चित्रशाला - 01
फ़िल्मों में प्रेमचन्द
साल 1935 में ’अजन्ता सिनेटोन’ की बैनर तले प्रेमचन्द की एक और कहानी पर फ़िल्म प्रदर्शित हुई जिसका शीर्षक था ’नवजीवन’। इस फ़िल्म के निर्देशक भी एम. भवनानी ही थे। ’अजन्ता सिनेटोन’ के बाहर 1934 में ’महालक्ष्मी सिनेटोन’ ने प्रेमचन्द जी की मशहूर कहानी ’सेवा सदन’ पर एक फ़िल्म बना डाली जिसका नाम रखा गया ’बाज़ार-ए-हुस्न’। यह कहानी वेश्याओं की समस्याओं पर आधारित थी। इसका निर्देशन किया था नानूभाई वकील ने। यह वाक़ई रोचक बात है कि इस फ़िल्म के बनने के ठीक 80 वर्ष बाद प्रेमचन्द की इसी ’सेवासदन’ कहानी पर ’बाज़ार-ए-हुस्न’ के नाम से ही दोबारा फ़िल्म बनी। इस बार निर्माता थे ए. के. मिश्र। यह फ़िल्म 18 जुलाई 2014 को प्रदर्शित हुई थी। रेशमी घोष, जीत गोस्वामी, ओम पुरी और यशपाल शर्मा अभिनीत इस फ़िल्म की एक और ख़ास बात यह है कि इस फ़िल्म में संगीत दिया है वरिष्ठ और सुरीले संगीतकार ख़य्याम ने। तमिल फ़िल्मकार सुब्रह्मण्यम ने 1937 में सफल फ़िल्म ’बालायोगिनी’ के बाद और भी कई सामाजिक फ़िल्में बनाने का निर्णय लिया। 1938 में उन्होंने ’सेवासदन’ उर्फ़ ’बाज़ार-ए-हुस्न’ को फ़िल्मी जामा पहनाया तमिल फ़िल्म ’सेवासदनम्’ के नाम से। फ़िल्म की पटकथा उन्होने स्वयं लिखी और इसका अपने ’मद्रास यूनाइटेड आर्टिस्ट्स कॉर्पोरेशन’ बैनर तले निर्माण किया। फ़िल्म का मुख्य चरित्र एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी ने निभाया।
1934-35 के इन दो सालों में ही प्रेमचन्द जी का फ़िल्म जगत पर से जैसे विश्वास उठ गया। जो आशाएँ और सपने लेकर वो बम्बई आए थे, वो जैसे कहीं ऊब गए। उन्होंने इस बारे में एक पत्र अपने मित्र साहित्यकार ज्ञानेन्द्र को लिखा और बताया कि जिन सपनों को लेकर वो बम्बई आए थे, वो सपने बिखर गए हैं। यहाँ निर्देशक सर्वेसर्वा हैं और वो कहानी के साथ मनमर्ज़ी से फेरबदल करते हैं, बेवजह अश्लील गाने ठूस दिए जाते हैं, ये सब कोई भी ख़ुद्दार स्वाभिमानी लेखक बरदाश्त नहीं कर सकता। इस घटना के बाद प्रेमचन्द बम्बई हमेशा हमेशा के लिए छोड़ कर वापस बनारस आ गए। और एक ही वर्ष के भीतर बनारस में ही 8 अक्टुबर 1936 को उनका 56 वर्ष की अल्पायु में निधन हो गया। प्रेमचन्द चले गए, परन्तु उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी लिखी कहानियों और उपन्यासों पर फ़िल्में बनाने का सिलसिला चलता रहा। एम. भवनानी, जिनके कारण प्रेमचन्द बम्बई तशरीफ़ लाए थे, उन्होंने साल 1946 में प्रेमचन्द लिखित कहानी ’रंगभूमि’ पर एक फ़िल्म बनाई थी जिसका नाम था ’चौगान-ए-हस्ती’। 1963 में त्रिलोक जेटली ने प्रेमचन्द की अमर कृति ’गोदान’ पर इसी शीर्षक से फ़िल्म बनाई जिसमें राजकुमार और कामिनी कौशल मुख्य भुमिकाओं में थे। 1966 में सुनील दत्त और साधना को लेकर ॠषीकेश मुखर्जी ने प्रेमचन्द की एक और महत्वपूर्ण कृति ’ग़बन’ पर इसी शीर्षक से फ़िल्म बनाई।
1977 में सत्यजीत रे ने प्रेमचन्द की एक कहानी पर ’शतरंज के खिलाड़ी’ बनाई। यह कहानी लखनऊ के नवाबों के पतन की कहानी थी जिसमें एक खेल के प्रति ऑबसेशन सारे खिलाड़ियों का खा जाती है, और उन्हें एक संकट की घड़ी में अपने दायित्वों को भुला देती है। सत्यजीत रे ने प्रेमचन्द की एक और कृति ’सदगति’ पर साल 1981 में एक फ़िल्म बनाई। यह एक लघु कथा थी ग़रीब ’दुखी’ की एक तुच्छ सहायता के बदले में लकड़ी काटते-काटते थकावट से मर जाता है। 1977 में प्रेमचन्द जी की कहानी ’कफ़न’ पर प्रसिद्ध फ़िल्मकार मृणाल सेन ने तेलुगू में ’ओका ऊरी कथा’ शीर्षक से एक फ़िल्म बनाई थी जो तेलुगू में बनने वाली गिनती भर की कलात्मक फ़िल्मों में गिनी जाती है। प्रेमचन्द की कृतियों पर बनने वाली फ़िल्मों में कुछ और नाम हैं ’गोधूली’ (1977), 'पंचपरमेश्वर’ (1995) और ’गुल्ली डंडा’ (2010)
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