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सावन के झूले पड़े...राग पहाड़ी पर आधारित एक मधुर सुमधुर गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 437/2010/137 न मस्कार दोस्तों! सावन के महीने की एक और परम्परा है झूलों का लगना। शहरों में तो नहीं दिखते, लेकिन गावों में आज भी लड़कियाँ पेड़ों की शाखों पर झूले डालते हैं और सावन के इन दिनों में ख़ूब झूला झूलते हैं। यह एक परम्परा के तौर पर चली आ रही है। और तभी तो फ़िल्मी गीतों में भी कई कई बार सावन में पड़ने वाले झूलों का ज़िक्र होता आया है। "पड़ गए झूले सावन ऋत आई रे" (बहू बेग़म), "बदरा छाए के झूले पड़ गए हाए" (आया सावन झूम के), "सावन के झूलों ने मुझको बुलाया" (निगाहें), और भी न जाने ऐसे कितने गानें हैं जिनमें सावन के झूलों का उल्लेख है। आज इनमें से हमने जिस गीत को चुना है वह है राहुल देव बर्मन के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'जुर्माना' का मधुर गीत "सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ"। कितने सीधे सरल बोल हैं, लेकिन असर इतना कि सावन पर बने तमाम गीतों में यह गीत एक ख़ास मुक़ाम रखता है। आनंद बक्शी के लिखे और लता मंगेशकर के गाए इस गीत में शास्त्रीय संगीत का रंग है। इसी फ़िल्म का एक और शास्त्रीय अंदाज़ वाला गीत "ए सखी राधि

पार्श्वगायकों और अभिनेताओं की भी जोडियाँ बनी इंडस्ट्री में, जो अभिनय और आवाज़ में एकरूप हो गए

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३७ मो हम्मद रफ़ी शम्मी कपूर की आवाज़ हुआ करते थे। इस जोड़ी ने ६० के दशक में फ़िल्म जगत में वो हंगामा किया कि अब वो इतिहास बन चुका है। आज पेश है रफ़ी और शम्मी साहब की जोड़ी का एक सदाबहार गीत फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' से। पंचम की धुन पर मजरूह साहब के बोल। लेकिन गीत सुनवाने से पहले आज शम्मी कपूर के कुछ शब्द रफ़ी साहब के बारे में। सौजन्य विविध भारती पर प्रसारित रफ़ी साहब को समर्पित 'विशेष मनचाहे गीत' कार्यक्रम जो प्रसारित हुआ था ३१ जुलाई २००५ को। शम्मी जी कहते हैं, "रफ़ी साहब का 'रेंज' बहुत बढ़िया और 'वास्ट' था। अलग अलग 'हीरोज़' के लिए अलग अलग 'स्टाइल' में गाते थे। मेरे लिए भी एक अलग 'स्टाइल' था। मेरी उनसे पहली मुलाक़ात हुई 'तुमसा नहीं देखा' के एक गाने की 'रिकार्डिंग्' पर। वो मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मैं पहुँचा तो मुझसे पूछने लगे कि गाने में कैसी हरकत करनी है?' मैं उनसे कहता था कि 'यहाँ पे मैं ऐसा हरकत करूँगा, अगर आप इस जगह ऐसा गायेंगे तो अच्छा रहेगा', और वो वैसा ही कर देते। एक गान

मजरूह, साहिर जैसे नामी गिरामी शायरों ने भी एक लंबी पारी खेली बतौर गीतकार

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३1 'ओ ल्ड इस गोल्ड रिवाइवल' के अंतरगत आप कुल ४५ गानें सुन रहे हैं इन दिनों एक के बाद एक, और इस शृंखला का दो तिहाई हिस्सा पूरी कर चुके हैं। यानी कि ३० गीत हम सुन चुके हैं और अभी १५ गानें और सुनवाने हैं। हम उम्मीद करते हैं कि ये कवर वर्ज़न्स आप को अच्छे लग रहे होंगे। तो इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए आज एक हंगामाख़ेज गीत जिसे राहुल देव बर्मन के पाश्चात्य शैली के गीतों की श्रेणी में सब से उपर रखा जाता है। जी हाँ, फ़िल्म 'कारवाँ' का "पिया तू अब तो आजा"। मजरूह सुल्तानपुरी ने इस गीत को लिखा था और आशा भोसले के साथ साथ पंचम ने भी "मोनिका ओ माइ डार्लिंग्" की आवाज़ लगाई थी इस गाने में। इस सेन्सुयस गीत का रिवाइव्ड वर्ज़न आज हम सुनने जा रहे हैं, लेकिन उससे पहले आपको यह बता दें कि 'कारवाँ' नासिर हुसैन की फ़िल्म थी। मुझे विकिपीडिया पर मजरूह साहब के जीवनी पर नज़र दौड़ाते हुए यह बात पता चली (वैसे मैं इसकी पुष्टि नहीं कर सकता) कि 'तीसरी मंज़िल' के लिए राहुल देव बर्मन को बतौर संगीतकार नियुक्त करने के निर्णय में मजरूह साहब का बड

गुलज़ार के महकते शब्दों पर "पंचम" सुरों की शबनम यानी कुछ ऐसे गीत जो जेहन में ताज़ा मिले, खिले फूलों से

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # २२ 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की २२-वें कड़ी में आप सभी का एक बार फिर हार्दिक स्वागत है। आज पेश है गुलज़ार और पंचम की सदाबहार जोड़ी का एक नायाब नग़मा फ़िल्म 'घर' का। इस फ़िल्म से किशोर कुमार का गाया " फिर वही रात है " आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन चुके हैं आज इस फ़िल्म से जिस गीत का कवर वर्ज़न हम आप तक पहुँचा रहे हैं, वह है "आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज़ हैं, आप से भी ख़ूबसूरत आप के अंदाज़ हैं"। लता-किशोर का गाया ये युगल गीत आज भी अक्सर रेडियो पर सुनने को मिल जाता है। दोस्तों, पंचम दा के निधन के बाद गुलज़ार साहब ने अपने इस अज़ीज़ दोस्त को याद करते हुए काफ़ी कुछ कहे हैं समय समय पर। यहाँ पे हम उन्ही में से कुछ अंश पेश कर रहे हैं। इन्हे विविध भारती पर प्रसारित किया गया था विशेष कार्यक्रम 'पंचम के बनाए गुलज़ार के मन चाहे गीत' के अन्तर्गत। "याद है बारिशो के वो दिन थे पंचम? पहाड़ियों के नीचे वादियों में धुंध से झाँक कर रेल की पटरियाँ गुज़रती थीं, और हम दोनों रेल की पटरियों पर बैठे, जैसे धुंध में दो पौधें हों

आज पिया तोहे प्यार दूं....पॉडकास्टर गिरीश बिल्लोरे की यादों को सहला जाता है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 407/2010/107 प संदीदा गीतों की इस शृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज हमने एक ऐसे शख़्स का फ़रमाइशी गीत चुना है जो ख़ुद एक कवि हैं, एक मशहूर ब्लॊगर हैं, पॊडकास्ट के क्षेत्र में इनका एक मशहूर ब्लॊग है। इस शख़्स को उभरते गायक आभास जोशी के मार्गदर्शक और गुरु कहा जा सकता है, जिन्होने आभास की पहली ऐल्बम के लिए गीत लिखे हैं। जी हाँ, इस शख़्स का नाम है गिरिश बिल्लोरे। गिरिश जी की पसंद के गीत के बारे में उन्हे के शब्द प्रस्तुत है - " आजा पिया तोहे प्यार दूँ", जो मेरी उस मित्र ने गाया था जिसे पहला प्यार कहा जा सकता है। उस दौर मे सामाजिक अनुशासन के चलते बस मैं खुद प्यार का इज़हार न कर सका। जानते हैं उसने मुझे दिल की बात बेबाक कह देने की नसीहत दी थी। आज वो अपने परिवार मे खुश है। अब बस वो रोमान्टिक एहसास है मेरे पास और अपना प्रतिबंधों के सामने घुटने टेक देने का अहसास। " गिरिश जी, आपके जीवन इन बातों को जानकर हमें अफ़सोस हुआ। हम आपको बस यही मानने की सलाह देंगे कि "तेरा हिज्र ही मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है, मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों, तू कहीं भी हो म

गलियों में घूमो, सड़कों पे झूमो, दुनिया की खूब करो सैर....आशा और उषा का है ये सुरीला पैगाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 398/2010/98 'स खी सहेली' शृंखला की आज की कड़ी में एक ज़बरदस्त हंगामा होने जा रहा है, क्योंकि आज के अंक के लिए हमने दो ऐसी गायिकाओं को चुना है जो अपनी हंगामाख़ेज़ आवाज़ के लिए जानी जाती रहीं हैं। इनमें से एक तो और कोई नहीं बल्कि आशा भोसले हैं, जो हर तरह के गीत गा सकने में माहिर हैं, और दूसरी आवाज़ है उषा अय्यर की। जी हाँ, वही उषा अय्यर, जो बाद में उषा उथुप के नाम से मशहूर हुईं। उषा जी पाश्चात्य और डिस्को शैली के गीतों के लिए जानी जाती हैं और उनका स्टेज परफ़ॊर्मैन्स इतना ज़रबदस्त होता है कि श्रोतागण सब कुछ भूल कर उनके साथ थिरक उठते हैं, मचल उठते हैं। तो ज़रा सोचिए, अगर आशा जी की मज़बूत लेकिन पतली आवाज़ और उषा जी मज़बूत और वज़नदार आवाज़ एक साथ मिल जाएँ एक ही गीत में तो किस तरह का हंगामा पैदा हो जाए! इसी प्रयोग को आज़माया था राहुल देव बर्मन ने १९७० की फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' के दो गीतों में। वैसे पहले गीत "दम मारो दम" में आशा जी की ही आवाज़ मुख्य रूप से सुनाई देती है, लेकिन जो दूसरा गीत है उसमें दोनों गायिकाओं को एक दूसरे के साथ बराबर

कुछ तो लोग कहेंगें...बख्शी साहब के मिजाज़ को भी बखूबी उभारता है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 383/2010/83 आ नंद बक्शी साहब के लिखे गीतों पर आधारित इस लघु शृंखला 'मैं शायर तो नहीं' को आगे बढ़ाते हुए हम आ पहुँचे थे १९६७ की फ़िल्म 'मिलन' पर। इसके दो साल बाद, यानी कि १९६९ में जब शक्ति सामंत ने एक बड़ी ही नई क़िस्म की फ़िल्म 'आराधना' बनाने की सोची तो उसमें उन्होने हर पक्ष के लिए नए नए प्रतिभाओं को लेना चाहा। बतौर नायक राजेश खन्ना और बतौर नायिका शर्मीला टैगोर को चुना गया। अब हुआ युं कि शुरुआत में यह तय हुआ था कि रफ़ी साहब बनेंगे राजेश खन्ना की आवाज़। लेकिन उन दिनों रफ़ी साहब एक लम्बी विदेश यात्रा पर गए हुए थे। इसलिए शक्तिदा ने किशोर कुमार का नाम सुझाया। उन दिनो किशोर देव आनंद के लिए गाया करते थे, इसलिए सचिनदा पूरी तरह से शंका-मुक्त नहीं थे कि किशोर गाने के लिए राज़ी हो जाएंगे। शक्ति दा ने किशोर को फ़ोन किया, जो उन दिनों उनके दोस्त बन चुके थे बड़े भाई अशोक कुमार के ज़रिए। किशोर ने जब गाने से इनकार कर दिया तो शक्तिदा ने कहा, "नखरे क्युँ कर रहा है, हो सकता है कि यह तुम्हारे लिए कुछ अच्छा हो जाए "। आख़िर में किशोर राज़ी हो गए। शु

फिर वही रात है ख्वाब की....किशोर की जादुई आवाज़ में ढला एक काव्यात्मक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 371/2010/71 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की ३७१-वीं कड़ी में हम सभी श्रोताओं व पाठकों का हार्दिक स्वागत करते हैं। मित्रों, हमारी मुख्य धारा की हिंदी फ़िल्मों की आत्मा लगभग एक ही तरह की होती है, जिसे हम आम भाषा में फ़ॊरमुला फ़िल्में भी कहते हैं। नायक, नायिका, और खलनायक के इर्द-गिर्द घूमने वाली फ़िल्में ही संख्या में सब से ज़्यादा हैं, और इस तरह का आधार व्यावसायिक तौर पर फ़िल्म की सफलता की चाबी का काम करता है। लेकिन समय समय पर हमारे प्रतिभाशाली फ़िल्मकारों ने बहुत सी ऐसी फ़िल्में भी बनाई हैं जिनकी कहानी, जिनका पार्श्व, बिल्कुल अलग है, लीग से बिल्कुल हट के है। ये फ़िल्में हो सकता है कि बॊक्स ऒफ़िस पर अपना छाप न छोड़ सकी हो, लेकिन अच्छे फ़िल्मों के क़द्रदान इन फ़िल्मों को याद रखा करते हैं। इन फ़िल्मों को समानांतर सिनेमा या आम भाषा में पैरलेल सिनेमा कहा जाता है। इनमें से कई फ़िल्में ऐसी हैं जिनके गीत संगीत में भी अनूठापन है, जो साधारण फ़िल्मी गीतों से अलग सुनाई देते हैं। फ़िल्म के ना चलने से इनमें से कुछ गीतों की तरफ़ लोगों का कम ही ध्यान गया, लेकिन कुछ गानें ऐसे भी हु

महबूबा महबूबा....याद कीजिये पंचम का वो मदमस्त अंदाज़ जिस पर थिरका था कभी पूरा देश

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 310/2010/10 दो स्तों, 'पंचम के दस रंग' लघु शृंखला को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं दसवीं कड़ी, यानी इस शृंखला की अंतिम कड़ी पर। आज का रंग है 'आइटम सॊंग्‍'। आइटम सॊंग्स की परम्परा नई नहीं है। बहुत पहले से ही हमारी फ़िल्मों में आइटम सॊंग्स बनते आए हैं। हाँ, इतना ज़रूर बदलाव आया है कि पहले ऐसे गानें फ़िल्म की कहानी से जुड़े हुए लगते थे, शालीनता भी हुआ करती थी, लेकिन आज के दौर के आइटम सॊंग्स केवल सस्ती पब्लिसिटी और अंग प्रदर्शन के लिए ही इस्तेमाल में लाए जाते हैं। साहब, आइटम सॊंग किसे कहते हैं पंचम दा ने दुनिया को दिखाया था १९७५ की ब्लॊकबस्टर फ़िल्म 'शोले' में "महबूबा महबूबा" गीत को बना कर और ख़ुद उसे गा कर। जलाल आग़ा और हेलेन पर फ़िल्माया हुआ यह गीत उतना ही अमर है जितना कि फ़िल्म 'शोले'। आज के इस अंतिम कड़ी के लिए पंचम दा की आवाज़ में इस गीत से बेहतर भला और कौन सा गीत हो सकता था! फ़िल्म 'शोले' की हम और क्या बातें करें, इसके हर पहलु तो बच्चा बच्चा वाक़िफ़ है, इसलिए आइए आज इस गीत की थोड़ी चर्चा की जाए। "महबूबा मह

इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम रस्ते...और उन्हीं रास्तों पर आज भी राह तकते हैं गुलज़ार पंचम का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 309/2010/09 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में 'पंचम के दस रंग' शृंखला में अब तक आप ने जिन ८ रंगों का आनंद उठाया वो रंग थे भारतीय शास्त्रीय संगीत, पाश्चात्य संगीत, लोक संगीत, भक्ति संगीत, हास्य रस, रोमांटिसिज़्म, क़व्वाली और कल का रंग कुछ दर्द भरा सा था जुदाई के रंग से रंगा हुआ। आज हम जिस जौनर की बात करेंगे उसके बारे में सिर्फ़ यही कह सकते हैं कि यह जौनर है गुलज़ार और पंचम की जोड़ी का जौनर। अब इस जौनर को और क्या नाम दें? गुलज़ार साहब, जिनके ग़ैर पारंपरिक बोल हमेशा गीत को एक अलग ही मुक़ाम पर ले जाया करती है, और उस पर अगर उनके चहेते दोस्त और संगीतकार पंचम के संगीत का रंग चढ़े तो फिर कहना ही क्या! इसलिए हमने सोचा कि इस जोड़ी के नाम एक गीत तो होना ही चाहिए और एक ऐसा गीत जिसमें गुलज़ार साहब के अनोखे शब्द हों, जो आम तौर पर फ़िल्मी गीतों में सुनाई नहीं देते हों। ऐसे तो उनके अनेकों गानें हैं, लेकिन हमने आज के लिए चुना है लता मंगेशकर और किशोर कुमार की आवाज़ों में फ़िल्म 'आंधी' का गीत "इस मोड़ से जाते हैं, कुछ सुस्त क़दम रस्ते, कुछ तेज़ क़दम राहें"।

सुहानी चांदनी रातें हमें सोने नहीं देती...जब मुकेश ने उंडेला दर्द पंचम के स्वरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 308/2010/08 क ल एक गुदगुदाने वाला गीत आप ने सुना था 'पंचम के दस रंग' शृंखला के अंतर्गत। पंचम के संगीत की विविधता को बनाए रखते हुए आइए आज हम कल के गीत के ठीक विपरीत दिशा में जाते हुए एक ग़मगीन नग़मा सुनते हैं। अक्सर राहुल देव बर्मन के नाम के साथ हमें ख़ुशमिज़ाज गानें ही ज़्यादा याद आते हैं, लेकिन उन्होने कई गमज़दा गानें भी बनाए हैं जो बेहद मशहूर हुए हैं। आज के लिए हमने जिस गीत को चुना है वह बहुत ख़ास इसलिए भी है क्योंकि इस गीत के गायक को पंचम दा ने बहुत ज़्यादा गवाया नहीं है। जी हाँ, मुकेश और पंचम की जोड़ी बहुत ही रेयर जोड़ी रही है। 'धरम करम' में "इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल" और 'कटी पतंग' फ़िल्म के गीत "जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा" दो ऐसे गीत हैं जो सब से पहले ज़हन में आते हैं मुकेश और पंचम के एक साथ ज़िक्र से। लेकिन इस जोड़ी का एक और गीत है जो आज हमने चुना है फ़िल्म 'मुक्ति' से। "सुहानी चांदनी रातें हमें सोने नहीं देती, तुम्हारे प्यार की बातें हमें सोने नहीं देती"। आनंद बक्शी की गीत रचना है और

मेरी जीवन नैय्या बीच भंवर में गुड़ गुड़ गोते खाए....कैसे रहेंगे मुस्कुराए बिना किशोर दा और पंचम दा के सदाबहार गीत को सुनकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 307/2010/07 'पं चम के दस रंग' शृंखला में आज है हमारी आपको गुदगुदाने की बारी। राहुल देव बर्मन ने बहुत सारी फ़िल्मों में हास्य रस के गानें बनाए हैं। इससे पहले कि हम आज के गीत पर आएँ, हम उन तमाम हिट व सुपरहिट गीतों का ज़िक्र करना चाहेंगे जिनमें पंचम ने हास्य रस के रंग भरे हैं। नीचे हम एक पूरी की पूरी फ़ेहरिस्त दे रहे हैं, ज़रा याद कीजिए इन गीतों को, इनमें से कुछ गीत आगे चलकर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में भी शामिल होंगे ऐसी हम उम्मीद करते हैं। १. कालीराम का फट गया ढोल (बरसात की एक रात) २. गोलमाल है भई सब गोलमाल है (गोलमाल) ३. एक दिन सपने में देखा सपना (गोलमाल) ४. मास्टर जी की आ गई चिट्ठी (किताब) ५. कायदा कायदा आख़िर फ़ायदा (ख़ूबसूरत) ६. सुन सुन सुन दीदी तेरे लिए (ख़ूबसूरत) ७. नरम नरम गरम गरम (नरम गरम) ८. एक बात सुनी है चाचाजी (नरम गरम) ९. ये लड़की ज़रा सी दीवानी लगती है (लव स्टोरी) १०. दुक्की पे दुक्की हो (सत्ते पे सत्ता) ११. जयपुर से निकली गाड़ी (गुरुदेव) और इन सबसे उपर, फ़िल्म 'पड़ोसन' के दो गानें - "एक चतुर नार" तथा "मेरे भोले बलम&q

परी हो आसमानी तुम मगर तुमको तो पाना है....लगभग १० मिनट लंबी इस कव्वाली का आनंद लीजिए पंचम के साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 306/2010/06 रा हुल देव बर्मन के रचे दस अलग अलग रंगों के, दस अलग अलग जौनर के गीतों का सिलसिला जारी है इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज इसमें सज रही है क़व्वाली की महफ़िल। पंचम के बनाए हुए जब मशहूर क़व्वालियों की बात चलती है तो झट से जो क़व्वालियाँ ज़हन में आती हैं, वो हैं फ़िल्म 'दीवार' में "कोई मर जाए किसी पे ये कहाँ देखा है", फ़िल्म 'कसमें वादे' में "प्यार के रंग से तू दिल को सजाए रखना", फ़िल्म 'आंधी' में "सलाम कीजिए आली जनाब आए हैं", फ़िल्म 'हम किसी से कम नहीं' की शीर्षक क़व्वाली, फ़िल्म 'दि बर्निंग् ट्रेन' में "पल दो पल का साथ हमारा", और 'ज़माने को दिखाना है' फ़िल्म की मशहूर क़व्वाली "परी हो आसमानी तुम मगर तुमको तो पाना है", जो इस फ़िल्म का शीर्षक ट्रैक भी है। तो इन तमाम सुपरहिट क़व्वालियों में से हम ने यही आख़िरी क़व्वाली चुनी है, आशा है आप सब इस क़व्वाली का लुत्फ़ उठाएँगे। बार बार इस शृंखला में नासिर हुसैन, मजरूह सुल्तानपुरी और राहुल देव बर्मन की तिकड़

देखो ओ दीवानों तुम ये काम न करो...धार्मिक उन्माद के नाम पर ईश्वर को शर्मिंदा करने वालों को सीख देता एक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 305/2010/05 'पं चम के दस रंग' शृंखला का आज का रंग है भक्ति रस का। राहुल देव बर्मन ने जब जब कहानी में सिचुयशन आए हैं, उसके हिसाब से भक्ति मूलक गानें बनाए हैं। कुछ गानें गिनाएँ आपको? फ़िल्म 'अमर प्रेम' का "बड़ा नटखट है रे कृष्ण कन्हैया", फ़िल्म 'मेरे जीवन साथी' का "आओ कन्हाई मेरे धाम", फ़िल्म 'बुड्ढा मिल गया' का "आयो कहाँ से घनश्याम", फ़िल्म 'नरम गरम' का "मेरे अंगना आए रे घनश्याम आए रे", फ़िल्म 'दि बर्निंग् ट्रेन' का "तेरी है ज़मीं तेरा आसमाँ", आदि। लेकिन आज हमने जिस गीत को चुना है वह एक भक्ति गीत होने के साथ साथ उससे भी ज़्यादा उपदेशात्मक गीत है। यह गीत आज की पीढ़ी, जो क्षणिक भोग की ख़ातिर ग़लत राह पर चल पड़ते हैं, उस पीढ़ी को सही राह पर लाने की एक छोटी सी अर्थपूर्ण कोशिश है। 'फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' का यह गीत है "देखो ओ दीवानो तुम ये काम ना करो, राम का नाम बदनाम ना करो"। फ़िल्म की कहानी तो आपको मालूम ही है, और हमने इस फ़िल्म की चर्चा भी क

चुनरी संभाल गोरी उड़ी चली जाए रे...मन्ना डे और लता ने ऐसा समां बाँधा को होश उड़ जाए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 304/2010/04 'हिं द युग्म' और 'आवाज़' की तरफ़ से, और हम अपनी तरफ़ से आज राहुल देव बर्मन यानी कि हमारे चहेते पंचम दा को उनकी पुण्यतिथि पर अर्पित कर रहे हैं अपनी श्रद्धांजली। जैसा कि इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं उन्ही के स्वरब्द्ध किए अलग अलग रंग के, अलग अलग जौनर के गानें। पहली कड़ी में आप ने मन्ना डे और लता मंगेशकर का गाया हुआ एक बड़ा ही मीठा सा शास्त्रीय रंग वाला गाना सुना था फ़िल्म 'जुर्माना' का। आज बारी है लोक रंग की, लेकिन एक बार फिर से वही दो आवाज़ें, यानी कि लता जी और मन्ना दा के। लेकिन यह गाना बिल्कुल अलग है। जहाँ उस गाने में गायकी पर ज़ोर था क्योंकि एक संगीत शिक्षक और एक प्रतिभाशाली गायिका के चरित्रों को निभाना था, वहीं दूसरी तरफ़ आज के गाने में है भरपूर मस्ती, डांस, और छेड़-छाड़, जिसे सुनते हुए आप भी मचलने लग पड़ेंगे। संगीत, बोल और गायकी के द्वारा गाँव का पूरा का पूरा नज़ारा सामने आ जाता है इस गीत में। ग़ज़ब की मस्ती है इस गीत में। यह गीत है नासिर हुसैन की फ़िल्म 'बहारो के सपने' का "चुनरी संभाल

ओ मेरे दिल के चैन....किशोर का अद्भुत रूमानी अंदाज़ और मजरूह-पंचम का कमाल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 303/2010/03 शा स्त्रीय और पाश्चात्य रंगों के बाद 'पंचम के दस रंग' शृंखला की तीसरी कड़ी में आज बारी है रुमानीयत की। यानी कि रोमांटिक गाने की। युं तो आर. डी. बर्मन के संगीत में एक से एक रोमांटिक गानें बने हैं समय समय पर, लेकिन जिस गीत को हमने चुना है वह एक अलग ही मुकाम रखती है इस जौनर में। और वह गीत है १९७२ की फ़िल्म 'मेरे जीवन साथी' का, "ओ मेरे दिल के चैन, चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए"। ७० का दशक वह दशक था जब पंचम ज़्यादातर तेज़ रफ़्तार वाले और जोशिले गानें लेकर आ रहे थे। लेकिन जब भी सिचुयशन ने डिमाण्ड की किसी सॊफ़्ट एण्ड सेन्सिटिव गाने की, उसमें भी पंचम अपना जादू दिखा गए। फ़िल्म 'मेरे जीवन साथी' में राजेश खन्ना के लिए एक से एक सुपर डुपर हिट गानें बनें जो किशोर दा की आवाज़ पा कर अमर हो गए। वैसे भी राजेश खन्ना की फ़िल्मों की यही खासियत हुआ करती थी कि फ़िल्म चाहे चले ना चले, उनके गानें ज़रूर कामयाब हो जाते थे। इसी फ़िल्म को अगर लें तो प्रस्तुत गीत के अलावा किशोर दा ने जो गानें इसमें गाए वो हैं "दीवाना लेके आया दिल का तराना&qu

ओ हसीना जुल्फों वाली....जब पंचम ने रचा इतिहास तो थिरके कदम खुद-ब-खुद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 302/2010/02 'पं चम के दस रंग' शृंखला की दूसरी कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। कल आपने पहली कड़ी में सुनें थे पंचम के गीत में भारतीय शास्त्रीय संगीत की मधुरता। आज इसके बिल्कुल विपरीत दिशा में जाते हुए आप के लिए हम लेकर आए हैं एक धमाकेदार पाश्चात्य धुनों पर आधारित गीत। फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' राहुल देव बर्मन की पहली सुपरहिट फ़िल्म मानी जाती है, जिसमें कोई संशय नहीं है। इसी फ़िल्म में वो अपने नए अंदाज़ में नज़र आए और जिसकी वजह से उन्हे पाँच क्रांतिकारी संगीतकारों में जगह मिली। (बाक़ी के चार संगीतकार हैं मास्टर ग़ुलाम हैदर, सी. रामचंद्र, ओ. पी. नय्यर, और ए. आर. रहमान)। इन नामों को पढ़कर आप ने यह ज़रूर अंदाज़ा लगा लिया होगा कि इन्हे क्रांतिकारी क्यों कहा गया है। तो फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' पंचम की कामयाबी की पहली मंज़िल थी। इस फ़िल्म से फ़िल्म संगीत जगत में उन्होने जो हंगामा शुरु किया था, वह हंगामा जारी रखा अपने अंतिम समय तक। रफ़ी साहब पर केन्द्रित शृंखला के अन्तर्गत इस फ़िल्म से " दीवाना मुझसा नहीं " गीत हमने सुनवाया था और फ़िल्म की