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प्रसिद्ध ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड कलेक्टर डॉ. प्रकाश जोशी से मुलाक़ात



स्मृतियों के स्वर - 16




प्रसिद्ध ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड कलेक्टर डॉ. प्रकाश जोशी से मुलाक़ात





'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, एक ज़माना था जब घर बैठे प्राप्त होने वाले मनोरंजन का एकमात्र साधन रेडियो हुआ करता था। गीत-संगीत सुनने के साथ-साथ बहुत से कार्यक्रम ऐसे हुआ करते थे जिनमें कलाकारों से साक्षात्कार करवाये जाते थे और जिनके ज़रिये फ़िल्म और संगीत जगत के इन हस्तियों की ज़िन्दगी से जुड़ी बहुत सी बातें जानने को मिलती थी। गुज़रे ज़माने के इन अमर फ़नकारों की आवाज़ें आज केवल आकाशवाणी और दूरदर्शन के संग्रहालय में ही सुरक्षित हैं। मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि शौकिया तौर पर मैंने पिछले बीस वर्षों में बहुत से ऐसे कार्यक्रमों को लिपिबद्ध कर अपने पास एक ख़ज़ाने के रूप में समेट रखा है। 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' पर, महीने के हर दूसरे और चौथे शनिवार को इसी ख़ज़ाने में से मैं निकाल लाता हूँ कुछ अनमोल मोतियाँ हमारे इस स्तंभ में, जिसका शीर्षक है - स्मृतियों के स्वर। इस स्तम्भ के माध्यम से हम और आप साथ मिल कर गुज़रते हैं स्मृतियों के इन हसीन गलियारों से। आज हम आपकी मुलाक़ात करवा रहे हैं प्रसिद्ध ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड कलेक्टर डॉ. प्रकाश जोशी से। डॉ. जोशी हमें सैर करवायेंगे गुज़रे ज़माने के कुछ हसीन सुरीले नज़ारों के, और साथ ही ज़िक्र भूले-बिसरे साज़िन्दों का जो हिस्सा थे उन सदाबहार नग़मों के। 





सूत्र: जुबिली झंकार, विविध भारती, 3 अक्तूबर 2008



डॉ. साहब, सबसे पहले तो हम यह जानना चाहेंगे कि फ़िल्म-संगीत का जो यह पूरा का पूरा इतिहास छुपा हुआ है आपके घर में, उसके बारे में कुछ बताएँ। 

नारायणराव व्यास
शुरुआत तो बचपन से ही हुई है। जब मैं छोटा था, तो मेरे पिताजी भजन और पुराने जो 78 RPM के रेकॉर्ड्स का उनके चाचाजी के पास बहुत बड़ा कलेक्शन था; और ऐसे ऐसे सब कलाकार थे, नारायण राव व्यास, बाल गंधर्व, अमीरबाई, उनके सब 78 RPM रेकॉर्ड्स वो लाया करते थे। हमारे घर के पीछे एक बगीचा था, फूलों में पानी डालते हुए, मुझे अभी तक याद है, "राधे कृष्ण बोल मुख से", नारायण राव व्यास जी का बहुत बढ़िया भजन था, हम सुना करते थे। फिर क्या है मेरी माताजी भी बहुत गाने गाया करती थीं। जैसे "शान्ता सागरी कशा सा उठवली सवादडे...", ऐसा एक बहुत फ़ेमस सॉंग हुआ करता था। हमारे यहाँ जो पहली रेकॉर्ड आयी थी, वह 'तराना' फ़िल्म की थी और पहला गाना था "सीने में सुलगते हैं अरमान"। यह जो गाना है, वह रचने वाले प्रेम धवन साहब, गाने वाले तलत साहब, और संगीतकार अनिल बिस्वास साहब, तीनो एक साथ मेरे घर में आयेंगे और अपने गाने का लुत्फ़ उठायेंगे, वह मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। मुझे लगा, 'oh my God, what I have achieved!'


अच्छा डॉ साहब, कलाकारों से मिलने का मौका और ये सब कैसे संभव हुआ? यह प्रैक्टिस कब से शुरु हुई आपकी?

दत्ता डावजेकर
बस, 1970 के आसपास। फिर जैसे जैसे रेकॉर्ड मिलते गये, मैं एक एक करके कलेक्ट करता गया। पहले तो चोर बज़ार, फिर मैंने कराची से, लंदन से, दुबई से, फिर ईस्ट में भी काफ़ी पिक्चर्स मिले, फिर लंदन से भी मुझे अच्छे अच्छे पिक्चर्स मिले जो यहाँ पर नहीं थे उपलब्ध। तो कम्पाइलेशन का दौर वहाँ से चालू हुआ। सबसे पहले मैंने विडियो कम्पाइलेशन किया मधुबाला का। लेकिन पर्दे के उपर फ़िल्म 'आराम' का एक गीत है "मन में किसी का प्रीत बसा ले ओ मतवाले ओ मतवाले", लता जी का गीत है, अनिल दा का संगीत है, और जब अनिल दा हमारे घर आये थे तो सनी कास्तोलिनो जो कलाकार था, जिसका वो हमेशा ज़िक्र करते थे, और इस गाने में जो पियानो बजा है, वह सनी कास्तोलिनो, जो गोवा के आर्टिस्ट हैं, उनका बजाया हुआ है और ऐसे पियानो के सॉंग्स बहुत कम है। लता जी ने 'छत्रपति शिवाजी' नाम से एक फ़िल्म थी, उस फ़िल्म में उन्होंने ख़ुद भी काम किया था, और गाने भी गाये थे, लेकिन यह कहा जाता है कि 'आपकी सेवा में' जो फ़िल्म थी, दत्ता डावजेकर का संगीत था, मैं यह कहना चाहूंगा कि दत्ता डावजेकर अनिल दा को अपना गुरु मानते थे। उनका जो लता जी का पहला गाना है, 'आपकी सेवा में' का, "पा लागूँ कर जोरी रे, श्याम ना मारो पिचकारी", इतना बढ़िया गाना और इतनी यंग है लता जी, और पूरा बैठक में जो ठुमरी होती है, बैठक की ठुमरी, वही उस गाने में, और क्या लता जी की आवाज़ लगी है!


डॉ साहब, हम आपसे जानना चाह रहे थे कि जो बड़े-बड़े कलाकार आपके घर में आये थे, उसके बारे में कुछ और हमें बतायें?

अभी तक मुझे याद है जब अनिल दा, सलिल दा और प्रेम धवन जी आये थे, तो बस वो भी अपने पुराने ज़माने में खो गये थे। वो बात करते करते एक बात बता दी, कि प्रेम धवन जी का एक जुहु में बंगला था। तो हर रविवार की सुबह वहाँ पे ऐसी महफ़िल जमती थी और कौन कौन साहब आते थे - सलिल चौधरी, अनिल दा, प्रेम धवन, मीना कपूर, साहिर लुधियानवी, पंडित नरेन्द्र शर्मा, रामानन्द सागर, रोशन साहब भी कभी कभी आया करते थे। और वो उस सप्ताह में कौन कौन सी अच्छी अच्छी धुनें बनाई वो सब के सामने पेश करते थे। अनिल दा ने रोशन साहब के बारे में यही बताया था कि रोशन जैसा इन्टरल्यूड म्युज़िक बहुत ही कम लोग बना सकते हैं। अनिल दा ख़ुद बोले कि ऐसा इन्टरल्यूड म्युज़िक मैं नहीं बना सकूंगा। शहनाई, सितार, बांसुरी और क्या मिलाप होता है साज़ों का, I just can't describe, ऐसा कहा था उन्होने।


जैसा कि आप ने रोशन साहब के बारे में बताया कि उनका इन्टरल्यूड बहुत अच्छा होता था, इसी तरह अनिल बिस्वास का जो ऑरकेस्ट्रेशन था, वह कमाल का था?

मारुतिराव


जी हाँ, वो पहले संगीतकार थे जिन्होंने 12-piece orchestra बम्बई में शुरु किया। उनकी रेकॉर्डिंग देखने के लिए बाक़ी सब संगीतकार जाते थे। गोवा के जो आर्टिस्ट्स थे, और बम्बई में यहाँ काफ़ी क्लब्स हुआ करते थे, और वहाँ से ये इन्स्ट्रुमेण्टलिस्ट्स ये सब बजाने के लिए आते थे। तो बम्बई के जो जाने माने दिग्गज सब कलाकार, मैंने घर में बुलाके सबका सत्कार किया था और कौन कौन कलाकार थे, अब्दुल करीम, मारुतिराव, जो तबले में मास्टर थे, और लाला ढोलकीवाला, उनका नाम लाला गंगावानी था, पर वो लाला ढोलकीवाला के नाम से जाने जाते थे, और एक ज़माना ऐसा आया कि उनका नाम इतना हुआ कि सब मौजूद हैं, रेकॉर्डिस्ट भी आये हैं, लता जी भी आयी हैं, रफ़ी साहब भी आये हैं, लेकिन खाली लाला गंगावानी नहीं आये हैं, तो रेकॉर्डिंग्‍ थोड़ी देर के लिए रुकता था, they used to wait for sometime कि लाला गंगावानी आ रहे हैं। फ़िल्म 'आवारा' के गीत "तेरे बिना आग यह चांदनी", फिर "घर आया मेरा परदेसी" का जो पहला पीस है, ढोलक का, और उसका तो रेकॉर्डिंग रात को पूरा हुआ, सुबह से रेकॉर्डिंग शुरु हुई तो रात तक चली, वो थे लाला गंगावानी।



डॉ साहब, और कौन कौन से साज़िन्दों के नाम याद आते हैं?

जैसे कि जयसिंह भोयी साहब थे, स्पेशल ईफ़ेक्ट्स में मास्टर थे, फिर रामलाल, जो ख़ुद जाने माने संगीतकार और ख़ुद वायलिन बजाते थे, और सारंगी भी बजाते थे। शहनाई में तो मास्टर थे ही। शहनाई में उनका बहुत अच्छा काम था, 'सेहरा' में उन्होंने संगीत भी दिया है। फिर मारुतिराव थे जो तबला बजाते थे, फिर जयराम आचार्य जी हैं  जो सितार अच्छा बजाते थे, "ओ सजना बरखा बहार आयी" में उनकी ही सितार है। फिर अन्ना जोशी थे, वो भी तबले के मास्टर थे, और एक साहब थे अब्दुल करीम, जो ग़ुलाम मोहम्मद साहब के भाई थे। एक बार ऐसा हुआ कि कुछ रेकॉर्डिंग चल रही थी, तो उसमें कुछ ग़लत तबला बजाया। सीनियर जो कलाकार थे वो हँस पड़े और उनसे कहा कि तू दूसरा कोई काम क्यों नहीं कर लेता, ये तबला तुम्हारे बस का रोग नहीं है, तो उनका ऐसा इन्सल्ट हुआ तो वो सीधे रोते रोते अपने भाई के पास गया, ग़ुलाम मोहम्मद जी के पास, और कहा कि तुम मुझे तबला सिखा दो, नहीं तो मैं मर जाऊँगा। फिर ग़ुलाम मोहम्मद जी ने तालीम चालू की और फिर आठ-आठ घंटे हाथ ख़ून से भर जाये तो भी तालीम में स्टॉप नहीं, आठ-आठ घंटे बाद तबले के बोल बजाते रहो, बजाते रहो, बजाते रहो, ऐसे जब एक साल, दो साल में जब तबला में मास्टरी पायी, फिर जाके वो रेकॉर्डिंग में हाज़िर हुए और ऐसी अच्छी उन्होंने तबला और ढोलकी बजायी कि सब लोग ख़ुश हो गये। वह गाना था 'कठपुतली' फ़िल्म का, "बाकड़ बम बम बम बम बाजे घुंगरू"। लता जी इतनी ख़ुश हो गईं कि सीधे 100 रुपये का नोट, उस ज़माने में 100 रुपये तो बहुत बड़ी रकम थी, तो 100 रुपये का नोट पाकर वो तुरन्त ज़ोर से हँस पड़े और उन लोगों के सामने जाकर कहा कि देख, लता जी ने मुझे क्या दिया है, आज मैं कौन हूँ, देख।

कॉपीराइट: विविध भारती



तो दोस्तों, आज बस इतना ही। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आयी होगी। अगली बार ऐसे ही किसी स्मृतियों की गलियारों से आपको लिए चलेंगे उस स्वर्णिम युग में। तब तक के लिए अपने इस दोस्त, सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिये, नमस्कार! इस स्तम्भ के लिए आप अपने विचार और प्रतिक्रिया नीचे टिप्पणी में व्यक्त कर सकते हैं, हमें अत्यन्त ख़ुशी होगी।


प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 

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