’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! स्वागत है आप सभी का ’चित्रकथा’ स्तंभ में। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें हम लेकर आते हैं सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े विषय। श्रद्धांजलि, साक्षात्कार, समीक्षा, तथा सिनेमा के विभिन्न पहलुओं पर शोधालेखों से सुसज्जित इस साप्ताहिक स्तंभ की आज 54-वीं कड़ी है।
13 फ़रवरी को उर्दू के मशहूर शायर और लेखक फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की 108-वीं जन्म-जयन्ती दुनिया भर में मनायी गई। बामपंथी विचारधारा रखने वाले फ़ैज़ को अपने उसूलों के लिए जेल भी जाना पड़ा और अपने वतन से आत्मनिर्वासित भी हुए। मार्क्सवादी फ़ैज़ को 1962 में सोवियत संघ ने ’लेनिन शान्ति पुरस्कार’ से सम्मानित किया। साहित्य में उनके अमूल्य योगदान के लिए पाक़िस्तान सरकार ने 1990 में उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान ’निशान-ए-इम्तियाज़’ से सम्मानित किया। फ़ैज़ की ग़ज़लों और कविताओं को कई बार फ़िल्मों में भी जगह मिली है। आइए आज ’चिरकथा’ में हम नज़र डालें उन फ़िल्मों पर जिनमें मौजूद है फ़ैज़ की शायरी और उनकी कविताएँ।
13 फ़रवरी को उर्दू के मशहूर शायर और लेखक फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की 108-वीं जन्म-जयन्ती दुनिया भर में मनायी गई। बामपंथी विचारधारा रखने वाले फ़ैज़ को अपने उसूलों के लिए जेल भी जाना पड़ा और अपने वतन से आत्मनिर्वासित भी हुए। मार्क्सवादी फ़ैज़ को 1962 में सोवियत संघ ने ’लेनिन शान्ति पुरस्कार’ से सम्मानित किया। साहित्य में उनके अमूल्य योगदान के लिए पाक़िस्तान सरकार ने 1990 में उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान ’निशान-ए-इम्तियाज़’ से सम्मानित किया। फ़ैज़ की ग़ज़लों और कविताओं को कई बार फ़िल्मों में भी जगह मिली है। आइए आज ’चिरकथा’ में हम नज़र डालें उन फ़िल्मों पर जिनमें मौजूद है फ़ैज़ की शायरी और उनकी कविताएँ।
चार साल जेल में क़ैद रहने के बाद जब वो बाहर निकले, तब तक वो बहुत ज़्यादा मशहूर हो चुके थे। जब वो जेल से रिहा हुए तब वो एक नायक बन चुके थे। उन्ही दिनों मशहूर फ़िल्मकार ए. आर. कारदार के पुत्र ए. जे. कारदार ने उन्हें अपनी एक फ़िल्म के लिए स्क्रिप्ट लिखने का न्योता दिया। फ़ैज़ ने अपनी पसन्दीदा उपन्यास ’The Boatman of the Padma’ (माणिक बन्दोपाध्याय की क्लासिक उपन्यास ’पद्मा नदीर मांझी का अंग्रेज़ी अनुवाद) को चुना और बंगाल के मछुआरों के जीवन पर आधारित इस उपन्यास पर स्क्रिप्ट लिखी। फ़िल्म के निर्देशन में भी फ़ैज़ ने सक्रीय भूमिका अदा की। ’जागो हुआ सवेरा’ शीर्षक से इस फ़िल्म का निर्माण 1959 में पूरा हुआ और फ़िल्म प्रदर्शित हुई। बॉक्स ऑफ़िस में फ़िल्म ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया लेकिन कई अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म उत्सवों में इस फ़िल्म ने वाहवाही लूटी। इससे पहले भी फ़ैज़ की एक कविता पर फ़िल्म बनाने की कोशिश हुई थी। ’हम तो तरीक राहों में मारे गए’ नामक कविता (जो अमरीकी दम्पति जुलियस और इथेल रोज़ेनबर्ग के जीवन पर आधारित है) पर यह फ़िल्म बननी थी पर अन्तत: नहीं बन पायी। बाद के सालों में भी फ़ैज़ ने कई बार फ़िल्में बनाने की योजना बनाई लेकिन हर बार किसी ना किसी वजह से फ़िल्म नहीं बन सकी। उनकी एकमात्र अंग्रेज़ी कविता ‘The Unicorn and the Dancing Girl’ पर आधारित एक वृत्तचित्र बनाई गई जिसमें मोहेंजोदारो के अवशेषों से बरामद दो कलाकृतियों की बातें हैं। यह फ़िल्म 1963 में UNESCO के तत्वावधान में बनी थी और इसमें मानव सभ्यता की यात्रा का वर्णन है। फ़ैज़ ने फ़िल्म निर्माण को एक कला समझा, और उन्हें यह बात बहुत चुभती थी कि सभी रचनात्मक क्रियाओं को "कला" लेकिन फ़िल्म को "इंडस्ट्री" कहा जाता है। ये तमाम बातें हमें प्राप्त हुईं फ़ैज़ की जीवनी Love and Revolution: Faiz Ahmed Faiz – The Authorised Biography से जिसे लिखा अली मदीह हाशमी ने।
अब ज़िक्र फ़ैज़ के लिखे गीत और ग़ज़लों की जिन्हें हमने सुने हमारी फ़िल्मों में। 1962 की पाक्सितानी फ़िल्म ’क़ैदी’ में मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ ने गाया फ़ैज़ का मशहूर कलाम "मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग"। इसे स्वरबद्ध किया था संगीतकार राशिद आत्रे ने। 1953-54 के आसपास नूरजहाँ और उनके पति शौकर हुसैन रिज़्वी के बीच वैवाहिक तनावों के चलते दोनों के बीच तलाक़ हो गया, और 1959 में नूरजहाँ ने फ़िल्म अभिनेता एजाज़ दुर्रानी से शादी कर ली। दुर्रानी के दवाबों के चलते नूरजहाँ को अभिनय छोड़ना पड़ा और उनके अभिनय-गायन से सजी अन्तिम फ़िल्म 1961 में आयी ’मिर्ज़ा ग़ालिब’। इसके बाद सिर्फ़ गायन का सफ़र जारी रखते हुए 1962 में ’क़ैदी’ में फ़ैज़ के इस ग़ज़ल को गा कर वो फिर एक बार शोहरत की बुलंदी पर पहुँच गईं। इस नज़्म के बनने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। जिस दिन फ़ैज़ को जेल से रिहा किया जा रहा था, उस दिन नूरजहाँ जेल के बाहर उनका इन्तज़ार कर रही थीं। फ़ैज़ के जेल से रिहा होने की ख़ुशी में उनके तमाम दोस्तों ने जश्न मनाने का फ़ैसला किया। उस जश्न में नूरजहाँ भी शामिल थीं और सभी ने उनसे गाने की गुज़ारिश की। नूरजहाँ ने उस दिन फ़ैज़ की ही नज़्म "मुझसे पहली सी मोहब्बत..." को नग़मे के रूप में गा कर सुनाया जिसे उन्होंने उसी वक़्त ख़ुद कम्पोज़ भी किया बिना किसी साज़ के सहारे। उसे सुन कर हर कोई आश्चर्यचकित हो गए। बाद में फ़ैज़ जब भी इस नज़्म को पढ़ते, इसमें वो नूरजहाँ का नाम ज़रूर शामिल करते क्योंकि उनके अनुसार नूरजहाँ की वजह से इस नज़्म में रूह आ गई थी। फ़िल्म ’क़ैदी’ में जब यह नज़्म सुनाई दी, तब इसे और भी अधिक लोकप्रियता मिली और सरहदों को पार कर दुनिया भर में मशहूर हो गई।
"मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग" में फ़ैज़ कहते हैं - "मैनें समझा था कि तू है तो दरख़शां है हयात, तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है, तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात, तेरी आखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है..."। इसी से प्रेरित हो कर हमारे यहाँ के शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने 1969 की फ़िल्म ’चिराग़’ में मुखड़ा लिखा "तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है"। मजरूह के लिखे इस गीत को भी ख़ूब लोकप्रियता मिली और आज यह एक सदाबहार नग़मा बन चुका है। ऐसी था फ़ैज़ के अल्फ़ाज़ों का जल्वा! नूरजहाँ द्वारा इस नज़्म को अत्यधिक लोकप्रिय बनाने के बाद जब भी कभी फ़ैज़ को इस नज़्म को पढ़ने का दरख्वास्त मिलता, वो उसे खारिज कर देते यह कहते हुए, "वो गीत अब मेरा कहाँ, नूरजहाँ का हो गया है!" उनके हिसाब से भले उन्होंने इसे लिखा हो, पर नूरजहाँ ने इसे अपनी आवाज़ और अंदाज़-ए-बयाँ से रूह भर दी है, और इसलिए इस नज़्म पर सिर्फ़ उन्हीं का हक़ है। ऐसे थे फ़ैज़ और उनकी शख़्सियत!
भारत में बनने वाली फ़िल्मों की अगर बात करें तो 1965 की शम्मी कपूर - जयश्री अभिनीत फ़िल्म ’जानवर’ में फ़ैज़ की लिखी क़ता को शामिल किया गया - "रात यूं दिल में तेरी खोयी हुई याद आई, जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए, जैसे सेहराओं में हौले से चले बाद-ए-नसीम, जैसे बीमार को बे-वजह क़रार आ जाए"। आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ों में इसे स्वरबद्ध किया शंकर जयकिशन ने। इस गीत की ख़ास बात यह है कि इसमें कोई रीदम नहीं है, कम से कम साज़ों के इस्तमाल से इसे शम्मी कपूर और जयश्री एक नाव में नदी की सैर करते हुए एक दूसरे से बातचीत के रूप में कर रहे हैं, लेकिन पूरे सुर में और शायराना अंदाज़ में भी। इसके बाद एक लम्बे अन्तराल के बाद 1982 की मुज़फ़्फ़र अली की फ़िल्म ’आगमन’ में फ़ैज़ को सुनाई दिया। इस फ़िल्म का निर्माण Uttar Pradesh Sugarcane Seed and Development Corporation ने किया था Integrated Films के बैनर तले। फ़िल्म में गन्ने के को-ऑपरेटिव सोसायटी की राजनीति और तौर-तरीकों को दिखाया गया था। फ़िल्म को मिली-जुली प्रतिक्रिया मिली। फ़िल्म की सबसे ख़ास बात यह थी कि इसके संगीतकार थे उस्ताद ग़ुलाम मुस्तफ़ा ख़ाँ और गाने लिखे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और हसरत जयपुरी ने। फ़ैज़ के लिखे नग़मों की बात करें तो पहला नग़मा एक नज़्म है "ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर, वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं..."। इसे तीन भागों में फ़िल्म में शामिल किया गया है। पहला और तीसरा भाग अनुराधा पौडवाल ने गाया है जबकि दूसरा भाग उस्ताद ग़ुलाम मुस्तफ़ा ख़ाँ साहब ने ही गाया है। दूसरा नग़मा फ़ौज़ की एक कविता का हिस्सा है। "दरबार-ए-वतन में जब इक दिन, सब जाने वाले जाएंगे, कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएंगे", ये हैं इस कविता की पहली लाइनें। दस लाइनों की इस कविता का पाँच, छह, सात और आठवें लाइनों को लेकर यह गीत बनाया गया है "अब टूट गिरेंगी ज़ंजीरें, अब ज़िंदानों की ख़ैर नहीं, जो दरिया झूम के उठे हैं, तिनकों से ना टाले जाएंगे..."। इस गीत के भी दो संस्करण हैं, एक हरिहरन की एकल स्वर में और दूसरे में हरिहरन के साथ हैं उस्ताद ग़ुलाम मुस्तफ़ा साहब। फ़ैज़ का लिखा फ़िल्म का अगला नग़मा एक ग़ज़ल है "जुनूं की याद मनाओ कि जश्न का दिन है, सलीब-ओ-दार सजाओ कि जश्न का दिन है"। इसे हरिहरन ने गाया है। ग़ुलाम मुस्तफ़ा ख़ाँ की गाई एक और नज़्म है "निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ, चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले, जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले, नज़र चुरा के चले जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले"।
फ़ैज़ की शायरी और लेखनी में मज़दूरों की बातें हैं, समानता की बातें हैं। इसलिए अक्सर उनकी कविताओं, नज़्मों और ग़ज़लों को ऐसी फ़िल्मों के लिए चुनी जाती हैं जिनमें इस तरह की विषयवस्तु होती है। ’आगमन’ के अगले ही साल 1983 में आई बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्म ’मज़दूर’ जिसमें दिलीप कुमार और राज बब्बर ने अभिनय किया। फ़िल्म में फ़ैज़ का लिखा "हम महनत कश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे" के बोलों में थोड़ा फेर बदल कर गीतकार हसन कमाल ने लिख डाला "हम मेहनत कश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, इक बाग़ नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे"। इसके लिए फ़िल्म में फ़ैज़ को क्रेडिट नहीं दिया गया जो ताज्जुब की बात है। और यह उस समय की बात है जब फ़ैज़ ज़िंदा थे। फ़िल्म की नामावली में कहीं भी फ़ैज़ का ज़िक्र नहीं है जो बेहद शर्म की बात है। ख़ैर, 1986 में मुज़फ़्फ़र अली की अगली फ़िल्म आई ’अंजुमन’ जिसमें शबाना आज़मी, फ़ारुख़ शेख, रोहिणी हत्तंगड़ी मुख्य किरदारों में थे। लखनऊ की पृष्ठभूमि पर बनी इस फ़िल्म में चिकन कढ़ाई श्रमिकों के संघर्ष के मुद्दे उठाए गए थे। फ़िल्म में ख़ैयाम का संगीत था और गीत लिखे शहरयार और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने। गीतों की एक और ख़ासियत यह भी थी कि तीन गीत शबाना आज़मी ने गाए। ’गमन’ और ’उमराव जान’ के बाद मुज़फ़्फ़र अली के साथ फ़ारुख़ शेख की यह तीसरी फ़िल्म थी। और अब एक नज़र उन दो नग़मों पर जिन्हें फ़ैज़ ने लिखे। पहली ग़ज़ल है शबाना आज़मी की आवाज़ में "मैं राह कब से नई ज़िन्दगी की तकती हूँ, हर एक क़दम पे हर एक मोड़ पे संभलती हूँ"। किसी ज़माने में ख़ुशहाल ज़िन्दगी जीने वाली जब संघर्ष से गुज़रती है तो उसकी मुंह से वैसे ही बोल निकल पड़ते हैं जैसा कि फ़ैज़ ने लिखा है - "किया है जश्न कभी डूबते सितारों का, कभी मैं एक किरण के लिए भटकती हूँ, मैं ख़ुद को देख के हैरान होने लगती हूँ, मैं कहाँ आइने की ज़ुबां समझती हूँ"। क्या ख़ूब निभाया है शबाना आज़मी ने इस ग़ज़ल को! इसे सुनते हुए हैरानी होती है कि आख़िर क्यों उनकी आवाज़ में और गीत सुनाई नहीं दिए हमें। फ़ैज़ की लिखी फ़िल्म की दूसरी ग़ज़ल है "कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं, सत शुक्र के अपनी रातों में, अब हिज्र की कोई रात नहीं"। ख़ैयाम साहब और उनकी बेगम जगजीत कौन ने क्या ख़ूब गाया है इस ग़ज़ल को। अनिल बिस्वास और मदन मोहन के बाद ख़ैयाम साहब ही एक ऐसे संगीतकार हुए जिन्होंने फ़िल्मी ग़ज़लों को एक ख़ास जगह दी।
20 नवंबर 1984 को फ़ैज़ इस फ़ानी दुनिया को छोड़ गए, लेकिन 90 के दशक में भी उनकी रचनाएँ हिंदी फ़िल्मों में आती रहीं। 1993 की फ़िल्म ’मुहाफ़िज़’ में उस्ताद सुल्तान ख़ाँ और ज़ाकिर हुसैन का संगीत था। अनीता देसाई की लिखी 1984 की ’बूकर प्राइज़’ नामांकित उपन्यास ’इन कस्टडी’ पर आधारित इस फ़िल्म को इस्माइल मर्चैण्ट ने निर्देशित किया था। फ़िल्म के सभी छह गीत फ़ैज़ के लिखे हुए थे। पहली ग़ज़ल शंकर महादेवन की आवाज़ में "नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं, क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं"। पहली मुलाक़ात या बहुत दिनों के बाद अपनी प्रेमिका से मुलाक़ात की ख़ुशी को किस मासूमियत लेकिन असरदार तरीके से इस ग़ज़ल में व्यक्त किया गया है, इसे सुनते हुए अंदाज़ा लगाया जा सकता है। दूसरा नग़मा हरिहरन की आवाज़ में है - "आज बाज़ार में पाँवजोला चलो, चश्म-ए-नम जान सोरीदा काफ़ी नहीं, तोहमत-ए-इश्क़ को सीदा काफ़ी नहीं, आज बाज़ार में पाँवजोला चलो"। इसके अंत में फ़ैज़ लिखते हैं - "इनका दम साँस अपने सिवा कौन है, सहर-ए-जाना में अब बासफ़ा कौन है, दश्त-ए-क़ातिल के साया रहा कौन है, रख़्त-ए-दिल बांध लो दिल फ़िगारो चलो, फिर हमीं क़त्ल हो आएँ यारों चलो"। ऐसे थे फ़ैज़! इसी तरह सुरेश वाडकर की आवाज़ में फ़ैज़ की एक और कविता है "आज इक हर्फ़ को फिर ढूंढता फिरता है ख़्याल, मद भरा हर्फ़ कोई, ज़हर भरा हर्फ़ कोई, दिलनशी हर्फ़ कोई, कहर भरा हर्फ़ कोई, आज इक हर्फ़ को फिर ढूंढता फिरता है ख़्याल"। कविता कृष्णमूर्ति की आवाज़ में ग़ज़ल है "ऐ जज़्बा-ए-दिल अगर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए, मंज़िल के लिए दो गाम चलूँ और सामने मंज़िल आ जाए"। कविता की ही आवाज़ में फ़िल्म की एक और ग़ज़ल है "राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया, दिल बहुत कुछ जला के देख लिया, और क्या देखने को बाक़ी है, आपसे दिल लगा के देख लिया"। वर्ष 2005 में फ़िल्म '99.9 FM' में फ़ैज़ की बस एक रचना को लिया गया था - "ये मुझे अज़ीज़ भी नापसन्द"। दुर्भाग्यवश इस गीत या ग़ज़ल की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं हो पायी है। इसी साल ’सहर’ नाम की क्राइम थ्रिलर फ़िल्म आई थी जिसमें संगीतकार थे डैनिएल बी. जॉर्ज और गीत लिखे स्वानन्द किरकिरे ने। लेकिन फ़िल्म के शीर्षक को ध्यान में रखते हुए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की उन मशहूर चार पंक्तियों को रखा गया था - "ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शब-ग़ज़ीदा सहर, वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं"। पंकज कपूर की असरदार आवाज़ में ये चार पंक्तियाँ सुनने में कमाल की लगती है।
वर्तमान दशक में भी फ़ैज़ मौजूद हैं फ़िल्म जगत में। 2012 की मीरा नाइर निर्देशित चर्चित अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म ’The Reluctant Fundamentalist’ प्रदर्शित हुई थी। 9/11 के हादसे के बाद अमरीका में एक आम मुसलमान की ज़िन्दगी किस तरह की हो गई थी, इस पर आधारित थी इस फ़िल्म की कहानी। फ़िल्म में मुख्य संगीतकार थे मैकल ऐन्ड्रिउस, लेकिन फ़ैज़ की एक रचना को शामिल करने के लिए आतिफ़ असलम को अतिथि संगीतकार के रूप में चुना गया और आतिफ़ ने ही इस गीत को गाया। आतिफ़ की आवाज़ में "मोरी अरज सुनो दस्तगीर पीर, रब्बा सचिया, तू ते अखिया सी, जाओ बन्दिया जग दा शाह एन तू, साडिया नेमतान तेरिया दौलताने, साडा नैब थे अलीजा हैं तू"। फ़्युज़न आधारित इस सूफ़ी नग़में में ऊपरवाले से दुआएँ मांगी जा रही है हिफ़ाज़त की। ऊपरवाले को मासूम धमकी भी दी जा रही है कि अगर उसने हिफ़ाज़त नहीं की तो वो किसी और ख़ुदा को चुन लेगा। प्रेम अपने शुद्धतम रूप में सुनाई देता है इस गीत में। यूं तो आतिफ़ असलम के बहुत से सुपरहिट गीत हमने सुने हैं, लेकिन इस गीत की बात ही कुछ और है। अफ़सोस इस बात का है कि इस गीत को लोगों ने ज़्यादा नहीं सुना। आतिफ़ की तरह ख़ुशक़िस्मत अरिजीत सिंह भी हैं जिन्हें भी फ़ैज़ को गाने का मौक़ा मिला। फ़िल्म थी 2014 की ’हैदर’। विशाल भारद्वाज के संगीत में और अरिजीत की आवाज़ में "गुलों में रंग भरे" को सुनना बड़ा ही सुकूनदायक होता है। "बड़ा है दर्द का रिश्ता, तुम्हारे नाम पे आएंगे ग़म गुज़ार चले, गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले। चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले, गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले"। इस ग़ज़ल के बाद इसी फ़िल्म में रेखा भारद्वाज की आवाज़ में भी फ़ैज़ की एक नज़्म है जो बेमिसाल है। फ़ैज़ इसमें लिखते हैं - "आज के नाम और आज के ग़म के नाम, आज का ग़म के है ज़िन्दगी के भरे, गुलिस्ताँ से ख़फ़ा, जर्द पत्तों का बन, जर्द पत्तों का बन जो मेरा देश है, दर्द की अंजुमन जो मेरा देश है, उन दुखी माँओं के नाम, रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं, और नींद की मार खाए हुए बाज़ुओं से संभलते नहीं, दुख बताते नहीं, मिन्नतों जारियों से बहलाते नहीं, उन हईनाओं के नाम, उन हसीनाओं के नाम..."। यह एक ऐसी नज़्म है जिसे सुनते हुए आपकी आँखें नम हुए बिना नहीं रह पाएंगी।
2016 में फ़िल्म आई थी ’बुद्धा इन अ ट्रैफ़िक जाम’। इस फ़िल्म का गीत-संगीत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी है। "बेकार कुत्ते..." रोहित शर्मा द्वारा स्वरबद्ध 2013 के ऐल्बम ’स्वांग’ की एक रचना है जो फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी से प्रेरित है जिसे नए बोलों से संवारा है रविन्दर रंढवा ने। पंकज बदरा और रोहित ने इसे गाया है। एक और फ़ैज़ ऐडप्टेशन "चन्द रोज़..." जिसे पल्लवी जोशी ने गाया है। शास्त्रीय गायन में सारी त्रुटियों के बावजूद पल्लवी की आवाज़ में यह गीत सुनने में अच्छा लगा। जी हाँ, ये वही पल्लवी जोशी हैं जिन्हें आप बरसों पहले दूरदर्शन के धारावाहिकों में देखा करते थे। फ़ैज़ लिखते हैं "ये तेरी हुस्न से लिपटी हुई आलम की गर्द, अपनी दो रोज़ जवानी की शिकस्तों का शुमार, चांदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द, दिल की बेसुद तड़प जिस्म की मायूस पुकार, चंद रोज़ और मेरी जान फ़कत चंद रोज़..."। तो यहाँ आकर पूरी होती है फ़िल्मों में फ़ैज़ का सफ़र। हमें पूरी उम्मीद है कि इसी तरह से आने वाले सालों में भी फ़ैज़ हमारी फ़िल्मों के गीतों में लगातार आते रहेंगे।
आख़िरी बात
’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!
शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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