तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 04
सुधा चन्द्रन्
21 सितंबर 1964 को सुधा का जन्म हुआ था। सुधा जब मात्र पाँच वर्ष की थी, तभी से नृत्य सीखना शुरू कर दिया था बम्बई के कला सदन में। पढ़ाई और नृत्य दोनो साथ-साथ करती गईं और 17 वर्ष की आयु होते होते वो लगभग 75 स्टेज शोज़ कर चुकी थीं। अन्य पुरस्कारों के साथ-साथ दो मुख्य पुरस्कार ’नृत्य मयूरी’ और ’नवज्योति’ प्राप्त कर चुकी थीं। नृत्य में ही अपना करीअर बनाने का निर्णय ले चुकी थीं सुधा अन्द इस राह पर वो निरन्तर अग्रसर होती चली जा रही थीं बहुत लगन और निष्ठा के साथ। पर भाग्य ने एक बहुत भयानक और गंदा मज़ाक कर दिया उनके साथ। 2 मई 1981 की बात है। सुधा अपने माता-पिता के साथ तमिलनाडु के एक मन्दिर में जा रही थीं एक बस में। और वह बस दुर्घटनाग्रस्त हो गई। दुर्घटना इतनी घातक थी कि सुधा के पैरों को गहरी चोट लगी। दायें पैर का चोट बहुत ज़्यादा था, उस पर शुरुआती डॉक्टर ने इलाज में गड़बड़ी कर दी जिसकी वजह से गैंगरीन हो गया, और उनकी दायीं टांग को शरीर से अलग कर देना पड़ा उनकी जान को बचाने के लिए। एक नृत्यांगना के लिए पैर की क्या अहमियत होती है, यह शायद अलग से बताने की ज़रूरत नहीं। पलक झपकते सबकुछ मानो ख़त्म हो गया, सब तहस-नहस हो गया। एक नृत्यांगना बनने का सपना मानो पल भर में दम तोड़ दिया। जान बच गई, बस यही एक अच्छी बात थी।
कुछ दिनों के इलाज के बाद सुधा को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। सुधा अब भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं थीं कि उनका एक पैर उनसे अलग हो गया है। यहाँ तक कि वो व्हील-चेअर पर भी बैठने के लिए तैयार नहीं हुईं और सामान्य रूप से चलने-फिरने की हर संभव कोशिशें करने लगीं। ऐम्प्युटेशन के 6 महीने बाद सुधा ने एक मैगज़ीन में ’रमन मैगससे अवार्ड’ विजेता, जयपुर के डॉ. सेठी के बारे में पढ़ा जो कृत्रिम अंग विशेषज्ञ थे। उनसे बात करने के बाद सुधा में फिर से आत्मविश्वास के अंकुर फूटने लगे, उन्हें आभास होने लगा कि शायद वो फिर से नृत्य कर सकती हैं। डॉ. सेठी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी और उनके नृत्य के लिए प्रयोग करने लायक एक कृत्रिम पैर की रचना की। 28 जनवरी 1984 को सुधा चन्द्रन् ने बम्बई में एक स्टेज शो किया जो बेहद सफल रहा और रातों रात सुधा एक स्टार बन गईं। उस नृत्य प्रदर्शन को देखने वालों में निर्माता रामोजी राव भी थे जिन्होंने सुधा के जीवन की कहानी को लेकर एक फ़िल्म बनाने का निर्णय भी ले लिया। ’मयूरी’ नामक इस तेलुगू फ़िल्म में नायिका की भूमिका सुधा चन्द्रन् ने ही निभाई और इसके लिए राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह से ’सिल्वर लोटस’ का राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। 1986 में इस फ़िल्म को हिन्दी में ’नाचे मयूरी’ के नाम से बनाया गया और इसमें भी सुधा चन्द्रन् ही नज़र आईं। फिर इसके बाद सुधा चन्द्रन् ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। फ़िल्मों और नृत्य मंचों के अलावा सुधा चन्द्रन् छोटे परदे पर भी बेहद कामयाब रहीं। सुधा चन्द्रन् के जीवन की कहानी को पढ़ने के बाद उन्हें झुक कर सलाम करने को जी चाहता है। ज़िन्दगी ने उन्हें हताश करने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी, पर उन्होंने ज़िन्दगी को ही जैसे जीना सिखा दिया, और ज़िन्दगी ख़ुद उनसे जैसे कह रही हो कि सुधा, तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी!!
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खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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