रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! स्वागत है आप सभी का ’चित्रकथा’ स्तंभ में। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें हम लेकर आते हैं सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े विषय। श्रद्धांजलि, साक्षात्कार, समीक्षा, तथा सिनेमा के विभिन्न पहलुओं पर शोधालेखों से सुसज्जित इस साप्ताहिक स्तंभ की आज 53-वीं कड़ी है।
4 जनवरी 2018 को सुप्रसिद्ध संतूर वादक पंडित उल्हास बापट और 15 जनवरी 2018 को फ़िल्मी गीतों में रेसो रेसो वाद्य के भीष्म पितामह व जाने-माने संगीत संयोजक व वादक श्री अमृतराव काटकर का निधन हो गया। संयोग की बात है कि इन दोनों संगीत महारथियों ने संगीतकार राहुल देव बर्मन के साथ लम्बा सफ़र तय किया, और उससे भी आश्चर्य की बात यह है कि 4 जनवरी को राहुल देव बर्मन की भी पुण्यतिथि है। इस दुनिया-ए-फ़ानी को छोड़ कर जाने के लिए इन दोनों शिल्पियों ने साल का लगभग वही दिन चुना जिस दिन पंचम इस दुनिया को छोड़ गए थे। आइए आज ’चित्रकथा’ में पंडित उल्हास बापट और श्री अमृतराव काटकर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए राहुल देव बर्मन के साथ उनके संगीत सफ़र पर नज़र डालें।
4 जनवरी 2018 को सुप्रसिद्ध संतूर वादक पंडित उल्हास बापट और 15 जनवरी 2018 को फ़िल्मी गीतों में रेसो रेसो वाद्य के भीष्म पितामह व जाने-माने संगीत संयोजक व वादक श्री अमृतराव काटकर का निधन हो गया। संयोग की बात है कि इन दोनों संगीत महारथियों ने संगीतकार राहुल देव बर्मन के साथ लम्बा सफ़र तय किया, और उससे भी आश्चर्य की बात यह है कि 4 जनवरी को राहुल देव बर्मन की भी पुण्यतिथि है। इस दुनिया-ए-फ़ानी को छोड़ कर जाने के लिए इन दोनों शिल्पियों ने साल का लगभग वही दिन चुना जिस दिन पंचम इस दुनिया को छोड़ गए थे। आइए आज ’चित्रकथा’ में पंडित उल्हास बापट और श्री अमृतराव काटकर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए राहुल देव बर्मन के साथ उनके संगीत सफ़र पर नज़र डालें।
संतूर एक ऐसा वाद्य है जो रुद्र वीणा, सितार, सरोद और सारंगी जितना पुराना नहीं है। और यही कारण है कि संतूर के घराने नहीं बने जिस वजह से संतूर वादकों के पास खुला मैदान है प्रयोगों के लिए। पंडित शिव कुमार शर्मा का नाम संतूर में सर्वोपरि ज़रूर है लेकिन बीते दशकों में कुछ और बड़े कलाकार भी हुए हैं इस वाद्य के। इनमें एक महत्वपूर्ण नाम पंडित उल्हास बापट का है जिन्होंने संतूर में एक नई धारा लेकर आए। 67 वर्ष की आयु में उनके इस दुनिया से चले जाने से संतूर जगत को ऐसी क्षति पहुँची है जिसकी भरपाई होना मुश्किल है। पंडित बापट ने अपना संगीत सफ़र तबले से शुरु किया रमाकान्त म्हापसेकर के पास। 1973 में एक दिन अचानक उन्होंने एक साज़ों की दुकान में संतूर वाद्य को देखा और बिना कुछ सोचे उसे ख़रीद लाए। बिना किसी औपचारिक गुरु के, पंडित बापट ने अपने आप ही उसे बजाना शुरु किया हारमोनियम के नियमों को ध्यान में रख कर। आगे चल कर उन्होंने विभिन्न रागों को बजाया और यही नहीं रागों को आपस में मिला कर यौगिक रागों का सृजन किया। उन्होंने संतूर के कलमों में कुछ ऐसे बदलाव किए जिससे दो मींड के बीच जो अन्तराल या ख़ाली जगह होता था, वो ग़ायब हो गया। यही नहीं, पंडित जी ने कलमों के अन्त में एक मेटल स्ट्रिप भी जोड़ा जिससे कि दोनों में से किसी एक को संतूर के तार से घिसते हुए दूसरे को तार पर मारा जा सके। पंडित उल्हास बापट शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान ततो दिया ही है, साथ ही साथ फ़िल्म संगीत में उनके योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता। ख़ास तौर से राहुल देव बर्मन के साथ उन्होंने एक लम्बी पारी खेली और पंचम के तमाम यादगार गीतों को अपने दिलकश संतूर के टुकड़ों से सजाया।
पंचम के तमाम गीतों में हमने संतूर के यादगार टुकड़े सुने हैं, लेकिन हम में से शायद बहुत कम ही लोग ऐसे होंगे जिन्हें पता होगा कि इन टुकड़ों को दरसल पंडित उल्हास बापट ने बजाया है। पंचम के साथ पंडित बापट का सफ़र शुरु हुआ था 1978 की फ़िल्म ’घर’ से। पंडित शिव कुमार शर्मा ने भी पंचम के साथ काम किया है जिसमें "काली पलक तेरी गोरी", "करवटें बदलते रहे सारी रात हम", "प्यार के दिन आए काले बादल छाये", "ये लड़का हाय अलाह कैसा है दीवाना" जैसे गीत शामिल हैं। पंडित बापट के बजाए गीतों में "राह पे रहते हैं यादों पे बसर करते हैं" (नमकीन), "हुज़ूर इस क़दर भी ना इतरा के चलिए" (मासूम), "मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है" (इजाज़त), "जाने क्या बात है, नींद नहीं आती" (सनी), "तेरे लिए पलकों की झालर बुनूँ" (हरजाई), "रिमझिम रिमझिम रुमझुम रुमझुम" (1942 A Love Story), "प्यार हुआ चुपके से" (1942 A Love Story), "सीली हवा छू गई" (लिबास) जैसे यादगार गीत शामिल हैं। पंडित उल्हास बापट एक ऐसे संतूर वादक थे जिन्हे क्रोमेटिक ट्युनिंग् की महारथ हासिल थी। 12 सुरों को अगर लगातार बजाया जाता रहे तो वो क्रोमेटिक ट्युनिंग् जैसा सुनाई देता है। पंडित बापट अकेले ऐसे कलाकार रहे जो संतूर पर इस तरह की ट्युनिंग् कर पाते थे और यही कारण था कि वो किसी भी स्केल के गीत को आसानी से संतूर पर बजा लेते थे, जो सामान्यत: संतूर पर बहुत मुश्किल होता है। उदाहरण के तौर पर 1981 की फ़िल्म ’ज़माने को दिखाना है’ के मशहूर गीत "दिल लेना खेल है दिलदार का" शुरु होता है डी स्केल से और पंडित जी का संतूर आता है सी-स्केल पर। लेकिन क्योंकि वो एक क्रोमेटिक ट्युनर थे, वो दोनो सेक्शन बजा लेते थे।
क्रोमेटिक ट्युनिंग् जैसी मुश्किल विधा के अलावा पंडित उल्हास बापट ने संतूर की एक तकनीक का आविष्कार भी किया जिसका पेटेण्ट उनके पास है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में इसे मींड कहा जाता है जिसमें एक सुर से दूसरे सुर पर बिना अन्तराल के जाया जा सकता है। संतूर के कलमों में कुछ बदलाव करके पंडित बापट ने मींड को संतूर में साकार किया और पहली बार 1982 की फ़िल्म ’अंगूर’ के गीत "होठों पे बीती बात" में प्रयोग किया। यह पहला अवसर था कि जब पंचम ने उन्हें अपने गीत में मींड तकनीक प्रयोग करने का मौका दिया। इस गीत में यह प्रयोग इतना खरा उतरा कि पंचम ने चिल्लाते हुए कहा, "यह लड़का ने क्या कमाल किया है, संतूर पे मींड लाया है!" पंचम ख़ुद भी एक प्रयोगधर्मी संगीतकार थे, इसलिए पंडित बापट के साथ उनकी ट्युनिंग् ख़ूब जमी। 1987 के प्राइवेट ऐल्बम ’दिल पड़ोसी है’ में भी इसी मींड पद्धति का प्रयोग किया गया है। पंचम के अलावा पंडित बापट ने कई और संगीतकारों के गीतों में भी बजाया है जिनमें एक उल्लेखनीय नाम है रवीन्द्र जैन का। उनके साथ पहली बार 1979 की फ़िल्म ’सुनैना’ के पार्श्व-संगीत में उन्होंने बजाया। ’राम तेरी गंगा मैली’ के गीतों और पार्श्व-संगीत में भी पंडित बापट के सुमधुर संतूर के पीसेस सुनाई देते हैं। रवीन्द्र जैन के साथ उन्होंने लगभग 40 फ़िल्मों में काम किया है। पंडित उल्हास बापट ने 2004 की फ़िल्म ’वीर ज़ारा’ में भी बजाया, फ़िल्म के मुख्य गीत "तेरे लिए हम हैं जिये" के शुरुआती संगीत में ही उनके संतूर की ध्वनियों ने ऐसा समा बांधा कि सुनने वाले उसमें बहते चले गए। एक लम्बी बीमारी के बाद पंडित बापट इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गए, पर पीछे छोड़ गए संतूर और संगीत का एक ऐसा ख़ज़ाना जो आने वाली पीढ़ियों को मार्ग दिखाता रहेगा। पंडित उल्हास बापट की पुण्य स्मृति को ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ का विनम्र नमन!
राहुल देव बर्मन के संगीत में कई महत्वपूर्ण साज़िन्दों, संगीत संयोजकों और सहायकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मारुति राव, होमी मुल्ला, रणजीत गज़मर, बासुदेव चक्रबर्ती, मनोहारी सिंह, फ़्रैंको वाज़, रमेश अय्यर के साथ साथ एक महत्वपूर्ण नाम अमृतराव काटकर का भी है। अमृतराव काटकर एक ऐसे संगीत शिल्पि थे जो पंचम के साथ शुरु से ही जुड़े हुए थे और पंचम के ’रेसो-रेसो’ (Reso Reso) नामक वाद्य में जान फूंकने का श्रेय अमृतराव को जाता है। 15 जनवरी 2018 को अमृतराव काटकर के इस दुनिया-ए-फ़ानी से चले जाने से पंचम बैण्ड का एक और महत्वपूर्ण सदस्य हमसे बिछड़ गया। पंचम के गीतों में इस वाद्य का जितना प्रयोग हुआ, शायद ही किसी अन्य संगीतकार के गीतों में उससे पहले हुआ होगा। और इस दिशा में अमृतराव साहब का महत्वपूर्ण योगदान रहा। रेसो-रेसो मूलत: एक अफ़्रीकन वाद्य है जिसे ’स्क्रेपर’ (scraper) भी कहा जाता है। इस वाद्य को अतिरिक्त या सहायक रीदम के तौर पर प्रयोग किया जाता है जिससे कि मूल ताल या रीदम को अतिरिक्त धार या तिगुना गति मिल जाती है। रेसो वाद्य खोखले बाँस का बना होता है, एक पाइप के आकार में। निर्धारित दूरियों पर स्केल चिन्हित किया जाता है। जब इसका इस्तमाल कंघी जैसे किसी सपाट स्ट्रिप के साथ किया जाता है तो इससे बहुत ही तीक्ष्ण ध्वनि उत्पन्न होती है। इस अतिरिक्त रीदम को ’साइड रीदम’ भी कहा जाता है। पंचम के गीतों में साइड रीदम के लिए रेसो के अलावा खंजिरी, कब्बाज़ आदि का प्रयोग भी काफ़ी हुआ है। उनके गीतों में रेसो का प्रयोग 1965 की फ़िल्म ’तीसरी मंज़िल’ के गीतों से ही शुरु हो गया था। "आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा", "ओ मेरे सोना रे" और "ओ हसीना ज़ुल्फ़ों वाली" में रेसो का साइड रीदम में इस्तमाल महसूस किया जा सकता है। लेकिन जिस गीत में रेसो का प्रयोग सबसे ज़्यादा प्रॉमिनेण्ट रहा, वह था "मेरे सामने वाली खिड़की में"। इस गीत की शुरुआत में किशोर कुमार के आलाप और उन सात खंबों के बाद रेसो ही पूरे रीदम पर हावी रहता है। यूं तो रेसो को मुख्य रीदम के सहारे के रूप में प्रयोग किया जाता है, लेकिन पंचम ने उल्टा रुख़ अपनाया और रेसो को ही रीदम का मुख्य वाद्य बना लिया। ’पड़ोसन’ के इस गीत में केश्टो मुखर्जी द्वारा झाड़ू पर कंघी बजाने वाले जगह में दरसल रेसो पर कंघी पा प्रयोग होता है।
पंचम के गीतों में रेसो के महत्वपूर्ण प्रयोग के बारे में हमने जाना, लेकिन इन सब के पीछे जिस व्यक्ति का सबसे बड़ा योगदान रहा है, वो अमृतराव काटकर हैं, जिन्हें सभी प्यार से अमृत काका कह कर बुलाते थे। वो असल में एक तबला वादक थे लेकिन पंचम और उनके रीदम सेक्शन के प्रमुख मारुतिराव कीरजी ने उन्हें रेसो वादक बना दिया। अमृतराव ने इस चुनौती को स्वीकार किया और जल्दी ही उन्होंने एक अपना अलग स्टाइल बना लिया रेसो के इस्तमाल का। उन्होंने इस विधा में ऐसी महारथ हासिल की कि आज वो भारत के शीर्ष के रेसो वादक के रूप में जाने जाते हैं। एक तबला वादक को रेसो वादक के रूप में स्थापित करने में पंचम और उनके गीतों का बड़ा हाथ रहा है। कंघी बजाने जैसी आवाज़ें पंचम के गीतों में कई बार सुनने को मिला है, जो रेसो की ध्वनियाँ हैं, और इन सबके पीछे हैं अमृतराव काटकर। ’कटी पतंग’ के "मेरा नाम है शबनम" गीत तो पूर्णत: रेसो और बॉंगो पर आधारित है। फ़िल्म ’सागर’ का गीत "सच मेरे यार है" भी तो रेसो से ही शुरु होता है। अमृतराव ने 1982-83 के आसपास रेसो के प्रयोग में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया। गीत था ’सनम तेरी कसम’ का "जानेजाँ ओ मेरी जानेजाँ"। पारम्परिक बाँस के बने रेसो के स्थान पर वो लेकर आए धातु से बना रेसो। गीत के दूसरे इन्टरल्युड संगीत में इस नए रेसो को सुना व महसूस किया जा सकता है।
यूं तो एक अफ़्रीकन साज़ होने की वजह से रेसो का इस्तमाल साधारणत: उन गीतों में होता है जो तेज़ गति या तेज़ रीदम का हो, या कैबरे किस्म का कोई गीत हो, लेकिन पंचम और अमृतराव ने मिल कर रेसो को शास्त्रीय संगीत आधारित रचनाओं में भी प्रयोग किया और इस तरह के गीतों को एक नया रूप मिला। ’ख़ूबसूरत’ फ़िल्म के गीत "पिया बावरी पी कहाँ", ’अमर प्रेम’ के गीत "चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये", ’जुर्माना’ के गीत "सावन के झूले पड़े तुम चले आओ" और ’महबूबा" के गीत "मेरे नैना सावन भादों" में रेसो का प्रयोग करके इन दोनों ने सभी को चमत्कृत कर दिया। कितने आश्चर्य की बात है कि पंचम की पुण्यतिथि 4 जनवरी है और उनके ये दिग्गज साज़िंदे भी जनवरी के महीने में ही इस फ़ानी दुनिया को छोड़ कर जा रहे हैं। 4 जनवरी को पंडित उल्हास बापट और 15 जनवरी को अमृतराव काटकर के चले जाने से यूं लगा कि जैसे ये दोनों पंचम से ही फिर एक बार मिलने के लिए अपनी अपनी अनन्त यात्रा पर निकल पड़े हों। इन दो महान संगीत साधकों को ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ करती है झुक कर सलाम!
पंचम के तमाम गीतों में हमने संतूर के यादगार टुकड़े सुने हैं, लेकिन हम में से शायद बहुत कम ही लोग ऐसे होंगे जिन्हें पता होगा कि इन टुकड़ों को दरसल पंडित उल्हास बापट ने बजाया है। पंचम के साथ पंडित बापट का सफ़र शुरु हुआ था 1978 की फ़िल्म ’घर’ से। पंडित शिव कुमार शर्मा ने भी पंचम के साथ काम किया है जिसमें "काली पलक तेरी गोरी", "करवटें बदलते रहे सारी रात हम", "प्यार के दिन आए काले बादल छाये", "ये लड़का हाय अलाह कैसा है दीवाना" जैसे गीत शामिल हैं। पंडित बापट के बजाए गीतों में "राह पे रहते हैं यादों पे बसर करते हैं" (नमकीन), "हुज़ूर इस क़दर भी ना इतरा के चलिए" (मासूम), "मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है" (इजाज़त), "जाने क्या बात है, नींद नहीं आती" (सनी), "तेरे लिए पलकों की झालर बुनूँ" (हरजाई), "रिमझिम रिमझिम रुमझुम रुमझुम" (1942 A Love Story), "प्यार हुआ चुपके से" (1942 A Love Story), "सीली हवा छू गई" (लिबास) जैसे यादगार गीत शामिल हैं। पंडित उल्हास बापट एक ऐसे संतूर वादक थे जिन्हे क्रोमेटिक ट्युनिंग् की महारथ हासिल थी। 12 सुरों को अगर लगातार बजाया जाता रहे तो वो क्रोमेटिक ट्युनिंग् जैसा सुनाई देता है। पंडित बापट अकेले ऐसे कलाकार रहे जो संतूर पर इस तरह की ट्युनिंग् कर पाते थे और यही कारण था कि वो किसी भी स्केल के गीत को आसानी से संतूर पर बजा लेते थे, जो सामान्यत: संतूर पर बहुत मुश्किल होता है। उदाहरण के तौर पर 1981 की फ़िल्म ’ज़माने को दिखाना है’ के मशहूर गीत "दिल लेना खेल है दिलदार का" शुरु होता है डी स्केल से और पंडित जी का संतूर आता है सी-स्केल पर। लेकिन क्योंकि वो एक क्रोमेटिक ट्युनर थे, वो दोनो सेक्शन बजा लेते थे।
क्रोमेटिक ट्युनिंग् जैसी मुश्किल विधा के अलावा पंडित उल्हास बापट ने संतूर की एक तकनीक का आविष्कार भी किया जिसका पेटेण्ट उनके पास है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में इसे मींड कहा जाता है जिसमें एक सुर से दूसरे सुर पर बिना अन्तराल के जाया जा सकता है। संतूर के कलमों में कुछ बदलाव करके पंडित बापट ने मींड को संतूर में साकार किया और पहली बार 1982 की फ़िल्म ’अंगूर’ के गीत "होठों पे बीती बात" में प्रयोग किया। यह पहला अवसर था कि जब पंचम ने उन्हें अपने गीत में मींड तकनीक प्रयोग करने का मौका दिया। इस गीत में यह प्रयोग इतना खरा उतरा कि पंचम ने चिल्लाते हुए कहा, "यह लड़का ने क्या कमाल किया है, संतूर पे मींड लाया है!" पंचम ख़ुद भी एक प्रयोगधर्मी संगीतकार थे, इसलिए पंडित बापट के साथ उनकी ट्युनिंग् ख़ूब जमी। 1987 के प्राइवेट ऐल्बम ’दिल पड़ोसी है’ में भी इसी मींड पद्धति का प्रयोग किया गया है। पंचम के अलावा पंडित बापट ने कई और संगीतकारों के गीतों में भी बजाया है जिनमें एक उल्लेखनीय नाम है रवीन्द्र जैन का। उनके साथ पहली बार 1979 की फ़िल्म ’सुनैना’ के पार्श्व-संगीत में उन्होंने बजाया। ’राम तेरी गंगा मैली’ के गीतों और पार्श्व-संगीत में भी पंडित बापट के सुमधुर संतूर के पीसेस सुनाई देते हैं। रवीन्द्र जैन के साथ उन्होंने लगभग 40 फ़िल्मों में काम किया है। पंडित उल्हास बापट ने 2004 की फ़िल्म ’वीर ज़ारा’ में भी बजाया, फ़िल्म के मुख्य गीत "तेरे लिए हम हैं जिये" के शुरुआती संगीत में ही उनके संतूर की ध्वनियों ने ऐसा समा बांधा कि सुनने वाले उसमें बहते चले गए। एक लम्बी बीमारी के बाद पंडित बापट इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गए, पर पीछे छोड़ गए संतूर और संगीत का एक ऐसा ख़ज़ाना जो आने वाली पीढ़ियों को मार्ग दिखाता रहेगा। पंडित उल्हास बापट की पुण्य स्मृति को ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ का विनम्र नमन!
राहुल देव बर्मन के संगीत में कई महत्वपूर्ण साज़िन्दों, संगीत संयोजकों और सहायकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मारुति राव, होमी मुल्ला, रणजीत गज़मर, बासुदेव चक्रबर्ती, मनोहारी सिंह, फ़्रैंको वाज़, रमेश अय्यर के साथ साथ एक महत्वपूर्ण नाम अमृतराव काटकर का भी है। अमृतराव काटकर एक ऐसे संगीत शिल्पि थे जो पंचम के साथ शुरु से ही जुड़े हुए थे और पंचम के ’रेसो-रेसो’ (Reso Reso) नामक वाद्य में जान फूंकने का श्रेय अमृतराव को जाता है। 15 जनवरी 2018 को अमृतराव काटकर के इस दुनिया-ए-फ़ानी से चले जाने से पंचम बैण्ड का एक और महत्वपूर्ण सदस्य हमसे बिछड़ गया। पंचम के गीतों में इस वाद्य का जितना प्रयोग हुआ, शायद ही किसी अन्य संगीतकार के गीतों में उससे पहले हुआ होगा। और इस दिशा में अमृतराव साहब का महत्वपूर्ण योगदान रहा। रेसो-रेसो मूलत: एक अफ़्रीकन वाद्य है जिसे ’स्क्रेपर’ (scraper) भी कहा जाता है। इस वाद्य को अतिरिक्त या सहायक रीदम के तौर पर प्रयोग किया जाता है जिससे कि मूल ताल या रीदम को अतिरिक्त धार या तिगुना गति मिल जाती है। रेसो वाद्य खोखले बाँस का बना होता है, एक पाइप के आकार में। निर्धारित दूरियों पर स्केल चिन्हित किया जाता है। जब इसका इस्तमाल कंघी जैसे किसी सपाट स्ट्रिप के साथ किया जाता है तो इससे बहुत ही तीक्ष्ण ध्वनि उत्पन्न होती है। इस अतिरिक्त रीदम को ’साइड रीदम’ भी कहा जाता है। पंचम के गीतों में साइड रीदम के लिए रेसो के अलावा खंजिरी, कब्बाज़ आदि का प्रयोग भी काफ़ी हुआ है। उनके गीतों में रेसो का प्रयोग 1965 की फ़िल्म ’तीसरी मंज़िल’ के गीतों से ही शुरु हो गया था। "आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा", "ओ मेरे सोना रे" और "ओ हसीना ज़ुल्फ़ों वाली" में रेसो का साइड रीदम में इस्तमाल महसूस किया जा सकता है। लेकिन जिस गीत में रेसो का प्रयोग सबसे ज़्यादा प्रॉमिनेण्ट रहा, वह था "मेरे सामने वाली खिड़की में"। इस गीत की शुरुआत में किशोर कुमार के आलाप और उन सात खंबों के बाद रेसो ही पूरे रीदम पर हावी रहता है। यूं तो रेसो को मुख्य रीदम के सहारे के रूप में प्रयोग किया जाता है, लेकिन पंचम ने उल्टा रुख़ अपनाया और रेसो को ही रीदम का मुख्य वाद्य बना लिया। ’पड़ोसन’ के इस गीत में केश्टो मुखर्जी द्वारा झाड़ू पर कंघी बजाने वाले जगह में दरसल रेसो पर कंघी पा प्रयोग होता है।
पंचम के गीतों में रेसो के महत्वपूर्ण प्रयोग के बारे में हमने जाना, लेकिन इन सब के पीछे जिस व्यक्ति का सबसे बड़ा योगदान रहा है, वो अमृतराव काटकर हैं, जिन्हें सभी प्यार से अमृत काका कह कर बुलाते थे। वो असल में एक तबला वादक थे लेकिन पंचम और उनके रीदम सेक्शन के प्रमुख मारुतिराव कीरजी ने उन्हें रेसो वादक बना दिया। अमृतराव ने इस चुनौती को स्वीकार किया और जल्दी ही उन्होंने एक अपना अलग स्टाइल बना लिया रेसो के इस्तमाल का। उन्होंने इस विधा में ऐसी महारथ हासिल की कि आज वो भारत के शीर्ष के रेसो वादक के रूप में जाने जाते हैं। एक तबला वादक को रेसो वादक के रूप में स्थापित करने में पंचम और उनके गीतों का बड़ा हाथ रहा है। कंघी बजाने जैसी आवाज़ें पंचम के गीतों में कई बार सुनने को मिला है, जो रेसो की ध्वनियाँ हैं, और इन सबके पीछे हैं अमृतराव काटकर। ’कटी पतंग’ के "मेरा नाम है शबनम" गीत तो पूर्णत: रेसो और बॉंगो पर आधारित है। फ़िल्म ’सागर’ का गीत "सच मेरे यार है" भी तो रेसो से ही शुरु होता है। अमृतराव ने 1982-83 के आसपास रेसो के प्रयोग में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया। गीत था ’सनम तेरी कसम’ का "जानेजाँ ओ मेरी जानेजाँ"। पारम्परिक बाँस के बने रेसो के स्थान पर वो लेकर आए धातु से बना रेसो। गीत के दूसरे इन्टरल्युड संगीत में इस नए रेसो को सुना व महसूस किया जा सकता है।
यूं तो एक अफ़्रीकन साज़ होने की वजह से रेसो का इस्तमाल साधारणत: उन गीतों में होता है जो तेज़ गति या तेज़ रीदम का हो, या कैबरे किस्म का कोई गीत हो, लेकिन पंचम और अमृतराव ने मिल कर रेसो को शास्त्रीय संगीत आधारित रचनाओं में भी प्रयोग किया और इस तरह के गीतों को एक नया रूप मिला। ’ख़ूबसूरत’ फ़िल्म के गीत "पिया बावरी पी कहाँ", ’अमर प्रेम’ के गीत "चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये", ’जुर्माना’ के गीत "सावन के झूले पड़े तुम चले आओ" और ’महबूबा" के गीत "मेरे नैना सावन भादों" में रेसो का प्रयोग करके इन दोनों ने सभी को चमत्कृत कर दिया। कितने आश्चर्य की बात है कि पंचम की पुण्यतिथि 4 जनवरी है और उनके ये दिग्गज साज़िंदे भी जनवरी के महीने में ही इस फ़ानी दुनिया को छोड़ कर जा रहे हैं। 4 जनवरी को पंडित उल्हास बापट और 15 जनवरी को अमृतराव काटकर के चले जाने से यूं लगा कि जैसे ये दोनों पंचम से ही फिर एक बार मिलने के लिए अपनी अपनी अनन्त यात्रा पर निकल पड़े हों। इन दो महान संगीत साधकों को ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ करती है झुक कर सलाम!
आख़िरी बात
’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!
शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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