Skip to main content

"बता दो कोई कौन गली मोरे श्याम...", क्यों इस गीत की रेकॉर्डिंग् के बाद नौशाद ने इस्तीफ़ा दे दिया?


एक गीत सौ कहानियाँ - 89
 

'बता दो कोई कौन गली मोरे श्याम...' 



रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना
रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़े दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 89-वीं कड़ी में आज जानिए 1941 की फ़िल्म ’कंचन’ के मशहूर भजन "बता दो कोई कौन गली मोरे श्याम..." के बारे में जिसे लीला चिटनिस ने गाया था। बोल डी. एन. मधोक के और संगीत नौशाद (व ज्ञान दत्त) का। 

क नारी की कृष्ण भक्ति को व्यक्त करने के लिए गाए जाने वाले गीतों में ठुमरी का प्रमुख स्थान माना जाता
Naushad
है। ठुमरियाँ प्रेम रस और भक्ति रस से सराबोर होती हैं और बोलों में अवधि और बृज भाषा का प्रयोग होता है। रागों की अगर बात करें तो पिलु, काफ़ी, खमाज, गारा, तिलक कामोद और भैरवी रागों का प्रयोग होता है ठुमरी में। राग खमाज (मिश्र खमाज) पर आधारित एक बहुत ही प्रसिद्ध पारम्परिक ठुमरी है "कौन गली गयो मोरे श्याम"। प्राचीन समय से इस ठुमरी को कलाकार गाते चले आए हैं। यह ठुमरी इतना लोकप्रिय है कि हमारी हिन्दी फ़िल्मों में भी इसे एकाधिक बार सुना गया है। 1947 की फ़िल्म ’मीराबाई’ में संगीतकार एस. के. पाल के निर्देशन में सितारा (कानपुर) ने इसे गाया था। रोशन के संगीत निर्देशन में लता मंगेशकर ने इसे गाया था 1959 की फ़िल्म ’मधु’ में। इसे ठुमरी के रूप में नहीं बल्कि एक फ़िल्मी गीत के रूप में गाया गया था। 1980 की फ़िल्म ’पायल की झंकार’ में सुलक्षणा पंडित ने इसे संगीतकार राज कमल के निर्देशन में गाया था। इसके बोलों को थोड़ा सा बदल कर इसे "आयो कहाँ से घनश्याम, रैना बिताई किस धाम" बना कर 1971 की फ़िल्म ’बुड्ढा मिल गया’ फ़िल्म में मन्ना डे और अर्चना की आवाज़ों में पेश किया संगीतकार राहुल देव बर्मन ने। इसके अगले ही साल, 1972 की मशहूर फ़िल्म ’पाक़ीज़ा’ में इसे पारम्परिक ठुमरी के रूप में ही प्रस्तुत की गई। संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद के इन्तकाल के बाद इस फ़िल्म के संगीत के लिए नौशाद को नियुक्त किया गया था, जिन्होंने इस ठुमरी को परवीन सुल्ताना से गवाया था।


नौशाद ने ’पाक़ीज़ा’ से पहले ही इस ठुमरी का इस्तमाल बहुत साल पहले अपने शुरुआती दिनों में किया था।
Gyan Dutt
बात 30 के दशक के आख़िर के किसी साल की होगी। गीतकार डी. एन. मधोक, जो संघर्षरत नौशाद के दोस्त हुआ करते थे, नौशाद की काबिलियत पर पूरा यकीन था। इसी यकीन के बलबूते वो नौशाद को चन्दुलाल शाह के पास ले गए थे। शाह ने उन्हें अपनी अगली फ़िल्म में काम दिलाने की कह कर आश्वस्त किया। इस आगामी फ़िल्म के लिए मधोक साहब की लिखी एक भजन की धुन उन्होंने बनाई। भजन के बोल थे "बता दो कोई कौन गली गये श्याम..."। गीत रेकॉर्ड हो गया, लेकिन दुर्भाग्यवश चन्दुलाल शाह की वह फ़िल्म बन नहीं सकी, और यह गीत भी जारी नहीं हुआ। आगे चल कर 1938 में जब नौशाद संगीतकार ज्ञान दत्त के सहायक के रूप में काम कर रहे थे पंजाबी फ़िल्म ’मिर्ज़ा साहिब’ में, तब एक दिन नौशाद ने ज्ञान दत्त को अपनी इस पहली धुन के बारे में बताया और सुनाया। और इस धुन का इस्तमाल ज्ञान दत्त ने अपनी 1941 की फ़िल्म ’कंचन’ में की जिसे लीला चिटनिस ने गाया और उन्हीं पर यह फ़िल्माया भी गया। इस तरह से भले नौशाद की पहली फ़िल्म के रूप में 1940 की फ़िल्म ’प्रेम नगर’ को माना जाता है, पर हक़ीक़त यह है कि किसी अज्ञात फ़िल्म के लिए नौशाद की बनाई धुन पर यह गीत 30 के दशक में रेकॉर्ड हुआ था। बताया जाता है कि ज्ञान दत्त नेकदिल अर आदर्शवादी इंसान थे, इसलिए उन्होंने नौशाद की इस रचना का श्रेय ख़ुद नहीं लिया, और इसके लिए नौशाद का नाम नामावलि में शामिल करने का सुझाव दिया। इस वजह से फ़िल्म ’कंचन’ के नामावलि या टाइटल्स में बतौर संगीतकार ज्ञान दत्त और नौशाद, दोनों नाम दिखाई देते हैं।


’कंचन’ के इस भजन के निर्माण का एक दूसरा पक्ष भी सामने आया जब नौशाद ने इस गीत से जुड़ी कहानी
विविध भारती के ’नौशादनामा’ सीरीज़ में बताई। नौशाद साहब के अनुसार हुआ यूं था कि ‘चित्रा प्रोडक्शन्स’ जब अपनी अगली फ़िल्म ‘कंचन’ प्लान कर रहे थे, तब डी. एन. मधोक ने संगीतकार के लिए नौशाद का नाम सुझाया। नौशाद की उम्र उस वक़्त बहुत कम थी, इसलिए साज़िन्दों ने उन्हें सहयोग नहीं दिया और उनके दिए हुए निर्देशों को नहीं मानते थे। यह बात जब नौशाद ने खेमचन्द प्रकाश को बताई तो खेमचन्द जी ने साज़िन्दों पर निगरानी रखी। यहाँ तक कि फ़िल्म के पहले गीत की रेकॉरडिंग के दिन खेमचन्द वहाँ उपस्थित भी हो गए थे ताकि नौशाद को किसी तरह की कोई परेशानी न हो। लीला चिटनिस का गाया वह गीत था “बता दो मुझे कौन गली मोरे श्याम”, जिसकी सब ने ख़ूब तारीफ़ें की। नौशाद उस दिन रेकॉर्डिंग पर एक इस्तीफ़ा पत्र अपनी जेब में लेकर गये और रेकॉर्डिंग समाप्त होने पर उसे मधोक साहब को सौंप दिया यह कहते हुए कि साज़िन्दे उनका कहना नहीं मानते और इस वजह से वो इस नौकरी को छोड़ रहे हैं। मधोक चकित हो गए और उनसे गुज़ारिश की कि वो इतना बड़ा क़दम न उठाएँ। उन्हें समझाया कि इस इंडस्ट्री में मौका पाना बहुत मुश्किल होता है, इसलिए हाथ आए मौके को गंवाना नहीं चाहिए। जब मधोक ने कहा कि “तुम बहुत जज़्बाती हो”, तो उस पर नौशाद का जवाब था “यही जज़्बात  मुझे इस लाइन में लाया है साहब!” 




अब आप भी 'एक गीत सौ कहानियाँ' स्तंभ के वाहक बन सकते हैं। अगर आपके पास भी किसी गीत से जुड़ी दिलचस्प बातें हैं, उनके बनने की कहानियाँ उपलब्ध हैं, तो आप हमें भेज सकते हैं। यह ज़रूरी नहीं कि आप आलेख के रूप में ही भेजें, आप जिस रूप में चाहे उस रूप में जानकारी हम तक पहुँचा सकते हैं। हम उसे आलेख के रूप में आप ही के नाम के साथ इसी स्तम्भ में प्रकाशित करेंगे। आप हमें ईमेल भेजें soojoi_india@yahoo.co.in के पते पर। 



आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र 




Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की