Skip to main content

"आ अब लौट चलें": राग काफ़ी : स्वरगोष्ठी – 504 : SWARGOSHTHI – 504 : RAG KAFI

        



स्वरगोष्ठी – 504 में आज 

देशभक्ति गीतों में शास्त्रीय राग – 8 

"आ अब लौट चलें...", राग काफ़ी का वलय और मनमोहक ऑरकेस्ट्रेशन




“रेडियो प्लेबैक इण्डिया” के साप्ताहिक स्तम्भ "स्वरगोष्ठी" के मंच पर मैं सुजॉय चटर्जी,  साथी सलाहकर शिलाद चटर्जी के साथ, आप सब संगीत प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ।उन्नीसवीं सदी में देशभक्ति गीतों के लिखने-गाने का रिवाज हमारे देश में काफ़ी ज़ोर पकड़ चुका था। पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा देश गीतों, कविताओं, लेखों के माध्यम से जनता में राष्ट्रीयता की भावना जगाने का काम करने लगा। जहाँ एक तरफ़ कवियों और शाइरों ने देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत रचनाएँ लिखे, वहीं उन कविताओं और गीतों को अर्थपूर्ण संगीत में ढाल कर हमारे संगीतकारों ने उन्हें और भी अधिक प्रभावशाली बनाया। ये देशभक्ति की धुनें ऐसी हैं कि जो कभी हमें जोश से भर देती हैं तो कभी इनके करुण स्वर हमारी आँखें नम कर जाते हैं। कभी ये हमारा सर गर्व से ऊँचा कर देते हैं तो कभी इन्हें सुनते हुए हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन देशभक्ति की रचनाओं में बहुत सी रचनाएँ ऐसी हैं जो शास्त्रीय रागों पर आधारित हैं। और इन्हीं रागाधारित देशभक्ति रचनाओं से सुसज्जित है ’स्वरगोष्ठी’ की वर्तमान श्रृंखला ’देशभक्ति गीतों में शास्त्रीय राग’। अब तक प्रकाशित इस श्रृंखला की सात कड़ियों में राग आसावरी, गुजरी तोड़ी, पहाड़ी, भैरवी, मियाँ की मल्हार, कल्याण (यमन), शुद्ध कल्याण और जोगिया पर आधारित आठ देशभक्ति गीतों की चर्चा की गई हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की आठवीं कड़ी में राग काफ़ी पर आधारित एक फ़िल्मी रचना। और साथ में राग काफ़ी में एक ठुमरी ग़ुलाम अली की आवाज़ में।


मुकेश, लता, शैलेन्द्र, शंकर-जयकिशन (PC:hamaraphotos.com)
राज कपूर 
 की कालजयी फ़िल्म ’जिस देश में गंगा बहती है’। फ़िल्म की कहानी डाकुओं को समाज की मुख्य धारा में मिलाने के प्रयास की कहानी है। फ़िल्म के क्लाइमैक्स् में राजु (राज कपूर) डाकुओं को आत्मसमर्पण करने के लिए मनवा लेता है और इस दृश्य के लिए एक गीत का प्रयोग किया जाता है। ढलान के एक तरफ़ राजु डाकुओं के साथ चल रहा है, और दूसरी तरफ़ है फ़िल्म की नायिका (पद्मिनी) जो पुलिस लेकर आ रही है। इस सिचुएशन पर शैलेन्द्र और शंकर-जयकिशन ने एक ऐसे ज़बरदस्त गीत की रचना की कि वह उस समय तक के सर्वाधिक "महंगे" गीतों में से एक था। 100 से ऊपर वायलिन, विशाल कोरस और वाद्यवृन्द के साथ "आ अब लौट चलें, नैन बिछाये, बाहें पसारे, तुझको पुकारे देश तेरा" की रिहर्सल शुरू हुई। गीतकार शैलेन्द्र के पुत्र दिनेश शंकर शैलेन्द्र जी बताते हैं कि इतने सारे साज़िन्दों को बिठाने के लिए ’फ़ेमस तारदेव स्टुडियो’ में जगह नहीं होती थी, इसलिए कुछ साज़िन्दों के बैठने का इन्तज़ाम स्टुडियो के बाहर किया जाता था। इस गीत में प्रयुक्त शास्त्रीय राग पर हम थोड़ी देर में आते हैं, पहले उल्लेख इसके ऑरकेस्ट्रेशन का। गीत शुरू होता है वायलिन और ब्रास के टुकड़ों से, गीत की भूमिका बंधती है। शोर भरा संगीत अचानक पिज़िकातो की सुरीली धुनों में बदल जाता है। पिज़िकातो दर‍असल किसी तार वाद्य के तारों को बिना धनुष (bow) के छेड़ने को कहा जाता है। पिज़िकातो, मैन्डोलिन और गिटार के साथ मुकेश की सीधी सुरीली आवाज़ में गीत शुरू होता है "आ अब लौट चलें..."। मुखड़े के तुरन्त बाद बढ़ती हुई पुलिस फ़ौज के दृश्य के साथ पद्मिनी के गले से लता मंगेशकर की अद्भुत पुकार "आजा रे, आ जा रे, आ जा..."। और यही हिस्सा गीत को एक अलग ही मुकाम पर पहुँचा देता है। इस तरह का प्रयोग फिर कभी किसी ने शायद ही किया होगा। हर अन्तरे के बाद लता जी द्वारा ऊँची पट्टी पर "आ जा रे" इस गीत की सबसे विशिष्ट बात है, जिसे हम गीत का X-factor भी कह सकते हैं। कुल 6 मिनट 12 सेकण्ड की अवधि होने के बावजूद मुकेश के गाये शैलेन्द्र के सरल पर गहरे बोल, लता मंगेशकर का अनोखा ऊँचा आलाप, कोरस का निरन्तर गायन और आकर्षक ऑरकेस्ट्रेशन गीत में श्रोताओं का उत्साह अन्त तक बनाये रखता है। गीत के अन्तिम चरण में राज कपूर और पद्मिनी एक दूसरे को देख लेते हैं, पुलिस डाकुओं को निहत्था जान लेती है, और एक लम्बे संगीत के साथ गीत समाप्त हो जाता है। ’स्वरगोष्ठी’ के पिछले अंक में "जाने वाले सिपाही से पूछो" गीत की चर्चा करते समय कोरस द्वारा काउन्टर मेलडी गाने का उल्लेख किया गया था। कोरस गायन की लगभग वैसी ही शैली ’जिस देश में गंगा बहती है’ के इस गीत में भी सुनने को मिलता है।

अब आते हैं "आ अब लौट चलें" गीत के शास्त्रीय संगीत के पक्ष की ओर। पूरे गीत में राग काफ़ी का एक वलय महसूस किया जा सकता है। मुख्य रूप से "आ अब लौट चलें" पंक्ति में काफ़ी के गुण स्पष्ट रूप से अनुभव किए जा सकते है। इन्टरल्युड संगीत, कोरस वाले हिस्सों और लता मंगेशकर की ऊँची आलाप वाले हिस्सों को अगर अलग रखा जाए तो पूरा गीत ही काफ़ी की छाया लिए हुए है। हालांकि राग काफ़ी के स्वरों में ग कोमल होता है, जो मुकेश की गायी पंक्तियों में सुनी जा सकती है, लता जी के आलाप और कोरस वाले जगहों पर "ग" कहीं शुद्ध और कहीं कोमल सुनाई देता है, जिस वजह से ये हिस्से विशुद्ध काफ़ी नहीं है। सच्चाई यह है कि काफ़ी कई रूप में पाये जाते हैं। विवादी स्वरों से इस राग का दूषण होता चला आया है जो अब सामान्य बात हो गई है। इस तरह के दूषण की वजह से काफ़ी एक तरह से मिश्र काफ़ी बन गया है। काफ़ी का विशुद्ध रूप बहुत कम ही सुनाई देता है। "आ अब लौट चलें" पूरे गीत में कहरवा ताल का प्रयोग हुआ है। राग काफ़ी की चर्चा आगे बढ़ाने से पहले फ़िल्म ’जिस देश में गंगा बहती है’ का यह गीत सुन लिया जाए!



गीत : “आ अब लौट चलें...” : फ़िल्म: जिस देश में गंगा बहती है, गायक: मुकेश, लता मंगेशकर, साथी


ग़ुलाम अली
राग काफी, काफी थाट का आश्रय राग है और इसकी जाति है सम्पूर्ण-सम्पूर्ण, अर्थात इस राग के आरोह-अवरोह में सात-सात स्वर प्रयोग किए जाते हैं। आरोह में सा रे ग(कोमल) म प ध नि(कोमल) सां तथा अवरोह में सां नि(कोमल) ध प म ग(कोमल) रे सा स्वरों का प्रयोग किया जाता है। इस राग का वादी स्वर पंचम और संवादी स्वर षडज होता है। कभी-कभी वादी स्वर कोमल गान्धार और संवादी स्वर कोमल निषाद का प्रयोग भी मिलता है। दक्षिण भारतीय संगीत का राग खरहरप्रिय राग काफी के समतुल्य राग है। राग काफी, ध्रुवपद और खयाल की अपेक्षा उपशास्त्रीय संगीत में अधिक प्रयोग किया जाता है। ठुमरियों में प्रायः दोनों गान्धार और दोनों धैवत का प्रयोग भी मिलता है। टप्पा गायन में शुद्ध गान्धार और शुद्ध निषाद का प्रयोग वक्र गति से किया जाता है। इस राग का गायन-वादन रात्रि के दूसरे प्रहर में किए जाने की परम्परा है, किन्तु फाल्गुन मास में इसे किसी भी समय गाया-बजाया जा सकता है। आज हम आपको सुनवाने जा रहे हैं प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक ग़ुलाम अली की गायी राग काफ़ी में एक ठुमरी, जिसके बोल हैं "लागे ना मोरा जिया..."। वैसे इस ठुमरी में राग भीम पलासी और बरवा का अनुभव भी किया जा सकता है। यह रचना निबद्ध है   ताल में।



गीत : ठुमरी - “लागे ना मोरा जिया...” : गायक:ग़ुलाम अली 



अपनी बात

कुछ तकनीकी समस्या के कारण हम अपने फेसबुक के मित्र समूह के साथ “स्वरगोष्ठी” का लिंक साझा नहीं कर पा रहे हैं। सभी संगीत अनुरागियों से अनुरोध है कि हमारी वेबसाइट http://radioplaybackindia.com अथवा http://radioplaybackindia.blogspot.com पर क्लिक करके हमारे सभी साप्ताहिक स्तम्भों का अवलोकन करते रहें। “स्वरगोष्ठी” के वेब पेज के दाहिनी ओर निर्धारित स्थान पर अपना ई-मेल आईडी अंकित कर आप हमारे सभी पोस्ट के लिंक को नियमित रूप से अपने ई-मेल पर प्राप्त कर सकते है। “स्वरगोष्ठी” की पिछली कड़ियों के बारे में हमें अनेक पाठकों की प्रतिक्रिया लगातार मिल रही है। हमें विश्वास है कि हमारे अन्य पाठक भी “स्वरगोष्ठी” के प्रत्येक अंक का अवलोकन करते रहेंगे और अपनी प्रतिक्रिया हमें भेजते रहेंगे। आज के इस अंक अथवा श्रृंखला के बारे में यदि आपको कुछ कहना हो तो हमें अवश्य लिखें। यदि आपका कोई सुझाव या अनुरोध हो तो हमें soojoi_india@yahoo.co.in अथवा sajeevsarathie@gmail.com पर अवश्य लिखिए। अगले अंक में रविवार को प्रातः सात बजे “स्वरगोष्ठी” के इसी मंच पर हम एक बार फिर संगीत के सभी अनुरागियों का स्वागत करेंगे। 


कृष्णमोहन मिश्र जी की पुण्य स्मृति को समर्पित
विशेष सलाहकार : शिलाद चटर्जी
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी   

रेडियो प्लेबैक इण्डिया 
"आ अब लौट चलें..." : राग काफ़ी : SWARGOSHTHI – 504 : RAG KAFI: 7 मार्च, 2021



Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...