तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 08
आशा भोसले
यंत्रणा इतनी बढ़ गई कि दोनों बच्चों और गर्भ में पल रहे तीसरे सन्तान को लेकर आशा ने अपना ससुराल हमेशा के लिए छोड़ दिया
यंत्रणा इतनी बढ़ गई कि दोनों बच्चों और गर्भ में पल रहे तीसरे सन्तान को लेकर आशा ने अपना ससुराल हमेशा के लिए छोड़ दिया
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार। दोस्तों, किसी ने सच ही कहा है कि यह ज़िन्दगी एक पहेली है जिसे समझ पाना नामुमकिन है। कब किसकी ज़िन्दगी में क्या घट जाए कोई नहीं कह सकता। लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों के जीवन में ऐसी दुर्घटना घट जाती है या कोई ऐसी विपदा आन पड़ती है कि एक पल के लिए ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया। पर निरन्तर चलते रहना ही जीवन-धर्म का निचोड़ है। और जिसने इस बात को समझ लिया, उसी ने ज़िन्दगी का सही अर्थ समझा, और उसी के लिए ज़िन्दगी ख़ुद कहती है कि 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी'। इसी शीर्षक के अन्तर्गत इस नई श्रृंखला में हम ज़िक्र करेंगे उन फ़नकारों का जिन्होंने ज़िन्दगी के क्रूर प्रहारों को झेलते हुए जीवन में सफलता प्राप्त किये हैं, और हर किसी के लिए मिसाल बन गए हैं। आज का यह अंक केन्द्रित है फ़िल्म जगत सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका आशा भोसले पर।
1949 के आते-आते बड़ी बहन लता स्थापित हो चुकी थीं ’महल’, ’लाहौर’, ’ज़िद्दी’, ’बरसात’ आदि फ़िल्मों में सुपरहिट गीत गा कर। अब वो ऐसी स्थिति में थीं कि अपना पर्सोनल सेक्रेटरी रख सकती थीं। लता ने गणपतराव भोसले नामक सज्जन को अपना पर्सोनल सेक्रेटरी बनाया। और यहीं पर एक गड़बड़ हो गई। बहन आशा और गणपतराव एक दूसरे से प्रेम करने लगे। जैसे ही लता को उनके प्रेम-संबंध का पता चला तो उन्हे अच्छा नहीं लगा। आशा के गणपतराव से विवाह करने के प्रस्ताव को मंगेशकर परिवार ने विरोध किया और विवाह की अनुमति नहीं दी। ऐसे में आशा घर छोड़ कर गणपतराव से विवाह कर लिया और ससुराल चली गईं। पति और नए परिवार के साथ नए जीवन की शुरुआत हुई। आशा जी बताती हैं कि विवाह के बाद 100 रुपये की अपनी पहली कमाई को दोनों ने फ़ूटपाथ पर लगे बटाटा वडा खा कर मनाया था। आशा ने काम करना बन्द नहीं किया। बोरीवली में उनका ससुराल था; सुबह-सुबह लोकल ट्रेन से काम पर जातीं और शाम को घर लौटतीं। दिन गुज़रते गए, पर आशा को केवल या तो छोटी बजट की फ़िल्मों में या फिर खलनायिका के चरित्र पर फ़िल्माये जाने वाले गीत गाने के ही अवसर मिलने लगे। कारण, बड़ी बहन लता की अलौकिक आवाज़ जो फ़िल्मी नायिका पर बिल्कुल फ़िट बैठती थी। ऐसे में किसी अन्य नई आवाज़ का टिक पाना संभव नहीं था। आशा एक हिट गीत के लिए तरसती रहीं। दिन, महीने, साल गुज़रने लगे, पर आशा को कोई बड़ी फ़िल्म नसीब नहीं हुई। उधर अब आशा दो बच्चों की माँ भी बन चुकी थीं। एक तरफ़ बड़ी गायिका बनने की चाह, दूसरी तरफ़ घर-परिवार-बच्चे, और जो सबसे ख़तरनाक बात थी वह यह कि अब आशा के ससुराल वाले उन्हें परेशान करने लगे थे। आशा पर ससुराल में ज़ुल्म होने लगी। धीरे-धीरे यंत्रणा इतनी बढ़ गई कि दोनों बच्चों और गर्भ में पल रहे तीसरे सन्तान को लेकर आशा ने अपना ससुराल हमेशा के लिए छोड़ दिया और अपनी माँ के पास वापस आ गईं। लेकिन रिश्तों की जो दीवार आशा और मंगेशकर परिवार के बीच खड़ी हो गई थी, वह कभी पूरी तरीक़े से ढह नहीं पायी। एक तरफ़ बड़ी बहन एक के बाद एक सुपरहिट गीत गाती चली जा रही थीं, और दूसरी तरह आशा एक के बाद एक फ़्लॉप फ़िल्मों में गीत गा कर अपना और अपने बच्चों का पेट पाल रही थीं। आशा का जो संघर्ष 1943 में शुरू हुआ था, वह संघर्ष पूरे 13 वर्षों तक चला। और फिर 1957 में उनकी नई सुबह हुई जब फ़िल्म ’तुमसा नहीं देखा’ और ’नया दौर’ में उनके गाये गीतों ने बेशुमार लोकप्रियता प्राप्त की। फिर इसके बाद आशा भोसले को ज़िन्दगी में कभी पीछे मुड़ कर देखने की आवश्यक्ता नहीं पड़ी। और बाक़ी इतिहास है! ज़िन्दगी ने आशा भोसले से शुरुआती 13 सालों में कठिन परीक्षा ली, और अन्त में उन्हे गले लगा कर कहा कि आशा, तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी!
खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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