अपने पडो़सी दिल से भीनी-भीनी भोर की माँग कर बैठे गोटेदार गुलज़ार साहब, आशा जी एवं राग तोड़ी वाले पंचम दा
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०९
गुलज़ार और पंचम - ये दो नाम दो होते हुए भी एक से लगते हैं और जब भी इन दोनों का नाम साथ में आता है तो सुनने वालों को मालूम हो जाता है कि कुछ नया कुछ अलबेला पक के आने वाला है बाहर.. अभी-अभी पतीला खुलेगा और कोई मीठी-सी नज़्म छलकते हुए हमारे कानों तक पहुँच जाएगी। ये दोनों फ़नकार एक-दूसरे के पूरक-से हो चले थे। कैसी भी घुमावदार सोच हो, किसी भी मोड़ पर बिन कहे मुड़ने वाले मिसरे हों या फिर किसी अखबार की सुर्खियाँ हीं क्यों न हो.. गुलज़ार के हरेक शब्द-नुमा ईंट का जवाब पंचम अपने सुरों के पत्थर (अजीब उपमा है.. यूँ होना तो फूल चाहिए, लेकिन मुहावरा बनाने वाले ने हमारे पास कम हीं विकल्प छोड़े हैं) से दिया करते थे... और जवाब ऐसा कि "साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे".. गुलज़ार के शब्द जहाँ शिखर पर हीं मौजूद रहें, वहीं उसी के इर्द-गिर्द पंचम अपनी पताका भी लहरा आएँ... तभी तो दोनों की जोड़ी आजतक प्यार और गुमान से याद की जाती है।
लेकिन यह जोड़ी ज्यादा दिनों तक रह नहीं पाई। गुलज़ार को राह में अकेले छोड़कर पंचम दुसरी दुनिया में निकल लिए। पंचम के गुजरने का असर गुलज़ार पर किस हद तक पड़ा, इसका अंदाजा पंचम की याद में लिखे गुलज़ार के इस नज़्म से लगाया जा सकता है:
याद है बारिशों का दिन, पंचम
याद है जब पहाड़ी के नीचे वादी में
धुंध से झांककर निकलती हुई
रेल की पटरियां गुज़रती थीं
धुंध में ऐसे लग रहे थे हम
जैसे दो पौधे पास बैठे हों
हम बहुत देर तक वहां बैठे
उस मुसाफिर का जिक्र करते रहे
जिसको आना था पिछली शब, लेकिन
उसकी आमद का वक्त टलता रहा
देर तक पटरियों पर बैठे हुए
रेल का इंतज़ार करते रहे
रेल आई ना उसका वक्त हुआ
और तुम, यूं ही दो क़दम चलकर
धुंध पर पांव रखके चल भी दिए
मैं अकेला हूं धुंध में 'पंचम'...
पंचम की क्षति अपूर्णीय है.. जितना गुलज़ार के लिए उतना हीं संगीत के अन्य साधकों के लिए भी... पंचम के गए पूरे सत्रह बरस हो गए, गए ४ जनवरी को उनकी पुण्य-तिथि थी। मैंने जब यह "आलेख" लिखना शुरू किया था तो यह सोचा नहीं था कि मेरी लेखनी पंचम को याद करने में डूब जाएगी, लेकिन भावनाओं का वह सैलाब बह निकला कि न मैं खुद को रोक पाया, न अपनी लेखनी को। बात जब गुलज़ार और पंचम की हो रही है तो क्यों न आज अपनी महफ़िल को इन्हीं दोनों की एक नज़्म से सजाया जाए।
हम आज की नज़्म तक पहुँचें, इससे पहले एक और फ़नकार से आपका परिचय कराना लाजिमी हो जाता है... मुआफ़ कीजिएगा, फ़नकार नहीं.. फ़नकारा। इन फ़नकारा के बिना गुलज़ार-पंचम की जोड़ी में उतनी जान नहीं, जोकि इनकी तिकड़ी में है। यह फ़नकारा कोई और नहीं, बल्कि पंचम दा की अर्धांगिनी आशा भोसले जी हैं, जिन्हें सारी दुनिया आशा ताई के नाम से पुकारती है। गुलज़ार साहब, पंचम दा और आशा ताई की तिकड़ी ने फिल्मों में एक से बढकर एक गीत दिए है। चंद नाम यहाँ पेश किए देता हूँ: --'क़तरा क़तरा मिलती है', 'मेरा कुछ सामान', 'आंकी चली बांकी चली', 'आऊंगी एक दिन आज जाऊं' 'बड़ी देर से मेघा बरसा', 'बेचारा दिल क्या करे', 'छोटी सी कहानी से'... यह फेहरिश्त और भी बहुत लंबी है, लेकिन मेरे हिसाब से इतने उदाहरण हीं काफी हैं।
न सिर्फ़ फिल्मों में बल्कि इनकी तिकड़ी का कमाल "एलबमों" में भी नज़र आता है। "एलबमों" की बात करने पर जिस एलबम की याद सबसे पहले आती है, वह है "दिल पड़ोसी है"। इस एलबम को आशा ताई के जन्मदिन पर यानि कि ८ सितम्बर को १९८७ में रीलिज किया गया था। इसमें में कुल चौदह गाने थे(हैं)। आज आपको हम इस एलबम से "भीनी भीनी भोर आई" सुनवाने जा रहे हैं। अगली कड़ी में हम एलबम के बाकी गानों से रूबरू होंगे। इस गाने के बारे में हम कुछ कहें, इससे अच्छा होगा कि क्यों न इसके कारीगरों से हीं इसके बनने की कहानी सुन लें। "संगीत सरिता" कार्यक्रम के अंतर्गत "मेरी संगीत यात्रा" लेकर आ रहे हैं "गुलज़ार साहब, पंचम दा एवं आशा ताई" (सौजन्य: सजीव जी, सुजॉय जी)
तो आपने देखा कि माहौल कितना खुशगवार हो जाता था, जब ये तीनों एक जगह आ जुटते थे। जब बातचीत इतनी सुरीली है तो संगीत के बारे में क्या कहा जाए! चलिए तो फिर हम भी राग तोड़ी में मुर्गिर्यों की बांग के बीच गुलज़ार साहब के "गोटे" का मज़ा लेते हैं और इस तिकड़ी को फिर से याद करते हैं (वैसे अगली कड़ी भी इसी तिकड़ी और इसी एलबम को समर्पित है):
भिनी भिनी भोर आई
भिनी भिनी भोर आई
रूप रूप पर छिडके सोना
स्वर्ण कलश चमकाती आई
भिनी भिनी भोर भोर आई ...
माथे सुनहरी टीका लगाये
पात पात पर गोटा लगाये
गोटा लगाई
सात रंग की जाई आई
भिनी भिनी भोर आई...
ओस धुले मुख पोछे सारे
_____ लेप गई उजियारे
उजियारे उजियारे
सा रे ग मा धा नि
जागो जगर की बेला आई
भिनी भिनी भोर आई...
भिनी भिनी भोर आई
रूप रूप पर छिडके सोना
रूप रूप पर छिडके सोना
स्वर्ण कलश चमकाती आई
भिनी भिनी भोर आई
भिनी भिनी भोर आई.....
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "ऊँगली" और मिसरे कुछ यूँ थे-
नज़र नीची किए दाँतों में ऊँगली को दबाती हो,
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
उँगली उठाना बड़ा आसां होता है किसी पे
लोग अपनी कमियों की बात करते नहीं हैं. - शन्नो जी ( इशारा किसकी तरफ़ है? :) )
उसका अँगुली पकडना गजब ढा गया ,
उसका प्रेम का इजहार गजब ढा गया - मंजु जी (ये पंक्तियाँ शेर बनते-बनते रह गई.. कुछ कमी है कहीं न कहीं)
वो चीरता रहा मेरे हृदय को,
मैं देखता रहा फिर भी समय को
ऊँगली उठा रहा था वो मेरी तरफ मगर,
छुपा रहा था शायद वो अपने भय को - अवनींद्र जी (इस बार आपका चिरपरिचित जादू कहीं गायब मालूम पड़ता है)
उँगलिया उठेगी सुखे हुए बालो की तरफ,
एक नजर डालेंगें बीते हुए सालो की तरफ - कफ़ील आज़र.. हमने इनपर पूरी की पूरी एक कड़ी लिख डाली थी (जगजीत सिंह जी तो बस गुलुकार हैं, हमें तो ग़ज़लगो के नाम की दरकार है)
डूब गयी जब कलम हमारी प्यार के गहरे सागर मे..
दर्द की उंगली थामे थामे, उसे उबरते देखा है -दिलीप तिवारी (पूजा जी, इनके बारे में कुछ और जानकारी कहीं से हासिल होगी? )
पिछली महफ़िल में सबसे पहले हाज़िरी लगाई अवध जी ने, लेकिन कोई भी शब्द गायब न पाकर आप फिर से आने का वादा करके रवाना हो लिए, लेकिन यह क्या, एक बार फिर आपने वादाखिलाफ़ी की.. ये अच्छी बात नहीं :) आपके बाद आकर शन्नो जी ने न सिर्फ़ गायब शब्द पहचाना बल्कि उसपर एक-दो शेर भी कहे। इसलिए नियम से शन्नो जी हीं "शान-ए-महफ़िल" बनीं। प्रतीक जी, आपने हमारे प्रयास को सराहा, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से आभार! मंजु जी एवं अवनींद्र जी, महफ़िल में स्वरचित शेरों के दौर को आप दोनों ने आगे बढाया। शुक्रिया! सुमित जी, अगली बार से शायर का नाम भूल मत आईयेगा कहीं :) नीलम जी, आपके आने को आना समझूँ या नहीं, आपने शेर कहने की बजाय शन्नो जी को शांत कराना हीं जरूरी समझा.. ऐसा क्यों? :) पूजा जी, दिलीप जी का शेर है तो काबिल-ए-तारीफ़, लेकिन हम इनकी तारीफ़ भी जानना चाहेंगे। इस बार याद रखिएगा :)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
गुलज़ार और पंचम - ये दो नाम दो होते हुए भी एक से लगते हैं और जब भी इन दोनों का नाम साथ में आता है तो सुनने वालों को मालूम हो जाता है कि कुछ नया कुछ अलबेला पक के आने वाला है बाहर.. अभी-अभी पतीला खुलेगा और कोई मीठी-सी नज़्म छलकते हुए हमारे कानों तक पहुँच जाएगी। ये दोनों फ़नकार एक-दूसरे के पूरक-से हो चले थे। कैसी भी घुमावदार सोच हो, किसी भी मोड़ पर बिन कहे मुड़ने वाले मिसरे हों या फिर किसी अखबार की सुर्खियाँ हीं क्यों न हो.. गुलज़ार के हरेक शब्द-नुमा ईंट का जवाब पंचम अपने सुरों के पत्थर (अजीब उपमा है.. यूँ होना तो फूल चाहिए, लेकिन मुहावरा बनाने वाले ने हमारे पास कम हीं विकल्प छोड़े हैं) से दिया करते थे... और जवाब ऐसा कि "साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे".. गुलज़ार के शब्द जहाँ शिखर पर हीं मौजूद रहें, वहीं उसी के इर्द-गिर्द पंचम अपनी पताका भी लहरा आएँ... तभी तो दोनों की जोड़ी आजतक प्यार और गुमान से याद की जाती है।
लेकिन यह जोड़ी ज्यादा दिनों तक रह नहीं पाई। गुलज़ार को राह में अकेले छोड़कर पंचम दुसरी दुनिया में निकल लिए। पंचम के गुजरने का असर गुलज़ार पर किस हद तक पड़ा, इसका अंदाजा पंचम की याद में लिखे गुलज़ार के इस नज़्म से लगाया जा सकता है:
याद है बारिशों का दिन, पंचम
याद है जब पहाड़ी के नीचे वादी में
धुंध से झांककर निकलती हुई
रेल की पटरियां गुज़रती थीं
धुंध में ऐसे लग रहे थे हम
जैसे दो पौधे पास बैठे हों
हम बहुत देर तक वहां बैठे
उस मुसाफिर का जिक्र करते रहे
जिसको आना था पिछली शब, लेकिन
उसकी आमद का वक्त टलता रहा
देर तक पटरियों पर बैठे हुए
रेल का इंतज़ार करते रहे
रेल आई ना उसका वक्त हुआ
और तुम, यूं ही दो क़दम चलकर
धुंध पर पांव रखके चल भी दिए
मैं अकेला हूं धुंध में 'पंचम'...
पंचम की क्षति अपूर्णीय है.. जितना गुलज़ार के लिए उतना हीं संगीत के अन्य साधकों के लिए भी... पंचम के गए पूरे सत्रह बरस हो गए, गए ४ जनवरी को उनकी पुण्य-तिथि थी। मैंने जब यह "आलेख" लिखना शुरू किया था तो यह सोचा नहीं था कि मेरी लेखनी पंचम को याद करने में डूब जाएगी, लेकिन भावनाओं का वह सैलाब बह निकला कि न मैं खुद को रोक पाया, न अपनी लेखनी को। बात जब गुलज़ार और पंचम की हो रही है तो क्यों न आज अपनी महफ़िल को इन्हीं दोनों की एक नज़्म से सजाया जाए।
हम आज की नज़्म तक पहुँचें, इससे पहले एक और फ़नकार से आपका परिचय कराना लाजिमी हो जाता है... मुआफ़ कीजिएगा, फ़नकार नहीं.. फ़नकारा। इन फ़नकारा के बिना गुलज़ार-पंचम की जोड़ी में उतनी जान नहीं, जोकि इनकी तिकड़ी में है। यह फ़नकारा कोई और नहीं, बल्कि पंचम दा की अर्धांगिनी आशा भोसले जी हैं, जिन्हें सारी दुनिया आशा ताई के नाम से पुकारती है। गुलज़ार साहब, पंचम दा और आशा ताई की तिकड़ी ने फिल्मों में एक से बढकर एक गीत दिए है। चंद नाम यहाँ पेश किए देता हूँ: --'क़तरा क़तरा मिलती है', 'मेरा कुछ सामान', 'आंकी चली बांकी चली', 'आऊंगी एक दिन आज जाऊं' 'बड़ी देर से मेघा बरसा', 'बेचारा दिल क्या करे', 'छोटी सी कहानी से'... यह फेहरिश्त और भी बहुत लंबी है, लेकिन मेरे हिसाब से इतने उदाहरण हीं काफी हैं।
न सिर्फ़ फिल्मों में बल्कि इनकी तिकड़ी का कमाल "एलबमों" में भी नज़र आता है। "एलबमों" की बात करने पर जिस एलबम की याद सबसे पहले आती है, वह है "दिल पड़ोसी है"। इस एलबम को आशा ताई के जन्मदिन पर यानि कि ८ सितम्बर को १९८७ में रीलिज किया गया था। इसमें में कुल चौदह गाने थे(हैं)। आज आपको हम इस एलबम से "भीनी भीनी भोर आई" सुनवाने जा रहे हैं। अगली कड़ी में हम एलबम के बाकी गानों से रूबरू होंगे। इस गाने के बारे में हम कुछ कहें, इससे अच्छा होगा कि क्यों न इसके कारीगरों से हीं इसके बनने की कहानी सुन लें। "संगीत सरिता" कार्यक्रम के अंतर्गत "मेरी संगीत यात्रा" लेकर आ रहे हैं "गुलज़ार साहब, पंचम दा एवं आशा ताई" (सौजन्य: सजीव जी, सुजॉय जी)
पंचम दा: आशा जी, आपको याद है कोई गीत जो आपने काफ़ी मेहनत से गाया होगा?
आशा जी: हाँ, एक गीत आपने राग तोड़ी में बनाया था। वैसे तोड़ी में "धा" से पंचम लगाना चाहिए, पर फिल्मी गीत में अगर पूरा का पूरा राग वैसे हीं रख दिया जाए तो उस राग पर आधारित सभी गीत एक जैसे हीं लगेंगे। थोड़ी-बहुत चेंज करके अगर गीतों को ढाला जाए तो एक नयापन भी आता है और सुनने में भी अच्छा लगता है।
गुलज़ार साहब: हाँ सही बात है, अगर "क्लासिकल म्युज़िक" को मिसाल बनाकर कोई फिल्म बन रही है तब अलग बात है।
पंचम दा: गुलज़ार, आप को याद है "भीनी भीनी भोर".. "दिल पड़ोसी है" एलबम का ये पहला गाना रखा था हमने?
आशा जी: गुलज़ार भाई, आपने इस गाने में "गोटा" शब्द का बहुत खूबसूरत इस्तेमाल किया था।
गुलज़ार साहब: सोने की चमक की "उपमा" हमारे फिल्मी गीतों में काफ़ी पाई जाती है, कभी आग से, कभी धूप से। लेकिन हर चीज़ जो चमकती है वह सोना नहीं होती (तीनों हँसते हैं), हमारे यहाँ शादी में गोटेदार चुनरी देखने को मिलती है, तो उसी से मैंने यह लिया था।
आशा जी: लेकिन आपने तो बादल को गोटा लगाया था ना?
गुलज़ार साहब: मुझे लगता था कि गोटे की जो चुनरी है वो बहुत हीं खूबसूरत है। आशा जी, आपने कहा कि पंचम ने तोड़ी का "चलन" बदला, मुझे तो हमेशा हीं इसके चाल-चलने पर शक़ रहा है (तीनों ठहाका लगाते हैं), आपने कहा कि इन्होंने अपना चलन बदला! (हँसी ज़ारी है)
पंचम दा: यह सुबह का गाना था, इसमें हमने मुर्गियों की आवाज़ डाली थी, बहुत सारे "साउंड इफ़ेक्ट्स" थे कि जिससे सुबह का "वातावरण" सामने आए, एक आदत हो चुकी थी, अब आप इसे चलन कहिये, ऐसे कोई राग बन जाता हओ, "मूड" बन जाता है।
तो आपने देखा कि माहौल कितना खुशगवार हो जाता था, जब ये तीनों एक जगह आ जुटते थे। जब बातचीत इतनी सुरीली है तो संगीत के बारे में क्या कहा जाए! चलिए तो फिर हम भी राग तोड़ी में मुर्गिर्यों की बांग के बीच गुलज़ार साहब के "गोटे" का मज़ा लेते हैं और इस तिकड़ी को फिर से याद करते हैं (वैसे अगली कड़ी भी इसी तिकड़ी और इसी एलबम को समर्पित है):
भिनी भिनी भोर आई
भिनी भिनी भोर आई
रूप रूप पर छिडके सोना
स्वर्ण कलश चमकाती आई
भिनी भिनी भोर भोर आई ...
माथे सुनहरी टीका लगाये
पात पात पर गोटा लगाये
गोटा लगाई
सात रंग की जाई आई
भिनी भिनी भोर आई...
ओस धुले मुख पोछे सारे
_____ लेप गई उजियारे
उजियारे उजियारे
सा रे ग मा धा नि
जागो जगर की बेला आई
भिनी भिनी भोर आई...
भिनी भिनी भोर आई
रूप रूप पर छिडके सोना
रूप रूप पर छिडके सोना
स्वर्ण कलश चमकाती आई
भिनी भिनी भोर आई
भिनी भिनी भोर आई.....
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "ऊँगली" और मिसरे कुछ यूँ थे-
नज़र नीची किए दाँतों में ऊँगली को दबाती हो,
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
उँगली उठाना बड़ा आसां होता है किसी पे
लोग अपनी कमियों की बात करते नहीं हैं. - शन्नो जी ( इशारा किसकी तरफ़ है? :) )
उसका अँगुली पकडना गजब ढा गया ,
उसका प्रेम का इजहार गजब ढा गया - मंजु जी (ये पंक्तियाँ शेर बनते-बनते रह गई.. कुछ कमी है कहीं न कहीं)
वो चीरता रहा मेरे हृदय को,
मैं देखता रहा फिर भी समय को
ऊँगली उठा रहा था वो मेरी तरफ मगर,
छुपा रहा था शायद वो अपने भय को - अवनींद्र जी (इस बार आपका चिरपरिचित जादू कहीं गायब मालूम पड़ता है)
उँगलिया उठेगी सुखे हुए बालो की तरफ,
एक नजर डालेंगें बीते हुए सालो की तरफ - कफ़ील आज़र.. हमने इनपर पूरी की पूरी एक कड़ी लिख डाली थी (जगजीत सिंह जी तो बस गुलुकार हैं, हमें तो ग़ज़लगो के नाम की दरकार है)
डूब गयी जब कलम हमारी प्यार के गहरे सागर मे..
दर्द की उंगली थामे थामे, उसे उबरते देखा है -दिलीप तिवारी (पूजा जी, इनके बारे में कुछ और जानकारी कहीं से हासिल होगी? )
पिछली महफ़िल में सबसे पहले हाज़िरी लगाई अवध जी ने, लेकिन कोई भी शब्द गायब न पाकर आप फिर से आने का वादा करके रवाना हो लिए, लेकिन यह क्या, एक बार फिर आपने वादाखिलाफ़ी की.. ये अच्छी बात नहीं :) आपके बाद आकर शन्नो जी ने न सिर्फ़ गायब शब्द पहचाना बल्कि उसपर एक-दो शेर भी कहे। इसलिए नियम से शन्नो जी हीं "शान-ए-महफ़िल" बनीं। प्रतीक जी, आपने हमारे प्रयास को सराहा, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से आभार! मंजु जी एवं अवनींद्र जी, महफ़िल में स्वरचित शेरों के दौर को आप दोनों ने आगे बढाया। शुक्रिया! सुमित जी, अगली बार से शायर का नाम भूल मत आईयेगा कहीं :) नीलम जी, आपके आने को आना समझूँ या नहीं, आपने शेर कहने की बजाय शन्नो जी को शांत कराना हीं जरूरी समझा.. ऐसा क्यों? :) पूजा जी, दिलीप जी का शेर है तो काबिल-ए-तारीफ़, लेकिन हम इनकी तारीफ़ भी जानना चाहेंगे। इस बार याद रखिएगा :)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
अब तक किसी ने गायब शब्द की शिनाख्त नहीं की..लगता है अपनी तकदीर में फिर प्रथम आना लिखा है :)हा हा..no problem.
तो गायब शब्द है ''आँगन''
और लगे हाथों शेर भी लिख कर जा रही हूँ...
आँगन में चहकें गौरैयाँ छत पर बैठा काग
जाड़ों की धूप सलोनी उस पर तेरा ये राग.
(स्वरचित)
bye...bye...
जिस आँगन में सजन संग हुए फेरे ,
अपनों का सुहाना मंजर याद आए रे .
दिल धड़कता है तो तुमसा लगता है
किसी सुबह मेरे आंगन मैं ओस से भीगा
कोई जब फूल खिलता है तो तुमसा लगता है (स्वरचित)
बच्चों को थपकियाँ ,
लोरी सुनाती ,
चंदा दिखाती
तारे समझाती ,
बहुत याद आती है
आँगन में लेटी हुई ,
कहानी सुनाती हुई वो मेरी
अम्मा (दादी ) .......
आपने दिलीप तिवारी जी के बारे में पूछा है, तो यह उनके ब्लॉग का ID है
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/2011/01/blog-post_05.html