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"हारमोनियम टूट गया, और मेरा दिल भी", नौशाद के संघर्ष की कहानी का पहला भाग


तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 15
 
नौशाद-1



’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार। दोस्तों, किसी ने सच ही कहा है कि यह ज़िन्दगी एक पहेली है जिसे समझ पाना नामुमकिन है। कब किसकी ज़िन्दगी में क्या घट जाए कोई नहीं कह सकता। लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों के जीवन में ऐसी दुर्घटना घट जाती है या कोई ऐसी विपदा आन पड़ती है कि एक पल के लिए ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया। पर निरन्तर चलते रहना ही जीवन-धर्म का निचोड़ है। और जिसने इस बात को समझ लिया, उसी ने ज़िन्दगी का सही अर्थ समझा, और उसी के लिए ज़िन्दगी ख़ुद कहती है कि 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी'। इसी शीर्षक के अन्तर्गत इस नई श्रृंखला में हम ज़िक्र करेंगे उन फ़नकारों का जिन्होंने ज़िन्दगी के क्रूर प्रहारों को झेलते हुए जीवन में सफलता प्राप्त किये हैं, और हर किसी के लिए मिसाल बन गए हैं। आज का यह अंक केन्द्रित है सुप्रसिद्ध संगीतकार नौशाद पर। आज प्रस्तुत है नौशाद के संघर्ष की कहानी का पहला भाग।
  
याद है अब तक बचपन का वो ज़माना याद है, याद है अब तक अधूरा सा फ़साना याद है! मेरा जन्म 25 दिसम्बर 1919 को लखनऊ में हुआ। मेरे वालिद साहब वाहिद अली राजदरबार में मुंशी थे। हमारा परिवार एक सूफ़ी परिवार है जिसमें संगीत को अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता। जब मैं 10 बरस का था, तब कैसे मुझे संगीत से लगाव हुआ मैं ख़ुद भी नहीं जानता। यह अल्लाह की देन है। यह ज़रूरी नहीं कि हर चीज़ किसी से सीखी जाए या विरासत में मिले। अदायिगी अल्लाह की देन है, यह अल्लाह की अदा है। जब मैं 10 बरस का था, वहाँ एक उर्स हुआ करता था, दस दिनों का मेला लगता था बाराबंकी दरगाह शरीफ़ में। बहुत से फ़नकार अलग अलग जगहों से वहाँ आते थे अपने तम्बुओं के साथ। बहुत सी थिएटर कंपनियाँ भी आती थीं। मैं अपने मामा के साथ वहाँ जाता था। मुझे याद है उस मेले में एक बांसुरी बेचने वाला आदमी होता था जो बांसुरी बजाता रहता था। मुझे वो इतना पसन्द था कि उसकी तरफ़ खींचा चला जाता, और फ़ूटपाथ पर उसके साथ खड़े होकर बांसुरी की ताने सुनते हुए बाक़ी सबकुछ भूल जाता था। उस ज़माने में फ़िल्में सायलेण्ट हुआ करती थीं। मैं अक्सर जाता था देखने। थिएटर वाले लाइव ऑरकेस्ट्रा का इन्तज़ाम रखते थे जो सीन के मुताबिक कुछ बजाते, गाते। लखनऊ के रॉयल सिनेमा में मैं जाता था जहाँ के ऑरकेस्ट्रा में कई बड़े फ़नकार होते थे, जैसे कि उस्ताद लद्दन ख़ाँ, कल्याणजी तबले पर, बाबूजी क्लैरिनेट पर। मैं वहाँ सिर्फ़ इन फ़नकारों को सुनने के लिए जाता। 

मेरे उपर संगीत का ऐसा जुनून सवार हो गया था कि रात को सोते हुए भी मेरी उंगलियाँ चारपाई की पट्टियों पर फिरने लगती उन्हें हारमोनियम समझ कर। फिर मैं उस्ताद ग़ुरबत ख़ाँ के साज़ों की दुकान में काम करने लगा। रोज़ सुबह दुकान खोलता, ख़ाँ साहब के आने से पहले सारे साज़ों की साफ़-सफ़ाई करता, और उनकी ग़ैर-मौजूदगी में उन साज़ों पर रियाज़ भी करता। एक दिन किसी ने उन्हें बता दिया कि मैं बहुत अच्छा गाता हूँ और मुझमें बहुत हुनर है। उस्ताद जी बहुत ख़ुश हुए और मुझे अपनी दुकान से लेकर एक हारमोनियम उपहार दे दी। मैं बहुत ख़ुश हुआ और उसे लेकर घर आया। एक दिन जब मैं उस पर रियाज़ कर रहा था तो मेरे वालिद साहब अचानक वहाँ आए। उन्हें मेरा संगीत के प्रति लगाव कतई मंज़ूर नहीं था, उन्हें ग़ुस्सा आ गया और हारमोनियम को बाहर फेंक दिया। हारमोनियम टूट गया, और मेरा दिल भी। उस्ताद लद्दन ख़ाँ साहब हमारे साथ बच्चों की तरह सुलूग करते थे। हम उनके वहाँ रोज़ जाते। लखनऊ में एक अमेचर क्लब था जिसमें हर साल एक ड्रामा होता था, जिसमें ज़्यादातर वकील थे। एक साल मैंने भी उसमें हिस्सा लिया। मैं कोई 16-17 साल का था। कहीं से मेरे वालिद को पता चल गया कि मैं ड्रामे में हिस्सा ले रहा हूँ। एक रात जब मैं घर वापस आया, उन्होंने मुझसे कहा कि मेरे लाख मना करने के बाद भी तुमने संगीत और ड्रामा का साथ नहीं छोड़ा, इसलिए अभी इसी वक़्त तुम्हे यह फ़ैसला करना होगा कि तुम्हे संगीत चाहिए या घर? वह दिवाली की रात थी, हर तरफ़ ख़ुशियों का आलम था। मेरी अम्मी ने उन्हें शान्त करने की कोशिशें की, पर वो नहीं माने। मैंने कहा कि घर आपका आपको मुबारक़ हो! और मैं वहाँ से निकल आया, अम्मी रोती रह गईं। वहाँ से निकल कर मैं अपने दोस्त माजिद अली के घर गया, उसी ने मेरे लिए बम्बई का टिकट ख़रीद कर दिया और बम्बई के डॉ. अब्दुल हलीम नामी साहब के नाम एक चिट्ठी लिख दी, जो वहाँ पर प्रोफ़ेसर थे।

डॉ. नामी साहब मुझे शायर फ़ैज़ के पास ले गए। फ़ैज़ को संगीत से प्यार था। वो मुझे ए. आर. कारदार साहब से मिलवाए। मुश्ताक़ हुसैन उनके संगीतकार थे। मुझे देख कर कारदार साहब ने कहा कि यह तो बच्चा है। मुश्ताक़ साहब ने कहा कि पहले मैं कुछ सीख लूँ, फिर उनके पास आऊँ। लेकिन मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी! ’रणजीत स्टुडिओज़’ के बाहर खड़ा रहता, गेटकीपर मुझ अन्दर जाने न दे। ज्ञान दत्त वहाँ के संगीतकार थे। फिर ’फ़िल्म सिटी’ थी तारदेओ में। वहाँ संगीतकार रफ़ीक़ ग़ज़नवी और फ़िल्मकार ज़ेड. ए. बुख़ारी का ग्रूप था। ग़ज़नवी साहब की एक झलक पाने के लिए मैं गेट के बाहर खड़ा रहता था। एक बार गफ़ुर साहब (जो बनारस से ताल्लुख़ रखते थे और सारंगी नवाज़ थे) मुझे देख कर कहा कि आप ऐसे बाहर क्यों खड़े रहते हैं? मैंने उन्हें अपने सपनों के बारे में बताया तो उन्होंने भी वादा किया कि मेरी एक दिन मुश्ताक़ साहब के पास सिफ़ारिश करेंगे। मैं नामी साहब के साथ सुबह का नाश्ता करके निकलता था और फिर रात को वापस पहुँच कर उन्हीं के साथ रात का खाना खाता था। सुबह नाश्ते के बाद मैं कोलाबा से दादर जाता, 6 पैसे लगते, और शाम को वापस। एक दिन किसी ने मेरी पॉकिट मार ली और उस दिन से मैं रोज़ कोलाबा से दादर पैदल आने-जाने लगा!

नौशाद साहब के संघर्ष की दासतान जारी रहेगी अगले अंक में भी।

सूत्र: नौशादनामा, विविध भारती




आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमे अवश्य लिखिए। हमारा यह स्तम्भ प्रत्येक माह के दूसरे शनिवार को प्रकाशित होता है। यदि आपके पास भी इस प्रकार की किसी घटना की जानकारी हो तो हमें पर अपने पूरे परिचय के साथ cine.paheli@yahoo.com मेल कर दें। हम उसे आपके नाम के साथ प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। आप अपने सुझाव भी ऊपर दिये गए ई-मेल पर भेज सकते हैं। आज बस इतना ही। अगले शनिवार को फिर आपसे भेंट होगी। तब तक के लिए नमस्कार। 

प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी  



Comments

नौशाद साहब के संगीत का जवाब नही. क्लासिकल संगीत की भीनी भीनी खुशबु आती है उनमे से. उन्होंने स्ट्रगल किया....बेशक किया होगा. उन्होंने अपने आपको प्रूव भी किया और संगीत प्रेमियों के दिलों में अपना एक ऊंचा स्थान भी बनाया.
और हाँ.......आज आई तो सब कुछ एकदम वैसा ही मिला.'आवाज़' जैसा.
नेम-प्लेट बदली है केवल और मैं.......घर ही भूल गई पर यकीन मानो.... न वो दिन भूली न वे साथी ..न वो पहेलियों के दौर को.
अरे! बहुत याद करती हूँ मैं आप सभी को.....सच्चीईईई
क्योंकि अप लोग बदल गये पर आज भी 'ऐसीच ही' हूँ मैं तो :)

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