Skip to main content

चित्रकथा - 55: फ़िल्म जगत के दो महान गिटार वादकों का निधन

अंक - 55

फ़िल्म जगत के दो महान गिटार वादकों का निधन


गोरख शर्मा और भानु गुप्त




रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! स्वागत है आप सभी का ’चित्रकथा’ स्तंभ में। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें हम लेकर आते हैं सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े विषय। श्रद्धांजलि, साक्षात्कार, समीक्षा, तथा सिनेमा के विभिन्न पहलुओं पर शोधालेखों से सुसज्जित इस साप्ताहिक स्तंभ की आज 55-वीं कड़ी है।

26 और 27 जनवरी 2018 को फ़िल्म जगत के दो सुप्रसिद्ध गिटार वादकों का निधन हो गया। संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के प्यारेलाल के भाई गोरख शर्मा के 26 जनवरी को और राहुल देव बर्मन टीम के भानु गुप्त के 27 जनवरी को निधन हो जाने से फ़िल्म-संगीत जगत के दो चमकते सितारे हमेशा के लिए डूब गए। भले हम इन दोनों कलाकारों को मुख्य रूप से फ़िल्मी गीतों में उनके गिटार के टुकड़ों से जानते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि इन दोनों ने गिटार के अलावा भी कई और साज़ों पर भी अपने अपने हाथ आज़माए हैं। जहाँ गोरख शर्मा ने मैन्डोलीन और कई अन्य तार वाद्यों पर अपनी जादुई उंगलियाँ चलाईं, वहीं भानु गुप्त ने हार्मोनिका (माउथ ऑर्गन) में महारथ हासिल की। आइए, आज ’चित्रकथा’ में गोरख शर्मा और भानु गुप्त को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके जीवन पर एक नज़र डालते हैं और याद करते हैं उन गीतों को जिन्हें उन्होंने अपनी कला से अमर बना दिया है। आज का यह अंक गोरख शर्मा और भानु गुप्त की पुण्य स्मृति को समर्पित है।





गोरख शर्मा और भानु गुप्त


नवरी 2018 का महीना संगीत जगत के लिए बेहद दुर्भाग्यजनक रहा। संतूर वादक पंडित उल्हास बापट, सरोद वादक पंडित बुद्धदेब दासगुप्ता, और फ़िल्म संगीत में रेसो-रेसो के जनक अमृतराव काटकर कके बाद अब गिटार वादक गोरख शर्मा और भानु गुप्त। गोरख शर्मा का नाम फ़िल्म जगत में भला कौन नहीं जानता! बेस गिटार को हिन्दी फ़िल्म संगीत में लाने वाले गुणी कलाकारों में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। 28 दिसंबर 1946 को जन्में गोरख रामप्रसाद शर्मा सुप्रसिद्ध ट्रम्पेट वादक पंडित रामप्रसाद शर्मा के पुत्र और सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के प्यारेलाल शर्मा के छोटे भाई थे। 1960 से लेकर 2002 के बीच गोरख शर्मा ने लगभग 500 फ़िल्मों में लगभग 1000 गीतों में तरह तरह के वाद्य बजाए और इन तमाम सदाबहार गीतों को अलंकृत किया। प्यारेलाल, गणेश, आनन्द और महेश (महेश-किशोर जोड़ी वाले) ही की तरह गोरख शर्मा ने भी संगीत का मूल पाठ अपने पिता से ही सीखा। उन्हीं से उन्होंने तरह तरह के तार-वाद्यों को बजाने की कला सीखी। मैन्डोलीन, मैन्डोला, रुबाब, और कई प्रकार के गिटार जैसे कि ऐकोस्टिक, जैज़, ट्वेल्व स्ट्रिंग् और इलेक्ट्रिक गिटार सहित बेस गिटार में उन्होंने महारथ हासिल की। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गोरख शर्मा को ही बेस गिटार को हिन्दी फ़िल्मी गीतों में लाने का श्रेय जाता है। वैसे गोरख जी ने अपना संगीत सफ़र शुरु किया था बतौर मैन्डोलीन वादक। इसके नोटेशन उन्होंने अपने पिता से सीखे। उन्ही दिनों में विदेशी साज़ों का भी चलन शुरु हो चुका था और गिटार को ख़ास तौर पर ख़ूब लोकप्रियता मिल रही थी। इसलिए गोरख जी ने भी सोचा कि क्यों ना इस पर भी हाथ आज़माया जाए। अत: उस ज़माने क मशहूर गिटार वादक ऐनिबल कैस्ट्रो से उन्होंने गिटार सीखना शुरु कर दिया और मैन्डोलीन का ज्ञान होने की वजह से कुछ ही समय में इस कला में भी निपुण हो गए। अपने करीयर के शुरुआती सालों में गोरख शर्मा ’बाल सुरील कला केन्द्र’ का हिस्सा हुआ करते थे। यह एक ऐसी संस्था थी जो महाराष्ट्र के छोटे शहरों में घूम-घूम कर कार्यक्रम पेश किया करती। कलाकारों के इस समूह में शामिल थे मीना मंगेशकर, उषा मंगेशकर, हृदयनाथ मंगेशकर, लक्ष्मीकान्त कुड़लकर, प्यारेलाल, गणेश, आनन्द आदि।

प्यारेलाल और गोरख शर्मा
60 के दशक में जब लक्ष्मीकान्त और प्यारेलाल ने अपनी जोड़ी बना कर फ़िल्म संगीत निर्देशन में उतरे, तब गोरख शर्मा को इस जोड़ी के गीतों में मैन्डोलीन बजाने का मौका मिला। मात्र 14 वर्ष की आयु में उन्हें संगीतकार रवि ने संगीत निर्देशन में ’चौधहवीं का चाँद’ फ़िल्म के मशहूर शीर्षक गीत में मैन्डोलीन बजाने का सुअवसर मिला। शंकर-जयकिशन और कल्याणजी-आनन्दजी के कई गीतों में भी उन्होंने मैन्डोलीन बजाए। जल्दी ही गोरख शर्मा बन गए लक्ष्मी-प्यारे के सहायक संगीतकार और इस जोड़ी के साथ उन्होंने 1966 से लेकर अन्त तक तकरीबन 475 फ़िल्मों में काम किया। Cine Musicians Association (CMA) में गोरख शर्मा का नाम सम्मान से लिया जाता था, और उस ज़माने में जहाँ साज़िन्दों को CMA द्वारा दिए गए ग्रेड के अनुसार वेतन मिला करते थे, वहाँ पंडित शिव कुमार शर्मा और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के साथ गोरख शर्मा को सर्वोच्च ग्रेड का वेतन मिलता था। यह उनकी कला का ही सम्मान था। जैसा कि हमने उपर कहा है कि गोरख शर्मा ने लगभग 1000 गीतों में साज़ बजाए हैं< लेकिन एक गीत जो उनकी ख़ास पहचान बना हुआ है, वह है 1980 की फ़िल्म ’कर्ज़’ का गीत "एक हसीना थी, एक दीवाना था"। सभी जानते हैं कि यह गीत फ़िल्म का थीम सॉंग् रहा है जिसका फ़िल्म की कहानी पर गहरा प्रभाव है। इसी गीत का प्रील्युड म्युज़िक फ़िल्म का थीम म्युज़िक भी है, और इन सब के पीछे अगर किसी का हाथ है तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ गोरख शर्मा का। गोरख जी के निधन पर फ़िल्म ’कर्ज़’ के नायक ॠषि कपूर ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इस थीम म्युज़िक का ज़िक्र किया है।

गोरख शर्मा के संगीत के टुकड़ों से सजे कुछ और सुपरहिट गीत हैं - "मेरे महबूब क़यामय होगी" (Mr. X in Bombay, 1964), "नज़र ना लग जाए किसी की राहों में" (Night in London, 1967), "मैं शायर तो नहीं" (Bobby, 1973), "रुक जाना नहीं तू कहीं हार के" (इम्तिहान, 1974), "आओ यारों गाओ" (हवस, 1974), "My name is Anthony Gonsalves" (अमर अक्बर ऐन्थनी, 1977), "डफ़ली वाले डफ़ली बजा" (सरगम, 1979), "हम बने तुम बने एक दूजे के लिए" (एक दूजे के लिए, 1981), "सासों की ज़रूरत है जैसे" (आशिक़ी, 1990), "सनम मेरे सनम क़सम तेरी क़सम" (हम, 1991), "जाओ तुम चाहे जहाँ, याद करोगे वहाँ" (नरसिम्हा, 1991), "जादू तेरी नज़र, ख़ुशबू तेरा बदन" (डर, 1993)। BBC के एक साक्षात्कार में जब एक बार गोरख शर्मा से यह पूछा गया कि बड़े भाई की तरह उन्होंने संगीत निर्देशन में हाथ क्यों नहीं आज़माया, तो उनका जवाब था - "मैं उन दिनों मैन्डोलिन और गिटार की परफार्मेंस और उनकी रिकॉर्डिंग में इतना व्यस्त रहता था कि संगीत निर्देशन के लिए वक़्त ही नहीं मिल पता था।" बीते ज़माने को याद करते हुए गोरख जी ने आगे उस साक्षात्कार में बताया, ''उस समय अंग्रेज़ी संगीतकारों का दबदबा था, लेकिन बहुत कम लोग अंग्रेज़ी में संगीत (स्टाफ नोटेशन) पढ़ पाते थे, जिसकी वजह से उन्हें काम नहीं मिल पता था। अपने स्टॉफ़ में मैं उन चुनिंदा लोगों में से था, जो स्टॉफ़ नोटेशन पढ़ लेता था। हालांकि़, इसका श्रेय मेरे संगीतकार पिता पंडित रामप्रसाद शर्मा उर्फ़ 'बाबाजी' को जाता है।'' बीते दिनों को याद करते हुए वे आगे कहते हैं, "तब पूरा दिन रिकॉर्डिंग चलती थी और 70 से 100 संगीतकारों को एक साथ एक गाने की सही धुन निकालनी होती थी। किसी एक से भी चूक हो जाती तो सबको दोबारा फिर से बजाना पड़ता था। तब एसी (AC) तो होते नहीं थे, तो हम एक बंद कमरे में घंटों रिकॉर्डिंग करने के बाद तुरंत सारे खिड़की दरवाज़ें खोल देते थे या सब पंखे के आगे खड़े हो जाते।'' गोरख शर्मा के इस दुनिया से जाने से फ़िल्म संगीत जगत का एक चमकता सितारा हमेशा के लिए अस्त हो गया।


भानु गुप्त भी एक ऐसे साज़िन्दे थे जिनका फ़िल्म जगत में बहुत नाम था। ख़ास कर राहुल देव बर्मन की टोली में वो एक महत्वपूर्ण महारथी थे। माउथ ऑर्गन (हारमोनिका) और गिटार के वो जाने-माने वादक थे। भले उनका नाम राहुल देव बर्मन के साथ लिया जाता है, यह भी सच है कि उन्होंने कई अन्य संगीतकारों के साथ भी काम किया है। भानु गुप्त का जन्म 1932 में बर्मा (अब म्यानमार) की राजधानी रंगून में हुआ जहाँ बचपन में उन्होंने माउथ ऑरगन बजाना ब्रिटिश नाविकों से सीखा। जापानी भाषा जानने की वजह से मात्र 12 वर्ष की आयु में ही उन्हें जापानी आर्मी में अंग्रेज़ी भाषान्तरकार की नौकरी मिल गई। बचपन में उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध को बर्मा में रहते हुए बहुत करीब से देखा था भानु गुप्त ने। वो और उनका पूरा परिवार सुभाष चन्द्र बोस और उनके INA के साथ काम किया। 15 वर्ष की आयु में युवा भानु को एक प्लास्टिक हारमोनिका उपहार में मिला जिसे उन्होंने ख़ुद ही बजाना सीख लिया। पहली धुन जो उन्होंने उस पर बजाना सीखी, वो थी हमारी राष्ट्रगान की धुन। बर्मा में युद्ध गम्भीर रूप धारण करने की वजह से वो परिवार के साथ भारत आ गए और पश्चिम बंगाल के हूगली ज़िले के वैद्यबाटी नामक जगह में बस गए। ऑयल टेक्नोलोजी में पढ़ाई पूरी की और नौकरी भी करने लगे। भानु शुरु से ही एक अच्छे खिलाड़ी थे। नदियों को तैर कर पार कर जाना, बॉक्सिंग् और क्रिकेट खेलना उनके शौक थे। 18 वर्ष के होते ही भानु Calcutta League में First Division Cricket खेलने लगे। उन्होंने बापु नादकरनी, पंकज राय और वेस्ट इंडीज़ के रॉय गिलक्रिस्ट के साथ खेला हुआ है। आज भी कोलकाता के ’कालीघाट क्लब’ में उनका नाम उस क्लब के स्वर्णिम खिलाड़ियों की लिस्ट में लिखा हुआ है।

क्रिकेट खेलते हुए भानु गुप्त कोलकाता के नाइट क्लबों और कैबरे में आय दिन हारमोनिका बजाया करते थे जिससे थोड़ी बहुत आमदनी हो जाती थी। धीरे-धीरे उनके सामने यह सवाल खड़ा हो गया कि आगे क्रिकेट पर ध्यान देना है या संगीत पर। उन्होंने संगीत को चुना और एक संगीतज्ञ बनने का सपना लेकर 1959 में वो अपने परिवार के इच्छा के ख़िलाफ़ जाकर कोलकाता से बम्बई चले आए। हारमोनिका में उनके हुनर से प्रभावित हो कर संगीतकार सी. रामचन्द्र ने उन्हें पहली बार फ़िल्म ’पैग़ाम’ में बजाने का मौका दिया। जल्दी ही बिपिन दत्त (बिपिन-बाबुल जोड़ी के) के साथ वो काम करने लगे और आगे चल कर सलिल चौधरी के साथ जुड़े और वो एक ’हिन्दु हारमोनिका प्लेयर’ के नाम से पहचाने जाने लगे, क्योंकि उन दिनों लगभग सभी हारमोनिका वादक इसाई हुआ करते थे। सलिल दा के साथ किसी रेकॉर्डिंग् के दौरान भानु गुप्त की नज़र पड़ी एक पुराने एडुसोनिया गिटार पर, जिस पर "made by Braganzas of Free School Street, Kolkata" लिखा हुआ था। उपेक्षित स्थिति में पड़े इस गिटार को प्यार से उठा कर उन्होंने इसके तारों को छेड़ना शुरु किया और इसे सीखने में जुट गए। संगीत की समझ तो थी ही, इसलिए ज़्यादा समय नहीं लगा सीखने में। उन दिनों भानु गुप्त संगीतकार जोड़ी सोनिक-ओमी के पड़ोसी हुआ करते थे। सोनिक ओमी के वहाँ संगीतकार मदन मोहन का भी आना-जाना लगा रहता था। एक दिन जब भानु गुप्त गिटार बजा रहे थे, तब मदन मोहन ने उन्हें बजाते हुए सुना, प्रभावित हुए और सोनिक-ओमी के सहयोग से भानु से मुलाक़ात की। 1963 की किसी फ़िल्म में मदन मोहन ने भानु गुप्त को गिटार बजाने का मौका दिया। यह वह समय था जब राहुल देव बर्मन फ़िल्म जगत में बतौर स्वतन्त्र संगीतकार अपने पांव जमाने की कोशिश में लगे थे। उन्हें एक गिटारिस्ट की तलाश थी। ऐसे में भानु गुप्त को बुलाया गया और बाकी अब इतिहास बन चुका है। पंचम के साथ भानु गुप्त का साथ पंचम की मृत्यु तक, यानी 1994 तक रहा। 

पंचम और भानु दा
पंचम के जाने के बाद भानु गुप्त ने अनु मलिक, बप्पी लाहिड़ी और नदीन-श्रवण जैसे संगीतकारों के साथ काम किया। जिस तरह से गोरख शर्मा को हम ’कर्ज़’ के थीम के लिए जानते हैं, उसी तरह से भानु गुप्त को हम जानते हैं ’शोले’ फ़िल्म के ’गिटार थीम’ और ’हारमोनिका थीम’ के लिए। हारमोनिका थीम का दृश्य वह दृश्य है जहाँ जया भादुड़ी (बच्चन) दीया जला रही होती हैं और अमिताभ बच्चन अपना माउथ ऑरगन बजा रहे होते हैं। ’शोले’ के ही सदाबहार गीत "महबूबा महबूबा" में भी भानु गुप्त ने गिटार बजाया है। पंचम के जिस गीत में भानु गुप्त ने पहली बार बजाया, वह गीत था फ़िल्म ’तीसरी मंज़िल’ का "देखिये साहिबों..."। पंचम के कुछ और महत्वपूर्ण गीत जिनमें भानु गुप्त का गिटार सुनाई दिया, वो हैं "एक चतुर नार" (पड़ोसन, 1968), "चिंगारी कोई भड़के" (अमर प्रेम, 1972), "यादों की बारात निकली है आज" (यादों की बारात, 1973), "सुनो, कहो, सुना कहा" (आप की क़सम, 1974), "एक मैं और एक तू" (खेल खेल में, 1975), "तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिकवा तो नहीं" (आंधी, 1975), "ऐसे ना मुझे तुम देखो" (Darling Darling, 1977), "क्या यही प्यार है" (Rocky, 1981), "ये कोरी करारी" (समुन्दर, 1986), "कुछ ना कहो कुछ भी ना कहो" (1942 A Love Story, 1994)। जानेमाने फ़िल्म इतिहासकार बालाजी विट्टल के साथ एक साक्षात्कार में भानु जी ने एक बार पंचम के काम करने के तरीकों के बारे में बताया था कि पंचम किसी भी चीज़ में से संगीत बाहर निकाल लेते थे। उदाहरण स्वरूप, एक बार एक डिफ़ेक्टिव सीलिंग् फ़ैन से तालबद्ध तरीके से चरमराहट की आवाज़ निकल रही थी और उसी से प्रेरित होकर बनी ’आप की क़सम’ फ़िल्म की "सुनो कहो कहा सुना" गीत की धुन। इसी तरह एक बार भानु दा ने गिटार पर ग़लत उंगली फेर दिया जिससे उत्पन्न हो गया "चिंगारी कोई भड़के" के प्रील्युड की धुन। भानु दा एक बार पैक अप के समय यूंही गिटार पर एक धुन बजा रहे थे, और वही धुन बन गई "एक मैं और एक तू" की धुन। "महबूबा महबूबा" में बोतल का प्रयोग या फिर ’तीसरी मंज़िल’ में दरवाज़ा खुलने की आवाज़, ये सब करामात पंचम के दिमाग़ से ही निकले थे। भानु दा ने बालाजी विट्टल को यह भी बताया कि पंचम कभी भी अपने साज़िन्दों और संगीतज्ञों के काम को सराहना नहीं भूलते थे। जब लता जी ने "क्या यही प्यार है" की धुन के लिए पंचम पर उनके दुर्लभ प्रशंसा बरसाईं तो पंचम ने तुरन्त भानु दा की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि "यह धुन इसने बनाया है!" इसी तरह से जब पंचम ने नासिर हुसैन को बताया कि ’यादों की बारात’ का शीर्षक गीत दरसल भानु ने बनाया है तो नासिर साहब ने उन्हें एक दुर्लभ Scotch Whisky से पुरस्कृत किया।

गोरख शर्मा और भानु गुप्त तो चले गए पर पीछे छोड़ गए वाद्य संगीत की एक ऐसी धरोहर जो आने वाले लम्बे समय तक इस दौर के साज़िन्दों और संगीतज्ञों को लाभान्वित करते रहेंगे और हम सुधी श्रोताओं के कानों और दिलों में अमृत घोलते रहेंगे। ’रेडियो प्लेबैक इंडिया’ की ओर से स्वर्गीय गोरख शर्मा और स्वर्गीय भानु गुप्त को विनम्र श्रद्धा-सुमन!



आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!




शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र  



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट