स्वरगोष्ठी – 250 में आज
संगीत के शिखर पर – 11 : फिल्म संगीतकार नौशाद अली
फिल्मों में रागदारी संगीत की सुगन्ध बिखेरने वाले अप्रतिम साधक नौशाद अली
‘रेडियो
प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी हमारी
सुरीली श्रृंखला – ‘संगीत के शिखर पर’ की ग्यारहवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन
मिश्र आप सब संगीत-रसिकों का एक बार पुनः हार्दिक स्वागत करता हूँ। इस
श्रृंखला में हम भारतीय संगीत की विभिन्न विधाओं में शिखर पर विराजमान
व्यक्तित्व और उनके कृतित्व पर चर्चा कर रहे हैं। संगीत गायन और वादन की
विविध लोकप्रिय शैलियों में किसी एक शीर्षस्थ कलासाधक का चुनाव कर हम उनके
व्यक्तित्व का उल्लेख और उनकी कृतियों के कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।
आज श्रृंखला की ग्यारहवीं कड़ी में हम आपको फिल्म संगीत के माध्यम से रागों
की सुगन्ध बिखेरने वाले अप्रतिम संगीतकार नौशाद अली के व्यक्तित्व और
कृतित्व पर चर्चा कर रहे हैं। आपको हम यह भी अवगत कराना चाहते हैं कि दो
दिन पूर्व, अर्थात 25 दिसम्बर को नौशाद अली का 96वीं जयन्ती थी। इस
उपलक्ष्य में हम ‘स्वरगोष्ठी’ के इस अंक में नौशाद अली के चार महत्त्वपूर्ण
दशकों की संगीत-यात्रा के कुछ चुने हुए गीतों का उल्लेख कर रहे हैं।
पाँचवें से लेकर आठवें दशक के बीच नौशाद सर्वाधिक सक्रिय थे। इन चार दशकों
में से प्रत्येक दशक के एक-एक गीत चुन कर हम आपके लिए प्रस्तुत करेंगे। इन
गीतों में आपको क्रमशः राग बिहाग, मालकौंस, वृन्दावनी सारंग और पहाड़ी के
स्वरों के दर्शन होंगे।
25 दिसम्बर, 1919 को सांगीतिक परम्परा से
समृद्ध शहर लखनऊ के कन्धारी बाज़ार में एक साधारण परिवार में नौशाद का जन्म
हुआ था। नौशाद जब कुछ बड़े हुए तो उनके पिता घसियारी मण्डी स्थित अपने नए घर
में आ गए। यहीं निकट ही मुख्य मार्ग लाटूश रोड (वर्तमान गौतम बुद्ध मार्ग)
पर संगीत के वाद्ययंत्र बनाने और बेचने वाली दूकाने थीं। उधर से गुजरते
हुए बालक नौशाद घण्टों दूकान में रखे साज़ों को निहारा करता था। एक बार तो
दूकान के मालिक गुरबत अली ने नौशाद को फटकारा भी, लेकिन नौशाद ने उनसे
आग्रह किया की वे बिना वेतन के दूकान पर रख लें। नौशाद उस दूकान पर रोज
बैठते, साज़ों की झाड़-पोछ करते और दूकान के मालिक का हुक्का तैयार करते।
साज़ों की झाड़-पोछ के दौरान उन्हें कभी-कभी बजाने का मौका भी मिल जाता था। उन
दिनों मूक फिल्मों का युग था। लखनऊ के रॉयल सिनेमाघर में फिल्मों के
प्रदर्शन के दौरान एक लद्दन खाँ थे जो हारमोनियम बजाया करते थे। यही खाँ
साहब नौशाद के पहले गुरु बने। नौशाद के पिता संगीत के सख्त विरोधी थे, अतः
घर में बिना किसी को बताए सितार नवाज़ युसुफ अली और गायक बब्बन खाँ की
शागिर्दी की। कुछ बड़े हुए तो उस दौर के नाटकों की संगीत मण्डली में भी काम
किया। घर वालों की फटकार बदस्तूर जारी रहा। अन्ततः एक दिन घर में बिना किसी
को बताए मायानगरी बम्बई की ओर रुख किया।
इसके
आगे का वृतान्त हम जारी रखेंगे, इस बीच थोड़ा विराम लेकर हम आपको नौशाद के
फिल्मी सफर के पहले दशक का संगीतबद्ध किया एक गीत सुनवाते हैं। यह गीत हमने
1946 में प्रदर्शित फिल्म ‘शाहजहाँ’ से लिया है। फिल्म के नायक और गायक
कुन्दनलाल (के.एल.) सहगल थे। कई अर्थों में यह फिल्म भारतीय फिल्म इतिहास
के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों से अंकित है। इस फिल्म का गीत- ‘जब दिल ही टूट
गया...’ सहगल का अन्तिम गीत हुआ। इसी गीत के गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी की
यह पहली फिल्म थी। इसी गीत को नौशाद ने सहगल से आग्रह कर दो बार, एक बार
बिना शराब पिये और फिर दोबारा शराब पिला कर रिकार्ड कराया और उन्हें यह
एहसास कराया कि बिना पिये वे बेहतर गाते हैं। बहरहाल, आइए हम आपको सहगल का
गाया और नौशाद का संगीतबद्ध किया फिल्म ‘शाहजहाँ’ का वह गीत सुनवाते हैं जो
राग बिहाग पर आधारित है। इस गीत में राग के स्वर और भाव स्पष्ट रूप से
झलकते हैं।
राग बिहाग : फिल्म ‘शाहजहाँ’ : ‘ऐ दिल-ए-बेकरार झूम…’ : कुन्दनलाल सहगल
घर
से भाग कर बम्बई (अब मुम्बई) पहुँचे नौशाद अली कुछ समय तक भटकते रहे। एक
दिन न्यू पिक्चर कम्पनी में संगीत वादकों के चयन के लिए प्रकाशित विज्ञापन
के आधार पर नौशाद बड़ी उम्मीद लेकर ग्रांट रोड स्थित कम्पनी के कार्यालय
पहुँचे। वहाँ उस समय के जाने-माने संगीतकार उस्ताद झण्डे खाँ वादकों का
इंटरव्यू ले रहे थे। नौशाद ने भी खाँ साहब को कुछ सुनाया। उन्होने बाद में
आने को कह कर नौशाद को रुखसत किया। उसी इंटरव्यू में नौशाद की भेंट गुलाम
मोहम्मद से हुई, जो आगे चलकर पहले उनके सहायक बने और फिर बाद में स्वतंत्र
संगीतकार भी हुए। बहरहाल, उस्ताद झण्डे खाँ ने नौशाद को पियानो वादक के रूप
में चालीस रुपये और गुलाम मोहम्मद को तबला व ढोलक वादक के रूप में साठ
रुपये मासिक वेतन पर रख लिया। और इस तरह नौशाद का प्रवेश फिल्म संगीत के
क्षेत्र में हुआ।
नौशाद
की छठें दशक की फिल्मों में रागदारी संगीत का प्रभुत्व बढ़ता गया। आइए अब
हम वर्ष 1952 की उस फिल्म और उसके एक गीत की चर्चा करते हैं जिसने नौशाद की
राग आधारित गीतों की रचना करने की अपनी क्षमता को उजागर किया। इस वर्ष
प्रदर्शित फिल्म ‘बैजू बावरा’ में नौशाद ने कई कालजयी गीतो की रचना कर अपने
शास्त्रीय संगीत के प्रति अनुराग को सिद्ध किया। फिल्म के गीतों के लिए
उनके पास मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर की आवाज़ का साथ तो था ही, रागों का
शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने की ललक के कारण उन्होने उस समय के प्रख्यात
शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खाँ और पण्डित दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर को भी
फिल्म गीत गाने के लिए राजी किया। खाँ साहब और पण्डित पलुस्कर द्वारा
प्रस्तुत राग देशी के स्वरों में जुगलबन्दी वाला गीत- ‘आज गावत मन मेरो...’
तो फिल्म संगीत के इतिहास में एक अमर गीत बन चुका है। इसके अलावा उस्ताद
अमीर खाँ ने अपने एकल स्वर में राग पूरिया धनाश्री में गीत- ‘तोरी जय जय
करतार...’ भी गाया था। परन्तु आज हम आपको नौशाद के सर्वप्रिय पार्श्वगायक
मोहम्मद रफी के स्वर में राग मालकौंस पर आधारित वह गीत सुनवाते हैं, जिसकी
लोकप्रियता आज भी कायम है।
राग मालकौंस : फिल्म ‘बैजू बावरा’ : ‘मन तड़पत हरिदर्शन को आज...’ : मोहम्मद रफी
पियानो
वादक के रूप में नौशाद को न्यू पिक्चर कम्पनी में एक ठिकाना तो मिल गया,
परन्तु मंज़िल तो अभी कोसों दूर थी। अभी तक नौशाद मुम्बई (तब बम्बई) में रह
रहे अलीम साहब के नाम लखनऊ से अपने एक मित्र का खत लेकर आए थे और उन्हीं के
साथ गुजर कर रहे थे। नौकरी मिलते ही उन्होने अलीम साहब पर बोझ बने रहना
उचित नहीं समझा और लखनऊ के ही एक अख्तर साहब के साथ दादर में रहने लगे।
नौशाद के यह दूसरे आश्रयदाता एक दूकान में सेल्समैन थे और रात में दूकान
बन्द होने के बाद दरवाजा बन्द कर अन्दर ही सोते थे। नौशाद को भी ऐसे ही
रहना पड़ता था। कभी जब दूकान में गर्मी अधिक होती तो दोनों बाहर फुटपाथ पर
रात गुजारते थे।
फिल्मों
के प्रसंग के अनुसार नौशाद उस समय के दिग्गज शास्त्रीय गायकों को आमंत्रित
कर गवाने से भी नहीं चूके। 1952 की फिल्म ‘बैजू बावरा’ में उस्ताद अमीर
खाँ और पण्डित दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर के स्वरों में तथा 1954 की फिल्म
‘शबाब’ में दोबारा उस्ताद अमीर खाँ के स्वर में ऐसा प्रयोग वे कर चुके थे।
फिल्म ‘मुगल-ए-आज़म’ के एक प्रसंग में अकबर के दरबारी गायक तानसेन के स्वर
में जब एक गीत की आवश्यकता हुई तो नौशाद ने उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ को
गाने के लिए बड़ी मुश्किल से राजी किया। उस्ताद का राग सोहनी में गाया वह
गीत था- ‘प्रेम जोगन बनके…’। इस ठुमरीनुमा गीत के लिए के. आसिफ ने उस्ताद
को पचीस हजार रुपये मानदेय के रूप में दिया था। यह गीत उन्हें इतना पसन्द
आया कि के. आसिफ ने उस्ताद बड़े गुलाम अली को पचीस हजार रुपये और देकर एक और
गीत ‘शुभ दिन आयो राजदुलारा...’ (राग रागेश्री) भी गवाया था। लोकधुनों और
राग आधारित गीतों के अलावा गज़लों की संगीत-रचना में भी नौशाद सिद्ध थे।
फिल्म ‘मुगल-ए-आज़म’, ‘मेरे महबूब’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘पालकी’ आदि
फिल्मों में उनकी संगीतबद्ध गज़लें बेहद लोकप्रिय हुई थीं। सातवें दशक की
फिल्म ‘दिल दिया दर्द लिया’ में मोहम्मद रफी का गाया- ‘कोई सागर दिल को
बहलाता नहीं...’और ‘गुजरे हैं आज इश्क़ में...’ की धुनें बेहद आकर्षक थीं।
परन्तु आज हम इस दशक के गीतों में से चुन कर आपको फिल्म का जो गीत सुनवा
रहे हैं, वह राग वृन्दावनी सारंग पर आधारित है। मोहम्मद रफी और आशा भोसले
के स्वरों में प्रस्तुत इस युगल गीत के बोल हैं- ‘सावन आए या न आए, जिया जब
झूमे सावन है...’। तीनताल और कहरवा में निबद्ध इस गीत का आनन्द आप लीजिए।
राग वृन्दावनी सारंग : ‘सावन आए या न आए...’ : आशा भोसले और रफी : फिल्म दिल दिया दर्द लिया
स्वतंत्र
संगीतकार के रूप में नौशाद को अवसर तो 1939-40 में ही मिल चुका था। अपने
शुरुआती दौर में उन्होने उत्तर प्रदेश की लोकधुनों का प्रयोग करते हुए अनेक
लोकप्रिय गीत रचे। ऐसे गीतों में प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य की छटा थी।
दरअसल नौशाद के ऐसे प्रयोगों से उन दिनों प्रचलित फिल्म संगीत को एक नया
मुहावरा मिला। आगे चल कर अन्य संगीतकारों ने भी प्रादेशिक और क्षेत्रीय लोक
संगीत से जुड़ कर ऐसे ही प्रयोग किए। लोक संगीत के साथ ही उन्होने
शास्त्रीय राग आधारित गीतों का प्रचलन भी पाँचवें दशक से आरम्भ कर दिया था।
नौशाद के संगीत से सजे अगले जिस गीत की हम चर्चा करने जा रहे हैं, वह
आठवें दशक की फिल्म ‘पाकीजा’ की एक ठुमरी है। इस ठुमरी, ‘कौन गली गयो
श्याम...’ के फिल्मी प्रयोग पर थोड़ी चर्चा करेंगे। फिल्म और फिल्म संगीत के
इतिहास में दो दशकों का प्रतिनिधित्व करने वाली फिल्म ‘पाकीज़ा’ है। 60 के
दशक के प्रारम्भिक वर्षों में फिल्म ‘पाकीजा’ के निर्माण की योजना बनी थी।
फिल्म की निर्माण प्रक्रिया में इतना अधिक समय लग गया कि दो संगीतकारों को
फिल्म का संगीत तैयार करना पड़ा। 1972 में प्रदर्शित इस फिल्म के संगीत के
लिए संगीतकार गुलाम मोहम्मद ने शास्त्रीय रागों का आधार लेकर एक से एक
गीतों की रचना की थी। गुलाम मोहम्मद ने इस फिल्म के अधिकतर गीत अपने
जीवनकाल में ही रिकार्ड करा लिये थे। इसी दौरान वे ह्रदय रोग से पीड़ित हो
गए थे। अन्ततः 17 मार्च, 1968 को उनका निधन हो गया। उनके निधन के बाद फिल्म
का पृष्ठभूमि संगीत और तीन ठुमरियाँ- परवीन सुल्ताना, राजकुमारी और वाणी
जयराम कि आवाज़ में संगीतकार नौशाद ने रिकार्ड किया। अन्ततः यह
महत्वाकांक्षी फिल्म गुलाम मोहम्मद के निधन के लगभग चार वर्ष बाद प्रदर्शित
हुई थी। संगीत इस फिल्म का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष सिद्ध हुआ, किन्तु इसके
सर्जक इस सफलता को देखने के लिए हमारे बीच नहीं थे। आइए, फिल्म ‘पाकीज़ा’
में नौशाद द्वारा शामिल की गई वह पारम्परिक ठुमरी सुनवाते हैं, जिसे
सुप्रसिद्ध गायिका परवीन सुलताना ने राग पहाड़ी का स्वर दिया है। विदुषी
परवीन सुलताना ने तीनों सप्तकों में फिरने वाले स्वरो में इस ठुमरी को एक
अलग रंग दिया है। आप इस ठुमरी का रसास्वादन कीजिए और मुझे वर्ष 2015 के इस
समापन अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।
राग पहाड़ी : फिल्म पाकीज़ा : ‘कौन गली गयो श्याम...’ : बेगम परवीन सुलताना
संगीत पहेली
‘स्वरगोष्ठी’
के 250वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको वाद्य संगीत का एक अंश सुनवा
रहे हैं। इसे सुन कर आपको निम्नलिखित तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के
उत्तर देने हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के इस अंक की पहेली के सम्पन्न होने तक जिस
प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष की पाँचवीं श्रृंखला
(सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा। ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी अंक में हम
वार्षिक विजेताओं द्वारा प्रस्तुत ‘स्वरगोष्ठी’ का अंक प्रकाशित करेंगे।
1 – संगीत का यह अंश सुन कर बताइए कि आपको किस राग का आभास हो रहा है?
2 – संगीत में प्रयोग किये गए ताल का नाम बताइए।
3 – क्या आप वाद्य के वादक के नाम का अनुमान लगा सकते हैं?
आप उपरोक्त तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com
पर इस प्रकार भेजें कि हमें शनिवार, 2 जनवरी, 2016 की मध्यरात्रि से पूर्व
तक अवश्य प्राप्त हो जाए। COMMENTS में दिये गए उत्तर मान्य हो सकते है,
किन्तु उसका प्रकाशन पहेली का उत्तर भेजने की अन्तिम तिथि के बाद किया
जाएगा। इस पहेली के विजेताओं के नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 252वें अंक में
प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रकाशित और प्रसारित गीत-संगीत, राग, अथवा
कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच
बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ
के नीचे दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’
क्रमांक 248 की संगीत पहेली में हमने आपको पण्डित रामनारायण द्वारा
प्रस्तुत सारंगी पर राग दरबारी का एक अंश सुनवा कर आपसे तीन प्रश्न पूछा
था। आपको इनमें से किसी दो प्रश्न का उत्तर देना था। इस पहेली के पहले
प्रश्न का सही उत्तर है- राग दरबारी, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल
मध्यलय तीनताल और तीसरे प्रश्न का उत्तर है- वाद्य – सारंगी। सही उत्तर
देने वाले प्रतिभागी हैं- जबलपुर, मध्यप्रदेश से क्षिति तिवारी,
पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया और वोरहीज, न्यूजर्सी से डॉ.
किरीट छाया। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से
हार्दिक बधाई।
अपनी बात
मित्रो,
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर लघु
श्रृंखला ‘संगीत के शिखर पर’ का यह ग्यारहवाँ और समापन अंक था। इस अंक में
हमने भारतीय फिल्मों के अप्रतिम संगीतकार नौशाद अली के व्यक्तित्व और
कृतित्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है। यह वर्ष 2015 का
समापन अंक था। अगला अंक वर्ष 2016 का पहला अंक होगा। इस अंक में
‘स्वरगोष्ठी’ की पहेली के चौथे वार्षिक विजेता का परिचय प्राप्त करेंगे।
आगामी अंकों में यदि आप किसी राग, गीत अथवा कलाकार को सुनना चाहते हों तो
अपना आलेख या गीत हमें शीघ्र भेज दें। हम आपकी फरमाइश पूर्ण करने का हर
सम्भव प्रयास करते हैं। आपको हमारी यह श्रृंखला कैसी लगी? हमें ई-मेल अवश्य
कीजिए। अगले रविवार को एक नए अंक के साथ प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी
मंच पर आप सभी संगीतानुरागियों का हम स्वागत करेंगे।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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