एक गीत सौ कहानियाँ - 61
‘सात अजूबे इस दुनिया में...’
रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़े दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इइसकी 61-वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म ’धरम वीर’ के शीर्षक गीत "सात अजूबे इस दुनिया में आठवीं अपनी जोड़ी..." के बारे में जिसे मोहम्मद रफ़ी और मुकेश ने गाया था...
Rafi & Mukesh |
हिन्दी फ़िल्म संगीत में पुरुष युगल गीतों का भी अपना एक अलग स्थान रहा है। सुनहरे दौर में रफ़ी और किशोर के गाए युगल गीत ख़ूब लोकप्रिय हुआ करते थे और इन रफ़ी-किशोर डुएट्स की संख्या भी अन्य जोड़ियों से अधिक हैं। रफ़ीस-किशोर के बाद रफ़ी-मन्ना और रफ़ी-मुकेश की जोड़ियों के गाए युगल गीत भी यदा-कदा अते रहे। आज बात करते हैं मोहम्मद रफ़ी और मुकेश के गाए युगल गीतों की। शोध करने पर पता चला कि पहला रफ़ी-मुकेश डुएट बना था साल 1949 में फ़िल्म ’चिलमन’ के लिए। पी. एल. संतोषी का लिखा और हनुमान प्रसाद का स्वरवबद्ध किया यह गीत था "जले जलाने वाले हमको जैसे मोमबत्ती..."। उसी साल संगीतकार स्नेहल भाटकर ने फ़िल्म ’ठेस’ में इन दोनों से एक युगल गीत गवाया "बात तो कुछ भी नहीं..."। गीतकार थे किदार शर्मा। फिर एक लम्बा अन्तराल आया और लगभग 10 साल बाद, 1958 में यादगार फ़िल्म ’फिर सुबह होगी’ में रफ़ी और मुकेश ने क्रम से रहमान और राज कपूर के लिए पार्श्वगायन करते हुए एक युगल गीत गाया "जिस प्यार में यह हाल हो उस प्यार से तौबा..."। संगीतकार ख़य्याम, गीत साहिर का था। 1959 की फ़िल्म ’उजाला’ में शंकर जयकिशन ने रफ़ी और मुकेश से क्रम से शम्मी कपूर और राज कुमार के लिए आवाज़ें ली। शैलेन्द्र का लिखा वह गीत था "यारों सूरत हमारी पे मत जाओ..."। संगीतकार चित्रगुप्त के निर्देशन में 1961 की फ़िल्म ’हम मतवाले नौजवान’ में रफ़ी और मुकेश ने गाया मजरूह का लिखा "मत पूछिए दिल है कहाँ..."। 70 के दशक में कुछ रफ़ी-मुकेश डुएट्स तो सर चढ़ कर बोले। कल्याणजी-आनन्दजी, लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल और रवीन्द्र जैन ने रफ़ी-मुकेश डुएट्स की लिस्ट को इज़ाफ़ा दिलाया। 1973 की फ़िल्म ’समझौता’ का गीत "बड़ी दूर से आए हैं प्यार का तोहफ़ा लाए हैं..." में अनिल धवन के लिए गाया रफ़ी ने और शत्रुघन सिन्हा के लिए गाया मुकेश ने। 1975 की फ़िल्म ’दो जासूस’ में तो तीन युगल गीत थे रफ़ी और मुकेश के - फ़िल्म का शीर्षक गीत "दो जासूस करे महसूस कि दुनिया बड़ी ख़राब है...", "साल मुबारक़ साहेब जी..." और "चढ गई चढ़ गई अंगूर की बेटी..."। इसमें राजेन्द्र कुमार के लिए रफ़ी और राज कपूर के लिए मुकेश की आवाज़ गूंजी। 1977 की फ़िल्म में फ़िल्म ’ईमान धरम’ में एक बड़ा ही महत्वपूर्ण गीत था "ओ जट्टा आई वैसाखी..."। इसमें सबको चकित करते हुए रफ़ी साहब की आवाज़ सजी उत्पल दत्त के होठों पर, और मुकेश गाए संजीव कुमार के लिए। पीढ़ी बदल गई पर रफ़ी-मुकेश डुएट्स का सिलसिला बरकरार रहा। 1977 में ही धर्मेन्द्र और जीतेन्द्र के लिए क्रम से रफ़ी और मुकेश की आवाज़ों में बनी ब्लॉकबस्टर फ़िल्म ’धरम वीर’ का शीर्षक गीत "सात अजूबे इस दुनिया में आठवीं अपनी जोड़ी..."। इस गीत का एक सैड वर्ज़न भी था। और यही आख़िरी गीत था इन दो महान गायकों की युगल आवाज़ों में। मुकेश के अचानक इस दुनिया से चले जाने से यह सिलसिला समाप्त हो गया।
Anand Bakshi with LP |
फ़िल्म ’धरम वीर’ के शीर्षक गीत के साथ एक बड़ा ही दिलचस्प क़िस्सा जुड़ा हुआ है। आनन्द बक्शी ने यह गीत लिखा था "सात अजूबे इस दुनिया में आठवीं अपनी जोड़ी, तोड़े से भी टूटे ना यह धरम वीर की जोड़ी"। तीन अन्तरों के साथ गीत बन कर तैयार हो गया। पर जैसे ही गीत रेकॉर्ड पर जारी हुआ, इस गीत की वजह से बवाल मच गया। महिला समितियाँ फ़िल्म के निर्माता मनमोहन देसाई और गीतकार आनन्द बक्शी के घर पर मोर्चा लेकर पहुँच गए और "हाय हाय" का नारा लगने लगे। ऐसा क्या था इस गीत में जो महिला समितियों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया? बात दरसल ऐसी थी कि इस गीत का दूसरा अन्तरा कुछ इस तरह था - "यह लड़की है या रेशम की डोर है, कितना ग़ुस्सा है कितनी मुंहज़ोर है, ढीला छोड़ ना देना हँस के, रखना दोस्त लगाम कस के, अरे मुश्किल से काबू में आए लड़की हो या घोड़ी..."। बस, यह जो आख़िरी जुमला था "लड़की हो या घोड़ी", यह था सारी मुसीबतों का जड़। निस्सन्देह लड़की की तुलना घोड़ी से करने वाली बात जायज़ नहीं थी। विरोध इतना बढ़ गया कि अन्त में मनमोहन देसाई ने उन्हें यह कह कर आश्वस्त किया कि इस पंक्ति को बदल कर दोबारा गीत रेकॉर्ड किया जाएगा। आनन्द बक्शी ने मनमोहन देसाई की परेशानी को दूर करते हुए इस पंक्ति को दोबारा इस तरह से लिखा - "अरे मुश्किल से काबू में आए थोड़ी ढील जो छोड़ी"। गाना दोबारा रेकॉर्ड हुआ और इस नए संस्करण पर ही गाना फ़िल्माया गया। इस गीत का एक सैड वर्ज़न भी है रफ़ी और मुकेश की ही आवाज़ों में। अफ़सोस की बात है कि इस गीत के रेकॉर्ड होने के कुछ ही दिनों बाद मुकेश जी की अमरीका में मृत्यु हो गई, और इस गीत के बोलों को झूठा साबित करते हुए टूट गई मुकेश-रफ़ी की जोड़ी। बस इतनी सी है इस गीत की कहानी।लीजिए, अब आप यह युगल गीत सुनिए।
फिल्म धरम वीर : 'सात अजूबे इस दुनिया में आठवीं अपनी जोड़ी...' : मोहम्मद रफी और मुकेश
खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र
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