Skip to main content

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 07 - जयदेव


तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 07
 
जयदेव 

माँ, पिता, फूफा और छोटे भाई की मृत्यु का सामना करने के बाद जयदेव बने संगीतकार


’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार। दोस्तों, किसी ने सच ही कहा है कि यह ज़िन्दगी एक पहेली है जिसे समझ पाना नामुमकिन है। कब किसकी ज़िन्दगी में क्या घट जाए कोई नहीं कह सकता। लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों के जीवन में ऐसी दुर्घटना घट जाती है या कोई ऐसी विपदा आन पड़ती है कि एक पल के लिए ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया। पर निरन्तर चलते रहना ही जीवन-धर्म का निचोड़ है। और जिसने इस बात को समझ लिया, उसी ने ज़िन्दगी का सही अर्थ समझा, और उसी के लिए ज़िन्दगी ख़ुद कहती है कि 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी'। इसी शीर्षक के अन्तर्गत इस नई श्रृंखला में हम ज़िक्र करेंगे उन फ़नकारों का जिन्होंने ज़िन्दगी के क्रूर प्रहारों को झेलते हुए जीवन में सफलता प्राप्त किये हैं, और हर किसी के लिए मिसाल बन गए हैं। आज का यह अंक केन्द्रित है फ़िल्म जगत के जाने माने संगीतकार जयदेव पर।
  


फलता दो तरह की होती है, एक जिसमें आर्थिक सफलता, दूसरी कलात्मक सफलता। इन दो सफलताओं का एक दूसरे से संबंध है भी और नहीं भी। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कुछ कलाकार ऐसे हुए हैं जो रचनात्मक्ता की दृष्टि से शीर्ष के कलाकार रहे पर व्यावसायिक तौर पर औरों से पीछे ही रह गए। लेकिन उनका योगदान कला के क्षेत्र में कुछ ऐसा रहा कि वो अमर हो गए। फ़िल्म जगत में भी ऐसे कई कलाकार हुए हैं जिन्हें लोगों का, उनके चाहनेवालों का बेशुमार प्यार मिला, पर उनकी आर्थिक अवस्था ख़राब ही रही ता-उम्र। ऐसे ही एक संगीतकार रहे जयदेव जिनके बनाए गीतों के रेकॉर्ड्स हज़ारों लाखों की संख्या में बिके हों पर उनके पास अपना ख़ुद का एक रेकॉर्ड प्लेयर तक नहीं था तथा आजीवन अविवाहित रहते हुए एक पेयिंग् गेस्ट की तरह रहे। आज ’तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी’ में चर्चा जयदेव के संघर्ष की, उनकी कलात्मक सफलता की, और उनकी आर्थिक दुरवस्था की। जयदेव की बहुत ही कोमल आयु में उनकी माँ की मृत्यु हो गई। माँ किसे कहते हैं, माँ का प्यार क्या होता है, जयदेव को पता भी नहीं चला। अफ़्रीका में उनका जन्म हुआ था जहाँ उनके पिता केनिया के नईरोबी में व्यवसाय करते थे। थोड़ा बड़ा होने पर जब शिक्षा-दीक्षा की बात आई तो जयदेव के पिता ने उन्हें भारत भेज दिया उनके फूफा के पास। इस तरह से माँ और पिता, दोनों से दूर हो गए नन्हे जयदेव। संगीत और फ़िल्मों में उनकी दिलचस्पी को देखते हुए उनके फूफा ने उन्हें बम्बई जाने की अनुमति दी। बम्बई आकर जयदेव ने वाडिया फ़िल्म कंपनी की आठ फ़िल्मों में बाल कलाकार की भूमिकाएँ निभाईं और एक फ़िल्म में दो गीत भी गाए। 

जयदेव का जीवन कुछ हद तक पटरी पर आने लगी थी कि तभी एक और बिजली उनके जीवन में गिर पड़ी। 1936 में उनके फूफा चल बसे जिसके चलते जयदेव को लुधियाना लौटना पड़ा। एक वर्ष के अन्दर वे फिर से बम्बई पहुँच गए और कृष्ण राव चोंकर से संगीत की शिक्षा ग्रहण की। 1940 में जब उनके बीमार पिता अफ़्रीका से भारत लौट आए, तब अपने पिता की देख-रेख के लिए जयदेव को बम्बई छोड़ कर पुन: लुधियाना लौटना पड़ा। छुटपन से एक के बाद एक पारिवारिक कारणों से जयदेव का करीयर बन-सँवर नहीं पा रहा था। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। 1943 तक पिता का देखभाल करते रहे और इसी वर्ष पिता की मृत्यु के बाद उन पर अपनी बहन की शादी निपटाने का ज़िम्मा आन पड़ा। यह फ़र्ज़ भी उन्होंने अदा की। पिता और बहन का दायित्व समाप्त कर जयदेव अलमोड़ा में उदय शंकर की वाद्यशाला में कुछ समय रहे, फिर लखनऊ में उस्ताद अली अकबर ख़ाँ से सरोद सीखा। पर लखनऊ प्रवास के दौरान जयदेव बीमार पड़ गए जिसकी वजह से उन्हें अपनी बहन के घर शिमला जाना पड़ा स्वास्थ्य-सुधार के लिए। कहते हैं पापी पेट का सवाल है, और इसी के जवाब के लिए जयदेव स्वस्थ हो कर दिल्ली में एक बैंक में नौकरी कर ली। 1946 में जयदेव ने अपने छोटे भाई का विवाह भी सम्पन्न किया। जयदेव का बुरा वक़्त अभी गया नहीं था। जिस छोटे भाई को वो सबसे ज़्यादा प्यार करते थे, उस भाई का विवाह के एक ही वर्ष के अन्दर निधन हो गया। इससे जयदेव को बहुत गहरा सदमा पहुँचा।

छोटे भाई की मृत्यु के दुख से बाहर निकलने के बाद जयदेव फिर एक बार संगीत की तरफ़ मुड़े और रेडियो पर गाने लगे। जब अली अकबर ख़ाँ ने ’नवकेतन’ की दो फ़िल्मों ’आँधियाँ’ तथा ’हमसफ़र’ में संगीत दिया तो उन्होंने जयदेव को अपना सहायक बना लिया। 1935-36 में करीयर शुरू करने के बावजूद एक स्वतंत्र संगीतकार बनने में उन्हें 20 वर्ष लग गए और उनके स्वतन्त्र संगीत से सजी पहली फ़िल्म 1955 में आई ’जोरू का भाई’। सचिन देव बर्मन के सहायक के रूप में भी वो काम करते रहे। जिस फ़िल्म से जयदेव को प्प्रसिद्धि मिली, वह थी ’हम दोनों’ (1961)। फिर इसके बाद जयदेव ने एक से एक सुरीली फ़िल्में हमें दी और जल्दी ही लोगों को पता चल गया कि जयदेव किस स्तर के संगीतकार हैं। ’मुझे जीने दो’, ’रेशमा और शेरा’, ’आलाप’, ’घरौन्दा’, ’तुम्हारे लिए’, ’दूरियाँ’, ’गमन’, ’प्रेम पर्बत’, ’अनकही’ जैसी तमाम उत्कृष्ट संगीत वाली फ़िल्मों ने जयदेव को संगीत रसिकों के दिलों में बसा लिया। लम्बे समय तक पारिवारिक कारणों से लड़ते हुए आख़िरकार उन्होंने फ़िल्म-संगीत जगत में अपना नाम बना ही लिया। पर अफ़सोस की बात है कि इतने प्रतिभाशाली होते हुए और इतना उत्कृष्ट संगीत देने के बावजूद उन्हें ज़्यादा व्यावसायिक सफलता नहीं मिली और ना ही कभी बड़े बैनर के फ़िल्मों में संगीत देने का मौका मिला। उनकी अन्तिम रेकॉर्डिंग् फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़लों की थी। ’हम भी फ़िराक़ इंसान थे...’ को रेकॉर्ड करते समय वे अभिभूत हो गए और बोल उठे कि अब जिस काम को मैं वर्षों से पूरा करना चाहता था, वह पूरा हो गया... अब मौत बेशक़ मुझे ले जाए। उस समय क्या पता था कि हफ़्ते-भर के भीतर सचमुच मौत उन्हें ले जायेगी! ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ करती है जयदेव जी के प्रतिभा और संगीत साधना को विनम्र नमन।


आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमे अवश्य लिखिए। हमारा यह स्तम्भ प्रत्येक माह के दूसरे शनिवार को प्रकाशित होता है। यदि आपके पास भी इस प्रकार की किसी घटना की जानकारी हो तो हमें पर अपने पूरे परिचय के साथ cine.paheli@yahoo.com मेल कर दें। हम उसे आपके नाम के साथ प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। आप अपने सुझाव भी ऊपर दिये गए ई-मेल पर भेज सकते हैं। आज बस इतना ही। अगले शनिवार को फिर आपसे भेंट होगी। तब तक के लिए नमस्कार। 


खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी  



Comments

Unknown said…
सुजाॅय चटर्जी ,

संगीतकार जयदेव के बारेमें आपका दिया जीवन-वृत्तांत पढके मन सोचमें पड गया। अच्छे कलाकार को इतनी मुसीबतोंका सामना करना पडा यह बात common है, और अंतमें ही जब सफलता मिली उससे जो आनंद प्राप्त हुआ वह ही सब जींदगी की मुल्यता है जो दिलको बहला देती है। मुज्ञे जयदेव जी की एक लगनी पर ही खुब सन्मान है कि वह इतनी मुसीबतोंमेंसे रास्ता निकालकर सफलताके रास्ते पर आके खडे हो गये। ईश्वर तब सहाय करता है जब मन मक्कम रहता है। जींदगीमें मौत उपर उनकी जीत हुअी।

नमस्कार के साथ,
विजा राजकोटीया
Sujoy Chatterjee said…
bilkul sahi kaha aapne Vijaya ji.

Regards
Sujoy Chatterjee
Unknown said…
Sujoy Chatterjee,

Sorry, I had to give up following your nice thoughts due to lack of time. I have been busy with other things so could not find time to continue on your subject.

Regards, Vijaya Rajkotia

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...