Skip to main content

चित्रशाला - 01 : फ़िल्मों में प्रेमचन्द



चित्रशाला - 01

फ़िल्मों में प्रेमचन्द




'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, आज से महीने के हर पाँचवे शनिवार को हम प्रस्तुत करेंगे फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत से जुड़े विविध पहलुओं से सम्बन्धित शोधालेखों पर आधारित श्रृंखला 'चित्रशाला'। आज इसकी पहली कड़ी में प्रस्तुत है शोधालेख – 'फ़िल्मों में प्रेमचन्द’। हमारे देश के जो प्रमुख और महान साहित्यकार हुए हैं, उनमें मुंशी प्रेमचन्द का नाम बहुत ऊँचाइयों पर आता है। 31 जुलाई 1880 को जन्मे और 8 अक्टुबर 1936 को इस दुनिया से जाने वाले प्रेमचन्द जी को उनके जीवन काल में शायद इतनी ख्याति नहीं मिली हो जितना उनके जाने के बाद उनके नाम को मिला, उनकी कृतियों को मिली। और इसके पीछे महत्वपूर्ण योगदान रहा उनकी कहानियों और उपन्यासों पर बनने वाली फ़िल्मों का भी। आइए इस लेख के माध्यम से जाने कि प्रेमचन्द जी की कौन-कौन सी कृतियों पर बनी थी फ़िल्में और पढ़ें उन फ़िल्मों से सम्बन्धित कुछ रोचक तथ्य। 




भारत में साहित्यकारों, कवियों, लेखकों की ना उस ज़माने में कोई कद्र थी, ना ही आज है। और यही कारण है कि अत्यन्त प्रतिभाशाली होते हुए भी ये लेखक, ये साहित्यकार हमेशा ग़रीबी और आर्थिक समस्याओं से जीवन भर जूझते रहे। महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द भी इसमें व्यतिक्रम नहीं रहे। उनकी साहित्यिक पत्रिका ’हंस’ और ’जागरण’ में उन्हें माली नुकसान हुआ, पत्रिका बन्द करने के कगार पर आ गई। इसके चलते प्रेमचन्द जी की आर्थिक स्थिति और भी भायानक हो गई, उनकी जेब बिल्कुल ख़ाली हो चुकी थी। इसलिए 54 वर्ष की आयु में, 31 मई 1934 को वो आ गए बम्बई नगरी फ़िल्म जगत में अपनी क़िस्मत आज़माने। फ़िल्म निर्देशक मोहन भवनानी, जिन्हें हम एम. भवनानी के नाम से जानते हैं, प्रेमचन्द को बम्बई आने का निमंत्रण दिया था। यहाँ भवनानी ने उन्हें 'अजन्ता सिनेटोन’ में स्क्रिप्ट राइटर की नौकरी दिला दी। उन्होंने 'अजन्ता सिनेटोन’ के लिए एक कहानी लिखी ’मिल मज़दूर’। 1934 में ही इस कहानी पर एम. भवनानी के निर्देशन में फ़िल्म बनी ’मज़दूर’। मिस बिब्बो, जयराज, नयमपल्ली और भुडो अडवानी इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे। फ़िल्म में प्रेमचन्द ने भी सरपंच की एक छोटी सी भूमिका निभाई थी। फ़िल्म में मज़दूरों द्वारा शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के दृश्य दिखाए गए जिस वजह से समाज के कुछ बलशाली लोगों ने ब्रिटिश सरकार के कान भर कर फ़िल्म पर रोक लगवा दी। इसके बाद 1936 में भी इसी कहानी पर 'अजन्ता सिनेटोन’ ने ही एक अन्य नाम से एक फ़िल्म दोबारा बना डाली। इस बार फ़िल्म का शीर्षक रखा गया 'ग़रीब परवर’ उर्फ़ ’दयावान’।


साल 1935 में ’अजन्ता सिनेटोन’ की बैनर तले प्रेमचन्द की एक और कहानी पर फ़िल्म प्रदर्शित हुई जिसका शीर्षक था ’नवजीवन’। इस फ़िल्म के निर्देशक भी एम. भवनानी ही थे। ’अजन्ता सिनेटोन’ के बाहर 1934 में ’महालक्ष्मी सिनेटोन’ ने प्रेमचन्द जी की मशहूर कहानी ’सेवा सदन’ पर एक फ़िल्म बना डाली जिसका नाम रखा गया ’बाज़ार-ए-हुस्न’। यह कहानी वेश्याओं की समस्याओं पर आधारित थी। इसका निर्देशन किया था नानूभाई वकील ने। यह वाक़ई रोचक बात है कि इस फ़िल्म के बनने के ठीक 80 वर्ष बाद प्रेमचन्द की इसी ’सेवासदन’ कहानी पर ’बाज़ार-ए-हुस्न’ के नाम से ही दोबारा फ़िल्म बनी। इस बार निर्माता थे ए. के. मिश्र। यह फ़िल्म 18 जुलाई 2014 को प्रदर्शित हुई थी। रेशमी घोष, जीत गोस्वामी, ओम पुरी और यशपाल शर्मा अभिनीत इस फ़िल्म की एक और ख़ास बात यह है कि इस फ़िल्म में संगीत दिया है वरिष्ठ और सुरीले संगीतकार ख़य्याम ने। तमिल फ़िल्मकार सुब्रह्मण्यम ने 1937 में सफल फ़िल्म ’बालायोगिनी’ के बाद और भी कई सामाजिक फ़िल्में बनाने का निर्णय लिया। 1938 में उन्होंने ’सेवासदन’ उर्फ़ ’बाज़ार-ए-हुस्न’ को फ़िल्मी जामा पहनाया तमिल फ़िल्म ’सेवासदनम्’ के नाम से। फ़िल्म की पटकथा उन्होने स्वयं लिखी और इसका अपने ’मद्रास यूनाइटेड आर्टिस्ट्स कॉर्पोरेशन’ बैनर तले निर्माण किया। फ़िल्म का मुख्य चरित्र एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी ने निभाया।


1934-35 के इन दो सालों में ही प्रेमचन्द जी का फ़िल्म जगत पर से जैसे विश्वास उठ गया। जो आशाएँ और सपने लेकर वो बम्बई आए थे, वो जैसे कहीं ऊब गए। उन्होंने इस बारे में एक पत्र अपने मित्र साहित्यकार ज्ञानेन्द्र को लिखा और बताया कि जिन सपनों को लेकर वो बम्बई आए थे, वो सपने बिखर गए हैं। यहाँ निर्देशक सर्वेसर्वा हैं और वो कहानी के साथ मनमर्ज़ी से फेरबदल करते हैं, बेवजह अश्लील गाने ठूस दिए जाते हैं, ये सब कोई भी ख़ुद्दार स्वाभिमानी लेखक बरदाश्त नहीं कर सकता। इस घटना के बाद प्रेमचन्द बम्बई हमेशा हमेशा के लिए छोड़ कर वापस बनारस आ गए। और एक ही वर्ष के भीतर बनारस में ही 8 अक्टुबर 1936 को उनका 56 वर्ष की अल्पायु में निधन हो गया। प्रेमचन्द चले गए, परन्तु उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी लिखी कहानियों और उपन्यासों पर फ़िल्में बनाने का सिलसिला चलता रहा। एम. भवनानी, जिनके कारण प्रेमचन्द बम्बई तशरीफ़ लाए थे, उन्होंने साल 1946 में प्रेमचन्द लिखित कहानी ’रंगभूमि’ पर एक फ़िल्म बनाई थी जिसका नाम था ’चौगान-ए-हस्ती’। 1963 में त्रिलोक जेटली ने प्रेमचन्द की अमर कृति ’गोदान’ पर इसी शीर्षक से फ़िल्म बनाई जिसमें राजकुमार और कामिनी कौशल मुख्य भुमिकाओं में थे। 1966 में सुनील दत्त और साधना को लेकर ॠषीकेश मुखर्जी ने प्रेमचन्द की एक और महत्वपूर्ण कृति ’ग़बन’ पर इसी शीर्षक से फ़िल्म बनाई।


1977 में सत्यजीत रे ने प्रेमचन्द की एक कहानी पर ’शतरंज के खिलाड़ी’ बनाई। यह कहानी लखनऊ के नवाबों के पतन की कहानी थी जिसमें एक खेल के प्रति ऑबसेशन सारे खिलाड़ियों का खा जाती है, और उन्हें एक संकट की घड़ी में अपने दायित्वों को भुला देती है। सत्यजीत रे ने प्रेमचन्द की एक और कृति ’सदगति’ पर साल 1981 में एक फ़िल्म बनाई। यह एक लघु कथा थी ग़रीब ’दुखी’ की एक तुच्छ सहायता के बदले में लकड़ी काटते-काटते थकावट से मर जाता है। 1977 में प्रेमचन्द जी की कहानी ’कफ़न’ पर प्रसिद्ध फ़िल्मकार मृणाल सेन ने तेलुगू में ’ओका ऊरी कथा’ शीर्षक से एक फ़िल्म बनाई थी जो तेलुगू में बनने वाली गिनती भर की कलात्मक फ़िल्मों में गिनी जाती है। प्रेमचन्द की कृतियों पर बनने वाली फ़िल्मों में कुछ और नाम हैं ’गोधूली’ (1977), 'पंचपरमेश्वर’ (1995) और ’गुल्ली डंडा’ (2010)

आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमें अवश्य लिखिए। आपके सुझावों के आधार पर हम अपने कार्यक्रम निर्धारित करते हैं। आप हमें radioplaybackindia@live.com के पते पर अपने सुझाव, समालोचना और फरमाइशें भेज सकते हैं।


खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी





Comments

Popular posts from this blog

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

खमाज थाट के राग : SWARGOSHTHI – 216 : KHAMAJ THAAT

स्वरगोष्ठी – 216 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 3 : खमाज थाट   ‘कोयलिया कूक सुनावे...’ और ‘तुम्हारे बिन जी ना लगे...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की तीसरी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया था। वर्तमान समय मे...