बातों बातों में
फिल्म 'रोर - टाइगर ऑफ सुन्दरवन' से अपना फ़िल्मी सफ़र शुरु करने वाले टीवी अभिनेता प्रणय दीक्षित से सुजॉय चटर्जी की बातचीत
सपनों को अगर जीना है तो पागलपन का होना ज़रूरी है...
आगामी शुक्रवार, 31 अकतूबर, 2014 को प्रदर्शित होने जा रही है इस साल की सबसे अनोखी फ़िल्म - 'रोर - टाइगर ऑफ सुन्दरवन'। अबीस रिज़वी निर्मित व कमल सदाना निर्देशित इस ऐक्शन थ्रिलर में अभिनय करने वाले कलाकारों में एक नाम लखनऊ के प्रणय दीक्षित का भी है। टेलीविज़न जगत में 'मिस्टर जुगाड़ूलाल', 'लापतागंज', 'एफ.आई.आर.', 'चिड़ियाघर', 'हम आपके हैं इन-लॉज़', 'बच्चन पाण्डे की टोली', 'गिलि गिलि गप्पा' जैसे धारावाहिकों में अपने हास्य अभिनय से हम सब का मनोरंजन करने वाले प्रणय दीक्षित इस फ़िल्म के माध्यम से अब बड़े परदे पर क़दम रख रहे हैं। आज प्रणय जी 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के मंच पर मौजूद हैं इसी फ़िल्म से सम्बन्धित कुछ दिलचस्प बातें बताने के लिए। साथ ही अपने करीयर का शुरू से लेकर अब तके के सफ़र की दास्तान भी वो हमारे साथ बाँट रहे हैं। तो आइए मिलिए अभिनेता प्रणय दीक्षित से, साक्षात्कार आधारित 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के स्तम्भ 'बातों बातों में' की इस कड़ी में। प्रणय दीक्षित से यह बातचीत आपके सुपरिचित स्तम्भकार सुजॉय चटर्जी ने की है।
प्रणय जी, सबसे पहले तो आपको हार्दिक बधाई, आपकी पहली फ़िल्म 'रोर - टाइगर ऑफ सुन्दरवन' के लिए। साथ ही शुभकामनाएँ इस फ़िल्म की कामयाबी के लिए, जो कि कुछ ही दिनों में रिलीज़ होने जा रही है। तो बताइये कि कैसा लग रहा है छोटे परदे से बड़े परदे पर पहुँचते हुए?
आपको लाखों धन्यवाद इस साक्षात्कार के लिए। यह मेरे लिए बहुत ही सौभाग्य की बात है कि मैं खुद को प्रणय दीक्षित के नाम से परिचय देने में समर्थ हुआ हूँ। मैं एक मैनेजमेंट के स्नातक होने और इस क्षेत्र में सफल होने के बाद अभिनय के क्षेत्र में आया हूँ। मैं नवाबों के शहर से ताल्लुक रखता हूँ, वह शहर जो अपनी नज़ाकत, नफासत और लजीज खानपान के लिए मशहूर है, यानी कि लखनऊ।
टेलीविज़न मेरा स्कूल रहा है। मैंने अभिनय का पहला पाठ यहीं पर पढ़ा, मेरी नीव बनी, और इसी ने आगे चलकर मुझे विश्वविद्यालय भेजा। जी हाँ, फिल्म 'रोर - टाइगर ऑफ सुन्दरवन' मेरा विश्वविद्यालय रहा। मैं विश्व की सबसे बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री, बॉलीवूड का आभारी हूँ जिसने मुझ पर भरोसा किया इस चुनौती के लिए। मैं अभिभूत हूँ। यह एक ऐसी अनुभूति है जिसे शब्दों में उल्लेख कर पाना असम्भव है। मुझे यह तो मालूम था कि एक दिन मुझे अपना बिग ब्रेक मिलेगा, पर इतना बड़ा ब्रेक अशातीत था। 'रोर...' नामक यात्रा के मंज़िल तक पहुँचने के लिए मैंने जी-जान लगा दिया और मुझ पर ईश्वर की कृपा रही जिन्होंने मेरा ख़याल रखा और मुझे विश्व के कुछ सर्वश्रेष्ठ प्रोफ़्रेशनल्स की निगरानी में काम करने का मौका मिला। बड़ों के आशिर्वाद से मुझे अपनी पहली फ़िल्म में एक सशक्त चरित्र को निभाने का मौका मिला। इस फ़िल्म में काम करते हुए मैंने बहुत कुछ सीखा, यूनिट के हर शख़्स से कुछ ना कुछ सीखने को मिला।
टेलीविज़न मेरा स्कूल रहा है। मैंने अभिनय का पहला पाठ यहीं पर पढ़ा, मेरी नीव बनी, और इसी ने आगे चलकर मुझे विश्वविद्यालय भेजा। जी हाँ, फिल्म 'रोर - टाइगर ऑफ सुन्दरवन' मेरा विश्वविद्यालय रहा। मैं विश्व की सबसे बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री, बॉलीवूड का आभारी हूँ जिसने मुझ पर भरोसा किया इस चुनौती के लिए। मैं अभिभूत हूँ। यह एक ऐसी अनुभूति है जिसे शब्दों में उल्लेख कर पाना असम्भव है। मुझे यह तो मालूम था कि एक दिन मुझे अपना बिग ब्रेक मिलेगा, पर इतना बड़ा ब्रेक अशातीत था। 'रोर...' नामक यात्रा के मंज़िल तक पहुँचने के लिए मैंने जी-जान लगा दिया और मुझ पर ईश्वर की कृपा रही जिन्होंने मेरा ख़याल रखा और मुझे विश्व के कुछ सर्वश्रेष्ठ प्रोफ़्रेशनल्स की निगरानी में काम करने का मौका मिला। बड़ों के आशिर्वाद से मुझे अपनी पहली फ़िल्म में एक सशक्त चरित्र को निभाने का मौका मिला। इस फ़िल्म में काम करते हुए मैंने बहुत कुछ सीखा, यूनिट के हर शख़्स से कुछ ना कुछ सीखने को मिला।
बहुत ख़ूब! प्रणय जी, मैं आपसे यह पूछना चाहूँगा कि आपको यह रोल कैसे मिला, पर उससे पहले मैं आपके सफर की शुरुआत से जानना चाहूँगा। मतलब आपका अब तक का सफ़र कैसा रहा? अभिनय का बीज कब बोया गया था, और यह बीज कब और कैसे अंकुरित हुआ? अभिनेता के रूप में कौन सा शो या धारावाहिक पहला था? तो उन शुरुआती दिनों का हाल बताइये ज़रा।
मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं चौथी कक्षा में था, तब दीवाली के फ़ंक्शन में एक लघु-नाटक में मैंने एक पण्डित का रोल किया था जो विवाह करवाता है। मेरे उस अभिनय को देख कर सभी आंटी, अंकल और युवा वर्ग मुझसे प्यार करने लगे। पर उसी फ़ंक्शन के एक अन्य आइटम में जब मैंने "चोली के पीछे क्या है..." गीत गाकर सुनाया तो सभी कुछ अटपटा सा महसूस करने लगे, जिनमें मेरे माता-पिता भी शामिल थे। पर चौथी कक्षा का वह छोटा बच्चा पूरे मोहल्ले में चर्चा का विषय तो बन ही गया था। इस तरह से अभिनय मेरे अन्दर शायद जन्म से ही था। उसके बाद एक लम्बा अन्तराल रहा और मैं बतौर ऑल-राउन्डर पूरी तरह से क्रिकेट के साथ जुड़ा रहा, कुछ सालों तक। उसके बाद बारहवीं की परीक्षा पास कर जब होस्टल लाइफ़ में प्रवेश किया तो पूरी शिद्दत से तरह-तरह के एक्स्ट्रा-करिकुलर ऐक्टिविटीज़ में भाग लेने लगा; पर अपने पारिवारिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए अभिनेता बनने के सपने को तूल नहीं दिया और अपनी उच्च शिक्षा और फिर उसके बाद कॉरपोरेट नौकरी की तरफ़ ध्यान देने लगा। लेकिन मेरे द्वारा जीते हुए तमाम ट्रॉफ़ी और सर्टिफ़िकेट मेरे सामने प्रश्नवाचक चिह्न बन कर दिन-प्रतिदिन खड़े हो जाते। जीवन में आगे चलकर मैं अफ़सोस नहीं करना चाहता था, इसलिए अपने पिताजी को भरोसा दिलाकर मैंने अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़ दी और साल 2010 में सपनों के शहर मुम्बई आ गया, अपने जीवन का सबसे बड़ा रिस्क लेकर। मेरी माँ सोच में पड़ गईं कि फ़िल्म इंडस्ट्री में बिना किसी जान-पहचान के मैं कैसे कुछ कर पाऊँगा। पर मेरा आत्मविश्वास हमेशा मुझसे यह कहता था कि एक दिन मैं कमयाब ज़रूर बनूँगा। और अब मैं हर चुनौती के लिए एकदम तैयार हूँ।
मैंने लगभग 18 महीने अपने बचपन के एक दोस्त के साथ थाणे में गुज़ारे। उसने मेरी हर सम्भव मदद की, यकीन मानिए हर तरह से। मैं रोज़ चार घंटे का सफ़र करता; थाणे से मुम्बई आता ओपेन ऑडिशन के लिए, और फिर थाणे वापस चला जाता, और यह मैं छह महीनों तक लगातार करता रहा।
अच्छा, आगे बढ़ने से पहले क्या मैं यह जान सकता हूँ कि क्या आपने कभी थिएटर के साथ जुड़ने का नहीं सोचा था लखनऊ में?
जी नहीं! मैनेजमेण्ट की पढ़ाई करते हुए कभी मौका ही नहीं मिला क्योंकि उसमें काफ़ी समय देना पड़ता है, काफ़ी सीरियस होना पड़ता है। मेरे अन्दर जो अभिनय की प्रतिभा है वह ईश्वर प्रदत्त है। मैंने कहीं से नहीं सीखा, यह मेरे अन्दर ही था। पर मुम्बई आने के बाद मैं हिन्दी थिएटर के साथ जुड़ा। अनभिज्ञ होने की वजह से मुझे स्टेज पर परफ़ॉर्म करने का मौका नहीं मिलता था, बैक-स्टेज ही सँभाला करता, कभी ब्लैक-आउट के दौरान बैकड्रॉप की सेटिंग्स बदलता तो कभी कलाकारों को चाय-समोसे सर्व करता। केवल देख-देख कर उन कलाकारों से मैंने बहुत कुछ सीखा पर कम से कम एक बार स्टेज पर जाने की लालसा बार-बार मन-मस्तिष्क पर हावी रहता। कॉलेज में जितने भी बार मैं स्टेज पर गया, पहला पुरस्कार (या कम से कम दूसरा) लिए बगैर नहीं लौटा। मेरे दोस्त इस बात की शर्त लगाया करते थे। अपने कॉलेज का एक परफ़ॉर्मर होने के बावजूद मैंने यहाँ इस तरह के काम करने का निर्णय लिया ताकि मैं अन्दर से और भी ज़्यादा मज़बूत बन जाऊँ। मुझे अब भी याद है कि जब भी मैं किसी को अपने प्रोफ़ेशनल बैकग्राउण्ड के बारे में बताता था तो वो चौंक पड़ते और कहते कि आप पागल हैं जो इतना अच्छा करीयर छोड़ कर ऐक्टिंग करने आ गए। यकीन मानिये कि अपने सपनों को अगर जीना है तो पागलपन का होना ज़रूरी है।
बिल्कुल सही बात है! अच्छा फिर उसके बाद क्या हुआ?
उसके बाद शुरू से ही मेरी नज़र अपने लक्ष्य पर ही थी। मैं फ़िल्मों से शुरुआत नहीं करना चाहता था, मैंने यह निर्णय लिया कि फ़िल्म में काम तभी करूँगा जब मुझे कोई यादगार किरदार निभाने का मौका मिलेगा। मैं ऐसा कोई रोल नहीं करना चाहता जिस पर किसी का ध्यान ही ना जाये। इसालिए मैंने धैर्य से काम लिया। मैंने अपना ऐक्टिंग करीयर टेलीविज़न से शुरू किया। फ़िल्म के मुकाबले टीवी में प्रेशर बहुत ज़्यादा है क्योंकि इनका दैनिक प्रसारण होता है। इस तरह से टीवी में काम करते हुए कलाकार शारीरिक और मानसिक तौर पर मज़बूत बन जाता है। मेरे सेल्स/मार्केटिंग की नौकरी में भी बहुत प्रेशर रहता था, और मेरी कई उपलब्धियाँ भी वहाँ रही। कॉलेज में मैं स्किट्स, नाटक वगैरह करता था और बहुत सारे ट्रॉफी और सर्टिफ़िकेट जीते। अब समय था कि उन तमाम अनुभवों को अपने ऐक्टिंग में लगाने का। अनगिनत ऑडिशन देने के बाद मुझे अहसास हुआ कि कैमरे के सामने अभिनय करना बिल्कुल अलग चीज़ है और चुनौती भरा भी।
आपका पहला ऑडिशन कौन सा था?
मैंने अपना पहला ऑडिशन यहीं मुम्बई में दिया एक नामी टैल्कम पाउडर ब्रैण्ड के विज्ञापन के लिए और सौ से भी अधिक कलाकारों के बीच में से मैं शॉर्टलिस्ट हुआ। इससे मेरा आत्मविश्वास और भी बढ़ गया और मैंने सोचा कि आज अगर मैं शॉर्टलिस्ट हुआ हूँ तो कल सेलेक्ट भी हो जाऊँगा। छह महीने मैंने जी-तोड़ मेहनत की। इन छह महीनों में मैंने लगभग 300+ ऑडिशन्स दिये पर कुछ 50 में फ़िट हो सका, 15-20 में मैं शॉर्टलिस्ट हुआ, पर फ़ाइनल सीलेक्शन एक में भी नहीं हुआ। मेरी समझ में यह आ गया कि यह दुनिया की सबसे ज़्यादा मुश्किल जगह है, पर मेरा शॉर्ट-लिस्ट होना मुझे ऊर्जा देता रहा और वही मेरी एकमात्र आशा की किरण थी। एक समय ऐसा भी आया कि जब एक के बाद एक नाकामयाबी मुझे नसीब हो रही थी और सारी जमा-पूँजी भी खतम हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में मैंने अँधेरी स्थित एक कम्पनी में नाइट शिफ़्ट की मामूली सी नौकरी कर ली। मेरी योग्यता के हिसाब से मुझे अच्छी नौकरियाँ मिल रही थीं पर मैं दोबारा उनमें उलझ कर अपना मकसद फिर से खोना नहीं चाहता था। मैंने डेढ़ महीने तक वह नौकरी की।
प्रणय जी, आपकी इस तपस्या को सलाम करता हूँ। अच्छा, फिर कैसे आगे बढ़े आप?
अन्त में एक दिन आया जब टेलीविज़न ने मुझे आवाज़ दी और मुझे 'लापतागंज' धारावाहिक में ब्रेक मिला। एक छोटा सा रोल था उसमें पर एक ही सप्ताह के अन्दर मुझे मेरा पहला बड़ा रोल, जुगाड़ूलाल का, जो मुख्य चरित्र था, वह मुझे मिल गया। उसके बाद फिर मुझे पीछे मुड़ कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
बहुत ख़ूब! बहुत लोकप्रिय रहा है 'जुगाड़ूलाल'। अच्छा यह बताइये कि शुरू-शुरू में टीवी धारावाहिक में काम करते हुए किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा आपको?
शुरू-शुरू में मुझे यह भी मालूम नहीं था कि संवाद के लाइन कैसे याद किये जाते हैं, संवाद कैसे बोले जाते हैं, मूवमेण्ट कैसे ली जाती है, परछाई को कैसे काबू में किया जाता है, रीफ़्लेक्टर का सामना कैसे किया जाता है, कन्टिन्यूइटी कैसे मेनटेन की जाती है, आवाज़ को कैसे मोडुलेट किया जाता है, उसमें कैसे वेरिएशन लाई जाती है, टाइमिंग वगैरह, यह सब कुछ भी मुझे मालूम नहीं था। पर मेरी किस्मत अच्छी थी कि मुझे बहुत ही अच्छे लोग मिले जिन्होंने मेरी बिना किसी शर्त के मदद की। टीवी मेरा स्कूल बन गया और कुछ ही महीनो में मेरा हर शॉट निर्देशकों, निर्माताओं, एडिटर, सह-कलाकारों और दर्शकों की वाह-वाही लूटने लगा। बहुत जल्द मैंने टीवी के हास्य जगत में नाम कर लिया, और आज कॉमेडी जौनर के हर निर्देशक और सीनियर कलाकार मुझे पहचानते हैं और मेरे काम को सराहते हैं। और इन बड़े कलाकारों के साथ स्क्रीन स्पेस शेअर करते हुए मुझे गर्व और आभार का अहसास होता है। और बताना ज़रूरी है कि वो सभी 'रोर...' के लिए काफ़ी उत्साहित हैं।
और हम सब भी उतने ही उत्साहित हैं। इससे पहले कि हम फिल्म 'रोर...' की चर्चा करें, यह बताइये कि किन-किन टीवी धारावाहिकों में आपने काम किया और उनमें से कौन सा किरदार आपके दिल के सबसे करीब है?
मिस्टर जुगाड़ूलाल, लापतागंज, एफ.आई.आर., चिड़ियाघर, हम आपके हैं इन-लॉज़, बच्चन पाण्डे की टोली, गिलि गिलि गप्पा, आदि। इन सभी में मेरा काम लोगों ने सराहा, पर जुगाड़ूलाल मेरे दिल के सबसे करीब है। शायद इसलिए कि इसी से मेरे अभिनय सफ़र की शुरुआत हुई थी। उन 85 एपिसोड्स को करते हुए मैं काफ़ी मँझ गया। जब कोई बाहरवाला सेट पर आता, तो मुझे देख कर हैरान रह जाता क्योंकि कैमरे के बाहर मैं एक बिल्कुल अलग शख़्सियत होता, दिखने में, और बोलचाल में भी। यहाँ तक कि मेरी नायिका की सहेलियाँ भी धोखे में रहती कि क्या यही जुगाड़ू है, ये तो बिल्कुल अलग दिखता है और बोलता भी बहुत अच्छा है।
यही तो एक अच्छे अभिनेता की ख़ासियत होती है कि वो उस चरित्र में बिल्कुल ढल जाता है। प्रणय जी, अब यह बताइये कि टीवी में काम करते करते फ़िल्म जगत में पदार्पण का जो यह ट्रान्ज़िशन था, वह कैसे सम्भव हुआ?
मैं फ़िल्में एक संक्रमण की तरह देखा करता था। साथ-साथ ऑबज़र्वेशन और लर्निंग भी जारी था। जब भी मुझे समय मिलता मैं जाकर ऑडिशन दे आता अपना आकलन करने के लिए। और एक समय जाकर मैंने यह महसूस किया कि टीवी में अभिनय और फ़िल्मों में अभिनय दो बिल्कुल अलग चीज़ें हैं। फ़िल्मों में अभिनय करना बच्चों का खेल नहीं, यह बात समझ में आ गई और इसलिए मैंने सोचा कि अब समय आ गया है कि और मेहनत से अपने अभिनय को अगले स्तर तक पहुँचाया जाए। इसलिए ऑडिशन जारी रखा, और करीब करीब 1500 ऑडिशन्स मैंने दिए, और ढाई साल बाद मुझे 'रोर...' के ऑडिशन के लिए बुलावा आया। कास्टिंग डिरेक्टर का कॉल आया और उन्होंने मुझे बताया कि इस फ़िल्म में एक चरित्र के लिए वो एक ऐसे अभिनेता की तलाश कर रहे हैं जो काफ़ी डायनामिक हो। तो क्या आप इस चरित्र को निभाने के लिए ऑडिशन दोगे? मैं वहाँ गया, उन्होंने मुझे उस किरदार के बारे में विस्तार में बताया। ऑडिशन टेक से पहले मैंने अपने बालों को भिगोया और अलग ही स्टाइल में कंघी की (जो इस फिल्म में मेरी हेअर स्टाइल बनी)। और फ़ाइनल टेक के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि परिणाम वो मुझे बाद में सूचित करेंगे। अगले दिन मुझे उनका फ़ोन आया और उन्होंने मुझसे पूछा कि ये तुमने क्या किया? उन्होंने बताया कि निर्देशक महोदय मुझसे कल मिलना चाहते हैं। अगले दिन जब मैं कमल सदाना जी के दफ़्तर पहुँचा तो उन्होंने मुझे देखते ही कहा, "वेलकम मधु" उनके बाद निर्माता अबीस रिजवी साहब आए और कहा, "अरे मधु, कैसे हैं आप?" फिर प्रोडक्शन हेड अन्दर आए और कहने लगे कि क्या आप ही मधु हैं? मेरी समझ में आ गया कि ऑडिशन सुपरहिट रहा है। मुझे दो और सीन अदा करने को कहा गया, और उसके बाद निर्देशक साहब आए और कहा कि "यू आर इन"। और अब मैं 31 अक्तुबर को आप सबके बीच "आउट" हो जाऊँगा।
अच्छा प्रणय जी, 'रोर...' का ट्रेलर हमने देखा है। फ़िल्म की जो ओवरऑल पैकेजिंग है, वह बहुत ही ज़्यादा लुभावना है, और लग रहा है कि फ़िल्म लीक से अलग हट कर होगी। आपको क्या लगता है कि वह कौन सी बात है इस फ़िल्म की जो इसे कामयाबी की बुलन्दी तक लेकर जा सकती है?
अबीस रिजवी इस फ़िल्म के केवल निर्माता ही नहीं हैं, बल्कि वो इस पूरे प्रोजेक्ट में एक ढाल बन कर खड़े रहे और उनके बिना किसी के लिए एक क़दम भी आगे चलना सम्भव नहीं होता। मेरे लिए तो वो एक बड़े भाई से कम नहीं हैं और रिज़वी साहब और कमल साहब, दोनों ने इस पूरे हसीन सफ़र में हम सब का पूरा-पूरा ख़याल रखा। इस फ़िल्म में रिज़वी साहब की बहुत बड़ी पूँजी दाव पर तो लगी है ही, उससे भी बड़ी बात है कि वो फ़िल्म के हर वी.एफ.एक्स. शॉट की पूरी-पूरी जानकारी रखते थे और स्क्रिप्ट की हर लाइन उन्हें पता थी। मैंने पहले कभी ऐसा नहीं सुना था कि किसी निर्माता और निर्देशक ने वी.एफ.एक्स. का कोर्स किया हो। यह 800 वी.एफ.एक्स. शॉट्स की फ़िल्म है और यह निर्माता और निर्देशक के प्रोफ़ेशन्लिज़्म का ही उदाहरण है जो पूरी दुनिया के सामने बहुत जल्द ही आने वाला है। रिज़वी साहब ने विश्व के सर्वश्रेष्ठ टेक्निशियनों को इस फ़िल्म में लिया है अपने सपने को साकार करने के लिए। मैंने बहुत सी वी.एफ.एक्स. फ़िल्में देखी हैं पर 'रोर...' में वी.एफ.एक्स. का स्तर बहुत ही ऊँचा है। इसके लिए श्रेय जाता है जेश कृष्णमूर्ति जी (हॉलीवुड के साथ जिनका अच्छा अनुभव रहा है) और उनके 400 कर्मचारियों को जिन्होंने रात-दिन कठिन परिश्रम कर आश्चर्यचकित कर देने वाली वी.एफ.एक्स. डिज़ाइनिंग की है। लॉस ऐंजेलेस के मिस्टर माइकल वाटसन, जो वी.एफ.एक्स. के विशेषज्ञ हैं, उन्हें इस फ़िल्म में फोटोग्राफी निर्देशक लिया गया है, जिन्होंने 'स्काईलाइन', 'स्टेप अप 2' जैसी फिल्मों की फोटोग्राफी की है। उन्होंने सुन्दरवन के जंगलों को बहुत ही ख़ूबसूरती के साथ कैमरे में क़ैद किया है। मुझे रसूल पूकुट्टी की निगरानी में काम करके भी बहुत अच्छा लगा। पूकुट्टी जी भारत की शान तो हैं ही, विश्व के श्रेष्ठ साउण्ड डिज़ाइनरों में से एक होने का भी उन्हें गौरव प्राप्त है। 'स्लमडॉग मिलिओनेअर' के लिए वो ऑस्कर भी जीत चुके हैं। उनके साउण्ड इफ़ेक्ट्स का महत्वपूर्ण योगदान है इस फ़िल्म में। फ़िल्म के सभी सहयोगी अभिनेताओं के साथ काम करके मुझे बेहद आनन्द आया और सभी ने एक दूसरे का अन्त तक साथ दिया। कुछ दिनों की शूटिंग के बाद मुझे अहसास हुआ कि अब हम महज़ अभिनेता नहीं रहे, बल्कि 'रोर...' नामक परिवार में अपना योगदान कर रहे हैं।
प्रणय जी, इस फ़िल्म का मूल उद्येश्य क्या है?
इस फ़िल्म के ज़रिए हम पूरी दुनिया को पश्चिम बंगाल के सुन्दरवन का हाल बताना चाहते हैं जहाँ आदमख़ोर बाघ मछुआरों और शहद निकालने वाले लोगों पर हमला करते हैं और उनकी मौत के कारण बनाते हैं। उन लोगों के परिवारों की दुर्दशा को दिखाया गया है जो अपनी जान जोखिम में डाल कर इस भयानक जंगल के अन्दर जाते हैं, अपने पेट की आग को शान्त करने के लिए। इसके साथ ही बाघों और शेरों के संरक्षण (Save the Tiger) का उपयोगी सन्देश भी है इस फ़िल्म में जो कि अब एक ग्लोबल मुद्दा है। इंसान और शेर के बीच जो रिश्ता है उसे पहली बार एक अलग ही नज़रिये से दिखाया गया है इस फ़िल्म में। और जब इस फ़िल्म को पूरी दुनिया भर से ज़बरदस्त प्रतिक्रिया मिली, 2014 के कान फ़िल्म महोत्सव में, तो हमारा हौसला और भी बढ़ गया। दुनिया भर के जाने-माने फ़िल्म वितरकों ने इस फ़िल्म के ट्रेलर को देख कर इस फ़िल्म में गहरी रुचि दिखाई है। 'रोर...' विश्व के सबसे ख़तरनाक जंगलों में से एक - सुन्दरबन - पर केन्द्रित है। वहाँ के सुन्दर लोकेशन्स को फ़िल्म के परदे पर दर्शकों को पहली बार देखने का मौका मिलेगा, यह भी अपने आप में बड़ी बात है। और मैं आप सब को दावत देता हूँ पॉप-कॉर्न के साथ सुन्दरबन, हमारे कमांडोज़, हमारी हिरोइन और वहाँ के आकर्षक सफ़ेद बाघों से मिलने के लिए। आइए और इन सबसे आकर मिलिए। बाघ, मगरमच्छ, साँप, जैसे डरावने जन्तुओं और विशालकाय जंगल के बीच दिल दहलाने वाले ऐक्शन के गवाह बनिए। ये सब आपका इन्तज़ार कर रहे हैं।
बहुत ही सुन्दर तरीके से आपने इस फ़िल्म का वर्णन किया। यह सब जान कर हम भी बेहद उत्सुक हो उठे हैं फ़िल्म को देखने के लिए। अच्छा आपने ज़िक्र किया था कि आपके चरित्र का नाम "मधु" है। प्रणय जी, ये मधु, मेरा मतलब है कि यह तो लड़कियों का नाम होता है, माफ़ी चाहता हूँ पर यह कैसा नाम है आपके चरित्र के लिए?
हा हा हा.... नाम लड़की का ज़रूर है पर चरित्र शत-प्रतिशत पुरुष का है। मधुसूदन बंकिमचन्द्र सेनगुप्ता एक किलोमीटर लम्बा बांग्ला नाम है। इसलिए लोग मुझे मधु कह कर बुलाते हैं। मधु हिन्दी में ही बात करता है पर उसमें बांग्ला उच्चारण का स्पर्श भी है। मधु सुन्दरबन में पर्यटकों के लिए स्थानीय गाइड का काम करता है। एक युवा फ़ोटोग्राफ़र के सहायक के रूप में उसने काम किया था जो एक सफ़ेद शेरनी के द्वारा मारा गया। ईश्वर से डरने वाला और बहुत ही सच्चे दिल वाला मधु अपने स्वभाव के ख़िलाफ़ जाकर उस फ़ोटोग्राफ़र के अवैध शिकार में उसका साथ देता है। फ़ोटोग्राफ़र के मरने के बाद मधु को लगने लगता है कि वह शेरनी उसे भी मार डालेगी। मधु उस शेरनी को मारने की सोचता है। आगे क्या होता है, यह तो आपको थिएटर में जाकर ही पता चलेगा।
प्रणय जी, अब हम आप से जानना चाहेंगे फ़िल्म के निर्देशक कमल सदाना साहब के बारे में। उनके बारे में कुछ बताइए।
कमल जी मेरे करीयर के अब तक के बेस्ट बॉस रहे हैं। उनको मुझे डिरेक्ट करते हुए अच्छा लगा और मैंने भी उन्हें हर सीन में चौंका दिया। सुन्दरबन में रोज़ सुबह 6 बजे से रात 1 बजे तक उनके काम करने का जो पैशन था, उससे मैं बहुत मुतासिर हुआ। मुझे अब भी उनका कही पंक्ति याद है - "Lets make a movie"; जो बाद में यूनिट के हर किसी की पसंदीदा पंक्ति बन गई। शुरू से ही वो प्रोडक्शन और डिरेक्शन, दोनो सँभाल रहे थे क्योंकि हमारे प्रोडक्शन हेड स्वास्थ्य कारणों से सुन्दरबन नहीं जा सके थे। कैसे भूल सकता हूँ वह क्षण कि जब नायिका को एक सीन में एक गहरे खाल में छलाँग मार कर और काफ़ी दूर तक उसमें तैर कर एक नाव तक पहुँचना था, तो इस सीन को करने के लिए नायिका का डरना बिल्कुल स्वाभाविक था। नायिका के डर को देख कर कमल जी ने ख़ुद छलाँग मार कर सीन को कर दिखाया जिससे नायिका का डर निकल गया। कमल जी भीगे कपड़ों में काँप रहे थे, वैसे ही मौनिटर के पीछे जाकर कमान सम्भाला और वह सीन एक ही बार में ओके हो गया। इससे ज़ाहिर होता है कि कमल जी और उनकी पूरी टीम ने इस फ़िल्म के पीछे कितनी कड़ी मेहनत की है। कमल जी अक्सर कहते थे कि Respect Nature। मुझे याद है कि जब उन्होंने मुझे 'रोर...' का ऑफ़र दिया था, तब मैंने उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा था कि "I will not let you down sir", उनका तुरन्त जवाब था "I will not let you to let us down"। इस तरह उनका मुझ पर विश्च्वास रहा है। फ़िल्म को बेहद ख़ूबसूरती से उन्होंने शूट तो किया ही है, उससे भी अच्छा काम उनका एडिटिंग टेबल पर रहा है। हम सब ने उन्हें हर सीन को एडिट करते हुए देखा है और बहुत कुछ सीखा भी है। कमल जी का दिल सोने का है। उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी कमाल का है। अपने आप में वो एक रचनात्मक संस्था है जिनमें निर्देशन, पटकथा, एडिटिंग, पार्श्वसंगीत, और प्रोमोशन के गुण कूट-कूट कर भरे हुए हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने फ़िल्म के कलाकारों से केवल अभिनय ही नहीं करवाया, बल्कि फ़िल्म निर्माण के सभी पक्षों के बारे में सिखाया है।
वाह! क्या बात है! ऐसे बहुत कम ही निर्देशक होंगे जो अभिनेताओं को इस तरह की सीख देते होंगे। अच्छा प्रणय जी, सुन्दरबन में इतने दिन आप सब रहे, वहाँ के अनुभव भी बेहद रोमांचक रहे होंगे। तो सुन्दरबन से जुड़ी कुछ मज़ेदार और रोमांचक क़िस्से बताइए।
150 लोगों का यूनिट चार बड़े क्रूज़ में 'No man's land' में ठहरे हुए थे।
माफ़ कीजिएगा, पर 'No man's land' मतलब???
मतलब समुद्र का वह इलाका जो ना भारत का है ना बांग्लादेश का।
अच्छा अच्छा!
तो बिना इन्टरनेट, बिना मोबाइल नेटवर्क के हम सब रहे। एक नहीं, दो नहीं बहुत सारी घटनाएँ यादों में समेट कर हम सब वापस लौटे हैं। हमें बांग्लादेश सरकार से 25 रेंजर मिले हुए थे जो रोज़ तीन-चार राउण्ड गोलियाँ हवा में चलाकर ख़ूंखार जानवरों को हमारे शूटिंग् के इलाके से दूर भगाया करते थे। एक दिन जब हम बंगाल की खाड़ी में शूट कर रहे थे, कैमरा टीम का एक सदस्य बोट से नीचे समन्दर में गिर गया। उसे तैरना भी नहीं आता था। पर वहाँ मौजूद एक स्थानीय नाविक ने तुरन्त पानी में छलाँग मार कर उन्हें बचा लिया। हम सब बहुत डर गए थे और उस बांग्लादेशी नाविक को धन्यवाद दिया। उन स्थानीय नाविकों ने हमारा पूरा-पूरा साथ दिया और कई बार ऐसे मुश्किल की घड़ियों में हमारी नैया को किनारे लगाया। ना उन्हें हिन्दी आती थी और ना हमें बांग्ला, पर एक दूसरे की बात परस्पर पहुँचाने में मुश्किल नहीं हुई। यूनिट के सभी लोग रोज़ अपने पाँव डीज़ल से धोया करते थे क्योंकि कीचड़ और कीटों के बीच शूटिंग करने से कोई न कोई इन्फ़ेक्शन हो ही जाता था। और शूट के अन्तिम दिन में तो एक क्रूज़ पर आग ही लग गई। क़िस्मत अच्छी थी कि हमारी टीम, कैमरे और अन्य सामान सब सुरक्षित थे और हम सब आसपास ही थे, इसलिए जल्द से जल्द आग पर काबू पा लिया गया। अगर हम जंगल के अन्दर शूटिंग कर रहे होते तो बहुत ज़्यादा नुक्सान हो सकता था। उस जहाज़ में रहने वाले यूनिट के सदस्यों को एक होटल में पहुँचाया गया और कुछ को तो अस्पताल में भर्ती करवा कर ऑक्सीज़न भी देना पड़ा। हम सब मिल कर अस्पताल गए, और अगले ही दिन हम भारत के लिए रवाना हो गए।
वाक़ई बड़ा हादसा होते होते बचा। अच्छा यह बताइए कि क्या रात को भी शूटिंग होती थी?
जी नहीं, हम सुबह 4 बजे से शाम 4 बजे तक लगभग 5 सप्ताह तक शूटिंग करते रहे। रात को शूटिंग करना खतरे से खाली नहीं था। मतलब दिन में जंगल के अन्दर, और रातों को समन्दर में। भाटे के वक़्त जब हमारे 15 छोटे-छोटे नाव कीचड़ में फँस जाते थे तब यूनिट को घंटों ज्वार का इन्तज़ार करना पड़ता समन्दर के बीच खड़े जहाज़ों तक पहुँचने के लिए। ऐसे में समय निकालने के लिए हम गाना गाते, नकल उतारते, चुटकुले सुनाते।
आपके साथ कोई हादसा हुआ?
एक बार मेरे दाहिने हाथ में चोट लग गई थी, जिसकी वजह से एक सीन में मैंने हाथों को फ़ोल्ड कर रखा था ताकि उस पर लगा बैंडेज दिखाई न दे। अन्तिम दिन के शूट के दौरान मेरी दाहिने आँख में भी चोट लग गई। वापस लौट कर अपने शहर लखनऊ में एक छोटा सा ऑपरेशन करवाना पड़ा।
वहाँ पर यूनिट में कोई डॉक्टर नहीं था?
जी हाँ, डॉक्टर थे, और वो निरन्तर पूरी यूनिट को फ़र्स्ट-ऐड देने में दिन-रात जुटे रहते थे।
और कोई याद जो आप बताना चाहें?
शूटिंग खतम हो जाने के बाद हम सब इतने ख़ुश थे कि हमने अचानक यह तय किया कि हम अपने जहाज़ों के साथ रेस खेलेंगे। तो हम सब नारे लगाते हुए विशाल समन्दर में रेस लगाई और जैसे एक असम्भव को सम्भव बनाने का जो आनन्द है उसे सेलिब्रेट किया। वहाँ मौजूद सैलानी हमें देख रहे थे और अचम्भित हो रहे थे।
वाह! प्रणय जी, अभी हाल ही में इस फ़िल्म का ट्रेलर जारी हुआ है सलमान ख़ान के कर-कमलों से।
यह जैसे एक सपना था मेरे लिए जब सलमान ख़ान ने 'रोर...' का थिएट्रिकल ट्रेलर लौंच किया। मैं बचपन से उनका डाइ-हार्ड फ़ैन रहा हूँ और सदा उनके डान्स के स्टेप्स और तौर-तरीकों को अपनाया है। इस ट्रेलर लौंच में जाकर मुझे लगा कि आइ ऐम बैक। 2002-07 के दौरान कालेज के स्टेज पर सैंकड़ों युवक-युवतियों की तालियाँ मैंने सुनी है, नोटिस बोर्ड पर अपनी तस्वीरें देखी हैं; और आज 2014 में 70mm स्क्रीन, नामी फ़िल्म-जगत की हस्तियाँ, मीडिया, हज़ारों कैमरों की चकाचौंध, दुनिया भर के लाखों-करोड़ों दर्शकों की यू-ट्यूब पर सराहना, अखबारों के मुख्य-पृष्ठ पर ज़िक्र, मुझ पर यकीनन ईश्वर की कृपा है, बस यही कह सकता हूँ।
ज़रूर ज़रूर, और प्रणय जी, 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' की तरफ से और हमारी तरफ़ से भी इस अनोखी और रोमांचक फ़िल्म की सफलता के लिए शुभकमानाएँ आपको देते हैं। फ़िल्म जगत में इस फ़िल्म से आपकी यात्रा शुरू हो रही है, आगे भी आप ढेर सारी फ़िल्मों में अभिनय करें, सफल हों जीवन में, यही ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।
सुजॉय जी, मैं तहे दिल से आपका और 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ जो इतने अच्छे-अच्छे सवाल आपने मुझसे पूछे और मुझे पूरी दुनिया के सामने पेश होने का मौका दिया। आपके इन सवालों के माध्यम से मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी को सबके सामने रख पाया और मुझे बेहद अच्छा लगा। आपको और आपकी टीम को भी बहुत शुभकामनाएँ।
अपनी राय नीचे टिप्पणी में अथवा cine.paheli@yahoo.com पर अवश्य बताएँ।
सुजॉय जी, मैं तहे दिल से आपका और 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ जो इतने अच्छे-अच्छे सवाल आपने मुझसे पूछे और मुझे पूरी दुनिया के सामने पेश होने का मौका दिया। आपके इन सवालों के माध्यम से मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी को सबके सामने रख पाया और मुझे बेहद अच्छा लगा। आपको और आपकी टीम को भी बहुत शुभकामनाएँ।
यह अगले सप्ताह प्रदर्शित होने वाली फिल्म 'रोर - टाइगर ऑफ सुन्दरवन' के अभिनेता प्रणय दीक्षित से
सुजॉय चटर्जी की अन्तरंग बातचीत के सम्पादित अंश की प्रस्तुति है। आपको
हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमें अवश्य लिखिएगा। आप अभिनेता प्रणय
दीक्षित को शुभकामना सन्देश भी भेज सकते हैं। हमारा ई-मेल पता है -
radioplaybackindia@live.com
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
सम्पादक : कृष्णमोहन मिश्र
सम्पादक : कृष्णमोहन मिश्र
अपना मनपसन्द स्तम्भ पढ़ने के लिए दीजिए अपनी राय
नए साल 2015 में शनिवार के नियमित स्तम्भ रूप में आप कौन सा स्तम्भ पढ़ना सबसे ज़्यादा पसन्द करेंगे?
1. सिने पहेली (फ़िल्म सम्बन्धित पहेलियों की प्रतियोगिता)
2. एक गीत सौ कहानियाँ (फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया से जुड़े दिलचस्प क़िस्से)
3. स्मृतियों के स्वर (रेडियो (विविध भारती) साक्षात्कारों के अंश)
4. बातों बातों में (रेडियो प्लेबैक इण्डिया द्वारा लिये गए फ़िल्म व टीवी कलाकारों के साक्षात्कार)
5. बॉलीवुड विवाद (फ़िल्म जगत के मशहूर विवाद, वितर्क और मनमुटावों पर आधारित श्रृंखला)
5. बॉलीवुड विवाद (फ़िल्म जगत के मशहूर विवाद, वितर्क और मनमुटावों पर आधारित श्रृंखला)
अपनी राय नीचे टिप्पणी में अथवा cine.paheli@yahoo.com पर अवश्य बताएँ।
Comments