एक गीत सौ कहानियाँ - 38
‘मेरे तो गिरिधर गोपाल...’
भक्तिरस की फ़िल्मों के इतिहास में 1979 में बनी गुलज़ार की फ़िल्म 'मीरा' का महत्वपूर्ण स्थान है। भले इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाबी के झण्डे नहीं गाड़े, पर उत्कृष्ट भक्ति फ़िल्मों की जब जब बात चलेगी, इस फ़िल्म का उल्लेख ज़रूर होगा। इस फ़िल्म के गीतों की गायिका वाणी जयराम की आवाज़ में कुल 12 मीरा भजन हैं -
वाणी जयराम |
2. बाला मैं बैरागन होऊँगी...
3. बादल देख डरी...
4. जागो बंसीवाले...
5. जो तुम तोड़ो पिया मैं नाही तोड़ूँ रे...
6. करना फ़कीरी फिर क्या दिलगिरी...
7. करुणा सुनो श्याम मेरे...
8. मैं सांवरे के रंग रची...
9. मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोय...
10. प्यारे दर्शन दीजो आज...
11. राणाजी मैं तो गोविन्द के गुन गाऊँ...
12. श्याम माने चाकर राखो जी...
इन सभी भजनों को इस फ़िल्म के लिए स्वरबद्ध किया था सुप्रसिद्ध सितार वादक पण्डित रविशंकर ने। "मेरे तो गिरिधर गोपाल..." के लिए गायिका वाणी जयराम को उस वर्ष फ़िल्मफ़ेयर के सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका का पुरस्कार मिला था। वाणी जयराम का गाया एक और भजन "एरी मैं तो प्रेम दीवानी..." भी इस पुरस्कार के लिए नामांकित हुई थी। उस वर्ष अन्य नामांकित गायिकायें थीं, छाया गांगुली (आपकी याद आती रही रात भर - गमन), उषा मंगेशकर (हमसे नज़र तो मिलाओ - इकरार), और हेमलता (मेघा ओ मेघा - सुनैना)।
जिस प्रकार मीराबाई का जीवन मुश्किलों से घिरा रहा, उसी प्रकार फ़िल्म 'मीरा' के निर्माण में भी तरह-तरह की कठिनाइयाँ आती रहीं। पर हर कठिनाई का सामना किया गुलज़ार की पूरी टीम ने और आख़िर में बन कर तैयार हुई 'मीरा'। जब फ़िल्म के निर्माता प्रेमजी और जे. एन. मनचन्दा ने गुलज़ार को इस फ़िल्म को लिखने व निर्देशित करने का निमंत्रण दिया, तब दो कलाकार जो गुलज़ार को पूर्व-निर्धारित मिले वो थे हेमामालिनी और लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल। बाकी कलाकारों का चयन होना बाक़ी था, जो काम गुलज़ार को करना था। गुलज़ार को पता था कि उनकी जो ट्युनिंग पंचम के साथ जमती है, वह एल.पी के साथ नहीं हो सकती, फिर भी प्रेमजी का यह 'मीरा' का प्रस्ताव इतना आकर्षक था कि वो ना नहीं कह सके। वैसे एल.पी के साथ गुलज़ार इससे पहले 'पलकों की छाँव में' फ़िल्म में काम कर चुके थे। गुलज़ार के अनुसार यह फ़िल्म स्वीकार करने का सबसे मुख्य कारण यह था कि 1981 के वर्ष को 'महिला मुक्ति वर्ष' (Women's Liberation Year) के रूप में मनाया जाना था और वो मीराबाई को इस देश की प्रथम मुक्त महिला मानते हैं क्योंकि मीराबाई के अपने उसूल थे, वो अच्छी जानकार थीं, वो बुद्धिमती थीं, वो एक कवयित्री थी, और उन्होंने अपने पति के धर्म को स्वीकार नहीं किया। गुलज़ार मीराबाई के जीवन के आध्यात्मिक अंग को फ़िल्म में रखना तो चाहते थे पर यह भी नहीं चाहते थे कि फ़िल्म केवल उनकी पौराणिक (mythological) छवि को ही दर्शाये। वो तो फ़िल्म को एक ऐतिहासिक फ़िल्म बनाना चाहते थे।
फ़िल्म की स्क्रिप्ट तैयार हो जाने के बाद गुलज़ार ने सिटिंग रखी फ़िल्म के संगीतकार लक्ष्मी-प्यारे के साथ। मीराबाई द्वारा लिखी बेशुमार भजनों की चर्चा करते हुए अन्त में कुल 12 भजन छाँट लिए गये जो फ़िल्म में रखे जाने थे। फ़िल्म के निर्माता ने व्यावसायिक पत्रिकाओं में विज्ञापन प्रकाशित कर दिया - 'आज की मीरा' (लता मंगेशकर) 'मीरा' की मुहूर्त शॉट में क्लैप करेंगी। गुलज़ार ने पहला भजन "मेरे तो गिरिधर गोपाल..." को सबसे पहले फ़िल्माने की तैयारी भी कर ली। एल.पी ने भजन कम्पोज़ किया और लता जी से सम्पर्क किया रेकॉर्डिंग के लिए। लक्ष्मी-प्यारे जानते थे कि लता जी ना नहीं करेंगी। पर उनके सर पे बिजली आ गिरी जब लता जी ने इसे गाने से इनकार कर दिया। लता जी के अनुसार अभी हाल ही में उन्होंने अपने भाई हृदयनाथ मंगेशकर के लिए मीरा भजनों का एक ग़ैर फ़िल्मी ऐल्बम रेकॉर्ड किया है, इसलिए दोबारा किसी कमर्शियल फ़िल्म के लिए वही भजन नहीं गा सकती। लता जी किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती थीं। मसला इतना नाज़ुक था कि ना तो गुलज़ार लता जी से इस पर बहस कर सकते थे और एल.पी. का तो सवाल ही नहीं था। हुआ यूँ कि लता जी के ना कहने पर एल. पी ने भी फ़िल्म में संगीत देने से मना कर दिया। उन्हे लगा कि कहीं लता जी उनसे नाराज़ हो गईं और भविष्य में उनके गीत गाने से मना कर देंगी तो वो बरबाद हो जायेंगे। ख़ैर, लता जी के पीछे हट जाने के बाद गुलज़ार ने आशा भोसले से अनुरोध किया। पर आशा जी ने भी यह कहते हुए मना कर दिया कि जहाँ देवता ने पाँव रखे हों, वहाँ फिर मनुष्य पाँव नहीं रखते। अब 'मीरा' की टीम डर गई। न लता है, न आशा, न एल. पी। गुलज़ार अगर चाहते तो पंचम को संगीतकार बनने के लिए अनुरोध कर सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। लता और आशा के गुलज़ार को मना करने पर पंचम वैसे ही शर्मिन्दा थे, गुलज़ार उन्हें और ज़्यादा शर्मिन्दा नहीं करना चाहते थे। और इस तरह से लता, आशा, एल.पी, पंचम - ये दिग्गज इस फ़िल्म से बहुत दूर हो गये।
गुलज़ार हार नहीं माने, और सोचने लगे कि ऐसा कौन संगीतकार है जो अपने संगीत के दम पर लता और आशा के बिना भी फ़िल्म के गीतों को सही न्याय और स्तर दिला सकता है! और तभी उन्हें पण्डित रविशंकर का नाम याद आया। पंडित जी उस समय न्यूयॉर्क में थे; उनसे फोन पर सम्पर्क करने पर उन्होंने बताया कि वो सितम्बर-अक्तूबर में भारत वापस आने के बाद स्क्रिप्ट पढ़ेंगे और उसके बाद ही अपना फ़ैसला सुनायेंगे। वह जून का महीना था और गुलज़ार इतने दिनों तक इन्तज़ार नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने अमरीका का टिकट कटवाया और पहुँच गये पण्डित जी के पास। यह गुलज़ार साहब की पहली अमरीका यात्रा थी। पण्डित जी को स्क्रिप्ट पसन्द आई, पर उस पर काम वो सितम्बर से ही शुरू कर पायेंगे, ऐसा उन्होंने कहा। लेकिन गुलज़ार साहब के फिर से अनुरोध करने पर वो अमरीका में रहते हुए ही धुनों पर काम करने को तैयार हो गये। अभी भी पण्डित जी को थोड़ी सी हिचकिचाहट थी क्योंकि उन्होंने भी लता मंगेशकर वाले विवाद की चर्चा सुनी थी। संयोग से जब गुलज़ार पण्डित जी से मिलने अमरीका गये, उन दिनों लता जी भी वहीं थीं। गुलज़ार साहब और पण्डित जी ने लता जी को फ़ोन किया और उन्हें सब कुछ बताया तो लता जी ने उनसे कहा कि उन्हें फ़िल्म 'मीरा' के बनने से कोई परेशानी नहीं है, बस वो ख़ुद इसमें शामिल नहीं होना चाहती। अब इसके बाद पण्डित जी का अगला सवाल था कि कौन सी गायिका इन भजनों को गाने वाली हैं? गुलज़ार के मन में वाणी जयराम का नाम था, पर वो पण्डित जी से यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे, यह सोच कर कि वो कैसे रिऐक्ट करेंगे वाणी जयराम का नाम सुन कर। इसलिए गुलज़ार साहब ने ही पण्डित जी से गायिका चुनने को कहा। और पण्डित जी का जवाब था, "वाणी जयराम कैसी रहेगी?"
पण्डित रविशंकर ने "बाला मैं बैरागन होऊँगी..." को सबसे पहले कम्पोज़ किया। गुलज़ार साहब के अनुसार यह इस ऐल्बम का सबसे बेहतरीन भजन है। कहते हैं कि "एरी मैं तो प्रेम दीवानी..." कम्पोज़ करते समय पण्डित जी ने कहा था - "जो ट्यून रोशन साहब ने बनायी है 'नौबहार' में, वह दिमाग़ से नहीं जाती। लेकिन मैं अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करूँगा कि कुछ अलग हट कर बनाऊँ"। पर जिस भजन के लिए वाणी जयराम को पुरस्कार मिला, वह था "मेरे तो गिरिधर गोपाल..."। सितम्बर में भारत वापस आने के बाद 'मीरा' के सभी 12 भजन एक के बाद एक 9 दिनों के अन्दर रेकॉर्ड किये गये वाणी जयराम की आवाज़ में। पण्डित जी सुबह 9 से रात 9 बजे तक काम करते हुए पूरे अनुशासन के साथ कार्य को समय पर सम्पन्न किया। एक दिन ऐसा हुआ कि पण्डित जी बहुत ही थके हुए से दिख रहे थे। गुलज़ार साहब के पूछने पर उन्होंने बताया कि अगले दिन वो दोपहर 2 बजे से काम शुरू करेंगे। यह कह कर वो निकल गये। अगले दिन पंडित जी 2 बजे आये, बिल्कुल तरो-ताज़ा दिख रहे थे। जब गुलज़ार साहब ने उनसे इसका ज़िक्र किया तो उन्होंने कहा कि अब वो बहुत ज़्यादा बेहतर महसूस कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने लगातार 8 घंटे अपना सितार बजाया है सुबह 4 बजे से बैठ कर; वो इसलिये थके हुए से लग रहे थे क्योंकि कई दिनों से उन्हे अपने सितार को छूने का मौका नहीं मिल पाया था। इस तरह से 'मीरा' के गानें बने। यह सच है कि फ़िल्म के ना चलने पर इन भजनों के तरफ़ ज़्यादा लोगों का ध्यान नहीं गया और ना ही रेडियो पर ये भजन लोकप्रिय कार्यक्रमों में सुनाई पड़े। पर लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल और लता मंगेशकर अगर इस फ़िल्म से जुड़ते तो क्या इस फ़िल्म का व्यावसायिक अंजाम कुछ और होता, यह अब कह पाना बहुत मुश्किल है।
आइए, अब हम मीरा का यही पद सुनते हैं। फिल्म में यह भक्तिगीत दो बार प्रस्तुत हुआ है। पहली बार महल में यह गीत रचते हुए दिखाया गया है और दूसरी बार मन्दिर में भक्तों के बीच मीरा इसे गातीं हैं। किंवदन्तियों के अनुसार बादशाह अकबर, तानसेन के साथ वेश बदल कर इस मन्दिर में मीरा का भजन सुनने आते हैं। तानसेन खुद को रोक नहीं पाते और गीत की अंतिम पंक्ति पहले एकल और फिर मीरा के साथ युगल रूप में गाने लगते हैं। तानसेन के लिए यह पुरुष कण्ठ-स्वर सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक पण्डित दिनकर कैंकणी ने दिया है। पण्डित रविशंकर ने मीरा का यह पद राग खमाज के स्वरों में बाँधा है।
फिल्म - मीरा : 'मेरे तो गिरिधर गोपाल...' : वाणी जयराम और पण्डित दिनकर कैंकणी : संगीत - पण्डित रविशंकर
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खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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