प्यारेलाल वडाली को श्रद्धा सुमन, वडाली ब्रदर्स के फ़िल्मी गीतों के ज़रिए
"मंदिर मस्जिद मैकद भी रंग दे..."
9 मार्च 2018 को जाने-माने सूफ़ी गायक जोड़ी वडाली ब्रदर्स के प्यारेलाल वडाली का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया। बड़े भाई पूरनचन्द वडाली के साथ प्यारेलाल वडाली ने ’वडाली ब्रदर्स’ के नाम से जोड़ी बनाई और पंजाबी सूफ़ी संगीत की निरन्तर सेवा की। वडाली बंधुओं की रचनाएँ सुनते हुए श्रोता ट्रान्स में चले जाते हैं, एक अजीब सा आकर्षण है इनकी गायकी में जो श्रोताओं को सम्मोहित करते हैं, मंत्रमुग्ध करते हैं। वडाली ब्रदर्स हमेशा फ़िल्मों में गाने से दूर दूर ही रहे, लेकिन क्योंकि ’चित्रकथा’ एक फ़िल्मी स्तंभ है, इसलिए इसमें वडाली ब्रदर्स के फ़िल्मी गीतों पर नज़र डालना ज़रूरी हो जाता है। तो आइए पढ़ें और जाने कि वडाली ब्रदर्स ने किन किन फ़िल्मों में अपनी आवाज़ दी है। आज के ’चित्रकथा’ का यह अंक समर्पित है वडाली ब्रदर्स पर, और हम देते हैं स्वर्गीय प्यारेलाल वडाली को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि!
यह दिलचस्प बात है कि शुरुआती दिनों में प्यारेलाल वडाली कृष्णलीला के जल्सों में नृत्य किया करते थे। वो इतना अच्छा नृत्य करते कि दस दस गाँव इकट्ठा हो जाते थे उनका नृत्य देखने के लिए। इससे उनकी अच्छी कमाई भी हो जाती थी। फिर एक दिन एक सूफ़ी संत बाबा मस्तान शाहजी ने प्यारेलाल से कहा कि वो अपने पैरों से घुंगरू निकाल दे और सूफ़ी क़लाम और क़व्वाली गाना शुरु करे। पिता ठाकुर दास की इसमें आपत्ति थी क्योंकि नृत्य से अच्छे पैसे मिल रहे थे नियमित रूप से। लेकिन प्यारेलाल को सूफ़ी संत की बात अच्छी लगी और वो गाने लग गए। दोनों भाइयों ने मिल कर मंदिरों और जागरणों में गाना शुरु कर दिया। एक बार जलंधर में आयोजित होने वाले ’हरबल्लभ संगीत सम्मेलन’ की ख़बर उन्हें मिली और वो उसमें भाग लेने के लिए पहली बार अमृत्सर से बाहर निकले। लेकिन उनकी वेश-भूषा को देख कर जब आयोजकों ने उन्हें सम्मेलन में हिस्सा नहीं लेने दिया तो वो दोनों हरबल्लभ मन्दिर के सामने ही बैठ कर अपना गायन शुरु कर दिया। उनकी पुर-असर जुगलबन्दी को सुन कर भीड़ जमा हो गई। और उस भीड़ में मौजूद थे आकाशवाणी जलंधर के एन. एम. भाटिया। उन्हें वडाली भाइयों की गायकी इतनी अच्छी लगी कि वहीं पर उन्होंने दोनों भाइयों को रेडियो स्टेशन आ कर अपना गाना रिकॉर्ड करवाने का निमंत्रण दिया। शुरु शुरु में आपत्ति जताने के बावजूद जब भाटिया साहब ने समझाया, तब वो मान गए और इस तरह से वडाली भाइयों का पहला गीत रिकॉर्ड हुआ। यह 1975 की बात थी।
इस रिकॉर्डिंग् की ख़बर आग की तरह फ़ैल गई और वडाली ब्रदर्स को पंजाब के बाहर भी काम मिलने लगे। विभिन्न शहरों के कॉलेज, विश्वविद्यालयों से होते हुए नामचीन फ़नकारों की महफ़िलों में भी वडाली भाइयों को गाने के न्योते मिलने लगे। इन तमाम बुलन्दियों पर पहुँचने के बाद भी दोनों भाइयों का यही मानना था कि संगीत और गायन उनके लिए ईश्वर की सेवा है, उससे ज़्यादा और कुछ नहीं। पूरनचन्द के शब्दों में - "हमारा तालुख़ तो चश्म-ए-शाही से है। ख़ुदा का संगीत बहता रहे। बस यही दुआ है, और यही हमारा इनाम।" वडाली ब्रदर्स की ख़ास बात यह है कि उनके रिकॉर्ड किए हुए गीतों या ऐल्बमों की संख्या बहुत कम है। जब उनसे पूछा गया कि व्यावसायिक रिकॉर्डिंग् से उन्होंने अपने आप को दूर क्यों रखा, तो उनका जवाब था - "हमारा मन कभी भी व्यावसायिक लोकप्रियता के पीछे नहीं भागता था। हाल में दोस्ती के नाते ’आ मिल यार’ ऐल्बम हमने किया। ’पैग़ाम-ए-इश्क़’, ’इश्क़ मुसाफ़िर’ और ’Folk Music of Punjab’ भी इसी Music Today कंपनी ने निकाली। इन सभी ऐल्बमों में संगीत पारम्परिक है और साज़ों की भीड़ नहीं। आलाप और तानें ही हावी हैं।"
वडाली बंधुओं ने बाबा फरीद की रचनाओं का एक खास अलबम ‘फरीद’ भी किया था। ‘तू माने या ना माने दिलदारा असां तो तैनूं रब मनया’, ‘दम दम करो फरीद’, ‘टुरया टुरया जा फरीदा’, ‘तुम इधर देख लो या उधर देख लो’ जैसी नायाब रचनाओं से सज़ा ये अलबम सचमुच अलग ही तरंग चढ़ा देता है। ख़ैर, आज हम वडाली ब्रदर्स की फ़िल्मी रचनाओं की बात करेंगे। वडाली ब्रदर्स को फ़िल्मों में गाने का पहला न्योता साल 1986 की फ़िल्म ’एक चादर मैली सी’ के लिए मिला था जिसमें सरदार पंछी गीत लिख रहे थे और अनु मलिक संगीत तैयार कर रहे थे। पंजाबी पार्श्व पर बनी इस फ़िल्म में वडाली भाइयों का गाया एक गीत फ़िल्म के निर्देशक सुखवंत धड्डा रखना चाहते थे। लेकिन उस समय तक वडाली भाइयों ने अपने जीवन काल में कभी कोई फ़िल्म नहीं देख रखी थी। बड़े भाई पूरनचन्द के शब्दों में - "हम तो बस रब से लय लगाते हैं। फ़कीरों की बानी (वाणी) को सुर देते हैं। इसी में हमें सुख मिलता है।" ’एक चादर मैली सी’ में जिस गीत के लिए उन्हें न्योता मिला था, उनके हिसाब से उसे गाने का कोई अर्थ नहीं था। लेकिन बरसों बाद 2003 में जब अमृता प्रीतम की उपन्यास पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फ़िल्म ’पिंजर’ बन रही थी, तब संगीतकार उत्तम सिंह ने वडाली भाइयों से फ़िल्म के दो गीत गाने का आग्रह किया। अब तक उन्होंने कुछ फ़िल्में देख ली थी और मौजूदा फ़िल्मों की एक राय उन्होंने बना ली थी। इसलिए कभी किसी फ़िल्म में गाने के बारे में सोचा भी नहीं। लेकिन ’पिंजर’ की कहानी पूरनचन्द वडाली के दिल को छू गई। देश के बटवारे के पहले के और बाद के पंजाब पर क्या क्या गुज़री, ये सब कुछ इस फ़िल्म में दिखाया जाने वाला था। फ़िल्म की कहानी सुनते हुए वडाली बंधु की आँखों में आंसू आ गए थे। और यही दर्द उत्तम सिंह के संगीत में भी उन्हें नज़र आया जब उत्तम सिंह ने उन्हें वो दो गीत गा कर सुनाया। गुलज़ार साहब के बोलों का भी ज़बरदस्त असर हुआ वडाली ब्रदर्स पर। बस फिर क्या था, पहली बार किसी फ़िल्म में वडाली ब्रदर्स की दिलकश जुगलबन्दी सुनाई दी। वडाली भाइयों ने एक साक्षात्कार में यह बताया कि उन्हें सबसे अच्छी बात यह लगी कि उत्तम सिंह ने उन पर कोई अलग स्टाइल थोप नहीं दिया, बल्कि उनके स्टाइल को ही बरकरार रखने का सुझाव दिया। पूरनचन्द के तकनीक और प्यारेलाल की ज़िन्दादिल आवाज़ ने इन दो गीतों में जान डाल दी। फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत था "मार उडारी"। जसपिन्दर नरूला, प्रीति उत्तम, अमय दाते, उदित नारायण, साधना सरगम, कविता कृष्णमूर्ति, सुरेश वाडकर और रूप कुमार राठौड़ जैसे फ़िल्मी गायकों के बीच वडाली ब्रदर्स के वो दो गीत भीड़ से अलग हट के सुनाई दिए। पहला गीत था गुलज़ार का लिखा हुआ - "दर्दा मारया माहिया, मेरे दर्द छुड़ा छुड़ा, किस्मत अंधी बावरी, मेरा हाथ छुड़ा"। मेले के पार्श्व में फ़िल्माया यह गीत एक ख़ुशमिज़ाज पंजाबी नृत्य प्रधान गीत है जिसमें भंगड़ा और गिद्दा नृत्य शैलियों का प्रदर्शन है। जसपिन्दर नरूला के साथ गाए गए इस गीत को सुनते ही जैसे गीत हमारे अन्दर समा जाता है और ऐसा लगता है कि बस यह गीत चलता ही रहे, कभी ख़त्म ना हो। समीक्षक श्री अनिल करमेले कहते हैं कि फिल्म में इस मोड़ पर यह गाना आता है कि आपको बेचैनी के भँवर में फंसा लेता है। गुलज़ार के अलफ़ाज़ और वडाली बंधुओं के स्वर का जादू है कि दिल में फांस सी चुभती हैं ये पंक्तियां—‘किकली कलीर की/ जां जाए हीर की/ जागे भी जगाए भी/ खांसी बूढ़े फकीर की’।
ऐसा ही दूसरा गीत भी है जिसमें वडाली ब्रदर्स के साथ प्रीति उत्तम की आवाज़ है। यह अमृता प्रीतम की रचना है - "वारिस शाह, बजा अखा वाले शाह नू कितो करा विचो बोले, आज अखा वाले शाह नु वाह दिसाऊ, कित्तो कब्रा विचो बोले, थी आज किताबे इश्क़ दा कोई अगला वर्ग फूल..."। पहले गीत से बिल्कुल विपरीत जा कर यह एक बिना साज़ों वाला दर्द भरा मार्मिक गीत है जिसे वडाली ब्रदर्स की आवाज़ों में सुनते हुए जैसे कलेजा चीर जाता है। "एक रोई सी थी पंजाब दी, पिरोई, तू लिख लिख मारी नैन वैन, आज लखा दिया रोंदा लखा दिया रोंदिया तूने वारिस शाह नु कहन..."। भले यह पूर्णत: पंजाबी गीत है, लेकिन ध्यान से कई बार सुनने पर इसका भावार्थ समझ में आ ही जाता है। "उठ दर्द मंदा-दियां दर्दिया, उठ तक अपना पंजाब, आज बेले लाशां विशियां, ते लहू तो बाली चढ़ाव।" अनिल करमेले ने बड़ी ख़ूबसूरती से इस गीत की समीक्षा की है। वो कहते हैं - "ये अमृता की चिट्ठी है वारिस शाह को कि उठो, तुमने प्रेम का पाठ पढ़ाया था ना वारिस शाह! देखो क्या हाल है तुम्हारे पंजाब का। वो खून से सना है। इसे गाने के लिए दर्द के जिस समंदर की ज़रूरत होती है—वो वडाली बंधुओं में था। पंजाब के गायकों में दर्द और मस्ती का बेमिसाल जोड़ होता है। वहां की मिट्टी ही ऐसी है।"
साल 2003 में ही वडाली ब्रदर्स को अश्विन चौधरी की फ़िल्म ’धूप’ में भी गाने का निमंत्रण मिला जिसमें निदा फ़ाज़ली के लिखे गीत थे और ललित सेन का संगीत था। फ़िल्म के अधिकांश गीत जगजीत सिंह, हरिहरन और श्रेया घोषाल ने गाए, लेकिन एक गीत के लिए वडाली ब्रदर्स को न्योता भेजा गया। और इस गीत को गा कर वडाली बंधु ने साबित किया कि सौ सुन्हार की, एक लुहार की। "चेहरा चेहरा चेहरा, मेरे यार का चेहरा, जैसा मेरे यार का चेहरा, वैसा ही, वैसा ही, वैसा ही संसार का चेहरा..." - यह क़व्वाली शैली की रचना है जो फ़िल्मी क़व्वाली शैली की तरह बहुत ज़्यादा तेज़ रफ़्तार वाली तो नहीं है, लेकिन असर में किसी से कम नहीं। दोनों भाई जब बारी-बारी से गाते हैं "मिट्टी से मिट्टी मिले, होके सभी निशान, किसमें कितना कौन है, कैसे हो पहचान, सदियों से हर नूर की मंज़िल मेरे तेरे प्यार का सेहरा, चेहरा चेहरा चेहरा...", सिर्फ़ एक बार सुन कर दिल नहीं भरता और लूप में सुनते रहने को जी चाहता है। फ़िल्म ’धूप’ की इस क़व्वाली के बाद वडाली ब्रदर्स ने फ़िल्मों से मुंह फेर लिया और अगले छह सालों तक फ़िल्मों में सुनाई नहीं दिए। साल 2010 में तमिल फ़िल्म ’चिक्कु बुक्कु’ के गीत "तूरल निन्द्रालुम" में उनकी आवाज़ें फिर एक बार गूंजी, साथ में थे हरिहरन और अनुराधा श्रीराम। के. मणीगंदन निर्देशित इस फ़िल्म में संगीत था Colonoal Cousins Hari & Lesle का और गीत लिखे वाली ने। हालांकि इस गीत में वडाली ब्रदर्स की आवाज़ गीत के अन्तरालों में ही सुनाई देती है, लेकिन उसी में वो अपनी अलग छाप छोड़ जाते हैं।
2011 में ’तनु वेड्स मनु’ में मुख्य संगीतकार थे कृष्णा और गीतकार थे राजशेखर। फ़िल्म का "ऐ रंग्रेज़ मेरे यह बात बता..." सर्वाधिक लोकप्रिय गीत रहा। इसके दो संस्करण थे - पहला फ़िल्म के संगीतकार कृष्णा की आवाज़ में और दूसरा वडाली ब्रदर्स की आवाज़ों में। दो संस्करणों की आपस में तुलना करके हम कृष्णा को छोटा सिद्ध नहीं करना चाहते, लेकिन यह ज़रूर है कि वडाली ब्रदर्स की जुगलबन्दी ने उनके संस्करण में जैसे जान फूंख दी है। इससे पहले भी रंग देने के विषय पर ढेरों फ़िल्मी गीत बन चुके हैं, लेकिन इस गीत में जो सूफ़ियाना अंदाज़ है, जो पुर-असर आवाज़ों और भावनाओं का संगम है, ऐसा पहले कभी सुनने को नहीं मिला। "मेरी हद भी रंग, सरहद भी रंग दे, अनहद भी रंग दे, मस्जिद मंदिर मैकद भी रंग दे"। इस गीत के साथ फ़िल्म ’पिंजर’ के गीत "दर्दा मारया माहिया" के एक अन्तरे की काफ़ी समानता है। फ़िल्म ’पिंजर’ के गीत में गुलज़ार लिखते हैं - "मौसम बदले चोला रंग, रंग बसंती आवे, सरसों पीली धूप सी चलती आवे, मैं भी पीली पड़ गई ऐसा रंग उड़ा, दर्दा मारया माहिया मेरे दर्द छुड़ा..."। और इसी भाव पर "ऐ रंग्रेज़..." में अन्तरा है - "के दिल बना गया सौदाई, ये कौन से पानी में तूने, कौन सा रंग घोला है, मेरा बसंती चोला है, अब तुम से क्या मैं सिक्व करूं, मैंने ही कहा था ज़िद करके, रंग देख मेरी ही तरंग में, रंग दे, रंग दे, चुनरी पे रंग..."। "मेरा रंग दे बसंती चोला" गीत के बाद "बसंती चोला" का इतना सुन्दर प्रयोग इन्हीं दो गीतों में सुनने को मिला है।
2011 में ही फिर एक बार वडाली बंधुओं से फ़िल्मी गीत गवाने का निर्णय लिया गया, इस बार पंकज कपूर निर्देशित फ़िल्म ’मौसम’ के लिए, जिसमें पंकज कपूर के बेटे शाहिद कपूर नायक की भूमिका निभा रहे थे। फ़िल्म में प्रीतम का संगीत था और गीत लिखे इरशाद कामिल ने। फ़िल्म में कुल 6 गीत थे, लेकिन हर गीत के एकाधिक संस्करण होने की वजह से कुल 13 गीतों का ऐल्बम बन खड़ा हुआ। वडाली ब्रदर्स की आवाज़ें बस एक ही गीत में गूंजी - "इक तू ही तू ही तू ही"। इस गीत के कुल तीन संस्करण हैं। पहला संस्करण मूल संस्करण है जिसे हंस राज हंस ने गाया है। दूसरा संस्करण है शाहिद माल्या की आवाज़ में जिसे "reprise version" कहा गया। और तीसरा संस्करण है "महफ़िल मिक्स" जिसे वडाली बंधुओं ने अंजाम तक पहुँचाया। पहले दो संस्करणों की शुरुआत होती है कुछ इन शब्दों से - "तेरा शहर जो पीछे छूट रहा, कुछ अंदर अंदर टूट रहा, हैरान है मेरे दो नैना, ये झरना कहाँ से फूट रहा।" जहाँ हंस राज हंस की आवाज़ में पंजाब की मिट्टी की एक देहाती ख़ुशबू है, वहीं शाहिद माल्या की आवाज़ में भी पंजाबी रंग है लेकिन उनकी आवाज़ नर्म है और उनकी आवाज़ जैसे आज की पीढ़ी की युवा की आवाज़ जैसी है। वडाली ब्रदर्स के संस्करण में ये शुरुआती पंक्तियाँ तो नहीं हैं, लेकिन जैसे ही वडाली बंधुओं की आवाज़ में "मेंडा तो है रब खो गया, मेंडा तो है सब खो गया, तेरिया मोहब्बताने लुटफूट सांया, तेरिया मोहब्बताने सचिया सताया, खाली हाथ मोड़ी ना तू, खाली हाथ आइया..." शुरु होता है, एक अलग ही समां बंध जाता है। हालांकि इस संस्करण में पाश्चात्य संगीत को फ़्युज़ किया गया है, लेकिन इससे गीत की आत्मा बरक़रार है। यही तो है वडाली ब्रदर्स की गायकी का जादू कि वो जो भी गीत गाते हैं, हर गीत में वो ही मध्यमणि बन कर रह जाते हैं। और श्रोताओं को अगर कुछ याद रहती है तो बस उनकी आवाज़, उनका अंदाज़, उनकी गायकी, उनका सूफ़ियाना मिज़ाज।
तो यहाँ पर आकर ख़त्म होती है वडाली ब्रदर्स के गाए फ़िल्मी गीतों का सफ़र। 2011 के बाद फिर कभी उनकी आवाज़ किसी फ़िल्मी गीत में सुनाई नहीं दी। जब एक साक्षात्कार में किसी ने उनसे पूछा कि वो अपने अब तक सफ़र के लिए क्या कहना चाहेंगे तो उन्होंने कहा - "जब तक बिका ना था, कोई पूछता ना था, मुझे ख़रीद कर अनमोल कर दिया।" वडाली ब्रदर्स की गायकी ऐसी है कि उनकी हर रचना को सुनते हुए जैसे हमारे दोनों हाथ प्रार्थना में उठ जाते हैं। उनकी आवाज़ में वो पाक़ीज़गी है कि उन्हें सुनते हुए जैसे उपरवाले के साथ एक जुड़ाव सा हो जाता है, हम ट्रान्स में चले जाते हैं। प्यारेलाल वडाली के चले जाने से वडाली ब्रदर्स की जोड़ी टूट गई है, उनके जाने से ऐसा लगा जैसे कि उपरवाले के साथ हमारा रिश्ता कायम करवाने वाला ही चला गया है। ’रेडियो प्लेबैक इंडिया’ की तरफ़ से स्वर्गीय प्यारेलाल वडाली को भावभीनी श्रद्धांजलि, और पूरनचन्द वडाली साहब को इस मुश्किल घड़ी में हिम्मत रखने की दुआ और उनके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु होने की कामना करते हैं।
आख़िरी बात
’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!
शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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