स्वरगोष्ठी – 208 में आज
भारतीय संगीत शैलियों का परिचय : 6 : तराना
सार्थक शब्दों की अनुपस्थिति के बावजूद रसानुभूति कराने में समर्थ तराना शैली
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर लघु श्रृंखला ‘भारतीय संगीत शैलियों का परिचय’ की एक और नयी कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। पाठकों और श्रोताओं के अनुरोध पर आरम्भ की गई इस लघु श्रृंखला के अन्तर्गत हम भारतीय संगीत की उन परम्परागत शैलियों का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जो आज भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे बीच उपस्थित हैं। भारतीय संगीत की एक समृद्ध परम्परा है। वैदिक युग से लेकर वर्तमान तक इस संगीत-धारा में अनेकानेक धाराओं का संयोग हुआ। इनमें से जो भारतीय संगीत के मौलिक सिद्धांतों के अनुकूल धारा थी उसे स्वीकृति मिली और वह आज भी एक संगीत शैली के रूप स्थापित है और उनका उत्तरोत्तर विकास भी हुआ। विपरीत धाराएँ स्वतः नष्ट भी हो गईं। पिछली कड़ी से हमने भारतीय संगीत की सर्वाधिक लोकप्रिय ‘खयाल’ शैली का परिचय आरम्भ किया है। आज के अंक में हम खयाल शैली के साथ अभिन्न रूप से सम्बद्ध ‘तराना’ शैली पर सोदाहरण चर्चा करेंगे। तराना रचनाओं में सार्थक शब्द नहीं होते। परन्तु रचना से रसानुभूति पूरी होती है। आज के अंक में हम आपको सुप्रसिद्ध गायिका विदुषी परवीन सुल्ताना के स्वरों में राग हंसध्वनि के तराना का रसास्वादन कराते हैं। इसके अलावा लगभग छः दशक पुरानी फिल्म ‘लड़की’ से सुविख्यात पार्श्वगायिका लता मंगेशकर गाये एक गीत का अंश भी प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें उन्होने राग चन्द्रकौंस का तराना गाया है।
परम्परागत भारतीय संगीत की शैलियों में खयाल शैली वर्तमान में सर्वाधिक प्रचलित है। वर्तमान शास्त्रीय संगीत से यह इतनी घुल-मिल गई है कि इसके बिना रागदारी संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसकी लोकप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि वाद्य संगीत पर भी खयाल बजाया जाता है। खयाल शैली विकास अठारहवीं शताब्दी से हुआ है। खयाल शब्द फारसी भाषा का है, जो संस्कृत के ‘ध्यान’ शब्द का पर्याय है। प्राचीन ग्रन्थकार मतंग के काल में विभिन्न रागों को ध्यान शैली में गायन का उल्लेख मिलता है। सम्भव है ध्यान परम्परा से खयाल शैली का सम्बन्ध हो। खयाल शैली का सम्बन्ध सूफी संगीत से भी जुड़ता है। सूफी काव्य में भी खयाल नाम से एक प्रकार प्रचलित रहा है। कुछ विद्वान खयाल शैली पर मध्यकाल के लोक संगीत का प्रभाव भी मानते हैं। आज भी राजस्थान, ब्रज और अवध क्षेत्र में खयाल नामक लोक संगीत का एक प्रकार प्रचलित है। एक खयाल रचना के तीन भाग होते हैं; अत्यन्त संक्षिप्त आलाप, विलम्बित खयाल और द्रुत खयाल। खयाल के भी दो भाग हो जाते हैं; स्थायी और अन्तरा। स्थायी और अन्तरा के लिए एक संक्षिप्त सी पद की रचना भी होती है। भारतीय शास्त्रीय संगीत स्वर-प्रधान है। अधिकतर विद्वान शब्दों को स्वर के आरोहण का एक माध्यम ही मानते हैं और राग के स्वरों की अपेक्षा शब्दों को विशेष महत्त्व नहीं देते। परन्तु कुछ विद्वान खयाल गायन में शब्दों के उच्चारण पर विशेष बल देते हैं। इनका मानना है कि स्वरो में रस के निष्पत्ति की सीमित सम्भावना होती है, जबकि शब्दों अर्थात साहित्य को जब स्वरों का संयोग मिलता है तब सभी नौ प्रकार के रसों की सृष्टि सहज हो जाती है। विलम्बित, मध्य और द्रुत खयाल के साथ ही तराना गायकी का विशेष महत्त्व है। तराना की संरचना मध्य या द्रुत लय के खयाल जैसी होती है, अन्तर इसकी शब्द रचना में होता है। खयाल के स्थायी और अन्तरा में सार्थक शब्दों की रचना होती है, जबकि तराना मे निरर्थक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ये शब्द सार्थक नहीं होते किन्तु लय के प्रवाह सरलता से घुल-मिल जाते हैं। कुशल कलासाधक तराना के इन्हीं निरर्थक साहित्य के माध्यम सार्थक रसानुभूति कराने में समर्थ होते हैं। तराना के उदाहरण के लिए आज के अंक में हमने राग हंसध्वनि के एक मोहक तराना का चुनाव किया है। यह तराना सुविख्यात संगीत-विदुषी परवीन सुल्ताना प्रस्तुत कर रही हैं। हमारी यह चर्चा जारी रहेगी, पहले आप यह तराना सुनिए।
राग हंसध्वनि : आलापचारी और द्रुत तीनताल का तराना : बेगम परवीन सुल्ताना
स्वर-विस्तार की प्रधानता होने कारण खयाल में आलाप का महत्त्व सीमित हो गया है। इस शैली में ध्रुपद जैसी स्थिरता और गम्भीर गमक के अलावा छूट, मुरकी, जमजमा आदि का महत्त्व बढ़ जाता है। आरम्भिक काल के खयाल में तानों का प्रयोग नहीं होता था। बाद में जब घरानों की स्थापना हुई तो तानों का प्रयोग वैचित्र्य के लिए किया जाने लगा। यही नहीं इस शैली में सरगम का प्रयोग भी बाद में शुरू हुआ। तराना गायकी में लयकारी का विशेष महत्त्व होता है। फिल्म संगीत में कई संगीतकारों ने तराना का इस्तेमाल किया है। 1953 में ए.वी.एम. प्रोडक्शन की एक फिल्म ‘लड़की’ के एक गीत में तराना का प्रयोग किया गया था। इस फिल्म के संगीतकार धनीराम ने फिल्म के एक नृत्यगीत के अन्त में राग चन्द्रकौंस के संक्षिप्त तराना को जोड़ा था। फिल्म में यह गीत अभिनेत्री और नृत्यांगना वैजयन्तीमाला द्वारा मंच पर प्रस्तुत किये जा रहे नृत्य में शामिल किया गया था। मूल गीत के बोल हैं- ‘मेरे वतन से अच्छा कोई वतन नहीं है...’। गीतकार राजेंद्र कृष्ण की इस रचना के अन्तिम डेढ़ मिनट की अवधि में संगीतकार धनीराम ने राग चन्द्रकौंस का ताराना इस्तेमाल किया था। पूरा गीत और अन्त का तराना लता मंगेशकर ने गाया है। आप गीत का तराना वाला हिस्सा सुनिए और मुझे आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।
राग चन्द्रकौंस : फिल्म लड़की : गीत ‘मेरे वतन से अच्छा...’ का तराना अंश : लता मंगेशकर
संगीत पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ के 208वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको कण्ठ संगीत का एक अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको निम्नलिखित तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के 210वें अंक की समाप्ति तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष की पहली श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।
1 – संगीत का यह अंश सुन कर बताइए कि यह रचना किस राग में निबद्ध है?
2 – प्रस्तुति के इस अंश में किस ताल का प्रयोग किया गया है? ताल का नाम बताइए।
3 – इस रचना के गायक को पहचानिए और उनका नाम बताइए।
आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर इस प्रकार भेजें कि हमें शनिवार 28 फरवरी, 2015 की मध्यरात्रि से पूर्व तक अवश्य प्राप्त हो जाए। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। इस पहेली के विजेताओं के नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 210वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रकाशित और प्रसारित गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’ की 206वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की एक पुरानी रेकार्डिंग का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग बसन्त और पहेली के दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल विलम्बित एकताल। इस बार पहेली के दोनों प्रश्नो के सही उत्तर पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया, जबलपुर से क्षिति तिवारी और हैदराबाद से डी. हरिना माधवी ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
अपनी बात
मित्रो, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर इन दिनों जारी है हमारी लघु श्रृंखला- ‘भारतीय संगीत शैलियों का परिचय’। इस श्रृंखला के अन्तर्गत वर्तमान में भारतीय संगीत की जो भी शैलियाँ प्रचलन में हैं, उनका सोदाहरण परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं। आज आपने खयाल शैली से जुड़े तराना का परिचय प्राप्त किया। अगले अंक में हम आपका परिचय संगीत की किसी अन्य प्रकार से कराएंगे। यदि आप भी संगीत के किसी भी विषय पर हिन्दी में लेखन की इच्छा रखते हैं तो हमसे सम्पर्क करें। हम आपकी प्रतिभा को निखारने का अवसर सहर्ष देंगे। आगामी श्रृंखलाओं के बारे में आपके सुझाव सादर आमंत्रित हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ स्तम्भ के आगामी अंकों में आप क्या पढ़ना और सुनना चाहते हैं, हमे आविलम्ब लिखें। अपनी पसन्द के विषय और गीत-संगीत की फरमाइश अथवा अगली श्रृंखलाओं के लिए आप किसी नए विषय का सुझाव भी दे सकते हैं। अगले रविवार को एक नए अंक के साथ प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर सभी संगीतानुरागियों का हम स्वागत करेंगे।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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