आज विजयदशमी का पावन पर्व हर्षोल्लास के साथ पूरे देश भर में मनाया जा रहा है। विजयदशमी, जिसे दशहरा भी कहा जाता है, बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इस शुभवसर पर ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हम अपने सभी श्रोताओं व पाठकों को देते हैं ढेरों शुभकामनाएँ और ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि इस संसार से बुराई समाप्त हो और चारों तरफ़ केवल अच्छाई ही अच्छाई हो; लोग एक दूसरे का सम्मान करें, कोई किसी को हानी ना पहुँचाएँ, ख़ुशहाली हो, हरियाली हो, बस! आइए आज इस पवित्र पर्व पर ’चित्रकथा’ में पढ़ें उन महत्वपूर्ण फ़िल्मों के बारे में जो रामायण की कहानी पर आधारित हैं।
पौराणिक फ़िल्मों का चलन मूक फ़िल्मों के दौर से ही शुरु हो चुका था। बल्कि यह कहना उचित होगा
कि 1920 के दशक में, जब मूक फ़िल्में बना करती थीं, उस समय पौराणिक विषय पर बनने वाली फ़िल्में बहुत लोकप्रिय हुआ करती थीं। रामायण पर आधारित मूक फ़िल्मों में सर्वाधिक लोकप्रिय फ़िल्म रही दादा साहब फाल्के द्वारा निर्मित फ़िल्म ’लंका दहन’। इसका निर्माण 1917 में हुआ। 1913 में ’राजा हरिश्चन्द्र’ का सफल निर्माण के बाद यह दादा साहब फाल्के की दूसरी फ़ीचर फ़िल्म थी। अभिनेता अन्ना सालुंके, जिन्होंने ’राजा हरिश्चन्द्र’ में रानी तारामती का रोल निभाया था, ’लंका दहन’ में दो दो किरदार निभाए। उन दिनों औरतों का फ़िल्मों में अभिनय करने को अच्छा नहीं माना जाता था, इसलिए अच्छे घर की लड़कियाँ फ़िल्मों में काम नहीं करती थीं। इसलिए अधिकतर नारी चरित्र पुरुष ही निभाया करते थे। उल्लेखनीय बात यह है कि ’लंका दहन’ में अन्ना सालुंके ने राम और सीता, दोनों ही चरित्र एक साथ निभाए, और इस तरह से ’डबल रोल’ का यह पहला उदाहरण किसी भारतीय फ़िल्म में दिखाई दिया। यहीं से भारतीय फ़िल्मों में डबल रोल की प्रथा शुरु हुई। इस फ़िल्म में हनुमान का किरदार गणपत जी. शिंडे ने निभाया था। ’लंका दहन’ फ़िल्म ज़बरदस्त हिट हुई। जब बम्बई में यह फ़िल्म थिएटरों में लगी, तब भगवान राम को परदे पर देखते ही दर्शक अपने जूते पैरों से उतार लेते थे। दादा साहब की ट्रिक फ़ोटोग्राफ़ी और स्पेशल इफ़ेक्ट्स ने दर्शकों को मन्त्रमुग्ध कर दिया था। फ़िल्म इतिहासकार अमृत गांगर के अनुसार सिनेमाघरों के टिकट काउन्टरों से सिक्कों को थैलों में भर भर कर बैल गाड़ियों के ज़रिए निर्माता के दफ़्तर तक पहुँचाया गया। बम्बई के मैजेस्टिक सिनेमा के बाहर लम्बी कतारें लगती थीं टिकटों के लिए। लोगों में हाथापाई के किस्से भी सुने गए। हाउसफ़ुल होने की वजह से दूर दराज़ के गावों से आने वाले बहुत से लोगों को जब टिकट नहीं मिलती तो निराश हो जाते थे।
मूक फ़िल्मों का दौर ख़त्म हुआ और सवाक फ़िल्में शुरु हो गईं। पौराणीक विषयों पर बनने वाली फ़िल्में अब तो और भी सर चढ़ कर बोलने लगीं। इस दौर में रामायण पर बनने वाली पहली फ़िल्म थी 1933 की ’रामायण’। फ़िल्म ’मदन थिएटर्स’ के बैनर तले बनी थी और जिसके संगीतकार थे उस्ताद झंडे ख़ाँ साहब। पृथ्वीराज कपूर व मुख़्तार बेगम अभिनीत इस फ़िल्म में मुख़्तार बेगम के गाए बहुत से गीत थे। इसके अगले ही साल 1934 में एक बार फिर से ’रामायण’ शीर्षक से फ़िल्म बनी। सुदर्शन और प्रफ़ुल्ल राय निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे दादीभाई सरकारी, राजकुमारी नायक (सीता की भूमिका में), देवबाला, इंदुबाला (मंथरा की भूमिका में), अब्दुल रहमान काबुली (रावण की भूमिका में) प्रमुख। इस फ़िल्म में संगीतकार नागरदास नायक ने संगीत दिया और इसमें उन्होने फ़िदा हुसैन से तुलसीदास कृत “श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन’ गवाया था। ‘रामायण’ हिंदू धर्म की सबसे महत्वपूर्ण महाकाव्य है और इस पर फ़िल्म बनाना आसान काम नहीं। और शायद उससे भी कठिन रहा होगा ‘रामायण’ का गीत-संगीत तय्यार करना। लेकिन नागरदास ने यह दायित्व भली-भाँति निभाया। फ़िदा हुसैन के गाये गीतों के अलावा राजकुमारी का गाया “भूल गये क्यों अवध बिहारी” भी एक बहुत ही सुंदर भक्ति रचना है। फ़िल्म के गीत लिखे पंडित सुदर्शन ने। 1935 की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म रही ’चन्द्रसेना’ जिसके निर्देशक थे व्ही. शांताराम, और जिसकी कहानी रामायण की एक कथा पर आधारित थी। इस फ़िल्म में भगवान राम की भूमिका निभाई सुरेश बाबू माणे ने और चन्द्रसेना के चरित्र में अभिनय किया नलिनी तरखड ने। प्रभात के बैनर तले निर्मित इस फ़िल्म के संगीतकार थे केशवराव भोले जिन्होंने इस फ़िल्म में अपने संगीत की अलग पहचान बनाते हुए “मदिरा छलकन लागी”, “रंगीली रसवाली” और “नेक ठहर मेरे मन अस आए” जैसे गीतों की रचना की जिन्हें लोगों ने ख़ूब पसंद किया। इसी फ़िल्म का निर्माण मराठी और तमिल भाषा में भी किया गया था। दरसल यह फ़िल्म 1931 की शान्ताराम की ही इसी शीर्षक की मराठी फ़िल्म की रीमेक थी।
भले तीस के दशक में बहुत सी ऐसी फ़िल्में बनीं लेकिन रामायण पर आधारित जिस फ़िल्म ने अपनी ख़ास पहचान बनाई वह थी 1943 की ’राम राज्य’। विजय भट्ट निर्देशित इस फ़िल्म में राम-सीता के चरित्र में प्रेम अदीब और शोभना समर्थ ने चारों तरफ़ धूम मचा दी और उस वर्ष बॉक्स ऑफ़िस पर यह फ़िल्म तीसरे नंबर पर थी। किसी पौराणीक विषय पर बनने वाली फ़िल्म का इससे पहले इस तरह की सफलता देखी नहीं गई थी। यह फ़िल्म इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण थी क्योंकि यह वह एकमात्र फ़िल्म थी जिसे महात्मा गांधी ने देखी थी। और यह पहली भारतीय फ़िल्म थी जिसका प्रदर्शन संयुक्त राज्य अमरीका में हुआ था। वाल्मिकी रचित रामायण का फ़िल्मीकरण किया लेखक कानु देसाई ने। शंकर राव व्यास फ़िल्म के संगीतकार थे और फ़िल्म के कुछ गीत बेहद लोकप्रिय हुए थे जैसे कि सरस्वती राणे का गाया "वीणा मधुर मधुर कछु बोल"। फ़िल्म के गीत लिखे रमेश गुप्ता ने, तथा गीतों में आवाज़ें दीं अमीरबाई कर्णाटकी, मन्ना डे और सरस्वती राणे ने। इसी फ़िल्म का पुनर्निर्माण (रीमेक) विजय भट्ट ने सन् 1967 में इसी शीर्षक से किया। राम और सीता की भूमिका में इस बार चुने गए कुमारसेन और बीना राय। शंकर राव व्यास की जगह संगीत का भार संभाला वसन्त देसाई ने और गीत लिखे भरत व्यास ने। भरत व्यास पौराणिक फ़िल्मों के गीतकार के रूप में जाने जाते रहे हैं। इस फ़िल्म की ख़ास बात यह रही कि इसमें वाल्मिकी रामायण भी है, तुल्सीदास रामचरितमानास भी और भावभूति के नाटक ’उत्तर रामचरित’ का स्वाद भी मिलता है। इस बार यह फ़िल्म रंगीन फ़िल्म थी। ’Illustrated Weekly of India' के अनुसार बीना राय द्वारा सीता के किरदार को दर्शकों ने पसन्द नहीं किया। इस फ़िल्म का लता मंगेशकर का गाया "डर लागे गरजे बदरिया सावन की..." बहुत लोकप्रिय हुआ। फ़िल्म में बहुत से गीत थे जिनमें आवाज़ें थीं लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी, सुमन कल्याणपुर, उषा तिमोथी, और मन्ना डे की।
1961 में बनी बाबूभाई मिस्त्री निर्देशित महत्वाकांक्षी फ़िल्म ’सम्पूर्ण रामायण’ जिसमें भगवान राम के चरित्र में थे महिपाल और सीता के चरित्र में थीं अनीता गुहा। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर सफल रही और 1943 के ’राम राज्य’ के बाद भगवान राम पर बनने वाली फ़िल्मों में यही फ़िल्म सर्वाधिक सफ़ल रही। स्पेशल इफ़ेक्ट्स के लिए मशहूर बाबूभाई मिस्त्री ने इस फ़िल्म में ऐसे ऐसे करिश्मे दर्शकों को परदे पर दिखाए जो उस ज़माने के हिसाब से आश्चर्यजनक थे। इस फ़िल्म ने अभिनेत्री अनीता गुहा को घर घर में चर्चा का विषय बना दिया। लता मंगेशकर के गाए दो गीत "सन सनन, सनन, जा रे ओ पवन" तथा "बादलों बरसो नयन की ओर से" अपने ज़माने के मशहूर गीतों में से थे। फ़िल्म के अन्य गायक थे मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर और आशा भोसले। इस फ़िल्म के अन्य चरित्रों में भी कई जानेमाने नाम शामिल हैं जैसे कि ललिता पवार (मंथरा), हेलेन (सुर्पनखा), अचला सचदेव (कौशल्या) आदि। आगे चल कर जब दूरदर्शन के लिए ’रामायण’ धारावाहिक की योजना बनी तब मंथरा के किरदार के लिए एक बार फिर से ललिता पवार को ही चुना गया।
70 के दशक में रामायण आधारित दो फ़िल्में आईं जो तेलुगू-हिन्दी डबल वर्ज़न फ़िल्में थीं। 1976 में आई ’सीता स्वयंवर’ जो पहले तेलुगू में ’सीता कल्याणम’ शीर्षक से बनी और दूसरी फ़िल्म थी 1977 की ’श्री राम वनवास’। दूसरी फ़िल्म पहली की सीक्वील थी और दोनों फ़िल्मों का निर्माण ’आनन्द लक्ष्मी आर्ट मूवीज़’ के बैनर तले ही हुआ था। इन फ़िल्मों में श्री राम की भूमिका में रवि कुमार थे और सीता की भूमिका में जया प्रदा। बापू निर्देशित ’सीता कल्याणम’ को उस साल का फ़िल्मफ़ेअर पुरस्कार मिला था सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए। इस फ़िल्म का प्रदर्शन 1978 में BFI London Film Festival, Chicago International Film Festival, San Reno and Denver International Film Festivals में हुआ था तथा British Film Institute के पाठ्यक्रम में इस फ़िल्म को शामिल किया गया है। ’श्री राम वनवास’ का निर्देशन किया था कमलाकर कमलेश्वर राव ने जबकि बाकी के टीम मेम्बर्स वही थे। इन दोनों फ़िल्मों में संगीत दिया के. वी. महादेवन ने और गीत लिखे मधुकर ने। गीतों में आवाज़ें थीं वाणी जयराम, बी. वसन्था, महेन्द्र कपूर की। 90 और बाद के दशकों में रामायण की कहानियों पर कई ऐनिमेटेद फ़िल्में बनीं जो अन्तराष्ट्रीय स्तर पर जा पहुँची। उदाहरण के लिए 1992 की ऐनिमेटेद फ़िल्म ’रामायणा: दि लिजेन्ड ऑफ़ प्रिन्स रामा’ जिसका निर्माण हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी और जापानी भाषाओं में हुआ।
अन्ना सालुंके |
मूक फ़िल्मों का दौर ख़त्म हुआ और सवाक फ़िल्में शुरु हो गईं। पौराणीक विषयों पर बनने वाली फ़िल्में अब तो और भी सर चढ़ कर बोलने लगीं। इस दौर में रामायण पर बनने वाली पहली फ़िल्म थी 1933 की ’रामायण’। फ़िल्म ’मदन थिएटर्स’ के बैनर तले बनी थी और जिसके संगीतकार थे उस्ताद झंडे ख़ाँ साहब। पृथ्वीराज कपूर व मुख़्तार बेगम अभिनीत इस फ़िल्म में मुख़्तार बेगम के गाए बहुत से गीत थे। इसके अगले ही साल 1934 में एक बार फिर से ’रामायण’ शीर्षक से फ़िल्म बनी। सुदर्शन और प्रफ़ुल्ल राय निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे दादीभाई सरकारी, राजकुमारी नायक (सीता की भूमिका में), देवबाला, इंदुबाला (मंथरा की भूमिका में), अब्दुल रहमान काबुली (रावण की भूमिका में) प्रमुख। इस फ़िल्म में संगीतकार नागरदास नायक ने संगीत दिया और इसमें उन्होने फ़िदा हुसैन से तुलसीदास कृत “श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन’ गवाया था। ‘रामायण’ हिंदू धर्म की सबसे महत्वपूर्ण महाकाव्य है और इस पर फ़िल्म बनाना आसान काम नहीं। और शायद उससे भी कठिन रहा होगा ‘रामायण’ का गीत-संगीत तय्यार करना। लेकिन नागरदास ने यह दायित्व भली-भाँति निभाया। फ़िदा हुसैन के गाये गीतों के अलावा राजकुमारी का गाया “भूल गये क्यों अवध बिहारी” भी एक बहुत ही सुंदर भक्ति रचना है। फ़िल्म के गीत लिखे पंडित सुदर्शन ने। 1935 की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म रही ’चन्द्रसेना’ जिसके निर्देशक थे व्ही. शांताराम, और जिसकी कहानी रामायण की एक कथा पर आधारित थी। इस फ़िल्म में भगवान राम की भूमिका निभाई सुरेश बाबू माणे ने और चन्द्रसेना के चरित्र में अभिनय किया नलिनी तरखड ने। प्रभात के बैनर तले निर्मित इस फ़िल्म के संगीतकार थे केशवराव भोले जिन्होंने इस फ़िल्म में अपने संगीत की अलग पहचान बनाते हुए “मदिरा छलकन लागी”, “रंगीली रसवाली” और “नेक ठहर मेरे मन अस आए” जैसे गीतों की रचना की जिन्हें लोगों ने ख़ूब पसंद किया। इसी फ़िल्म का निर्माण मराठी और तमिल भाषा में भी किया गया था। दरसल यह फ़िल्म 1931 की शान्ताराम की ही इसी शीर्षक की मराठी फ़िल्म की रीमेक थी।
प्रेम अदीब |
महिपाल |
रवि कुमार - जया प्रदा |
आख़िरी बात
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शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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