तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 07
जयदेव
माँ, पिता, फूफा और छोटे भाई की मृत्यु का सामना करने के बाद जयदेव बने संगीतकार
माँ, पिता, फूफा और छोटे भाई की मृत्यु का सामना करने के बाद जयदेव बने संगीतकार
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार। दोस्तों, किसी ने सच ही कहा है कि यह ज़िन्दगी एक पहेली है जिसे समझ पाना नामुमकिन है। कब किसकी ज़िन्दगी में क्या घट जाए कोई नहीं कह सकता। लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों के जीवन में ऐसी दुर्घटना घट जाती है या कोई ऐसी विपदा आन पड़ती है कि एक पल के लिए ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया। पर निरन्तर चलते रहना ही जीवन-धर्म का निचोड़ है। और जिसने इस बात को समझ लिया, उसी ने ज़िन्दगी का सही अर्थ समझा, और उसी के लिए ज़िन्दगी ख़ुद कहती है कि 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी'। इसी शीर्षक के अन्तर्गत इस नई श्रृंखला में हम ज़िक्र करेंगे उन फ़नकारों का जिन्होंने ज़िन्दगी के क्रूर प्रहारों को झेलते हुए जीवन में सफलता प्राप्त किये हैं, और हर किसी के लिए मिसाल बन गए हैं। आज का यह अंक केन्द्रित है फ़िल्म जगत के जाने माने संगीतकार जयदेव पर।
जयदेव का जीवन कुछ हद तक पटरी पर आने लगी थी कि तभी एक और बिजली उनके जीवन में गिर पड़ी। 1936 में उनके फूफा चल बसे जिसके चलते जयदेव को लुधियाना लौटना पड़ा। एक वर्ष के अन्दर वे फिर से बम्बई पहुँच गए और कृष्ण राव चोंकर से संगीत की शिक्षा ग्रहण की। 1940 में जब उनके बीमार पिता अफ़्रीका से भारत लौट आए, तब अपने पिता की देख-रेख के लिए जयदेव को बम्बई छोड़ कर पुन: लुधियाना लौटना पड़ा। छुटपन से एक के बाद एक पारिवारिक कारणों से जयदेव का करीयर बन-सँवर नहीं पा रहा था। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। 1943 तक पिता का देखभाल करते रहे और इसी वर्ष पिता की मृत्यु के बाद उन पर अपनी बहन की शादी निपटाने का ज़िम्मा आन पड़ा। यह फ़र्ज़ भी उन्होंने अदा की। पिता और बहन का दायित्व समाप्त कर जयदेव अलमोड़ा में उदय शंकर की वाद्यशाला में कुछ समय रहे, फिर लखनऊ में उस्ताद अली अकबर ख़ाँ से सरोद सीखा। पर लखनऊ प्रवास के दौरान जयदेव बीमार पड़ गए जिसकी वजह से उन्हें अपनी बहन के घर शिमला जाना पड़ा स्वास्थ्य-सुधार के लिए। कहते हैं पापी पेट का सवाल है, और इसी के जवाब के लिए जयदेव स्वस्थ हो कर दिल्ली में एक बैंक में नौकरी कर ली। 1946 में जयदेव ने अपने छोटे भाई का विवाह भी सम्पन्न किया। जयदेव का बुरा वक़्त अभी गया नहीं था। जिस छोटे भाई को वो सबसे ज़्यादा प्यार करते थे, उस भाई का विवाह के एक ही वर्ष के अन्दर निधन हो गया। इससे जयदेव को बहुत गहरा सदमा पहुँचा।
छोटे भाई की मृत्यु के दुख से बाहर निकलने के बाद जयदेव फिर एक बार संगीत की तरफ़ मुड़े और रेडियो पर गाने लगे। जब अली अकबर ख़ाँ ने ’नवकेतन’ की दो फ़िल्मों ’आँधियाँ’ तथा ’हमसफ़र’ में संगीत दिया तो उन्होंने जयदेव को अपना सहायक बना लिया। 1935-36 में करीयर शुरू करने के बावजूद एक स्वतंत्र संगीतकार बनने में उन्हें 20 वर्ष लग गए और उनके स्वतन्त्र संगीत से सजी पहली फ़िल्म 1955 में आई ’जोरू का भाई’। सचिन देव बर्मन के सहायक के रूप में भी वो काम करते रहे। जिस फ़िल्म से जयदेव को प्प्रसिद्धि मिली, वह थी ’हम दोनों’ (1961)। फिर इसके बाद जयदेव ने एक से एक सुरीली फ़िल्में हमें दी और जल्दी ही लोगों को पता चल गया कि जयदेव किस स्तर के संगीतकार हैं। ’मुझे जीने दो’, ’रेशमा और शेरा’, ’आलाप’, ’घरौन्दा’, ’तुम्हारे लिए’, ’दूरियाँ’, ’गमन’, ’प्रेम पर्बत’, ’अनकही’ जैसी तमाम उत्कृष्ट संगीत वाली फ़िल्मों ने जयदेव को संगीत रसिकों के दिलों में बसा लिया। लम्बे समय तक पारिवारिक कारणों से लड़ते हुए आख़िरकार उन्होंने फ़िल्म-संगीत जगत में अपना नाम बना ही लिया। पर अफ़सोस की बात है कि इतने प्रतिभाशाली होते हुए और इतना उत्कृष्ट संगीत देने के बावजूद उन्हें ज़्यादा व्यावसायिक सफलता नहीं मिली और ना ही कभी बड़े बैनर के फ़िल्मों में संगीत देने का मौका मिला। उनकी अन्तिम रेकॉर्डिंग् फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़लों की थी। ’हम भी फ़िराक़ इंसान थे...’ को रेकॉर्ड करते समय वे अभिभूत हो गए और बोल उठे कि अब जिस काम को मैं वर्षों से पूरा करना चाहता था, वह पूरा हो गया... अब मौत बेशक़ मुझे ले जाए। उस समय क्या पता था कि हफ़्ते-भर के भीतर सचमुच मौत उन्हें ले जायेगी! ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ करती है जयदेव जी के प्रतिभा और संगीत साधना को विनम्र नमन।
खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
Comments
संगीतकार जयदेव के बारेमें आपका दिया जीवन-वृत्तांत पढके मन सोचमें पड गया। अच्छे कलाकार को इतनी मुसीबतोंका सामना करना पडा यह बात common है, और अंतमें ही जब सफलता मिली उससे जो आनंद प्राप्त हुआ वह ही सब जींदगी की मुल्यता है जो दिलको बहला देती है। मुज्ञे जयदेव जी की एक लगनी पर ही खुब सन्मान है कि वह इतनी मुसीबतोंमेंसे रास्ता निकालकर सफलताके रास्ते पर आके खडे हो गये। ईश्वर तब सहाय करता है जब मन मक्कम रहता है। जींदगीमें मौत उपर उनकी जीत हुअी।
नमस्कार के साथ,
विजा राजकोटीया
Regards
Sujoy Chatterjee
Sorry, I had to give up following your nice thoughts due to lack of time. I have been busy with other things so could not find time to continue on your subject.
Regards, Vijaya Rajkotia