स्वरगोष्ठी – 219 में आज
दस थाट, दस राग और दस गीत – 6 : मारवा थाट
संगीत रचनाएँ राग मारवा और सोहनी की
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक
स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस
गीत’ की छठें अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का
हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के
रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे
हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12
स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से
कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’,
रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से
क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा
जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर
भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट का प्रचलन
पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया था। वर्तमान समय में
रागों के वर्गीकरण के लिए यही पद्धति प्रचलित है। भातखण्डे जी द्वारा
प्रचलित ये दस थाट हैं; कल्याण, बिलावल, खमाज, भैरव, पूर्वी, मारवा, काफी,
आसावरी, तोड़ी और भैरवी। इन्हीं दस थाटों के अन्तर्गत प्रचलित-अप्रचलित सभी
रागों को वर्गीकृत किया जाता है। श्रृंखला की आज की कड़ी में हम आपसे मारवा
थाट पर चर्चा करेंगे और इस थाट के आश्रय राग मारवा में निबद्ध दो खयाल
रचनाएँ प्रस्तुत करेंगे। साथ ही मारवा थाट के अन्तर्गत वर्गीकृत राग सोहनी
के स्वरों में निबद्ध एक फिल्मी गीत का उदाहरण भी प्रस्तुत करेंगे।
आधुनिक उत्तर भारतीय संगीत में
राग-वर्गीकरण के लिए प्रचलित दस थाट प्रणाली पर केन्द्रित इस श्रृंखला में
अब तक आप कल्याण, बिलावल, खमाज, भैरव और पूर्वी थाट का परिचय प्राप्त कर
चुके हैं। आज की कड़ी में हम ‘मारवा’ थाट पर चर्चा करेंगे। हमारा भारतीय
संगीत एक सुदृढ़ और समृद्ध आधार पर विकसित हुआ है। समय-समय पर इसका
वैज्ञानिक दृष्टि से मूल्यांकन होता रहा है। यह परिवर्द्धन वर्तमान थाट
प्रणाली पर भी लागू है। आधुनिक संगीत में प्राचीन मुर्च्छनाओं के स्थान पर
मेल अथवा थाट प्रणाली का उपयोग किया जाता है। सभी छोटे-बड़े अन्तराल, जो
रागों के लिए आवश्यक हैं, सप्तक की सीमाओं के अन्तर्गत रखे गए और मुर्च्छना
की प्राचीन प्रणाली का परित्याग किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि यह
परिवर्तन चार-पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ। आज ऋषभ, गान्धार, मध्यम, धैवत और
निषाद स्वरों के प्रत्येक स्वर की एक या दो श्रुतियों को ग्रहण कर नवीन थाट
का निर्माण करते हैं, जबकि षडज और पंचम अचल स्वर माने जाते हैं। जिस
प्रकार प्राचीन मुर्च्छनाएँ प्राचीन जातियों के लिए स्रोत रही हैं, उसी
प्रकार मेल अथवा थाट हमारे रागों के लिए स्रोत हैं।
आइए,
अब हम ‘मारवा’ थाट के विषय में कुछ चर्चा करते हैं। इस थाट में प्रयोग
होने वाले स्वर हैं- सा, रे॒, ग, म॑, प, ध, नि। अर्थात ‘मारवा’ थाट में
ऋषभ कोमल, मध्यम तीव्र तथा शेष स्वर शुद्ध प्रयोग किये जाते हैं। राग
मारवा, ‘मारवा’ थाट का आश्रय राग है, जिसमे ऋषभ कोमल और मध्यम तीव्र होता
है किन्तु पंचम वर्जित होता है। यह षाड़व-षाड़व जाति का राग है। अर्थात आरोह
और अवरोह में छः स्वरों के प्रयोग होते हैं। राग मारवा के आरोह स्वर हैं,
सारे, ग, म॑ध, निध, सां तथा अवरोह के स्वर हैं, सांनिध, म॑गरे, सा होता है।
इसका वादी स्वर ऋषभ तथा संवादी स्वर धैवत होता है। इस राग का गायन-वादन
दिन के चौथे प्रहर में उपयुक्त माना जाता है। अब हम आपको राग मारवा में
निबद्ध दो खयाल सुनवा रहे हैं। उस्ताद अमीर खाँ ने इसे प्रस्तुत किया है।
राग मारवा उदासी भाव का राग होता है। विलम्बित खयाल के बोल हैं- ‘पिया मोरा
अनत देश...’ और द्रुत खयाल की बन्दिश है- ‘गुरु बिन ज्ञान न पावे...’। इस
श्रृंखला में अब तक हमने आपको उस्ताद अमीर खाँ द्वारा प्रस्तुत कई रचनाएँ सुनवाई
है और आगे भी सुनवाएँगे। लीजिए, इस बार भी राग मारवा की दो रचनाएँ उस्ताद
अमीर खाँ की आवाज़ में सुनिए।
राग मारवा : विलम्बित- ‘पिया मोरा...’ और द्रुत खयाल- ‘गुरु बिन ज्ञान...’ : उस्ताद अमीर खाँ
‘मारवा’
थाट के अन्तर्गत आने वाले कुछ अन्य प्रमुख राग हैं- पूरिया, साजगिरी,
ललित, सोहनी, भटियार, विभास आदि। राग सोहनी इस थाट का बेहद लोकप्रिय राग
है। सुप्रसिद्ध मयूरवीणा वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र ने राग सोहनी के बारे
में बताया कि राग सोहनी का प्रयोग खयाल और ठुमरी, दोनों प्रकार की गायकी
में किया जाता है। ठुमरी अंग में इस राग का प्रयोग अधिक होता है। इस राग का
प्रयोग दो प्रकार से किया जाता है। पहले प्रकार, औडव-षाड़व जाति के
अन्तर्गत आरोह में ऋषभ और पंचम तथा अवरोह में पंचम का प्रयोग नहीं किया
जाता। राग के दूसरे स्वरूप के आरोह में ऋषभ और अवरोह में पंचम का प्रयोग
नहीं होता। राग सोहनी में उन्हीं स्वरों का प्रयोग होता है, जिनका राग
पूरिया और मारवा में भी किया जाता है। किन्तु इसके प्रभाव और भावाभिव्यक्ति
में पर्याप्त अन्तर हो जाता है। राग सोहनी का वादी स्वर धैवत और संवादी
स्वर गान्धार होता है। धैवत पीड़ा की अभिव्यक्ति करने में समर्थ होता है।
‘नी सां रें (कोमल) सां’ की स्वर संगति से तीव्र पुकार का वातावरण निर्मित
होता है। संवादी गान्धार कुछ देर के लिए इस उत्तेजना को शान्त कर सुकून
देता है। वास्तव में वादी और संवादी स्वर राग के प्राणतत्त्व होते हैं,
जिनसे रागों के भावों का सृजन होता है। रात्रि के तीसरे प्रहर में राग
सोहनी के भाव अधिक स्पष्ट होते हैं। इस राग में मींड़ एवं गमक को कसे हुए
ढंग से मध्यलय में प्रस्तुत करने से राग का भाव अधिक मुखरित होता है। यह
चंचल प्रवृत्ति का राग है। श्रृंगार के विरह पक्ष की सार्थक अनुभूति कराने
में यह राग समर्थ है। राग सोहनी, कर्नाटक संगीत के राग हंसनन्दी के समतुल्य
है। यदि राग हंसनन्दी में शुद्ध ऋषभ का प्रयोग किया जाए तो यह ठुमरी अंग
के राग सोहनी की अनुभूति कराता है। तंत्रवाद्य पर राग मारवा, पूरिया और
सोहनी का वादन अपेक्षाकृत कम किया जाता है।
भारतीय
फिल्मों के इतिहास में 1960 में प्रदर्शित, बेहद महत्त्वाकांक्षी फिल्म-
‘मुगल-ए-आजम’, एक भव्य कृति थी। इसके निर्माता-निर्देशक के. आसिफ ने फिल्म
की गुणबत्ता से कोई समझौता नहीं किया था। फिल्म के संगीत के लिए उन्होने
पहले गोविन्द राम और फिर अनिल विश्वास को दायित्व दिया, परन्तु
फिल्म-निर्माण में लगने वाले सम्भावित अधिक समय के कारण बात बनी नहीं।
अन्ततः संगीतकार नौशाद तैयार हुए। नौशाद ने फिल्म में मुगल-सल्तनत के वैभव
को उभारने के लिए तत्कालीन दरबारी संगीत की झलक दिखाने का हर सम्भव प्रयत्न
किया। नौशाद और के. आसिफ ने तय किया कि अकबर के नवरत्न तानसेन की मौजूदगी
का अनुभव भी फिल्म में कराया जाए। नौशाद की दृष्टि विख्यात गायक उस्ताद बड़े
गुलाम अली खाँ पर थी, किन्तु फिल्म में गाने के लिए उन्हें मनाना सरल नहीं
था। पहले तो खाँ साहब ने फिल्म में गाने से साफ मना कर दिया, परन्तु जब
दबाव बढ़ा तो टालने के इरादे से, एक गीत के लिए 25 हजार रुपये की माँग की।
खाँ साहब ने सोचा कि एक गीत के लिए इतनी बड़ी धनराशि देने के लिए निर्माता
तैयार नहीं होंगे। यह उस समय की एक बड़ी धनराशि थी, परन्तु के. आसिफ ने
तत्काल हामी भर दी। नौशाद ने शकील बदायूनी से प्रसंग के अनुकूल गीत लिखने
को कहा। गीत तैयार हो जाने पर नौशाद ने खाँ साहब को गीत सौंप दिया। उस्ताद
बड़े गुलाम अली खाँ ने ठुमरी अंग की गायकी में अधिक प्रयोग किये जाने वाले
राग सोहनी और दीपचन्दी ताल में निबद्ध कर गीत- ‘प्रेम जोगन बन के...’ को
रिकार्ड कराया। रिकार्डिंग से पहले खाँ साहब ने वह दृश्य देखने की इच्छा भी
जताई, जिस पर इस गीत को शामिल करना था। मधुबाला और दिलीप कुमार के उन
प्रसंगों को देख कर उन्होने गायन में कुछ परिवर्तन भी किये। इस प्रकार
भारतीय फिल्म-संगीत-इतिहास में राग सोहनी के स्वरों में ढला एक अनूठा गीत
शामिल हुआ। उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ द्वारा राग सोहनी के स्वरों में
पिरोया यह गीत के. आसिफ को इतना पसन्द आया कि उन्होने खाँ साहब को दोबारा
25 हजार रुपये भेंट करते हुए एक और गीत गाने का अनुरोध किया। खाँ साहब का
फिल्म में गाया राग रागेश्री, तीनताल में निबद्ध दूसरा गीत है- ‘शुभ दिन
आयो राजदुलारा...’। ये दोनों गीत फिल्म संगीत के इतिहास के सर्वाधिक
उल्लेखनीय किन्तु सबसे खर्चीले गीत सिद्ध हुए। लीजिए, आप उस्ताद बड़े गुलाम
अली खाँ द्वारा राग सोहनी के स्वरों में ढला यह गीत सुनिए और मुझे आज के इस
अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।
राग सोहनी : ‘प्रेम जोगन बन के...’ : उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ : फिल्म – मुगल-ए-आजम
संगीत पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ के 219वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको पचपन साल पुरानी एक भारतीय फिल्म के गीत का अंश एक उस्ताद गायक की आवाज में सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको निम्नलिखित तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली क्रमांक 220 के सम्पन्न होने तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष की दूसरी श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।
1 – गीत के इस अंश में किस राग का आभास हो रहा है? राग का नाम बताइए।
2 – प्रस्तुत रचना किस ताल में निबद्ध है? ताल का नाम बताइए।
3 - क्या आप गायक की आवाज़ को पहचान रहे है? यदि हाँ, तो उनका नाम बताइए।
आप इन प्रश्नों के उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार, 23 मई, 2015 की मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। COMMENTS में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 221वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत किये गए गीत-संगीत, राग अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस मंच पर स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’
की 217वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको 1952 में प्रदर्शित फिल्म
‘बैजू बावरा’ के एक गीत का अंश सुनवा कर आपसे तीन में से किसी दो प्रश्न के
उत्तर पूछा था। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग पूरिया धनाश्री, दूसरे
प्रश्न का सही उत्तर है- एकताल और तीसरे प्रश्न का सही उत्तर है- गायक
उस्ताद अमीर खाँ। इस बार की पहेली में हमारी एक नई श्रोता/पाठक रायपुर,
छत्तीसगढ़ से राजश्री श्रीवास्तव ने भाग लिया और पहले और दूसरे प्रश्न का
सही उत्तर देकर पूरे दो अंक अर्जित कर लिया। इसके साथ ही जबलपुर से क्षिति तिवारी, पेंसिलवेनिया,
अमेरिका की विजया राजकोटिया और हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी ने सही उत्तर दिया है। चारो प्रतिभागियों को
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
अपनी बात
मित्रो,
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर इन
दिनों हमारी लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ जारी है। श्रृंखला के
आज के अंक में हमने आपसे मारवा थाट और और उसके रागों पर सोदाहरण चर्चा की।
अगले अंक से हम एक और थाट के साथ उपस्थित होंगे। ‘स्वरगोष्ठी’ के विभिन्न
अंकों के बारे में हमें पाठकों, श्रोताओं और पहेली के प्रतिभागियों के अनेक
प्रतिक्रियाएँ और सुझाव मिलते हैं। प्राप्त सुझाव और फर्माइशों के अनुसार
ही हम अपनी आगामी प्रस्तुतियों का निर्धारण करते हैं। आप भी यदि कोई सुझाव
देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। अगले रविवार को प्रातः 9 बजे
‘स्वरगोष्ठी’ के नये अंक के साथ हम उपस्थित होंगे। हमें आपकी प्रतीक्षा
रहेगी।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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