Skip to main content

स्वरगोष्ठी – 506: "सरफ़रोशी की तमन्ना..." : राग - दरबारी कान्हड़ा और देस/ देस मल्हार :: SWARGOSHTHI – 506 : RAAG - DARBARI KANHDA & DES MALHAR

          



स्वरगोष्ठी – 506 में आज 

देशभक्ति गीतों में शास्त्रीय राग – 10 

"सरफ़रोशी की तमन्ना...", प्रेम धवन ने बांधा दरबारी कान्हड़ा में और रहमान ने देस व देस मल्हार में



“रेडियो प्लेबैक इण्डिया” के साप्ताहिक स्तम्भ "स्वरगोष्ठी" के मंच पर मैं सुजॉय चटर्जी,  साथी सलाहकर शिलाद चटर्जी के साथ, आप सब संगीत प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ।
उन्नीसवीं सदी में देशभक्ति गीतों के लिखने-गाने का रिवाज हमारे देश में काफ़ी ज़ोर पकड़ चुका था। पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा देश गीतों, कविताओं, लेखों के माध्यम से जनता में राष्ट्रीयता की भावना जगाने का काम करने लगा। जहाँ एक तरफ़ कवियों और शाइरों ने देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत रचनाएँ लिखे, वहीं उन कविताओं और गीतों को अर्थपूर्ण संगीत में ढाल कर हमारे संगीतकारों ने उन्हें और भी अधिक प्रभावशाली बनाया। ये देशभक्ति की धुनें ऐसी हैं कि जो कभी हमें जोश से भर देती हैं तो कभी इनके करुण स्वर हमारी आँखें नम कर जाते हैं। कभी ये हमारा सर गर्व से ऊँचा कर देते हैं तो कभी इन्हें सुनते हुए हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन देशभक्ति की रचनाओं में बहुत सी रचनाएँ ऐसी हैं जो शास्त्रीय रागों पर आधारित हैं। और इन्हीं रागाधारित देशभक्ति रचनाओं से सुसज्जित है ’स्वरगोष्ठी’ की वर्तमान श्रृंखला ’देशभक्ति गीतों में शास्त्रीय राग’। अब तक प्रकाशित इस श्रृंखला की नौ कड़ियों में राग आसावरी, गुजरी तोड़ी, पहाड़ी, भैरवी, मियाँ की मल्हार, कल्याण (यमन), शुद्ध कल्याण, जोगिया, काफ़ी और भूपाली पर आधारित देशभक्ति गीतों की चर्चा की गई हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की दसवीं कड़ी में एक ऐसे देशभक्ति गीत की चर्चा जिसके दो फ़िल्मी संस्करण अलग-अलग रागों पर आधारित हैं। एक संस्करण में अगर दरबारी कान्हड़ा की छाया है तो दूसरे में देस और देस मल्हार का प्रभाव। बिसमिल अज़ीमाबादी का लिखा यह मशहूर देशभक्ति गीत है "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है..."।


"23 मार्च 1931,
 हमारी मातृभूमि को पराधीनता की ज़ंजीरों से आज़ाद करवाने की राह पर शहीद हुए थे देश के तीन वीर सपूत - सरदार भगत सिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव थापर। आगामी 23 मार्च 2021 को इन तीन अमर शहीदों की शहादत को पूरे 90 वर्ष हो जाएंगे। ’स्वरगोष्ठी’ का आज का यह अंक समर्पित है इन तीन अमर शहीदों की पुण्य स्मृति को। और क्योंकि इन दिनों ’स्वरगोष्ठी’ पर जारी है श्रृंखला ’देशभक्ति गीतों में शास्त्रीय राग’, आज के इस अंक के लिए हमने एक ऐसा गीत सुना है जिसके बग़ैर शहीद भगत सिंह पर कोई भी फ़िल्म पूरी नहीं होती। हालांकि "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" राम प्रसाद ’बिसमिल’ का लिखा हुआ है और "सरफ़रोशी की तमन्ना" बिसमिल अज़ीमाबादी का, इन दो गीतों को इनसे अधिक भगत सिंह के साथ जोड़ा जाता है। कारण, भगत सिंह को ये दो गीत अत्यन्त प्रिय थे। आज के इस अंक के लिए हमने चुना है "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है"। भगत सिंह पर जितनी भी फ़िल्में बनी हैं, उन सभी में इस गीत को शामिल किया गया है। उदाहरण स्वरूप, 1954 की फ़िल्म ’शहीद-ए-आज़म भगत सिंह’ में संगीतकार लच्छीराम के संगीत में मोहम्मद रफ़ी ने गाया था यह गीत। 1963 की फ़िल्म ’शहीद भगत सिंह’ में हुस्नलाल भगतराम के संगीत में एक बार फिर रफ़ी साहब ने यह गीत गाया। 1965 की फ़िल्म ’शहीद’ में प्रेम धवन के संगीत में जिन तीन गायकों की आवाज़ें सजीं भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के चरित्रों पर, वे हैं मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे और राजेन्द्र मेहता। 2002 में भगत सिंह पर तीन फ़िल्में बनीं जिनमें भी यह गीत मौजूद था। ’शहीद भगत सिंह’ में संगीतकार जयदेव कुमार के संगीत में  हरभजन मान ने यह गीत गाया, ’23rd March 1931 शहीद’ में संगीतकार आनन्द राज आनन्द के संगीत में हंस राज हंस ने इसे गाया और ’दि लिजेन्ड ऑफ़ भगत सिंह’ में ए. आर. रहमान के संगीत में इसे स्वर दिया सोनू निगम और हरिहरन ने। इस अंक के लिए इनमें से राग आधारित जिन दो गीतों को हमने चुना है, अब उनकी चर्चा की जाए!

1965 की फ़िल्म ’शहीद’ में प्रेम धवन ने बिसमिल के मूल गीत के बोलों को फेर बदल कर एक नए लिबास में पेश किया। मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे और राजेन्द्र मेहता का गाया यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। गीत फ़िल्माया गया था भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के चरित्रों पर जिन्हें परदे पर साकार किया क्रम से, अभिनेता मनोज कुमार, प्रेम चोपड़ा और अनन्त मराठे ने। "सरफ़रोशी की तमन्ना" गीत का यह संस्करण आधारित है राग दरबारी कान्हड़ा पर। राग दरबारी कान्हड़ा आसावरी थाट का राग माना जाता है। इस राग में गान्धार, धैवत और निषाद स्वर सदा कोमल प्रयोग किया जाता है। शेष स्वर शुद्ध लगते हैं। राग की जाति वक्र सम्पूर्ण होती है। अर्थात इस राग में सभी सात स्वर प्रयोग होते हैं। राग का वादी स्वर ऋषभ और संवादी स्वर पंचम होता है। मध्यरात्रि के समय यह राग अधिक प्रभावी लगता है। गान्धार स्वर आरोह और अवरोह दोनों में तथा धैवत स्वर केवल अवरोह में वक्र प्रयोग किया जाता है। कुछ विद्वान अवरोह में धैवत को वर्जित करते हैं। तब राग की जाति सम्पूर्ण-षाडव हो जाती है। राग दरबारी का कोमल गान्धार अन्य सभी रागों के कोमल गान्धार से भिन्न होता है। राग का कोमल गान्धार स्वर अति कोमल होता है और आन्दोलित भी होता है। इस राग का चलन अधिकतर मन्द्र और मध्य सप्तक में किया जाता है। हालांकि किसी फ़िल्मी गीत में अति कोमल गान्धार और अति कोमल धैवत की बहुत ज़्यादा उम्मीद करना उचित नहीं है, दरबारी कान्हड़ा को अनुभव करने के लिए यह गीत काफ़ी है।



गीत : “सरफ़रोशी की तमन्ना...” , फ़िल्म : शहीद, गायक: मो रफ़ी, मन्ना डे, राजेन्द्र मेहता


फ़िल्म ’शहीद’ के इस गीत में दरबारी कान्हड़ा की छाया का अनुभव आपने किया होगा। अब हम आते हैं दूसरे गीत पर। यह है सन् 2002 में बनी फ़िल्म ’दि लिजेन्ड ऑफ़ भगत सिंह’ का गीत। इस गीत में "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" के बोलों में गीतकार समीर ने फेर बदल कर गीत अपने नाम कर लिया है। सोनू निगम और हरिहरन की आवाज़ों में इस गीत के दो संस्करण हैं। पहला संस्करण द्रुत लय में है जबकि दूसरा संस्करण धीमा और शास्त्रीय रागों से सजा हुआ है। संगीतकार ए. आर. रहमान ने बड़ी ख़ूबसूरती से राग देस और देस मल्हार का प्रयोग इस संस्करण में किया है।मुखड़ा और दो अन्तरे राग देस पर आधारित है जबकि तीसरे इन्टरल्युड से गीत देस मल्हार पर आधारित हो जाता है। देस मल्हार वाला भाग आधा ताल सोलह मात्रा में निबद्ध है जबकि राग देस वाला भाग आठ मात्रा कहरवा है।

राग देस, भारतीय संगीत का अत्यन्त मनोरम और प्रचलित राग है। प्रकृति का सजीव चित्र उपस्थित करने में यह पूर्ण सक्षम राग है। ’स्वरगोष्ठी’ के अगले अंक में हम राग देस की विस्तृत चर्चा करेंगे, आज हम बात करते हैं देस मल्हार की। यदि इस राग में मल्हार अंग का मेल हो जाए तो फिर 'सोने पर सुहागा' हो जाता है।  राग देस मल्हार के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह स्वतंत्र राग देस और मल्हार अंग के मेल से निर्मित राग है। राग देस अत्यन्त प्रचलित और सार्वकालिक होते हुए भी स्वतंत्र रूप से वर्षा ऋतु के परिवेश का चित्रण करने में समर्थ है। एक तो इस राग के स्वर संयोजन ऋतु के अनुकूल है, दूसरे इस राग में वर्षा ऋतु का चित्रण करने वाली रचनाएँ बहुत अधिक संख्या में मिलती हैं। राग देस औड़व-सम्पूर्ण जाति का राग है, जिसमें कोमल निषाद के साथ सभी शुद्ध स्वरों का प्रयोग होता है। राग देस मल्हार में देस का प्रभाव अधिक होता है। दोनों का आरोह-अवरोह एक जैसा होता है। इसमे दोनों गान्धार और दोनों निषाद का प्रयोग किया जाता है। रें नी(कोमल) ध प, ध म ग रे स्वरों से देस की झलक मिलती है। इसके बाद जब रे प ग(कोमल) ग(कोमल) म रे सा और उत्तरांग में म प नी(कोमल) (ध) नी सां के प्रयोग से राग मियाँ मल्हार की झलक मिलती है। मल्हार अंग के चलन और म रे प, रे म, स रे स्वरों के अनेक विविधता के साथ किये जाने वाले प्रयोग से राग विशिष्ट हो जाता है। राग देस की तरह राग देस मल्हार में भी कोमल गान्धार का अल्प प्रयोग किया जाता है। राग का यह स्वरुप पावस के परिवेश को जीवन्त कर देता है। परिवेश की सार्थकता के साथ यह मानव के अन्तर्मन में मिलन की आतुरता को यह राग बढ़ा देता है। तो आइए राग देस और देस मल्हार पर आधारित यह गीत सुनें।




गीत : सरफ़रोशी की तमन्ना...”, फ़िल्म : दि  लिजेन्ड ऑफ़ भगत सिंह, गायक : सोनू निगम, हरिहरन 



अपनी बात

कुछ तकनीकी समस्या के कारण हम अपने फेसबुक के मित्र समूह के साथ “स्वरगोष्ठी” का लिंक साझा नहीं कर पा रहे हैं। सभी संगीत अनुरागियों से अनुरोध है कि हमारी वेबसाइट http://radioplaybackindia.com अथवा http://radioplaybackindia.blogspot.com पर क्लिक करके हमारे सभी साप्ताहिक स्तम्भों का अवलोकन करते रहें। “स्वरगोष्ठी” के वेब पेज के दाहिनी ओर निर्धारित स्थान पर अपना ई-मेल आईडी अंकित कर आप हमारे सभी पोस्ट के लिंक को नियमित रूप से अपने ई-मेल पर प्राप्त कर सकते है। “स्वरगोष्ठी” की पिछली कड़ियों के बारे में हमें अनेक पाठकों की प्रतिक्रिया लगातार मिल रही है। हमें विश्वास है कि हमारे अन्य पाठक भी “स्वरगोष्ठी” के प्रत्येक अंक का अवलोकन करते रहेंगे और अपनी प्रतिक्रिया हमें भेजते रहेंगे। आज के इस अंक अथवा श्रृंखला के बारे में यदि आपको कुछ कहना हो तो हमें अवश्य लिखें। यदि आपका कोई सुझाव या अनुरोध हो तो हमें soojoi_india@yahoo.co.in अथवा sajeevsarathie@gmail.com पर अवश्य लिखिए। अगले अंक में रविवार को प्रातः सात बजे “स्वरगोष्ठी” के इसी मंच पर हम एक बार फिर संगीत के सभी अनुरागियों का स्वागत करेंगे। 


कृष्णमोहन मिश्र जी की पुण्य स्मृति को समर्पित
विशेष सलाहकार : शिलाद चटर्जी
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी   

रेडियो प्लेबैक इण्डिया 
स्वरगोष्ठी – 506: "सरफ़रोशी की तमन्ना..." : राग - दरबारी कान्हड़ा और देस/ देस मल्हार :: SWARGOSHTHI – 506 : RAAG - DARBARI KANHDA & DES MALHAR: 21 मार्च, 2021



Comments

सुंदर प्रस्तुति ।
Sujoy Chatterjee said…
Thank you Sunita ji.

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट