रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! स्वागत है आप सभी का ’चित्रकथा’ स्तंभ में। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें हम लेकर आते हैं सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े विषय। श्रद्धांजलि, साक्षात्कार, समीक्षा, तथा सिनेमा के विभिन्न पहलुओं पर शोधालेखों से सुसज्जित इस साप्ताहिक स्तंभ की आज 54-वीं कड़ी है।
26 जनवरी 2018 को बांग्ला सिनेमा की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री सुप्रिया देवी (सुप्रिया चौधरी) का 86 वर्ष की आयु में निधन हो गया। पद्मश्री, बंग-विभूषण, फ़िल्मफ़ेयर, BFJA आदि पुरस्कारों से सम्मानित सुप्रिया देवी की यादगार बांग्ला फ़िल्मों में उल्लेखनीय नाम हैं ’आम्रपाली’, ’मेघे ढाका तारा’, ’सुनो बरनारी’, ’कोमल गंधार’, ’स्वरलिपि’, ’तीन अध्याय’, ’संयासी राजा’ और ’सिस्टर’ जैसी कालजयी फ़िल्में। सुप्रिया देवी की अदाओं और अभिनय क्षमता की तुलना 50-60 के दशकों में हॉलीवूड अभिनेत्री सोफ़िया लॉरेन से की जाती थी। बांग्ला के मेगास्टार उत्तम कुमार और सुप्रिया देवी की जोड़ी भी ख़ूब पसन्द की गई। हिन्दी फ़िल्म जगत की बात करें तो सुप्रिया चौधरी ने 60 के दशक की तीन फ़िल्मों में बतौर नायिका काम किया है। ये फ़िल्में हैं ’बेगाना’, ’दूर गगन की छाँव में’ और ’आप की परछाइयाँ’। आइए, आज ’चित्रकथा’ में सुप्रिया चौधरी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी इन्हीं तीन हिन्दी फ़िल्मों की बातें करें। आज का यह अंक सुप्रिया जी को समर्पित है।
26 जनवरी 2018 को बांग्ला सिनेमा की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री सुप्रिया देवी (सुप्रिया चौधरी) का 86 वर्ष की आयु में निधन हो गया। पद्मश्री, बंग-विभूषण, फ़िल्मफ़ेयर, BFJA आदि पुरस्कारों से सम्मानित सुप्रिया देवी की यादगार बांग्ला फ़िल्मों में उल्लेखनीय नाम हैं ’आम्रपाली’, ’मेघे ढाका तारा’, ’सुनो बरनारी’, ’कोमल गंधार’, ’स्वरलिपि’, ’तीन अध्याय’, ’संयासी राजा’ और ’सिस्टर’ जैसी कालजयी फ़िल्में। सुप्रिया देवी की अदाओं और अभिनय क्षमता की तुलना 50-60 के दशकों में हॉलीवूड अभिनेत्री सोफ़िया लॉरेन से की जाती थी। बांग्ला के मेगास्टार उत्तम कुमार और सुप्रिया देवी की जोड़ी भी ख़ूब पसन्द की गई। हिन्दी फ़िल्म जगत की बात करें तो सुप्रिया चौधरी ने 60 के दशक की तीन फ़िल्मों में बतौर नायिका काम किया है। ये फ़िल्में हैं ’बेगाना’, ’दूर गगन की छाँव में’ और ’आप की परछाइयाँ’। आइए, आज ’चित्रकथा’ में सुप्रिया चौधरी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी इन्हीं तीन हिन्दी फ़िल्मों की बातें करें। आज का यह अंक सुप्रिया जी को समर्पित है।
8 January 1933 – 26 January 2018
सुप्रिया देवी का जन्म बर्मा (म्यानमार) के मिचकिना नामक छोटे से शहर में हुआ था। उनके पिता गोपाल चन्द्र बनर्जी एक सफ़ल वकील थे। उनकी माँ किरणबाला देवी एक गृहणी थीं जिन्हें संगीत और नृत्य से बहुत अधिक लगाव था। इस तरह से बचपन से ही सुप्रिया देवी एक अच्छी नृत्यांगना बन गईं और उस समय के बर्मा के प्रधानमंत्री थाकिन नु से पुरस्कार भी प्राप्त किया। देश स्वाधीन होने के बाद बनर्जी परिवार बर्मा से कलकत्ता स्थानान्तरित हो गए। 1942 में जब जापान ने बर्मा पर कब्ज़ा कर लिया तब यह परिवार रिफ़्युजी बन गए और तमाम ख़तरों को झेलते हुए पैदल बर्मा से कलकत्ते का सफ़र तय किया। कलकत्ता आकर सुप्रिया देवी ने गुरु मुरुतप्पन पिल्लाई, और बाद में गुरु प्रह्लाद दास से नृत्य की शिक्षा जारी रखा। उनके पड़ोस में उस ज़माने की जानीमानी चरित्र अभिनेत्री चन्द्रावती देवी रहा करती थीं। उनके सहयोग से सुप्रिया देवी को बांग्ला सिने संसार में प्रवेश मिला और बाकी अब स्वर्णिम इतिहास बन चुका है।
1952 से लेकर 1963 तक एक के बाद एक सफ़ल बांग्ला फ़िल्मों में अभिनय करने के बाद सुप्रिया चौधरी ने हिन्दी फ़िल्म जगत में अपनी क़िस्मत आज़माने का फ़ैसला लिया। 1963-64 में उनकी एक के बाद एक कुल तीन फ़िल्में आईं जिनमें उन्होंने मुख्य नायिका का किरदार निभाया। ये फ़िल्में हैं धर्मेन्द्र के साथ ’बेगाना’ और ’आप की परछाइयाँ’ तथा किशोर कुमार के साथ ’दूर गगन की छाँव में’। 1963 की फ़िल्म ’बेगाना’ एक मनोरंजक पर भावुक ड्रामाई कहानी पर आधारित है। कहानी के केन्द्रबिन्दु में एक तरफ़ एक माँ है, उसका पति है, और उसका बच्चा है जो उसके पति का नहीं है, तो दूसरी तरफ़ एक पत्नी है, एक पति है और उसके शादी से पहले का प्रेमिक है (जिसका वह बच्चा है)। इन्हीं रिश्तों का ताना-बाना है फ़िल्म ’बेगाना’ की कहानी। धर्मेन्द्र, सुप्रिया चौधरी, शैलेश कुमार और मास्टर बबलू के जानदार और प्राकृतिक अभिनय की वजह से कहानी में जान आ गई और इस फ़िल्म को ख़ूब सराहा गया। क्योंकि यह सुप्रिया चौधरी की पहली हिन्दी फ़िल्म थी, इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण था कि वो सही फ़िल्म का चुनाव करें हिन्दी सिने जगत में पदार्पण के लिए। बिन विवाह माँ का यह किरदार उस ज़माने के हिसाब से काफ़ी "बोल्ड" था, और इस किरदार के ज़रिए हिन्दी फ़िल्म जगत में क़दम रखना ख़तरे से ख़ाली नहीं था। फिर भी सुप्रिया चौधरी ने साहस का परिचय देते हुए इसी फ़िल्म को चुना और यह सिद्ध भी किया कि हिन्दी फ़िल्मों में भी वो अपनी उसी असरदार अभिनय क्षमता का परिचय दे सकती हैं जो वो बांग्ला फ़िल्मों में एक दशक से देती आई हैं। ’बेगाना’ फ़िल्म बनी थी ’सदाशिव चित्र’ के बैनर तले और इसका निर्देशन सदाशिव राव कवि ने किया था। शैलेन्द्र ने फ़िल्म के गीत लिखे और सपन जगमोहन का संगीत था। फ़िल्म के तमाम गीतों में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ रफ़ी का गाया "फिर वो भूली सी याद आई है..."। उस वर्ष ’बंदिनी’, ’मेरे महबूब’, ’ताज महल’, ’मुझे जीने दो’, ’गुमराह’, ’दिल एक मंदिर’ जैसी कामयाब फ़िल्मों की भीड़ में ’बेगाना’ की तरफ़ ज़्यादा ध्यान नहीं गया, और एक अच्छी फ़िल्म होने के बावजूद इस फ़िल्म को लोगों ने धीरे धीरे भुला दिया।
’बेगाना’ ख़ास नहीं चली, लेकिन अभिनेत्री सुप्रिया चौधरी के अभिनय की तरफ़ फ़िल्मकारों का ध्यान ज़रूर गया। और यही कारण है कि प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक मोहन कुमार ने जब 1964 की अपनी अगली फ़िल्म ’आप की परछाइयाँ’ प्लैन की, तब उन्होंने धर्मेन्द्र और सुप्रिया चौधरी की जोड़ी को ही चुना। साथ में दूसरी अभिनेत्री के रूप में शशिकला का चुनाव हुआ। फ़िल्म में संगीत दिया मदन मोहन ने और इस फ़िल्म के सभी गीत सुपरहिट हुए। "यही है तमन्ना तेरे घर के सामने", "अगर मुझसे मोहब्बत है", "मैं निगाहें तेरे चेहरे से हटाऊँ कैसे" जैसे गीत उस ज़माने में गली गली गूंजा करते थे और आज भी अक्सर रेडियो पर सुनाई दे जाते हैं। गीतों के चल पड़ने से फ़िल्म को भी पब्लिसिटी मिल जाती है। ’बेगाना’ के गीतों ने जो कमाल नहीं दिखा सके, वो कमाल ’आप की परछाइयाँ’ के गीतों ने दिखा दी और नतीजा यह हुआ कि अब की बार दर्शकों ने धर्मेन्द्र और सुप्रिया चौधरी की जोड़ी को पिछली बार से अधिक ध्यान से देखा और सराहा। ’आप की परछाइयाँ’ फ़िल्म में सुप्रिया चौधरी द्वारा निभाए चरित्र की बात करें तो यह चरित्र आशा नामक लड़की का चरित्र है जो एक सुरुचिपूर्ण, शिष्ट और आकर्षक लड़की है और नायक चन्द्रमोहन (धर्मेन्द्र) की प्रेमिका भी। इस किरदार में सुप्रिया चौधरी ने अपने आप को बख़ूबी साबित किया और इस किरदार में इस क़दर घुलमिल गईं कि फ़िल्म को देखते हुए ऐसा लगा कि जैसे वो ख़ुद ही उस किरदार को जी रही हों। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वो केवल एक नर्म-ओ ख़ूबसूरत बब्ली लड़की का रोल निभा रही हों, चन्द्रमोहन के बुरे समय में वो एक सख़्त खम्बे के रूप में नज़र आती हैं। नरमी और सख़्ती का सुन्दर संतुलन सुप्रिया चौधरी के इस किरदार में महसूस की जा सकती है। सिर्फ़ यह किरदार ही नहीं, सुप्रिया हक़ीक़त में बेहद ख़ूबसूरत थीं। लम्बा कद, सुन्दर गठन और ख़ूबसूरत आँखों की धनी सुप्रिया चौधरी की आवाज़ भी बेहद गम्भीर पर सुमधुर थी। ’बेगाना’ और ’आप की परछाइयाँ’ फ़िल्मों के बाद कुछ फ़िल्म समीक्षकों ने यह राय दी कि सुप्रिया कभी कभी बहुत कठोर (stiff) नज़र आई हैं, लेकिन सभी को यह बात याद रखनी चाहिए कि एक ग़ैर हिन्दी भाषी के लिए एक नई इन्डस्ट्री में पहली बार काम करना उतना आसान नहीं होता जितना प्रतीत होता है। फिर भी इन छोटी-मोटी कमियों के बावजूद उनके द्वारा निभाए आशा का किरदार बेदाग़ है, बेमिसाल है। यह कहते हुए ज़रा सी भी हिचकिचाहट नहीं कि ’आप की परछाइयाँ’ में सुप्रिया चौधरी का होना एक सुखद अनुभूति है, जो इस पूरी फ़िल्म को सुन्दर बनाती है।
1964 में सुप्रिया चौधरी की बतौर नायिका तीसरी और अन्तिम हिन्दी फ़िल्म आई ’दूर गगन की छाँव में’। यह पूरी तरह से किशोर कुमार की फ़िल्म थी। निर्माता, निर्देशक, लेखक, संगीतकार, गायक और अभिनेता के रूप में किशोर कुमार ने इस फ़िल्म के हर कोने में अपनी छाप छोड़ दी। फ़िल्म की मुख्य भूमिकाओं में हैं किशोर कुमार, अमित कुमार और सुप्रिया चौधरी। फ़िल्म की कहानी बहुत सीधी है। शंकर (किशोर) एक सैनिक है जो एक युद्ध से वापस लौट कर देखता है कि उसका घर तबाह हो चुका है, उसकी पत्नी आग में जल रही है, और इस भयानक हादसे से उसका बेटा रामू (अमित कुमार) अपने बोलने की शक्ति गँवा चुका है। यह फ़िल्म पूर्णत: पिता-पुत्र की कहानी है। यह कहानी है एक लाचार पिता द्वारा अपने बेटे की आवाज़ वापस दिलवाने के प्रयासों की। पिता-पुत्र की इस भावुक दर्द भरी कहानी में किसी तीसरे चरित्र का अपने अभिनय से छाप छोड़ जाना कोई आसान काम नहीं था। ऐसे में मीरा की भूमिका में सुप्रिया चौधरी का इस फ़िल्म में होना बेहद सुखद अनुभव रहा। ख़ूबसूरत सुप्रिया चौधरी ने अपनी सशक्त स्क्रीन प्रेज़ेन्स के माध्यम से पिता-पुत्र की इस कहानी में भी अपनी अलग जगह बनाई, जिसके लिए ख़ुद किशोर कुमार ने भी उनकी बेहद सराहना की। फ़िल्म में मीरा का चरित्र एक ऐसी उदार औरत का चरित्र था जो मातृहीन रामू को माँ जैसा प्यार करती थीं। रामू के पिता शंकर के लिए भी उसके मन में प्यार था। इस फ़िल्म में आशा भोसले के गाए दो बेहद ख़ूबसूरत गीत थे जो सुप्रिया चौधरी पर फ़िल्माए गए। पहला गीत एक लोरी है "खोया खोया चंदा खोये खोये तारे", रामू द्वारा मीरा को पहली बार माँ कहे जाने पर मीरा ख़ुशी से यह लोरी गाती है। पहली बार "माँ" कहे जाने पर एक औरत को किस तरह की ख़ुशी मिल सकती है, सुप्रिया चौधरी ने इस गीत के शुरुआती शॉट में यह दर्शाया है। और दूसरा गीत एक ग़मज़दा नग़मा है "पथ भूला इक आया मुसाफ़िर", जो स्वयं आशा भोसले का पसन्दीदा गीत रहा है। शैलेन्द्र के असरदार बोलों और किशोर कुमार के भावुक संगीत ने फ़िल्म के हर एक गीत को बहुत ऊँचे मुकाम तक पहुँचाया है।
यह तो सर्वविदित है कि किशोर कुमार बंगाली खाने के बहुत शौकीन थे। उन्हें यह भी पता था कि सुप्रिया चौधरी बहुत अच्छा खाना बनाती हैं। बस फिर क्या था, ’दूर गगन की छाँव में’ की शूटिंग् के दिनों किशोर दा की फ़रमाइश पर सुप्रिया देवी अक्सर मछली के तरह तरह के पकवान बना कर अपने साथ ले आती थीं सेट पर। यही नहीं, किशोर कुमार जब भी कोलकाता जाते थे, वो अभिनेता उत्तम कुमार के घर पर मछली खाने जाते। अगर उत्तम कुमार और सुप्रिया देवी मुंबई के दौरे पर भी क्यों ना हो, अगर किशोर उस समय कोलकाता में होते, तो भी वो उत्तम कुमार के घर जाकर मछली बनवाते। सुप्रिया चौधरी ने एक साक्षात्कार में बताया था कि किस तरह से एक बार किशोर दा उनके बनाए झिंगा मछली और भेटकी मछली के पकवानों को खा कर तृप्त हुए थे। किशोर कुमार के अलावा मुंबई के एक और शख़्स जो सुप्रिया चौधरी के "पाक दक्षता" के कायल थे, वो थे अभिनेता संजीव कुमार। वो भी कोलकाता दौरों के समय एक दिन उत्तम-सुप्रिया के घर पर खाना ज़रूर खाते। एक बार सुप्रिया देवी के बनाए काजु चिकन खा कर वो इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने कहा था कि ऐसा पकवान उन्होंने ज़िन्दगी में इससे पहले कभी नहीं खाया, किसी पाँच सितारा होटल में भी नहीं।
ख़ैर, वापस आते हैं सुप्रिया चौधरी अभिनीत हिन्दी फ़िल्मों की चर्चा पर। इसे क़िस्मत का खेल ही समझिए या फिर कुछ और, इन तीनों फ़िल्मों में उनके अभिनय की भूरी भूरी प्रशंसा तो हुई, लेकिन बॉक्स ऑफ़िस पर इन फ़िल्मों के पिट जाने की वजह से सुप्रिया चौधरी हिन्दी सिने जगत की पहली श्रेणी की नायिका का दर्जा ना हासिल कर सकीं। उन्हें लगा कि बांग्ला फ़िल्म उद्योग ही उनके लिए सही है, और उन्होंने एक बार फिर वहीं का रुख़ कर लिया। और इस तरह से हिन्दी सिनेमा में सुप्रिया चौधरी केवल तीन फ़िल्मों की नायिका बन कर रह गईं। सुप्रिया चौधरी आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन रुपहले परदे पर उनकी शख़्सियत हमेशा जगमगाती रहेंगी। ’रेडियो प्लेबैक इंडिया’ की तरफ़ से स्वर्गीया सुप्रिया चौधरी को विनम्र श्रद्धा-सुमन!!
आख़िरी बात
’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!
शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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