एक ज़माना था जब हिन्दी फ़िल्मी गीतों में शास्त्रीय रागों का समावेश होता था। राग आधारित रचनाओं ने उन फ़िल्मों के ऐल्बमों के स्तर को ही केवल उपर नहीं उठाया बल्कि सुनने वालों को भी मंत्रमुग्ध कर दिया। फिर धीरे धीरे बदलते समय के साथ-साथ फ़िल्मी गीतों का चदल बदला; पाश्चात्य संगीत उस पर हावी होने लगा और 80 के दशक के आते-आते जैसे शास्त्रीय संगीत फ़िल्मी गीतों से पूरी तरह से ग़ायब ही हो गया। फिर भी समय-समय पर फ़िल्म की कहानी, चरित्र और ज़रूरत के हिसाब से भारतीय शास्त्रीय संगीत आधारित रचनाएँ हमारी फ़िल्मों में आती रही हैं। आज के दौर की फ़िल्मों में भी कई गीत शास्त्रीय संगीत की छाया लिए होते हैं। भले इनमें रागों का शुद्ध रूप से प्रयोग ना हो, लेकिन एक छाया उनमें ज़रूर होती है। आज ’चित्रकथा’ के इस अंक में हम नज़र डालेंगे हाल के कुछ बरसों में बनने वाली फ़िल्मों के उन गीतों पर जिनमें भारतीय शास्त्रीय संगीत की छाया दिखाई देती है। इस लेख को तैयार करने में कृष्णमोहन मिश्र जी का विशेष योगदान रहा है।
वर्ष 2015 में एक फ़िल्म आई थी ’दम लगा के हइशा’ जिसके संगीतकार थे अनु मलिक। इस फ़िल्म में एक गीत है "ये मोह मोह के धागे, तेरी उंगलियों से जा उलझे"। इसके दो संस्करण हैं, एक मोनाली ठाकुर की आवाज़ में और दूसरा पापोन का गाया हुआ है। यह गीत शास्त्रीय संगीत की छाया लिए है जिसे लिखा है वरुण ग्रोवर ने। दोनों संस्करण अपनी अपनी जगह सुन्दर है, एक तरफ़ मोनाली की सुमधुर आवाज़ तो दूसरी तरफ़ पापोन का कशिश भरा अंदाज़। अनु मलिक ने हमेशा मेलडी प्रधान गीतों की रचना की है, यह गीत भी उन्हीं में से एक है और निस्संदेह उनके संगीत सफ़र की उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है। इस गीत की शुरुआत स्पष्ट यमन राग से होती है, किन्तु शीघ्र ही दोनों मध्यम स्वर लगा दिया गया है, इसीलिए यह यमन कल्याण और बाद में पूरिया धनाश्री की अनुभूति कराता है। अनु मलिक के संगीत में ढल कर 2017 की एक चर्चित फ़िल्म आई ’बेगम जान’। इस फ़िल्म के ऐल्बम में एक होली गीत है "होली खेले बृज की हर बाला" जिसे श्रीया घोषाल और अनमोल मलिक ने गाया है। शास्त्रीय संगीत आधारित यह नृत्य प्रधान गीत निस्संदेह एक अरसे के बाद आने वाले स्तरीय होली गीतों में से एक है। जहाँ तक राग की बात है, इस गीत में राग सारंग का प्रकार अनुभव किया जा सकता है। श्रेया की मधुर आवाज़ और अनमोल के रैप शैली के अन्तरे गीत को मज़ेदार बनाते हैं।
वर्ष 2016 में फ़िल्म आई थी ’रिबेलियस फ़्लावर’ जो ओशो के शुरुआती जीवन की कहानी पर आधारित है। फ़िल्म के संगीतकार हैं अमानो मनीष और गीतकार हैं जगदीश भारती। इस फ़िल्म में गायिका प्राचि दुबाले की आवाज़ में "काहे व्याकुल भये रे मनवा" दर्द के रंग में रंगी एक शास्त्रीय संगीत आधारित रचना है। यह एक पार्श्व गीत है और दृश्य में बैलगाड़ी में जा रहे हैं राजा, उसकी माँ और उसका नाना। नाना को दिल का दौरा पड़ा है और वो अपनी अन्तिम साँसे ले रहे हैं। गीत के बोल भी इस सिचुएशन को कॉम्प्लिमेन्ट कर रहे हैं जब जगदीश भारती लिखते हैं, "कौन रोक पाया है मुक्त पवनवा"। गीत के संगीत संयोजन में बाँसुरी और तबले का सुन्दर प्रयोग है और प्राचि दुबाले की आवाज़ में वह दर्द है जिसकी इस गीत को ज़रूरत थी। इस गीत में राग भैरव और राग कलिंगड़ा दोनों का अनुभव हो रहा है। दोनों ही रागों में एक समान स्वर ही लगते हैं। अन्तर बहुत मामूली है। 2016 के अप्रैल में अंग्रेज़ी शीर्षक वाली एक और फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी ’दि ब्लुबेरी हंट’ जिसमें नसीरुद्दीन शाह ने अभिनय किया था। फ़िल्म के संगीतकार हैं परेश कामत और नरेश कामत। ’रिबेलियस फ़्लावर’ की तरह ’दि ब्लुबेरी हंट’ को भी व्यावसायिक सफलता नहीं मिली, लेकिन दोनों फ़िल्मों की ख़ास बात यह रही कि इनके गाने बहुत ही सुरीले, भावुक और कर्णप्रिय रहे। परेश-नरेश के संगीत निर्देशन में गायिका तत्व कुंडलिनी ने एक शास्त्रीय आधारित रचना को गाया है जिसके बोल हैं “सजनवा, कैसी ख़ुमारी छायी बलमवा”। राग भैरवी की छाया लिए इस गीत में इसके गीतकार सौम्या ने भी आवाज़ मिलाई है। गीत के बोलों को शास्त्रीय अंदाज़ में गाया गया है जबकि संगीत संयोजन पूरी तरह से पाश्चात्य शैली का है। इस तरह से यह फ़्युज़न का उदाहरण है। अन्तरे की पंक्ति "अंधियारी रतिया, दिन उजियारा, पी गए हम तो इस्क का प्याला..." हमें "रात उजियारी दिन अंधेरा है, तू जो सजन नहीं मेरा है" गीत की याद दिला जाती है। कुल मिला कर एक सुन्दर रचना है पर मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि अगर पाश्चात्य संगीत की जगह भारतीय वाद्यों के प्रयोग से इसे पूर्णत: शास्त्रीय संगीत आधारित रचना के रूप में पेश किया जाता तो इसका स्तर कई गुणा बढ़ जाता। शायद आज की पीढ़ी को अपील करवाने के उद्देश्य से फ़्युज़न को चुना गया होगा!
2016 के मई में एक फ़िल्म आई थी ’बुड्ढा इन ए ट्रैफ़िक जैम’। इस फ़िल्म का गीत-संगीत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी है। पल्लवी जोशी की आवाज़ में "चन्द रोज़ और मेरी जाँ चन्द रोज़..." एक अनूठी रचना है। फ़िल्मी गीत की प्रचलित शैली से हट कर फ़ैज़ की इस शायरी को क्या ख़ूब अंजाम दिया है संगीतकार रोहित शर्मा ने और पल्लवी जोशी ने भी क्या ख़ूब निभाया है। राग बिहाग की छाया लिए इस गीत के पार्श्व में केवल हारमोनियम/सारंगी की मृदु ध्वनियों पर पल्लवी की साफ़ उचारण लिए फ़ैज़ के ये शेर सुनते हुए ऐसा लगता है कि जैसे हम किसी मुशायरे में पहुँच गए हैं। "चन्द रोज़ और मेरी जान फ़क़त चन्द ही रोज़, ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम, और कुछ देर सितम सह लें तड़प लें रो लें, अपने अज़दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम..."। शास्त्रीय गायन की छाया लिए पल्लवी जोशी की अदायगी वाक़ई कमाल की है। जी हाँ, ये वो ही पल्लवी जोशी हैं जिन्हें आप बरसों पहले दूरदर्शन के धारावाहिकों में देखा करते थे। 80 के दशक में मजरूह सुल्तानपुरी ने फ़ैज़ के इसी नज़्म की पहली पंक्ति का इस्तमाल ’सितम’ फ़िल्म के नग़में "चन्द रोज़ और मेरी जान चन्द रोज़" में किया था जिसे किशोर और लता ने गाया था। ख़ैर, वापस आते हैं 2016 में। अध्ययन सुमन अभिनीत फ़िल्म ’इश्क़ क्लिक’ में एक गीत है "का देखूँ मैं चाँद पिया रे, तू जो नज़र ना आए" जो राग खमाज पर आधारित रचना है। इस गीत के तीन संस्करण हैं, पहला संस्करण है अमानत अली ख़ान और अनामिका की आवाज़ों में। कम्पोज़िशन में फ़्युज़न है और भारतीय ध्वनियों को सिम्फ़नी जैसे इन्टरल्युड्स में ढाला गया है। दूसरे संस्करण में अनामिका के साथ हैं अजय जैसवाल। तीसरा संस्करण है अनामिका और अविनाश की आवाज़ों में। यूं तो तीनों संस्करणों की धुन और संयोजन एक जैसा ही है, लेकिन तीन अलग गायकों के अलग अंदाज़ और आवाज़ ने तीन अलग तरह का समा बांधा है। यह कहना मुश्किल है कि अमानत, अविनाश और अजय में कौन श्रेष्ठ हैं। तीनों ने अपने अपने संस्करण को बख़ूबी निभाया है। गायिका अनामिका सिंह ने अच्छा साथ निभाया है। 2016 की एक चर्चित फ़िल्म थी ’मिर्ज़्या’ जिसमें अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन कपूर को लौंच किया गया। गुलज़ार के गीतों को स्वरबद्ध किया था शंकर अहसान लॉय ने। शास्त्रीय गायन के लौह स्तंभ पंडित अजय चक्रवर्ती को कौन नहीं जानता! उनकी पुत्री कौशिकी चक्रवर्ती भी एक सशक्त शास्त्रीय गायिका हैं और इस फ़िल्म में उनकी गाई रचना ने फ़िल्म के ऐल्बम को एक बहुत ऊँचा स्तर दे दिया है। "कागा रे कागा पिया की ख़बर सुनाना, प्यासी ना मर जाए कोई चोंच में जल भर लाना" एक उत्कृष्ट रचना है जो कौशिकी की विशुद्ध शास्त्रीय संगीत पर दक्षता का उदाहरण है। इस गीत में राग बसन्त एकदम मुखर है। परंतु इस गीत के आरम्भिक और अन्तराल संगीत से राग का स्वरूप बिलकुल स्पष्ट नहीं होता। शंकर-अहसान-लॉय ने इन्टरल्युड में वेस्टर्ण क्लासिचल का टच दिया है जिससे यह एक फ़्युज़न कम्पोज़िशन बन गया है। इसी साल अक्टुबर के दूसरे सप्ताह रिलीज़ हुई थी ’बेईमान लव’। रजनीश दुग्गल और सनी लीओन अभिनीत इस फ़िल्म के ऐल्बम की शुरुआत होती है "रंगरेज़ा" गीत से जिसे असीस कौर ने गाया है। रक़ीब ख़ान का लिखा और असद ख़ान का स्वरबद्ध किया यह गीत इस दौर की उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है। "प्रीत की धानी रंग से चुनरिया रंग डाला रंगरेज़ रे, मैं उस राह पे चल ही पड़ी जिस राह से था परहेज़ रे, ओ रंगरेज़ा, तू तो निकला बड़ा ही तेज़ रे..."। इस गीत की म्युज़िक प्रोग्रामिंग् की है शराज़ ख़ान और मार्क ने, इन्टरल्युड में रॉक शैली में लाइव गीटार्स पर उंगलियाँ फेरीं केबा और संजीव ने। साथ में अतिरिक्त गायन किया शदाब फ़रीदी ने। सनी लीओन पर फ़िल्माये गए गीतों की बात करें तो शायद यह सबसे उम्दा गीत रहा है। भारतीय शास्त्रीय, सूफ़ी और रॉक के फ़्युज़न से सुसज्जित इस गीत का एक पुरुष संस्करण भी है यासिर देसाई की आवाज़ में और यह संस्करण भी उतना ही सुन्दर है। यासिर ने एक हस्की आकर्षक आवाज़ में गीत को अंजाम दिया है। इस गीत में हमें राग बिलावल की छाया मिलती है।
2017 में भी शास्त्रीय संगीत की छाया लिए कुछ फ़िल्मी गीत बने हैं। आदित्य रॉय कपूर और श्रद्धा कपूर अभिनीत फ़िल्म ’ओके जानु’ एक चर्चित फ़िल्म रही। गुलज़ार और ए. आर. रहमान का साथ इस फ़िल्म के गीत-संगीत में हुआ और कुछ सुन्दर रचनाएँ हमें सुनने को मिली। जोनिता गांधी और नकश अज़ीज़ की आवाज़ों में "साजन आयो रे, सावन लायो रे" एक अद्भुत शास्त्रीय संगीत आधारित वर्षाकालीन रचना है जिसमें राग दरबारी कान्हड़ा की छाया मिलती है। गुलज़ार साहब को इसमें बहुत कुछ लिखने का मौका तो नहीं मिला, पर दो पंक्तियों का यह गीत इससे जुड़े सभी कलाकारों की प्रतिभा के बारे में बहुत कुछ कह जाता है। इसी तरह से गुलज़ार साहब का ही लिखा और शाशा तिरुपति का गाया "सुन भँवरा" भी एक शास्त्रीय संगीत आधारित रचना है, जो लेखन, संगीत और गायकी की दृष्टि से एक उत्कृष्ट रचना है। यह गीत आधारित है राग आशा-मांड पर। इन दो गीतों को सुन कर जैसे एक उम्मीद जाग उठा है कि अच्छे गीत-संगीत का दौर अभी समाप्त नहीं हुआ है। 2017 के फ़रवरी के अन्तिम सप्ताह में रिलीज़ होने वाली फ़िल्म ’वेडिंग् ऐनिवर्सरी’ के संगीतकार अभिषेक राय ने इस ऐल्बम में अच्छा काम किया है। राशिद ख़ाँ की आवाज़ में "आए बिदेसिया मोरे द्वारे, हम तो अपनी सुध-बुध हारे" शास्त्रीय संगीत आधारित गीत होते हुए भी पाश्चात्य संगीत का फ़्युज़न है। मानवेन्द्र का लिखा यह गीत इस कमचर्चित फ़िल्म का एक मुख्य आकर्षण है। उस पर नाना पाटेकर का अभिनय। गीत के इन्टरल्युड में अंग्रेज़ी बोल "द स्ट्रेन्जर कम्स नॉकिंग् ऑन द डोर" फ़्युज़न ईफ़ेक्ट को सहारा देते हैं। भूमि त्रिवेदी का गाया "आए सैयां मोरे द्वारे" की धुन "आए बिदेसिया" वाली ही है। भूमि ने एक बार फिर इस शास्त्रीय रचना में कमाल करती हैं। इन दोनों रचनाओं में राग मिश्र भैरवी महसूस की जा सकती है। स्वरा भास्कर अभिनीत ’अनारकली ऑफ़ आरा’ एक कामोत्तेजक गीतों की गायिका की कहानी है। इसलिए ज़ाहिर सी बात है कि फ़िल्म के संगीत में लोक शैली का रंग है और साथ ही गीतों के बोल ऐसे हैं जो परिवार के साथ मिल बैठ कर नहीं सुने जा सकते। रोहित शर्मा स्वरबद्ध इस फ़िल्म के गीतों में दोहरे अर्थ की पंक्तियाँ भर भर कर डाली गई हैं। स्वाति शर्मा, पावनी पांडे और इन्दु सोनाली के गाए इस तरह के गीतों के अलावा एक स्तरीय गीत भी है रेखा भारद्वाज की आवाज़ में जिसमें शास्त्रीय संगीत की छटा बिखरती है। यह एक राग किरवानी आधारित ठुमरी है "बदनाम जिया दे गारी, बड़ी ढीठ रे प्रीत तिहारी, जगाए रैन सारी साजना, तू ने ही मोहे बरबाद किया सोना" जिसमें उस नर्तकी के दर्द का वर्णन है। कम्पोज़िशन मेलडी प्रधान होते हुए दर्दीला है। उस पर वायलिन, सितार, सारंगी और तबले के संगीत ने इसे एक आकर्षक गीत बना दिया है। फ़िल्म ’पूर्णा’ के संगीतकार हैं सलीम-सुलेमान। राज पंडित और विशाल ददलानी की आवाज़ों में "है पूरी क़ायनात तुझमें कहीं" बाहरी रूप से एक पाश्चात्य रचना प्रतीत होने के बावजूद शास्त्रीय संगीत की छाया भी मिलती है। सॉफ़्ट रॉक के साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत और भारतीय वाद्यों (सितार) के फ़्युज़न से और राज पंडित के शास्त्रीय अंदाज़ में गायकी ने इसे एक ख़ूबसूरत जामा पहनाया है। विशाल ददलानी के सशक्त सहयोग ने भी गीत में चार चाँद लगाया है। अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे इस गीत के संगीत संयोजन में प्रमुख भूमिकाएँ रहीं नाइज़ेल डी’लिमा (गीटार), चिराग कट्टी (सितार), रुशाद मिस्त्री (बास), सलीम मर्चैन्ट और जर्विस मेनेज़ेस (की-बोर्ड), दर्शन दोशी (ड्रम्स) और सुलेमान मर्चैन्ट (ज़ेन ड्रम) की। इस गीत में राग सारंग का एक प्रकार नज़र आता है। इसी फ़िल्म में एक और गीत है "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए"। इस कालजयी रचना को फिर से गाना साहस का काम है और अरिजीत सिंह ने इस दर्द भरे गीत को बेहद सुन्दरता से गाया है। सलीम-सुलेमान ने इस गीत का भार अरिजीत पर डाल कर ग़लती नहीं की और अरिजीत ने भी अपना ज़िम्मा निभाया। राग मिश्र भैरवी पर आधारित इस गीत में अपने सीधे सच्चे शास्त्रीय हरकतों से अरिजीत ने जान फूँक दी है।
’बाहूबली 2’ इस साल की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म रही। इस फ़िल्म में एक अरसे के बाद मधुश्री की मधुर आवाज़ में "कान्हा सो जा ज़रा" को सुनना एक अत्यन्त सुखद अनुभूति है। शास्त्रीय मांड शैली में स्वरबद्ध यह गतिमय लोरी लोरी से ज़्यादा होली गीत प्रतीत होता है, लेकिन बाँसुरी, वीणा और मृदंग की धुनों से सुसज्जित यह गीत इतना कर्णप्रिय है कि गीत के शुरु से ही मन मोह लेता है। कोरस का भी बहुत सुन्दर योगदान रहा है इस गीत में। मनोज मुन्तशिर के बोलों को धुनों में पिरोया है एम. एम. क्रीम ने जिन्होंने जब भी किसी फ़िल्म में संगीत दिया, बस मेलडी ही उत्पन्न हुई। इस वर्ष मधुश्री की कुछ और गीत भी सुनाई दिए हैं। जून के दूसरे सप्ताह प्रदर्शित हुई थी फ़िल्म ’लव यू फ़ैमिली’। संगीतकार रॉबी बादल के संगीत में गीतकार तनवीर ग़ाज़ी का लिखा "इश्क़ ने ऐसा शंख बजाया, गूंज उठी तन्हाई मेरी" मधुश्री और सोनू निगम की आवाज़ों में एक बेहद कर्णप्रिय रचना है जिसमें राग यमन कल्याण की छाया साफ़ महसूस की जा सकती है। पूरे दस बरस बाद सोनू निगम और मधुश्री ने साथ में कोई डुएट गाया है। इससे पहले 2008 में ’जोधा अकबर’ में इनका गाया "इन लम्हों के दामन में" गीत बेहद लोकप्रिय हुआ था। अभी हाल ही में आई फ़िल्म ’मेरी प्यारी बिन्दु’। आयुष्मान खुराना - परिनीति चोपड़ा अभिनीत इस फ़िल्म में सचिन-जिगर ने संगीत दिया और गीत लिखे कौसर मुनीर और प्रिया सरय्या ने। अन्य कई अभिनेताओं की तरह परिनीति ने भी अपनी गायन क्षमता का पहली बार परिचय दिया इस फ़िल्म में। यह ग़ज़ल है "माना के हम यार नहीं, लो तय है के प्यार नहीं"। कौसर मुनीर ने इस ग़ज़ल से वापसी की है अर्थपूर्ण बोलों वाले गीतों की तरफ़। परिनीति ने आशातीत गायकी का परिचय देते हुए इस शास्त्रीय संगीत की छाया में स्वरबद्ध रचना को बेहद सुन्दर तरीक़े से गाया है। तेज़ रफ़्तार का कोई गीत होता तो बात अलग थी, लेकिन राग खमाज पर आधारित ऐसे ठहराव वाले गीत में सुरों को संभाल कर गाना बेहद मुश्किल काम है। इस ग़ज़ल का एक युगल संस्करण भी है जिसे परिनीति ने सोनू निगम के साथ मिल कर गाया है। भारतीय वाद्यों के प्रयोग से इस ग़ज़ल को चार चाँद लग गया है। 2017 के मई के अन्तिम सप्ताह में प्रदर्शित होने वाली सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म रही सचिन तेन्दुलकर की बायोपिक ’सचिन- ए बिलियन ड्रीम्स’। इस फ़िल्म में गीतों की ज़्यादा गुंजाइश नहीं थी। ए. आर. रहमान और इरशाद कामिल ने तीन गीत रचे हैं। पहला गीत तो हमें सीधा क्रिकेट स्टेडियम में पहुँचा देता है। "सचिन सचिन" का शोर, और ड्रम्स के बीट्स ने इस गीत को एक पावरफ़ुल ट्रैक बना दिया है। इस गीत की ख़ासियत यह है कि इसके चौदह संस्करण बने हैं अलग अलग भारतीय भाषाओं में। ऐसा पिछली बार शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्म ’फ़ैन’ में देखा गया था। ख़ैर, इस गीत में कैली ने रैप किया है और सुखविन्दर सिंह की बुलन्द आवाज़ खुल कर आई है जैसा उन्होंने "चक दे इंडिया" में गाया था। शास्त्रीय संगीत की छोटी-छोटी बारीकियों को क्या ख़ूब उभारा है उन्होंने। इस तरह से आज भी फ़िल्मी गीतों में यदा कदा शास्त्रीय संगीत की छाया मिल ही जाती है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब जब संगीतकारों ने भारतीय शास्त्रीय संगीत का दामन पकड़ा, तब तब सुन्दर सुमधुर कर्णप्रिय रचनाएँ बन कर तैयार हुईं।
वर्ष 2016 में फ़िल्म आई थी ’रिबेलियस फ़्लावर’ जो ओशो के शुरुआती जीवन की कहानी पर आधारित है। फ़िल्म के संगीतकार हैं अमानो मनीष और गीतकार हैं जगदीश भारती। इस फ़िल्म में गायिका प्राचि दुबाले की आवाज़ में "काहे व्याकुल भये रे मनवा" दर्द के रंग में रंगी एक शास्त्रीय संगीत आधारित रचना है। यह एक पार्श्व गीत है और दृश्य में बैलगाड़ी में जा रहे हैं राजा, उसकी माँ और उसका नाना। नाना को दिल का दौरा पड़ा है और वो अपनी अन्तिम साँसे ले रहे हैं। गीत के बोल भी इस सिचुएशन को कॉम्प्लिमेन्ट कर रहे हैं जब जगदीश भारती लिखते हैं, "कौन रोक पाया है मुक्त पवनवा"। गीत के संगीत संयोजन में बाँसुरी और तबले का सुन्दर प्रयोग है और प्राचि दुबाले की आवाज़ में वह दर्द है जिसकी इस गीत को ज़रूरत थी। इस गीत में राग भैरव और राग कलिंगड़ा दोनों का अनुभव हो रहा है। दोनों ही रागों में एक समान स्वर ही लगते हैं। अन्तर बहुत मामूली है। 2016 के अप्रैल में अंग्रेज़ी शीर्षक वाली एक और फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी ’दि ब्लुबेरी हंट’ जिसमें नसीरुद्दीन शाह ने अभिनय किया था। फ़िल्म के संगीतकार हैं परेश कामत और नरेश कामत। ’रिबेलियस फ़्लावर’ की तरह ’दि ब्लुबेरी हंट’ को भी व्यावसायिक सफलता नहीं मिली, लेकिन दोनों फ़िल्मों की ख़ास बात यह रही कि इनके गाने बहुत ही सुरीले, भावुक और कर्णप्रिय रहे। परेश-नरेश के संगीत निर्देशन में गायिका तत्व कुंडलिनी ने एक शास्त्रीय आधारित रचना को गाया है जिसके बोल हैं “सजनवा, कैसी ख़ुमारी छायी बलमवा”। राग भैरवी की छाया लिए इस गीत में इसके गीतकार सौम्या ने भी आवाज़ मिलाई है। गीत के बोलों को शास्त्रीय अंदाज़ में गाया गया है जबकि संगीत संयोजन पूरी तरह से पाश्चात्य शैली का है। इस तरह से यह फ़्युज़न का उदाहरण है। अन्तरे की पंक्ति "अंधियारी रतिया, दिन उजियारा, पी गए हम तो इस्क का प्याला..." हमें "रात उजियारी दिन अंधेरा है, तू जो सजन नहीं मेरा है" गीत की याद दिला जाती है। कुल मिला कर एक सुन्दर रचना है पर मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि अगर पाश्चात्य संगीत की जगह भारतीय वाद्यों के प्रयोग से इसे पूर्णत: शास्त्रीय संगीत आधारित रचना के रूप में पेश किया जाता तो इसका स्तर कई गुणा बढ़ जाता। शायद आज की पीढ़ी को अपील करवाने के उद्देश्य से फ़्युज़न को चुना गया होगा!
2016 के मई में एक फ़िल्म आई थी ’बुड्ढा इन ए ट्रैफ़िक जैम’। इस फ़िल्म का गीत-संगीत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी है। पल्लवी जोशी की आवाज़ में "चन्द रोज़ और मेरी जाँ चन्द रोज़..." एक अनूठी रचना है। फ़िल्मी गीत की प्रचलित शैली से हट कर फ़ैज़ की इस शायरी को क्या ख़ूब अंजाम दिया है संगीतकार रोहित शर्मा ने और पल्लवी जोशी ने भी क्या ख़ूब निभाया है। राग बिहाग की छाया लिए इस गीत के पार्श्व में केवल हारमोनियम/सारंगी की मृदु ध्वनियों पर पल्लवी की साफ़ उचारण लिए फ़ैज़ के ये शेर सुनते हुए ऐसा लगता है कि जैसे हम किसी मुशायरे में पहुँच गए हैं। "चन्द रोज़ और मेरी जान फ़क़त चन्द ही रोज़, ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हैं हम, और कुछ देर सितम सह लें तड़प लें रो लें, अपने अज़दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम..."। शास्त्रीय गायन की छाया लिए पल्लवी जोशी की अदायगी वाक़ई कमाल की है। जी हाँ, ये वो ही पल्लवी जोशी हैं जिन्हें आप बरसों पहले दूरदर्शन के धारावाहिकों में देखा करते थे। 80 के दशक में मजरूह सुल्तानपुरी ने फ़ैज़ के इसी नज़्म की पहली पंक्ति का इस्तमाल ’सितम’ फ़िल्म के नग़में "चन्द रोज़ और मेरी जान चन्द रोज़" में किया था जिसे किशोर और लता ने गाया था। ख़ैर, वापस आते हैं 2016 में। अध्ययन सुमन अभिनीत फ़िल्म ’इश्क़ क्लिक’ में एक गीत है "का देखूँ मैं चाँद पिया रे, तू जो नज़र ना आए" जो राग खमाज पर आधारित रचना है। इस गीत के तीन संस्करण हैं, पहला संस्करण है अमानत अली ख़ान और अनामिका की आवाज़ों में। कम्पोज़िशन में फ़्युज़न है और भारतीय ध्वनियों को सिम्फ़नी जैसे इन्टरल्युड्स में ढाला गया है। दूसरे संस्करण में अनामिका के साथ हैं अजय जैसवाल। तीसरा संस्करण है अनामिका और अविनाश की आवाज़ों में। यूं तो तीनों संस्करणों की धुन और संयोजन एक जैसा ही है, लेकिन तीन अलग गायकों के अलग अंदाज़ और आवाज़ ने तीन अलग तरह का समा बांधा है। यह कहना मुश्किल है कि अमानत, अविनाश और अजय में कौन श्रेष्ठ हैं। तीनों ने अपने अपने संस्करण को बख़ूबी निभाया है। गायिका अनामिका सिंह ने अच्छा साथ निभाया है। 2016 की एक चर्चित फ़िल्म थी ’मिर्ज़्या’ जिसमें अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन कपूर को लौंच किया गया। गुलज़ार के गीतों को स्वरबद्ध किया था शंकर अहसान लॉय ने। शास्त्रीय गायन के लौह स्तंभ पंडित अजय चक्रवर्ती को कौन नहीं जानता! उनकी पुत्री कौशिकी चक्रवर्ती भी एक सशक्त शास्त्रीय गायिका हैं और इस फ़िल्म में उनकी गाई रचना ने फ़िल्म के ऐल्बम को एक बहुत ऊँचा स्तर दे दिया है। "कागा रे कागा पिया की ख़बर सुनाना, प्यासी ना मर जाए कोई चोंच में जल भर लाना" एक उत्कृष्ट रचना है जो कौशिकी की विशुद्ध शास्त्रीय संगीत पर दक्षता का उदाहरण है। इस गीत में राग बसन्त एकदम मुखर है। परंतु इस गीत के आरम्भिक और अन्तराल संगीत से राग का स्वरूप बिलकुल स्पष्ट नहीं होता। शंकर-अहसान-लॉय ने इन्टरल्युड में वेस्टर्ण क्लासिचल का टच दिया है जिससे यह एक फ़्युज़न कम्पोज़िशन बन गया है। इसी साल अक्टुबर के दूसरे सप्ताह रिलीज़ हुई थी ’बेईमान लव’। रजनीश दुग्गल और सनी लीओन अभिनीत इस फ़िल्म के ऐल्बम की शुरुआत होती है "रंगरेज़ा" गीत से जिसे असीस कौर ने गाया है। रक़ीब ख़ान का लिखा और असद ख़ान का स्वरबद्ध किया यह गीत इस दौर की उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है। "प्रीत की धानी रंग से चुनरिया रंग डाला रंगरेज़ रे, मैं उस राह पे चल ही पड़ी जिस राह से था परहेज़ रे, ओ रंगरेज़ा, तू तो निकला बड़ा ही तेज़ रे..."। इस गीत की म्युज़िक प्रोग्रामिंग् की है शराज़ ख़ान और मार्क ने, इन्टरल्युड में रॉक शैली में लाइव गीटार्स पर उंगलियाँ फेरीं केबा और संजीव ने। साथ में अतिरिक्त गायन किया शदाब फ़रीदी ने। सनी लीओन पर फ़िल्माये गए गीतों की बात करें तो शायद यह सबसे उम्दा गीत रहा है। भारतीय शास्त्रीय, सूफ़ी और रॉक के फ़्युज़न से सुसज्जित इस गीत का एक पुरुष संस्करण भी है यासिर देसाई की आवाज़ में और यह संस्करण भी उतना ही सुन्दर है। यासिर ने एक हस्की आकर्षक आवाज़ में गीत को अंजाम दिया है। इस गीत में हमें राग बिलावल की छाया मिलती है।
2017 में भी शास्त्रीय संगीत की छाया लिए कुछ फ़िल्मी गीत बने हैं। आदित्य रॉय कपूर और श्रद्धा कपूर अभिनीत फ़िल्म ’ओके जानु’ एक चर्चित फ़िल्म रही। गुलज़ार और ए. आर. रहमान का साथ इस फ़िल्म के गीत-संगीत में हुआ और कुछ सुन्दर रचनाएँ हमें सुनने को मिली। जोनिता गांधी और नकश अज़ीज़ की आवाज़ों में "साजन आयो रे, सावन लायो रे" एक अद्भुत शास्त्रीय संगीत आधारित वर्षाकालीन रचना है जिसमें राग दरबारी कान्हड़ा की छाया मिलती है। गुलज़ार साहब को इसमें बहुत कुछ लिखने का मौका तो नहीं मिला, पर दो पंक्तियों का यह गीत इससे जुड़े सभी कलाकारों की प्रतिभा के बारे में बहुत कुछ कह जाता है। इसी तरह से गुलज़ार साहब का ही लिखा और शाशा तिरुपति का गाया "सुन भँवरा" भी एक शास्त्रीय संगीत आधारित रचना है, जो लेखन, संगीत और गायकी की दृष्टि से एक उत्कृष्ट रचना है। यह गीत आधारित है राग आशा-मांड पर। इन दो गीतों को सुन कर जैसे एक उम्मीद जाग उठा है कि अच्छे गीत-संगीत का दौर अभी समाप्त नहीं हुआ है। 2017 के फ़रवरी के अन्तिम सप्ताह में रिलीज़ होने वाली फ़िल्म ’वेडिंग् ऐनिवर्सरी’ के संगीतकार अभिषेक राय ने इस ऐल्बम में अच्छा काम किया है। राशिद ख़ाँ की आवाज़ में "आए बिदेसिया मोरे द्वारे, हम तो अपनी सुध-बुध हारे" शास्त्रीय संगीत आधारित गीत होते हुए भी पाश्चात्य संगीत का फ़्युज़न है। मानवेन्द्र का लिखा यह गीत इस कमचर्चित फ़िल्म का एक मुख्य आकर्षण है। उस पर नाना पाटेकर का अभिनय। गीत के इन्टरल्युड में अंग्रेज़ी बोल "द स्ट्रेन्जर कम्स नॉकिंग् ऑन द डोर" फ़्युज़न ईफ़ेक्ट को सहारा देते हैं। भूमि त्रिवेदी का गाया "आए सैयां मोरे द्वारे" की धुन "आए बिदेसिया" वाली ही है। भूमि ने एक बार फिर इस शास्त्रीय रचना में कमाल करती हैं। इन दोनों रचनाओं में राग मिश्र भैरवी महसूस की जा सकती है। स्वरा भास्कर अभिनीत ’अनारकली ऑफ़ आरा’ एक कामोत्तेजक गीतों की गायिका की कहानी है। इसलिए ज़ाहिर सी बात है कि फ़िल्म के संगीत में लोक शैली का रंग है और साथ ही गीतों के बोल ऐसे हैं जो परिवार के साथ मिल बैठ कर नहीं सुने जा सकते। रोहित शर्मा स्वरबद्ध इस फ़िल्म के गीतों में दोहरे अर्थ की पंक्तियाँ भर भर कर डाली गई हैं। स्वाति शर्मा, पावनी पांडे और इन्दु सोनाली के गाए इस तरह के गीतों के अलावा एक स्तरीय गीत भी है रेखा भारद्वाज की आवाज़ में जिसमें शास्त्रीय संगीत की छटा बिखरती है। यह एक राग किरवानी आधारित ठुमरी है "बदनाम जिया दे गारी, बड़ी ढीठ रे प्रीत तिहारी, जगाए रैन सारी साजना, तू ने ही मोहे बरबाद किया सोना" जिसमें उस नर्तकी के दर्द का वर्णन है। कम्पोज़िशन मेलडी प्रधान होते हुए दर्दीला है। उस पर वायलिन, सितार, सारंगी और तबले के संगीत ने इसे एक आकर्षक गीत बना दिया है। फ़िल्म ’पूर्णा’ के संगीतकार हैं सलीम-सुलेमान। राज पंडित और विशाल ददलानी की आवाज़ों में "है पूरी क़ायनात तुझमें कहीं" बाहरी रूप से एक पाश्चात्य रचना प्रतीत होने के बावजूद शास्त्रीय संगीत की छाया भी मिलती है। सॉफ़्ट रॉक के साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत और भारतीय वाद्यों (सितार) के फ़्युज़न से और राज पंडित के शास्त्रीय अंदाज़ में गायकी ने इसे एक ख़ूबसूरत जामा पहनाया है। विशाल ददलानी के सशक्त सहयोग ने भी गीत में चार चाँद लगाया है। अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे इस गीत के संगीत संयोजन में प्रमुख भूमिकाएँ रहीं नाइज़ेल डी’लिमा (गीटार), चिराग कट्टी (सितार), रुशाद मिस्त्री (बास), सलीम मर्चैन्ट और जर्विस मेनेज़ेस (की-बोर्ड), दर्शन दोशी (ड्रम्स) और सुलेमान मर्चैन्ट (ज़ेन ड्रम) की। इस गीत में राग सारंग का एक प्रकार नज़र आता है। इसी फ़िल्म में एक और गीत है "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए"। इस कालजयी रचना को फिर से गाना साहस का काम है और अरिजीत सिंह ने इस दर्द भरे गीत को बेहद सुन्दरता से गाया है। सलीम-सुलेमान ने इस गीत का भार अरिजीत पर डाल कर ग़लती नहीं की और अरिजीत ने भी अपना ज़िम्मा निभाया। राग मिश्र भैरवी पर आधारित इस गीत में अपने सीधे सच्चे शास्त्रीय हरकतों से अरिजीत ने जान फूँक दी है।
’बाहूबली 2’ इस साल की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म रही। इस फ़िल्म में एक अरसे के बाद मधुश्री की मधुर आवाज़ में "कान्हा सो जा ज़रा" को सुनना एक अत्यन्त सुखद अनुभूति है। शास्त्रीय मांड शैली में स्वरबद्ध यह गतिमय लोरी लोरी से ज़्यादा होली गीत प्रतीत होता है, लेकिन बाँसुरी, वीणा और मृदंग की धुनों से सुसज्जित यह गीत इतना कर्णप्रिय है कि गीत के शुरु से ही मन मोह लेता है। कोरस का भी बहुत सुन्दर योगदान रहा है इस गीत में। मनोज मुन्तशिर के बोलों को धुनों में पिरोया है एम. एम. क्रीम ने जिन्होंने जब भी किसी फ़िल्म में संगीत दिया, बस मेलडी ही उत्पन्न हुई। इस वर्ष मधुश्री की कुछ और गीत भी सुनाई दिए हैं। जून के दूसरे सप्ताह प्रदर्शित हुई थी फ़िल्म ’लव यू फ़ैमिली’। संगीतकार रॉबी बादल के संगीत में गीतकार तनवीर ग़ाज़ी का लिखा "इश्क़ ने ऐसा शंख बजाया, गूंज उठी तन्हाई मेरी" मधुश्री और सोनू निगम की आवाज़ों में एक बेहद कर्णप्रिय रचना है जिसमें राग यमन कल्याण की छाया साफ़ महसूस की जा सकती है। पूरे दस बरस बाद सोनू निगम और मधुश्री ने साथ में कोई डुएट गाया है। इससे पहले 2008 में ’जोधा अकबर’ में इनका गाया "इन लम्हों के दामन में" गीत बेहद लोकप्रिय हुआ था। अभी हाल ही में आई फ़िल्म ’मेरी प्यारी बिन्दु’। आयुष्मान खुराना - परिनीति चोपड़ा अभिनीत इस फ़िल्म में सचिन-जिगर ने संगीत दिया और गीत लिखे कौसर मुनीर और प्रिया सरय्या ने। अन्य कई अभिनेताओं की तरह परिनीति ने भी अपनी गायन क्षमता का पहली बार परिचय दिया इस फ़िल्म में। यह ग़ज़ल है "माना के हम यार नहीं, लो तय है के प्यार नहीं"। कौसर मुनीर ने इस ग़ज़ल से वापसी की है अर्थपूर्ण बोलों वाले गीतों की तरफ़। परिनीति ने आशातीत गायकी का परिचय देते हुए इस शास्त्रीय संगीत की छाया में स्वरबद्ध रचना को बेहद सुन्दर तरीक़े से गाया है। तेज़ रफ़्तार का कोई गीत होता तो बात अलग थी, लेकिन राग खमाज पर आधारित ऐसे ठहराव वाले गीत में सुरों को संभाल कर गाना बेहद मुश्किल काम है। इस ग़ज़ल का एक युगल संस्करण भी है जिसे परिनीति ने सोनू निगम के साथ मिल कर गाया है। भारतीय वाद्यों के प्रयोग से इस ग़ज़ल को चार चाँद लग गया है। 2017 के मई के अन्तिम सप्ताह में प्रदर्शित होने वाली सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म रही सचिन तेन्दुलकर की बायोपिक ’सचिन- ए बिलियन ड्रीम्स’। इस फ़िल्म में गीतों की ज़्यादा गुंजाइश नहीं थी। ए. आर. रहमान और इरशाद कामिल ने तीन गीत रचे हैं। पहला गीत तो हमें सीधा क्रिकेट स्टेडियम में पहुँचा देता है। "सचिन सचिन" का शोर, और ड्रम्स के बीट्स ने इस गीत को एक पावरफ़ुल ट्रैक बना दिया है। इस गीत की ख़ासियत यह है कि इसके चौदह संस्करण बने हैं अलग अलग भारतीय भाषाओं में। ऐसा पिछली बार शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्म ’फ़ैन’ में देखा गया था। ख़ैर, इस गीत में कैली ने रैप किया है और सुखविन्दर सिंह की बुलन्द आवाज़ खुल कर आई है जैसा उन्होंने "चक दे इंडिया" में गाया था। शास्त्रीय संगीत की छोटी-छोटी बारीकियों को क्या ख़ूब उभारा है उन्होंने। इस तरह से आज भी फ़िल्मी गीतों में यदा कदा शास्त्रीय संगीत की छाया मिल ही जाती है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब जब संगीतकारों ने भारतीय शास्त्रीय संगीत का दामन पकड़ा, तब तब सुन्दर सुमधुर कर्णप्रिय रचनाएँ बन कर तैयार हुईं।
आख़िरी बात
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शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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