप लाल मेहता के दो बेटे (एक गुलशन) और एक बेटी थी। बेटी का विवाह जयपुर के एक परिवार में हो गया। दो बेटों और भाई के परिवार के साथ रूप लाल मेहता की ज़िन्दगी हँसी-ख़ुशी गुज़र रही थी। गुलशन भी बड़े लाड और प्यार से पल रहे थे परिवार में सबसे छोटा होने की वजह से। स्कूल जाते, अपने बड़े भाई और चचेरे भाई-बहनों के साथ खेलते-कूदते। 6 वर्ष की उम्र से वो कविताएँ भी लिखने लगे थे। कुल मिलाकर एक हँसता-खेलता परिवार, कहीं कोई कमी नहीं, सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। और तभी जैसे एक भयानक बिजली गिरी। 1947 का वर्ष आया। अगर एक तरफ़ स्वाधीनता की ख़ुशियाँ थीं तो दूसरी तरफ़ बटवारे का भयानक मंज़र था। सरहद के दोनों तरफ़ साम्प्रदायिक दंगों ने विकराल रूप धारण कर लिया था। और इसका शिकार हो गया लाभ चन्द मेहता का पूरा परिवार। गुलशन और उनके भई-बहनों की आँखों के सामने उनके माता-पिता को बड़ी ही बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया। मातम मनाने का भी समय नहीं मिला उन बच्चों को। किसी तरह से अपनी-अपनी जान बचा कर वो बच्चे रात के अन्धकार का फ़ायदा उठा कर हवेली से बाहर भाग गए। 10 साल के गुलशन का हाथ पकड़ कर उनका बड़ा भाई भाग रहा था उस रात जिसकी सुबह दूर-दूर तक होती नज़र नहीं आ रही थी। पलक झपकते ही पूरा परिवार बिखर गया, सब कुछ एक ही पल में ख़त्म हो गया। सारे सपने बिखर गए, बचपन बिखर गया। इस अकल्पनीय त्रासदी का नन्हे गुलशन के मन-मस्तिष्क पर उस समय क्या असर पड़ा होगा इसका अन्दाज़ा लगाना मुश्किल नहीं। उन दो भाइयों के लिए अब अन्तिम सहारा था जयपुर में उनकी बड़ी बहन का परिवार। दोनों उसी राह पर चल निकले।
बड़ी बहन और उसके परिवार ने दोनों भाइयों को अपना लिया। रात के बाद जैसे आख़िरकार भोर हुई। गुलशन जयपुर में ही बड़े हुए। शिक्षा वहीं पे हुई। इसके बाद जब बड़े भाईसाहब की नौकरी दिल्ली में लग गई तब गुलशन बड़े भाई के साथ दिल्ली शिफ़्ट हो गए और दिल्ली यूनिवर्सिटी से ही स्नातक की डिग्री ली। कॉलेज में जा कर गुलशन का कविताएँ लिखना जारी रहा। वो हमेशा से ही एक गीतकार बन कर फ़िल्मी दुनिया में नाम कमाना चाहते थे। उनकी चाहत को रास्ता तब मिला जब रेल्वे में उन्हें क्लर्क की नौकरी मिल गई और पोस्टिंग् हुई बम्बई। ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। नौकरी करने के साथ-साथ स्टुडियोज़ के चक्कर भी लगाया करते थे गुलशन बावरा। गुलशन कुमार मेहता उर्फ़ गुलशन बावरा को उनके जीवन का पहला ब्रेक दिया कल्याणजी वीरजी शाह ने, फ़िल्म थी ’चन्द्रसेना’। और गीत के बोल "मैं क्या जानूं कहाँ लागे ये सावन मतवाला रे"। गायिका लता मंगेशकर। असली ब्रेक मिला ’सट्टा बाज़ार’ में जिसमें उन्होंने कल्याणजी-आनन्दजी के लिए लिखा "तुम्हे याद होगा कभी हम मिले थे"। कल्याणजी-आनन्दजी और राहुल देब बर्मन के लिए गुलशन बावरा ने सर्वाधिक व सफलतम काम किया। "यारी है इमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी", "दीवाने हैं दीवानो को ना घर चाहिए", "हमें और जीने की चाहत न होती अगर तुम न होते", "कितने भी तू कर ले सितम, हँस हँस के सहेंगे हम", "वादा कर ले साजना, तेरे बिना मैं ना रहूँ...", "क़समें वादे निभाएँगे हम", "जीवन के हर मोड़ पे मिल जाएँगे हमसफ़र", "पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए", "तू तू है वही दिल ने जिसे अपना कहा", "आती रहेंगी बहारें, जाती रहेंगी बहारें" और भी न जाने कितने ऐसे सुपरहिट गीत इन्होंने लिखे। और "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती" ने तो गुल्शन बावरा को अमर बना दिया। जिस भयानक त्रासदी से वो गुज़रे थे, वहाँ से लेकर जीवन के अन्त तक जाकर जिस मुकाम पे वो पहुँचे, हम उन्हें यही कह सकते हैं कि तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी। गुलशन बावरा की कहानी से हमें यही सबक मिलती है कि दुर्घटना हर एक के जीवन में घटती है, दर्दनाक हादसे सभी के ज़िन्दगी में आती है, पर निरन्तर चलते रहने का नाम ही जीवन है, और हर रात के बाद एक सुबह ज़रूर आती है। ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से गुलशन बावरा को सलाम।
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खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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