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चित्रकथा - 14: फ़िल्मी गीतों में सितार वादक जयराम आचार्य का योगदान


अंक - 14

सितार वादक जयराम आचार्य को श्रद्धांजलि

फ़िल्मी गीतों में जयराम आचार्य का योगदान 



’रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं। बीसवीं सदी के चौथे दशक से सवाक् फ़िल्मों की जो परम्परा शुरु हुई थी, वह आज तक जारी है और इसकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही चली जा रही है। और हमारे यहाँ सिनेमा के साथ-साथ सिने-संगीत भी ताल से ताल मिला कर फलती-फूलती चली आई है। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें बातें होंगी चित्रपट की और चित्रपट-संगीत की। फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत से जुड़े विषयों से सुसज्जित इस पाठ्य स्तंभ में आपका हार्दिक स्वागत है। 



12 अप्रैल 2017 को सितार वादक, दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित, पंडित जयराम आचार्य का निधन हो जाने से फ़िल्म-संगीत के धरोहर को समृद्ध करने वाले उन तमाम गुमनाम टिमटिमाते सितारों में से एक सितारा हमेशा के लिए डूब गया। यह कटु सत्य ही है कि किसी फ़िल्मी गीत की सफलता के पीछे अक्सर गायक, संगीतकार और गीतकार के हाथ को स्वीकारा जाता है, और लोग भूल जाते हैं उन तमाम वादकों को जिनके वाद्यों के टुकड़ों से गीतों का श्रॄंगार होता रहा है, जिनसे गीतों की सुन्दरता बढ़ती रही है। जयराम जी भी ऐसे ही एक सितार वादक थे जिन्होंने बहुत से कामयाब गीतों में सितार के सुन्दर टुकड़े बजाए पर उन गीतों के साथ उन्हें लोगों ने कभी याद नहीं किया। आइए आज उनके जाने के बाद उन्हें याद करें उन गीतों का ज़िक्र करते हुए जिनमें उनकी उंगलियों का जादू चला था सितार के ज़रिए। पेश-ए-ख़िदमत है ’चित्रकथा’ के अन्तर्गत लेख ’फ़िल्म-संगीत में सितार वादक जयराम आचार्य का योगदान’।




जयराम आचार्य (4 जुलाई 1928 - 12 अप्रैल  2017)

यह एक कड़वा सच है कि फ़िल्मी गीतों में साज़ों को बजाने वाले साज़िन्दों को वह मुकाम नहीं दिया जाता जो मुकाम गायकों, संगीतकारों और गीतकारों को दिया जाता है जबकि सच यही है कि किसी भी गीत की सफलता के पीछे इन साज़िन्दों का भी बेशकीमती योगदान होता है। यहाँ तक कि कुछ गीत तो उसमें शामिल साज़ों के टुकड़ों की वजह से यादगार हो जाते हैं। फ़िल्म ’परख’ के "ओ सजना बरखा बहार आई" गीत के शुरुआत में बजने वाले सितार के पीस के बग़ैर इस गीत को सुनना बिल्कुल वैसा है जैसे कि किसी के शरीर से सर को अलग कर दिया गया हो। फ़िल्म ’परख’ के इस गीत में सितार बजाने वाले फ़नकार का नाम है पंडित जयराम आचार्य, जिनका 12 अप्रैल 2017 को निधन हो गया। अफ़सोस की बात यह है कि दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित होने के बावजूद उनकी मृत्यु की ख़बर अख़बारों में नहीं छपी, किसी रेडियो चैनल ने उन्हें याद नहीं किया। रेडियो पर शायद वो गाने बज रहे होंगे जिनमें उन्होंने सितार बजाए हैं, लेकिन न रेडियो प्रेज़ेन्टर को इस बात का पता है और न ही श्रोताओं को इस बात की ख़बर। जयराम आचार्य गुमनाम रह गए; और आज भी उनसे संबंधित अधिक जानकारी इन्टरनेट पर उपलब्ध नहीं है।



जयराम आचार्य का जन्म तमिल नाडु में 4 जुलाई 1928 को हुआ था। उन्हें संगीत विरासत में ही मिली। उनके पूर्वज सितार और वायलिन के वादक थे। वर्ष 1939 में जयराम बम्बई आए फ़िल्मों में एक गायक बनने का सपना लेकर। उस समय पार्श्वगायन का इजाद हो चुका था, इसलिए जयराम के मन में एक पार्श्वगायक बनने की ही लालसा थी। पर पार्श्वगायन के आने के बावजूद वह ज़माना सिंगिंग् स्टार्स का ही था। इसलिए इस क्षेत्र में पाँव जमाना आसान काम नहीं था। दो वर्ष तक संघर्ष करने के बाद जयराम को 1941 की फ़िल्म ’मेरा संसार’ में कोरस में गाने का मौक़ा मिला। गीत था "नया ज़माना आया लोगों"। इस गीत में मुख्य गायक थे अरुण कुमार और कवि प्रदीप। जयराम को समझ में आ चुका था कि गायकी में क़दम जमाना आसान नहीं। उधर उनके पिता चाहते थे कि जयराज दिलरुबा साज़ को अपनाए और उसी में उस्ताद बने। लेकिन युवा जयराम को सितार से प्यार था। पिता के सुझाव पर वो दिलरुबा बजाने तो लगे थे, पर घर पर एक सितार भी हुआ करता था। एक दिन जयराम ने सितार उठाया और उसके तार छेड़ दिए। सितार के तार छेड़ते ही उन्हें समझ आ गया कि यही वह साज़ है जो उनका हमसफ़र है। वर्ष 1946 में जयराम आचार्य HMV कंपनी से जुड़ गए और वहाँ उन्हें सितार के दिग्गजों जैसे कि पंडित रविशंकर के संस्पर्श में आने का मौक़ा मिला और सितार की बहुत सी बारीक़ियाँ सीखी।

आगे चलकर जयराम आचार्य वी. शान्ताराम के ’राजकमल कलामन्दिर’ से जुड़ गए। इस बैनर की 1953 की फ़िल्म ’तीन बत्ती चार रास्ता’ के दृश्य में सितार बजाने का मौका मिला जो उन्हीं पर फ़िल्माया गया। संगीतकार थे पंडित शिवराम कृष्ण। यह गीत था लता मंगेशकर का गाया "अपनी अदा पर मैं हूँ फ़िदा, कोई चाहे ना चाहे मेरी बला"। 1957 की फ़िल्म ’शारदा’ में सी. रामचन्द्र का संगीत था। इस फ़िल्म में लता और आशा का गाया एक यादगार डुएट था "ओ चाँद जहाँ वो जाए"। इस गीत में जयराम आचार्य ने सितार पर अपना कमाल दिखाया। इस तेज़ गति वाले गीत के रीदम और मिज़ाज के साथ ताल से ताल मिलाता हुआ उनके सितार ने एक अलग ही समा बांधा। 1958 में एक फ़िल्म आई थी ’अजी बस शुक्रिया’। इस फ़िल्म के लोकप्रिय गीत "सारी सारी रात तेरी याद सताये" गीत में जयराम आचार्य का सितार था। रोशन के संगीत में इस गीत के फ़िल्मांकन में नायिका जो एक गायिका हैं गीत गा रही हैं और बगल में तमाम साज़िन्दे अपने अपने वाद्य को बजा रहे हैं। तमाम साज़ों की भीड़ में जयराम जी का सितार भीड़ से अलग सुनाई देता है। 1960 की फ़िल्म ’परख’ के सदाबहार गीत "ओ सजना बरखा बहार आई" की बात हम कर चुके हैं। इस गीत में शैलेन्द्र, सलिल चौधरी और लता मंगेशकर की जितनी भूमिका, उतनी ही भूमिका जयराम आचार्य की भी है जिनकी जादुई सितार के टुकड़ों ने गीत को अमरत्व प्रदान कर दी है। 


यूं तो जयराम आचार्य ने समकालीन सभी बड़े संगीतकारों के साथ काम किया है, लेकिन राहुल देव बर्मन के साथ उनका रिश्ता कुछ अलग ही रहा है। पंचम के पहले पहले गीत "घर आजा घिर आए बदरा साँवरिया" में जो सितार के सुन्दर टुकड़े सुनने को मिलते हैं, वो जयराम जी की ही देन है। यह 1961 की फ़िल्म ’छोटे नवाब’ का गीत है जिससे पंचम ने अपनी फ़िल्मी सफ़र का आग़ाज़ किया था। मुख्यत: सितार, सारंगी और तबले से सुसज्जित इस गीत के इन्टरल्युड संगीत में सितार के बेहद ख़ूबसूरत टुकड़े सुनने को मिलते हैं। यह वह ज़माना था जब किसी भी गीत में तीन ट्रैक हुआ करते थे - एक गायक के लिए, एक परक्युशन के लिए और एक ऑरकेस्ट्रा के लिए। और इन तीनों ट्रैकों पर बजाने वाले साज़िन्दों को बेहद होशियार रहना पड़ता था ताक़ि वो अपने अपने पीस को पहली बार में ही बिल्कुल सही बजाएँ। और जयराम आचार्य इस बात को अच्छी तरह समझते थे। तभी उनके बजाए हुए पीसेस भीड़ में भी बिल्कुल साफ़ और प्रॉमिनेन्टली सुनाई देते हैं।


एक साक्षात्कार में जब जयराम आचार्य से पूछा गया कि वो आख़िर फ़िल्म-संगीत में ही क्यों आए तो इसके जवाब में उन्होंने कहा था कि फ़िल्म-संगीत में साज़िन्दों को बहुत जल्दी पेमेन्ट मिल जाता था जबकि शास्त्रीय संगीत के वादकों को बहुत दिनों तक इन्तज़ार करना पड़ता। कितनी ईमानदारी से उन्होंने इस कटु सत्य को कह दिया था! कला होने के साथ साथ सितार उनका पेशा भी था। घर चलाने के लिए पैसों की ज़रूरत थी। ऐसे में फ़िल्मों में न बजाते तो कैसे घर चलता भला! राहुल देव बर्मन से उनकी मुलाक़ात सचिन देव बर्मन के एक रेकॉर्डिंग् पर हुई थी। पंचम को याद करते हुए वो कहते हैं कि पहली बार जब उन्होंने पंचम को "पंचम दा" कह कर बुलाया था, तब पंचम ने उनसे कहा था, "पंचम दा मत कहो, पंचम कहो।" 1967 की फ़िल्म ’चंदन का पलना’ में पंचम का संगीत था। इसमें लता मंगेशकर की आवाज़ में भक्तिमूलक गीत था "ओ गंगा मैया, पार लगा दे मेरी सपनों की नैया"। इस गीत को सुर्सिंगार पुरस्कार के लिए मनोनित किया गया था। इस गीत में भी जयराम जी के सितार के सुन्दर टुकड़े सुनने को मिलते हैं। पंचम की यह ख़ासियत थी कि परक्युशन और रीदम के प्रयोग के बावजूद उनके संगीत में भारतीय संगीत का जड़ होता था। 1969 की प्रसिद्ध फ़िल्म ’प्यार का मौसम’ के गीत "मैं ना मिलूंगी नज़र हटा लो" में भी सितार का सुन्दर प्रयोग सुनाई देता है। 1972 की फ़िल्म ’गोमती के किनारे’ के मुजरे "आज तो मेरी हँसी उड़ाई जैसे भी चाहा पुकारा" में भी जयराम आचार्य के सितार ने इस गीत को यादगार बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया। 1975 की फ़िल्म ’आंधी’ के गीतों के लिए बांसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया, सरोद वादक ज़रीन दारुवाला और सितार के लिए जयराम आचार्य को चुना गया था। "इस मोड़ से जाते हैं" गीत में सितार और सरोद दोनों का प्रयोग है। "तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिकवा तो नहीं" गीत में भी जयराम जी के सितार का हस्ताक्षर है। इस गीत के शुरुआती संगीत के रूप में सितार के टुकड़े जैसे इस गीत के संकेत धुन की तरह सुनाई पड़ते हैं। हम आए दिन इन गीतों को सुनते रहते हैं सभी रेडियो चैनलों पर, लेकिन शायद ही कभी इन दो वादकों को याद करते हैं इन गीतों के साथ। यह अफ़सोस की ही बात है।

1968 की फ़िल्म ’आशिर्वाद’ के गीत "झिर झिर बरसे सावनी अखियाँ" जैसा असर वो 1970 की फ़िल्म ’गुड्डी’ के गीत "बोल रे पपीहरा" में चाहते थे। इसलिए वो अपने उन कलाकारों को इकट्ठा किया जिन पर वो भरोसा करते थे। ऑरकेस्ट्रेशन के लिए सेबास्टिअन, तबले के लिए वसन्त आचरेकर, परक्युशन के लिए लाला सत्तार, सरोद के लिए ज़रीन दारुवाला और सितार के लिए जयराम आचार्य को चुना गया। पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के उपलब्ध ना होने की वजह से बांसुरी पर थे सुमन्त राज जी। जब ऐसे दिग्गज फ़नकार इस गीत से जुड़े थे, तब जादू तो चलना ही था। गायिका वाणी जयराम अपने आप को ख़ुशक़िस्मत मानती हैं जो इतने बड़े बड़े कलाकारों ने उनके गीत में वाद्य बजाए। और इसके गीत के इन्टरल्युड में सितार की ही प्रमुख भूमिका रही। 1970 की ही फ़िल्म ’दस्तक’ में मदन मोहन का संगीत था। मजरूह सुल्तानपुरी की लिखी ग़ज़ल "हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह" एक सदाबहार ग़ज़ल है। इस ग़ज़ल के दोनों इन्टरल्युड्स में सिर्फ़ और सिर्फ़ जयराम आचार्य का सितार ही सुनाई देता है और क्या ख़ूब सुनाई देता है। लता जी की आवाज़ की मिठास के साथ सितार के टुकड़ों का रस, बस कमाल है! इसमें कोई शक़ नहीं कि इस ग़ज़ल को ख़ूबसूरती प्रदान करने में जयराम आचार्य का उतना ही हाथ है जितना हाथ लता-मजरूह-मदन मोहन का है। सितार के उन तमाम पीसेस के बिना यह ग़ज़ल उतनी ख़ूबसूरत न होती। 

1977 में फिर एक बार सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में जयराम आचार्य को सितार बजाने का मौक़ा मिला। फ़िल्म थी ’आनन्द महल’। शास्त्रीय संगीत आधारित यह रचना थी "नि सा ग म प रे सा रे गा"। यह फ़िल्म प्रदर्शित न हो सकी जिस वजह से इस गीत को बहुत अधिक नहीं सुना गया। उल्लेखनीय बात यह कि यह जेसुदास का गाया पहला हिन्दी फ़िल्मी गीत था। इस गीत के इन्टरल्युड में सितार और सारंगी की ख़ूबसूरत जुगलबन्दी सुनने को मिलती है। जयराम आचार्य ने कई फ़िल्मों के पार्श्वसंगीत और शीर्षक संगीत में अमूल्य योगदान दिया। शंकर जयकिशन के संगीत में फ़िल्म ’ससुराल’ (1961) और ’ज़िन्दगी’ (1964) के टाइटल म्युज़िक में जयराम आचार्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ’ससुराल’ फ़िल्म के टाइटल म्युज़िक में "तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे चश्मेबद्दूर" गीत की धुन सितार पर उन्होने बजायी। इसी तरह से ’ज़िन्दगी’ फ़िल्म के टाइटल म्युज़िक में जयराम आचार्य ने बजायी "पहले मिले थे सपनों में और आज सामने पाया हाय कुरबान जाऊँ" की धुन। इसी तरह से शंकर जयकिशन के कई और फ़िल्मों में उन्होंने बजाए।

80 के दशक के आते आते जयराम आचार्य ने फ़िल्मों के लिए बजाना कम कर दिया। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने 80 के दशक से ही फ़िल्मी कलाकारों से किनारा कर लिया और 1995 में उन्होंने सितार बजाना ही छोड़ दिया। आज जयराम आचार्य हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन फ़िल्म संगीत के धरोहर को अपने सितार के सुरीले टुकड़ों से समृद्ध करने के उनके अमूल्य योगदान को हम कभी नहीं भुला सकते। जयराम आचार्य हमेशा ज़िन्दा रहेंगे इन गीतों के माध्यम से। जब जब ये गीत सुने जाएँगे, उनकी यादें ताज़ा हो जाएँगी। सितार नवाज़ जयराम आचार्य को नमन!




आपकी बात

पिछले अंक में तीसरे लिंग के सकारात्मक चित्रण वाले 1997 की तीन हिन्दी फ़िल्मों पर लेख का हमें अच्छी प्रतिक्रिया मिली, और शुक्रवार देर रात तक इस अंक की रीडरशिप रही 191।  यूंही हमारे साथ बने रहिए, धन्यवाद!


आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!





शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र  



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

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