स्वरगोष्ठी – 207 में आज
भारतीय संगीत शैलियों का परिचय : 5 : खयाल
राग ललित और बसन्त में आलाप, विलम्बित और द्रुत खयाल
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक
स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर लघु श्रृंखला ‘भारतीय संगीत शैलियों का
परिचय’ की पाँचवीं कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों
का हार्दिक स्वागत करता हूँ। पाठकों और श्रोताओं के अनुरोध पर आरम्भ की गई
इस लघु श्रृंखला के अन्तर्गत हम भारतीय संगीत की उन परम्परागत शैलियों का
परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जो आज भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे बीच उपस्थित हैं।
भारतीय संगीत की एक समृद्ध परम्परा है। वैदिक युग से लेकर वर्तमान तक इस
संगीत-धारा में अनेकानेक धाराओं का संयोग हुआ। इनमें से जो भारतीय संगीत के
मौलिक सिद्धांतों के अनुकूल धारा थी उसे स्वीकृति मिली और वह आज भी एक
संगीत शैली के रूप स्थापित है और उनका उत्तरोत्तर विकास भी हुआ। विपरीत
धाराएँ स्वतः नष्ट भी हो गईं। पिछली चार कड़ियों में हमने भारतीय संगीत की
सबसे प्राचीन और वर्तमान में उपलब्ध संगीत शैली ‘ध्रुपद’ शैली का सोदाहरण
परिचय प्रस्तुत किया था। आज के अंक से हम वर्तमान में सबसे लोकप्रिय ‘खयाल’
शैली का परिचय आरम्भ कर रहे हैं। आज के अंक में पुराने उस्तादों- उस्ताद
फ़ैयाज़ खाँ और उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों में विलम्बित और द्रुत खयाल
के साथ आलाप का उदाहरण भी हम प्रस्तुत करेंगे। आज प्रस्तुत किये जाने वाले
राग हैं, ललित और बसन्त।
भारतीय संगीत में ध्रुपद शैली के बाद जिस शैली का विकास हुआ उसे हम आज की सबसे लोकप्रिय और प्रचलित शैली ‘खयाल’ के नाम से जानते हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक अनेक कारणों से जनरुचि में पर्याप्त बदलाव आ चुका था। संगीत मन्दिरों से निकल कर राजदरबारों में पहले ही स्थापित हो चुका था। ध्रुपद संगीत से प्रभावित होकर सूफी संगीत भी अस्तित्व में आ चुका था। कई विद्वान मानते हैं कि खयाल शैली पर सूफी संगीत का स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। ‘खयाल’ शब्द फारसी भाषा का है, जिसका अर्थ ‘कल्पना’ होता है। मध्यकाल में खयाल नामक एक लोक संगीत की शैली भी प्रचलित थी। सम्भव है इस लोक शैली का प्रभाव भी खयाल शैली पर पड़ा हो। पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जौनपुर के सुल्तान हुसैन शाह शर्क़ी को खयाल शैली का प्रवर्तक माना जाता है। अठारहवीं शताब्दी में मुहम्मद शाह रँगीले के दरबारी संगीतज्ञ नियामत खाँ ‘सदारंग’ ने इस शैली को शास्त्रीय संगीत के रूप में प्रतिष्ठित किया। खयाल शैली की भाषा ध्रुपद की भाँति संस्कृतनिष्ठ न होकर तत्कालीन प्रचालित ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी, अवधी और भोजपुरी से प्रभावित हुई। इसके अलावा खयाल शैली में सदारंग ने आलाप के महत्त्व को कम करते हुए राग-विस्तार अथवा स्वर-विस्तार को अधिक महत्त्व दिया। खयाल शैली में आलाप का अंदाज़ खयाल अंगों के अनुरूप होता है। आगरा घराने के गायक ध्रुपद जैसा आलाप करते हैं। आज हम आपको खयाल शैली में ध्रुपद अंग जैसा आलाप और एक द्रुत खयाल उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ की आवाज़ में सुनवाते हैं।
भारतीय संगीत के प्रचलित घरानों में जब भी आगरा घराने की चर्चा होगी तत्काल एक नाम जो हमारे सामने आता है, वह है, आफताब-ए-मौसिकी उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ का। पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध के जिन संगीतज्ञों की गणना हम शिखर-पुरुष के रूप में कराते हैं, उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ उन्ही में से एक थे। ध्रुपद-धमार, खयाल-तराना, ठुमरी-दादरा आदि सभी शैलियों की गायकी पर उन्हें कुशलता प्राप्त थी। प्रकृति ने उन्हें घन, मन्द्र और गम्भीर कण्ठ का उपहार तो दिया ही था, उनके शहद से मधुर स्वर श्रोताओं पर रस की वर्षा कर देते थे। फ़ैयाज़ खाँ का जन्म ‘आगरा रँगीले घराना’ के नाम से विख्यात ध्रुवपद गायकों के परिवार में हुआ था। दुर्भाग्य से फ़ैयाज़ खाँ के जन्म से लगभग तीन मास पूर्व ही उनके पिता सफदर हुसैन खाँ का इन्तकाल हो गया। जन्म से से ही पितृ-विहीन बालक को उनके नाना गुलाम अब्बास खाँ ने अपना दत्तक पुत्र बना लिया और पालन-पोषण के साथ ही संगीत के शिक्षा की व्यवस्था भी की। यही बालक आगे चल कर आगरा घराने का प्रतिनिधि बना और भारतीय संगीत के अर्श पर आफताब बन कर चमका। फ़ैयाज़ खाँ की विधिवत संगीत शिक्षा उस्ताद ग़ुलाम अब्बास खाँ से आरम्भ हुई, जो फ़ैयाज़ खाँ के गुरु और नाना तो थे ही, गोद लेने के कारण पिता के पद पर भी प्रतिष्ठित हो चुके थे। फ़ैयाज़ खाँ के पिता का घराना ध्रुपदियों का था, अतः ध्रुवपद अंग की गायकी इन्हें संस्कारगत प्राप्त हुई। आगे चल कर फ़ैयाज़ खाँ ध्रुवपद के आलाप में इतने दक्ष हो गए थे कि संगीत समारोहों में उनके समृद्ध आलाप की फरमाइश हुआ करती थी। अब हम उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ के स्वरों में राग ललित का आलाप और खयाल अंग की एक बन्दिश प्रस्तुत कर रहे हैं।
राग ललित : आलाप और बन्दिश : ‘तड़पत हूँ जैसे जल बिन मीन...’ : उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ
खयाल गायकी में स्वर-विस्तार की प्रधानता होने के कारण आलाप सीमित हो जाता है। खयाल के शुरुआती दौर में तानों का प्रयोग नहीं होता था। बाद में जब घरानों का निर्माण हुआ तब गायकी में रंजकता और चमत्कार उत्पन्न करने के लिए तानों का प्रचलन हुआ। खयाल में स्थायी और अन्तरा, दो भाग होते हैं। स्थायी में अपेक्षाकृत शब्द कम होते हैं, जिससे ताल के आवर्तन में बोलतानों के गाने में सुविधा रहे। विलम्बित या बड़ा खयाल प्रायः एकताल, तिलवाड़ा, झूमरा, आड़ा चौताल आदि तालों में और मध्य-द्रुत खयाल या छोटा खयाल तीनताल, एकताल, झपताल, रूपक आदि तालों में निबद्ध होते हैं। पखावज के स्थान पर तबला की संगति की जाती है। अब हम आपके लिए विलम्बित और मध्य-द्रुत खयाल का एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। अपने समय के सुविख्यात संगीतज्ञ उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों मे राग बसन्त में विलम्बित और द्रुत खयाल प्रस्तुत है।
उस्ताद अब्दुल करीम खाँ ऐसे गवैये थे जिन्होने सम्पूर्ण भारतीय संगीत का प्रतिनिधित्व किया। वे उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत के बीच एक सेतु थे। उन्होने दक्षिण के कर्नाटक संगीत के कई रागों को उत्तर भारतीय संगीत में शामिल किया और सरगम के विशिष्ट अन्दाज को उत्तर भारत में प्रचलित किया। उनकी कल्पना विस्तृत और अनूठी थी, जिसके बल पर उन्होने भारतीय संगीत को एक नया आयाम और क्षितिज प्रदान किया। इस महान संगीतज्ञ का जन्म उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुजफ्फरनगर जिले में स्थित कैराना नामक कस्बे में वर्ष 1884 में हुआ था। एक संगीतकार परिवार में जन्में अब्दुल करीम खाँ के पिता का नाम काले खाँ था। खाँ साहब के तीन भाई क्रमशः अब्दुल लतीफ़ खाँ, अब्दुल मजीद खाँ और अब्दुल हक़ खाँ थे। जन्म से ही सुरीले कण्ठ के धनी अब्दुल करीम खाँ की सीखने की रफ्तार इतनी तेज थी कि मात्र छः वर्ष की आयु में ही प्रतिष्ठित संगीत सभाओं में गाने लगे थे। उनकी प्रतिभा इतनी विलक्षण थी कि पन्द्रह वर्ष की आयु में बड़ौदा दरबार में गायक के रूप में नियुक्त हो गए थे। वहाँ वे 1899 से 1902 तक रहे और उसके बाद मिरज चले गए। खाँ साहब के स्वरों में जैसी मधुरता, जैसा विस्तार और जैसी शुद्धता थी वैसी अन्य किसी गायक को नसीब नहीं हुई। वे विलम्बित खयाल में लयकारी और बोलतान की अपेक्षा आलाप पर अधिक ध्यान रखते थे। उनके गायन में वीणा की मींड़, सारंगी के कण और गमक का मधुर स्पर्श होता था। रचना के स्थायी और एक अन्तरे में ही खयाल गायन के सभी गुणो का प्रदर्शन कर देते थे। अपने गायन की प्रस्तुति के समय वे अपने तानपूरे में पंचम के स्थान पर निषाद स्वर में मिला कर गायन करते थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। आइए, अब हम उस्ताद अब्दुल करीम खाँ के स्वरों में राग बसन्त में निबद्ध दो खयाल सुनते हैं। विलम्बित एकताल के खयाल के बोल हैं- ‘अब मैंने देखे...’ तथा द्रुत तीनताल की बन्दिश के बोल हैं- ‘फगुआ ब्रज देखन को चलो री...’।
राग बसन्त : विलम्बित खयाल ‘अब मैंने देखे...’ और द्रुत खयाल ‘फगुआ ब्रज देखन...’ : उस्ताद अब्दुल करीम खाँ
संगीत पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ के 207वें अंक की पहेली में आज हम आपको कण्ठ संगीत का अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको निम्नलिखित तीन प्रश्नों में से कोई दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली क्रमांक 210 के सम्पन्न होने तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष की पहली श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।
1 – भारतीय संगीत की यह कौन सी शैली है? शैली का नाम बताइए।
2 – संगीत के इस अंश में किस राग का आभास हो रहा है? राग का नाम बताइए।
3 – प्रस्तुत रचना किस ताल में निबद्ध है? ताल का नाम बताइए।
आप उपरोक्त तीन में से किसी दो प्रश्न का उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार, 21 फरवरी, 2015 की मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। COMMENTS में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 209वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत किये गए गीत-संगीत, राग अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस मंच पर स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’ की 205वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको उस्ताद असद अली खाँ का रुद्रवीणा पर बजाये राग आसावरी का अंश सुनवा कर आपसे तीन प्रश्न पूछे थे। आपको इनमे से किसी दो प्रश्न का उत्तर देना था। यह हमारे लिए अत्यन्त सुखद था कि सभी प्रतिभागियों ने तीनों प्रश्नों के सही उत्तर दिये। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- वाद्य रुद्रवीणा, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- राग आसावरी और तीसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल चौताल। इस बार की पहेली में पूछे गए प्रश्नो के सही उत्तर जबलपुर से क्षिति तिवारी, हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी और पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
अपनी बात
मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर इन दिनों हमारी लघु श्रृंखला ‘भारतीय संगीत शैलियों का परिचय’ जारी है। श्रृंखला के आज के अंक से हमने संगीत के खयाल शैली का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं। इस श्रृंखला में आप भी योगदान कर सकते हैं। भारतीय संगीत की किसी शैली पर अपना परिचयात्मक आलेख अपने नाम और परिचय के साथ हमारे ई-मेल पते पर भेज दें। आप अपनी फरमाइश या अपनी पसन्द का आडियो क्लिप भी हमें भेज सकते हैं। अगले रविवार को प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के नये अंक के साथ हम उपस्थित होंगे। अगले अंक भी हमें आपकी प्रतीक्षा रहेगी।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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