स्मृतियों के स्वर - 07
स्वतंत्रता दिवस सप्ताह में विशेष
'उन सरहदों की बात कभी नहीं करता जो दिलों में पैदा हो जाती हैं...'
सूत्र : विविध भारती
कार्य्रक्रम : 'विशेष जयमाला' के अलग-अलग कार्यक्रमों से संकलित
पण्डित नरेन्द्र शर्मा
भारतीय गणतन्त्र के वीर रक्षक, प्रहरी, अपने सैनिकों को सादर नमस्कार! आप के मनोरंजन के लिए 'जयमाला' में गूँथे हुए कुछ गीत-पुष्प आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं एक कवि, वीर सैनिकों से अपने आप को सम्बोधित कर रहा हूँ, और यह बोध प्राप्त कर रहा हूँ मन ही मन कि हम सब चाहे कवि हों, चाहे श्रमिक हों, चाहे कृषक हों, चाहे मनीषी हों, चाहे शिल्पी हों, हम सब एक हैं, हमारा देश एक है, इस देश का संविधान एक है। और हम सब पर इस बात की ज़िम्मेदारी है कि हम सब की एक निधि है, उसके हम अच्छे प्रतिनिधि बन सके। तो आपसे हम प्रेरणा ग्रहण करते हैं इस निधि के अच्छे प्रतिनिधि बनने के लिए। तो आपको सब से पहले जो गीत सुनवाना चाहता हूँ, उस गीत में इस महान देश की प्रीति की रीति का वर्णन किया गया है।
जाँनिसार अख़्तर (1974)
फ़ौजी भाइयों, आप जो इस मुल्क और क़ौम के बाग़बाँ हैं, जो देश की सरहदों की हिफ़ाज़त और निगरानी करते हैं, हमारी माताओं, बहनों और बेटियों की इस्मत के मुहाफ़िज़ हैं, हमारे लिए दुश्मनों के हमलों का सामना करते हैं, एक कड़ी और आज़माइशी ज़िन्दगी बसर करते हैं, मैं यह चन्द गीत जो आपको सुनाने जा रहा हूँ, इस ग़रज़ से है कि ज़िहानी और रूहानी ख़ुशी से आपके चन्द लम्हे भर सके। ये गीत मुख़्तलिब फ़िल्मों से लिए गये हैं। हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री अपनी कमज़ोरियों के बावजूद बड़ी अहम सड़क है, हम गीतनिगार दूसरों के जज़्बात की तर्जुमानी करते हैं। ये गीत फ़िल्म की ज़रूरत के लिहाज़ से लिखे जाते हैं, फिर भी ये मुख़्तलिब इंसान के जज़्बात का बयान होते हैं। मैं सबसे पहले जो गीत आपको सुना रहा हूँ यह मैंने एक फ़िल्म 'हमारी कहानी' के लिए कहा है, यह देश के मुतालिक है और आपके हमारे हौसलों की नुमाइन्दगी करता है, मौसिक़ी सी. अर्जुन की है। सुनिये यह गीत।
प्रेम धवन
मेरे फ़ौजी भाइयों, आप सब को मेरा नमस्कार! आज मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है इस प्रोग्राम में आपके लिए कुछ गीत पेश करते हुए। बहुत दूर से 'विविध भारती' के ज़रिये आप से मुलाक़ात हो रही है। आप लोग कैसी परिस्थितियों में रहते हैं, मैंने पर्सोनली नज़दीकी से देखा है जब हम लोग इंडो-पाक और इंडो-चाइनीज़ वार के समय आपकी सेवा में गये थे। इंडो-पाक वार के समय मैं सुनिल दत्त और नरगिस जी के साथ गया था। जब लदाख की राजधानी लेह पर पहुँचने के लिए हम मिलिटरी हेलिकॉप्टर पर बैठे तो देखा कि पिछले हिस्से में राशन की बोरियाँ और भेड़-बकरियाँ लदी हुई हैं। फिर भेड़-बकरियों को पैराशूट की मदद से उतारा जा रहा था। नरगिस जी के भाई अनवर हुसैन ने कहा कि शायद हमें भी भेड़-बकरियों की तरह पैराशूट में बांधकर उतार देंगे। जब हम लेह पहुँचे तो हमें यह बताया गया कि काफ़ी ऊँचाई पे होने की वजह से ऑक्सीज़न लेवल काफ़ी लो है, इसलिए हम जो भी करे आहिस्ता-आहिस्ता करे नहीं तो सर चकरा जायेगा। जब हमारा प्रोग्राम शुरू हुआ तो शहनाई वादक ने ऐसी तान उपर को लगाई कि तान उपर की उपर ही रह गई। हम लोगों ने ज़्यादातर छोटे-छोटे स्किट्स किए जो इन जवानों को सबसे ज़्यादा पसन्द आये। आइये अब एक गीत सुनते हैं फ़िल्म 'काबुलीवाला' से, "ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझपे दिल क़ुर्बान..."।
एम. जी. हशमत
मेरे प्यारे फ़ौजी भाइयों, आप लोग उम्र में शायद मुझसे काफ़ी छोटे होंगे पर आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं, एक अज़ीम काम कर रहे हैं। अपने देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करना बड़ा काम नहीं तो फिर क्या है? वैसे देखा जाये तो हर आदमी एक फ़ौजी है। अपनी ज़िन्दगी की लड़ाई लड़ता रहता है आदमी। पर फ़ौजी भाइयों, आपकी लड़ाई को देख कर हम आपके सामने सर झुका कर आपको सलाम करते हैं। मैंने 'फ़ौजी' फ़िल्म में आप लोगों पर एक गीत लिखा था - "फ़ौजी रब का है दूसरा नाम", जो मैं समझता हूँ कि बिल्कुल सच बात है।
गुलशन बावरा
फ़ौजी भाइयों, आपको गुल्शन बावरा का नमस्कार कुबूल हो। कहते हैं तलवार का और कलम का सदियों पुराना रिश्ता है। जब जब आप लोग मैदान-ए-जंग से जीत का झंडा लहराते हुए आते हैं, तब मेरे जैसे तुच्छ गीतकार के कलम से भी निकल आता है...
कैफ़ी आज़मी (1988)
प्यारे फ़ौजी भाइयों, पूरे मुल्क की तरफ़ से मैं आपका शुक्रगुज़ार हूँ। आपका शुक्रिया इसलिए कि हम भारत में कोई भी त्योहार सिर्फ़ इसलिए मना सकते हैं और अपने घरों में सिर्फ़ इसलिए चादर तान के सो सकते हैं कि मुल्क की सरहदों पर आप जागते रहते हैं। हमारी आँखों में आप ही की नींदें हैं। इस ख़ुशी के मौके पर मैंने आप सब के लिए फ़िल्मी गीतों की एक 'जयमाला' गूँथी है, चाहता हूँ कि आप उसे कुबूल करें और हमारी मोहब्बत की निशानी समझ के उसको अपने गलों में डाल लें। मैं और मेरे हमकलम साथी फ़िल्मों के लिए गाने लिखते हैं, वो ऐसे सिपाही हैं जिनके हर हथियार छीन लिए जाते हैं, हाथ बाँध दिये जाते हैं, फिर उनको मैदान में उतारा जाता है। इन जकड़बन्दियों में अगर कभी कोई ऐसा गीत हो जाये जिसमें फेरियाँ भी हो और कोई पैग़ाम भी तो उसको दोहराते हुए किसी नग़मानिगार को शर्म आने की ज़रूरत नहीं। इस 'जयमाला' में पहला गीत मैंने ऐसा ही गूंथा है। बोल मेरे हैं, धुन एस. डी. बर्मन साहब की, और आवाज़ मन्ना डे की है। गीत सुनिये, "न तेल और न बाती, न काबू हवा पर, दीये क्यों जलाये चला जा रहा है..."।
मजरूह सुल्तानपुरी (1985)
भाइयों, वैसे तो हम जानते हैं कि तोप के गोले से खेलना आप के लिए एक मामूली अमल है, आप तो जाँबाज़ वीर सिपाही हैं जिन्हे कोई ग़म छू ही नहीं सकता, लेकिन आप इंसान भी तो हैं, आप के दिल में भी जज्वे हैं, कभी कोई तो वक़्त आया होगा जब आप उदास होते होंगे, दुखी होते होंगे, तो यह उदासी बड़ा वक़्ती हो। मैंने और लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल ने और मरहूम रफ़ी ने मिल के काम की बात बतानी चाही है इस गीत में। अगर ऐसा कोई वक़्त हो तो इसे याद रखियेगा, इसमें काम की बातें हैं।
गुलज़ार
फ़ौजी भाइयों, आदाब! बहुत दिन बाद फिर आप की महफ़िल में शामिल हो रहा हूँ। इससे पहले जब भी आपके पास आया तो कोई ना कोई नई तरकीब लेकर, कोई न कोई नई आग़ाश लेकर गानो की, जिसमें मैंने कई तरह के गाने आप को सुनाये, जैसे रेल की पटरी पर चलते हुए गाने सुनाये थे एक बार, वो तमाम गाने जिनमें रेल की पटरी की आवाज़ भी सुनाई देती है। और एक बार आम आदमी के मसलों पर गाने आपको सुनाये जो लक्ष्मण के कार्टूनों जैसे लगते हैं। लेकिन मज़ाक के पीछे कहीं बहुत गहरे, बहुत संजीदे दर्द भरे हुए हैं इन गानो में। बच्चों के साथ गाये गाने भी आपको सुनाये, खेलते कूदते हुए गाने, लोरियाँ सुनाई आपको, और बहुत से दोस्तों की चिट्ठियाँ जब आयी, चाहनेवालों की चिट्ठियाँ आयी जिनमें शिकायतें भी, गिले भी, शिकवे भी, उनमें एक बात बहुत से दोस्तों ने कही कि हर बार आप कुछ मज़ाक करके, हँस-हँसाकर रेडियो से चले जाते हैं, जितनी बार आप आते हैं, हर बार हम आप से कुछ संजीदा बातें सुनना चाहते हैं, कि संजीदा सिचुएशनों पर आप कैसे लिखते हैं, क्या लिखते हैं, और हाँ, यह किसी ने नहीं कहा कि क्यों लिखते हैं? फ़ौजी भाइयों, आप तो वतन की सरहदों पर बैठे हैं, और मैं आपको बहलाते हुए आपके परिवारों को भी बहलाने की कोशिश करता रहता हूँ। हाँ, उन सरहदों की बात कभी नहीं करता जो दिलों में पैदा हो जाती हैं' कभी जुड़ती हुई, कभी टूटती हुई, कभी बनती हुई, गुम होती हुई सरहदें, या सिर्फ़ हदें। इस तरह के रिश्ते सभी के ज़िन्दगी से गुज़रते हैं, वो ज़िन्दगी जिसे एक सुबह एक मोड़ पर देखा था तो कहा था कि हाथ मिला ऐ ज़िन्दगी, आँख मिला कर बात कर।
कार्य्रक्रम : 'विशेष जयमाला' के अलग-अलग कार्यक्रमों से संकलित
पण्डित नरेन्द्र शर्मा
भारतीय गणतन्त्र के वीर रक्षक, प्रहरी, अपने सैनिकों को सादर नमस्कार! आप के मनोरंजन के लिए 'जयमाला' में गूँथे हुए कुछ गीत-पुष्प आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं एक कवि, वीर सैनिकों से अपने आप को सम्बोधित कर रहा हूँ, और यह बोध प्राप्त कर रहा हूँ मन ही मन कि हम सब चाहे कवि हों, चाहे श्रमिक हों, चाहे कृषक हों, चाहे मनीषी हों, चाहे शिल्पी हों, हम सब एक हैं, हमारा देश एक है, इस देश का संविधान एक है। और हम सब पर इस बात की ज़िम्मेदारी है कि हम सब की एक निधि है, उसके हम अच्छे प्रतिनिधि बन सके। तो आपसे हम प्रेरणा ग्रहण करते हैं इस निधि के अच्छे प्रतिनिधि बनने के लिए। तो आपको सब से पहले जो गीत सुनवाना चाहता हूँ, उस गीत में इस महान देश की प्रीति की रीति का वर्णन किया गया है।
फिल्म - पूरब और पश्चिम : 'है प्रीत जहाँ की रीत सदा...' : महेन्द्र कपूर : कल्याण जी, आनन्द जी : इन्दीवर
जाँनिसार अख़्तर (1974)
फ़ौजी भाइयों, आप जो इस मुल्क और क़ौम के बाग़बाँ हैं, जो देश की सरहदों की हिफ़ाज़त और निगरानी करते हैं, हमारी माताओं, बहनों और बेटियों की इस्मत के मुहाफ़िज़ हैं, हमारे लिए दुश्मनों के हमलों का सामना करते हैं, एक कड़ी और आज़माइशी ज़िन्दगी बसर करते हैं, मैं यह चन्द गीत जो आपको सुनाने जा रहा हूँ, इस ग़रज़ से है कि ज़िहानी और रूहानी ख़ुशी से आपके चन्द लम्हे भर सके। ये गीत मुख़्तलिब फ़िल्मों से लिए गये हैं। हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री अपनी कमज़ोरियों के बावजूद बड़ी अहम सड़क है, हम गीतनिगार दूसरों के जज़्बात की तर्जुमानी करते हैं। ये गीत फ़िल्म की ज़रूरत के लिहाज़ से लिखे जाते हैं, फिर भी ये मुख़्तलिब इंसान के जज़्बात का बयान होते हैं। मैं सबसे पहले जो गीत आपको सुना रहा हूँ यह मैंने एक फ़िल्म 'हमारी कहानी' के लिए कहा है, यह देश के मुतालिक है और आपके हमारे हौसलों की नुमाइन्दगी करता है, मौसिक़ी सी. अर्जुन की है। सुनिये यह गीत।
फिल्म - हमारी कहानी : 'देश हमारा एक है...' : मोहम्मद रफी और साथी : सी. अर्जुन : जाँनिसार अख्तर
प्रेम धवन
मेरे फ़ौजी भाइयों, आप सब को मेरा नमस्कार! आज मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है इस प्रोग्राम में आपके लिए कुछ गीत पेश करते हुए। बहुत दूर से 'विविध भारती' के ज़रिये आप से मुलाक़ात हो रही है। आप लोग कैसी परिस्थितियों में रहते हैं, मैंने पर्सोनली नज़दीकी से देखा है जब हम लोग इंडो-पाक और इंडो-चाइनीज़ वार के समय आपकी सेवा में गये थे। इंडो-पाक वार के समय मैं सुनिल दत्त और नरगिस जी के साथ गया था। जब लदाख की राजधानी लेह पर पहुँचने के लिए हम मिलिटरी हेलिकॉप्टर पर बैठे तो देखा कि पिछले हिस्से में राशन की बोरियाँ और भेड़-बकरियाँ लदी हुई हैं। फिर भेड़-बकरियों को पैराशूट की मदद से उतारा जा रहा था। नरगिस जी के भाई अनवर हुसैन ने कहा कि शायद हमें भी भेड़-बकरियों की तरह पैराशूट में बांधकर उतार देंगे। जब हम लेह पहुँचे तो हमें यह बताया गया कि काफ़ी ऊँचाई पे होने की वजह से ऑक्सीज़न लेवल काफ़ी लो है, इसलिए हम जो भी करे आहिस्ता-आहिस्ता करे नहीं तो सर चकरा जायेगा। जब हमारा प्रोग्राम शुरू हुआ तो शहनाई वादक ने ऐसी तान उपर को लगाई कि तान उपर की उपर ही रह गई। हम लोगों ने ज़्यादातर छोटे-छोटे स्किट्स किए जो इन जवानों को सबसे ज़्यादा पसन्द आये। आइये अब एक गीत सुनते हैं फ़िल्म 'काबुलीवाला' से, "ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझपे दिल क़ुर्बान..."।
फिल्म काबुलीवाला : 'ऐ मेरे प्यारे वतन तुझपे दिल कुर्बान...' : मन्ना डे : सलिल चौधरी : प्रेम धवन
एम. जी. हशमत
मेरे प्यारे फ़ौजी भाइयों, आप लोग उम्र में शायद मुझसे काफ़ी छोटे होंगे पर आप बहुत बड़ा काम कर रहे हैं, एक अज़ीम काम कर रहे हैं। अपने देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करना बड़ा काम नहीं तो फिर क्या है? वैसे देखा जाये तो हर आदमी एक फ़ौजी है। अपनी ज़िन्दगी की लड़ाई लड़ता रहता है आदमी। पर फ़ौजी भाइयों, आपकी लड़ाई को देख कर हम आपके सामने सर झुका कर आपको सलाम करते हैं। मैंने 'फ़ौजी' फ़िल्म में आप लोगों पर एक गीत लिखा था - "फ़ौजी रब का है दूसरा नाम", जो मैं समझता हूँ कि बिल्कुल सच बात है।
फिल्म फौजी : फौजी रब दा ऐ दूजा नाम...' : मोहम्मद रफी, मन्ना डे, मीनू पुरुषोत्तम और साथी : सोनिक - ओमी : एम.जी. हशमत
गुलशन बावरा
फ़ौजी भाइयों, आपको गुल्शन बावरा का नमस्कार कुबूल हो। कहते हैं तलवार का और कलम का सदियों पुराना रिश्ता है। जब जब आप लोग मैदान-ए-जंग से जीत का झंडा लहराते हुए आते हैं, तब मेरे जैसे तुच्छ गीतकार के कलम से भी निकल आता है...
फिल्म उपकार : 'मेरे देश की धरती...' महेन्द्र कपूर और साथी : कल्याण जी, आनन्द जी : गुलशन बावरा
कैफ़ी आज़मी (1988)
प्यारे फ़ौजी भाइयों, पूरे मुल्क की तरफ़ से मैं आपका शुक्रगुज़ार हूँ। आपका शुक्रिया इसलिए कि हम भारत में कोई भी त्योहार सिर्फ़ इसलिए मना सकते हैं और अपने घरों में सिर्फ़ इसलिए चादर तान के सो सकते हैं कि मुल्क की सरहदों पर आप जागते रहते हैं। हमारी आँखों में आप ही की नींदें हैं। इस ख़ुशी के मौके पर मैंने आप सब के लिए फ़िल्मी गीतों की एक 'जयमाला' गूँथी है, चाहता हूँ कि आप उसे कुबूल करें और हमारी मोहब्बत की निशानी समझ के उसको अपने गलों में डाल लें। मैं और मेरे हमकलम साथी फ़िल्मों के लिए गाने लिखते हैं, वो ऐसे सिपाही हैं जिनके हर हथियार छीन लिए जाते हैं, हाथ बाँध दिये जाते हैं, फिर उनको मैदान में उतारा जाता है। इन जकड़बन्दियों में अगर कभी कोई ऐसा गीत हो जाये जिसमें फेरियाँ भी हो और कोई पैग़ाम भी तो उसको दोहराते हुए किसी नग़मानिगार को शर्म आने की ज़रूरत नहीं। इस 'जयमाला' में पहला गीत मैंने ऐसा ही गूंथा है। बोल मेरे हैं, धुन एस. डी. बर्मन साहब की, और आवाज़ मन्ना डे की है। गीत सुनिये, "न तेल और न बाती, न काबू हवा पर, दीये क्यों जलाये चला जा रहा है..."।
फिल्म एक के बाद एक : 'न तेल और न बाती न काबू हवा पर दिये क्यों जलाए चला जा रहा है...' मन्ना डे : सचिनदेव बर्मन : कैफी आज़मी
मजरूह सुल्तानपुरी (1985)
भाइयों, वैसे तो हम जानते हैं कि तोप के गोले से खेलना आप के लिए एक मामूली अमल है, आप तो जाँबाज़ वीर सिपाही हैं जिन्हे कोई ग़म छू ही नहीं सकता, लेकिन आप इंसान भी तो हैं, आप के दिल में भी जज्वे हैं, कभी कोई तो वक़्त आया होगा जब आप उदास होते होंगे, दुखी होते होंगे, तो यह उदासी बड़ा वक़्ती हो। मैंने और लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल ने और मरहूम रफ़ी ने मिल के काम की बात बतानी चाही है इस गीत में। अगर ऐसा कोई वक़्त हो तो इसे याद रखियेगा, इसमें काम की बातें हैं।
फिल्म दोस्ती : 'राही मनवा दुख की चिन्ता क्यों सताती है...' : मोहम्मद रफी : लक्ष्मीकान्त, प्यारेलाल : मजरूह सुल्तानपुरी
गुलज़ार
फ़ौजी भाइयों, आदाब! बहुत दिन बाद फिर आप की महफ़िल में शामिल हो रहा हूँ। इससे पहले जब भी आपके पास आया तो कोई ना कोई नई तरकीब लेकर, कोई न कोई नई आग़ाश लेकर गानो की, जिसमें मैंने कई तरह के गाने आप को सुनाये, जैसे रेल की पटरी पर चलते हुए गाने सुनाये थे एक बार, वो तमाम गाने जिनमें रेल की पटरी की आवाज़ भी सुनाई देती है। और एक बार आम आदमी के मसलों पर गाने आपको सुनाये जो लक्ष्मण के कार्टूनों जैसे लगते हैं। लेकिन मज़ाक के पीछे कहीं बहुत गहरे, बहुत संजीदे दर्द भरे हुए हैं इन गानो में। बच्चों के साथ गाये गाने भी आपको सुनाये, खेलते कूदते हुए गाने, लोरियाँ सुनाई आपको, और बहुत से दोस्तों की चिट्ठियाँ जब आयी, चाहनेवालों की चिट्ठियाँ आयी जिनमें शिकायतें भी, गिले भी, शिकवे भी, उनमें एक बात बहुत से दोस्तों ने कही कि हर बार आप कुछ मज़ाक करके, हँस-हँसाकर रेडियो से चले जाते हैं, जितनी बार आप आते हैं, हर बार हम आप से कुछ संजीदा बातें सुनना चाहते हैं, कि संजीदा सिचुएशनों पर आप कैसे लिखते हैं, क्या लिखते हैं, और हाँ, यह किसी ने नहीं कहा कि क्यों लिखते हैं? फ़ौजी भाइयों, आप तो वतन की सरहदों पर बैठे हैं, और मैं आपको बहलाते हुए आपके परिवारों को भी बहलाने की कोशिश करता रहता हूँ। हाँ, उन सरहदों की बात कभी नहीं करता जो दिलों में पैदा हो जाती हैं' कभी जुड़ती हुई, कभी टूटती हुई, कभी बनती हुई, गुम होती हुई सरहदें, या सिर्फ़ हदें। इस तरह के रिश्ते सभी के ज़िन्दगी से गुज़रते हैं, वो ज़िन्दगी जिसे एक सुबह एक मोड़ पर देखा था तो कहा था कि हाथ मिला ऐ ज़िन्दगी, आँख मिला कर बात कर।
फिल्म - हिप हिप हुर्रे : 'एक सुबह एक मोड पर...' : वनराज भाटिया : गुलजार
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ज़रूरी सूचना:: उपर्युक्त लेख 'विविध भारती' के कार्यक्रम का अंश है। इसके सभी अधिकार 'विविध भारती' के पास सुरक्षित हैं। किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा इस प्रस्तुति का इस्तेमाल व्यावसायिक रूप में करना कॉपीराइट कानून के ख़िलाफ़ होगा, जिसके लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ज़िम्मेदार नहीं होगा।
तो दोस्तों, आज बस इतना ही। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आयी होगी। अगली बार ऐसे ही किसी स्मृतियों की गलियारों से आपको लिए चलेंगे उस स्वर्णिम युग में। तब तक के लिए अपने इस दोस्त, सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिये, नमस्कार! इस स्तम्भ के लिए आप अपने विचार और प्रतिक्रिया नीचे टिप्पणी में व्यक्त कर सकते हैं, हमें अत्यन्त ख़ुशी होगी।
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र
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