Skip to main content

जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ....मान-मनुहार की ठुमरी का मोहक अन्दाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 694/2011/134

पिछली कुछ कड़ियों में हमने आपसे "बोल-बाँट" या "बन्दिश" की ठुमरियों और इस शैली के प्रमुख रचनाकारों के विषय में चर्चा की है| आज के इस अंक में हम आपसे "बोल-बनाव" की ठुमरियों पर कुछ बातचीत करेंगे| दरअसल बोल-बनाव की ठुमरियों का विकास बनारस में हुआ| इस प्रकार की ठुमरियों में शब्द बहुत कम होते हैं और यह विलम्बित लय से शुरू होती हैं| इनमें स्वरों के प्रसार की बहुत गुंजाइश होती है| छोटी-छोटी मुरकियाँ, खटके, मींड का प्रयोग ठुमरी की गुणबत्ता को बढाता है| कुशल गायक ठुमरी के शब्दों से अभिनय कराते हैं| गायक कलाकार ठुमरी के कुछ शब्दों को लेकर अलग-अलग भावपूर्ण अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं| अन्त में कहरवा ताल की लग्गी के साथ ठुमरी समाप्त होती है| ठुमरी के इस भाग में तबला संगतिकार को अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिलता है|

बात जब बोल-बनाव ठुमरी की हो तो रसूलन बाई का ज़िक्र आवश्यक हो जाता है| पूरब अंग की गायकी- ठुमरी, दादरा, होरी, चैती, कजरी आदि शैलियों की अविस्मरणीय गायिका रसूलन बाई बनारस (वाराणसी) की रहनेवाली थीं| संगीत का संस्कार इन्हें अपनी नानी से विरासत में मिला था| रसूलन बाई के संगीत को निखारने में उस्ताद आशिक खाँ, नज्जू मियाँ और टप्पा गायकी के अन्वेषक मियाँ शोरी खानदान के शम्मू खाँ का बहुत बड़ा योगदान था| पूरब अंग की भावभीनी गायकी की चैनदारी, बोल-बनाव के लहजे, कहन के खास ढंग और ठहराव- यह सारे गुण रसूलन बाई की गायकी में था| टप्पा तो जैसे रसूलन बाई के लिए ही बना था| बारीक मुरकियाँ और मोतियों की लड़ियों जैसी तानों पर उन्हें कमाल हासिल था| उनकी गायी ठुमरियाँ- "आँगन में मत सो...", "कैसी बजायी श्याम बँसुरिया...", "जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ...." आदि तथा दादरा- "कंकर मार मोहें जगाया..." और "पनघटवा न जैहो..." जैसे अनेक गीत भारतीय संगीत के अमूल्य धरोहर है|

फिल्मों में "बोल-बनाव" की ठुमरियों का प्रयोग कम हुआ है, और प्रयोग किया भी गया है तो मंच पर प्रस्तुत की जाने वाली बोल-बनाव की ठुमरियों से कुछ भिन्न रूप में| इस सम्बन्ध में कानपुर के संगीत-प्रेमी और पारखी डा. रमेशचन्द्र मिश्र के अनुसार -"फिल्मों में दर्शकों का धैर्य ना टूटे, इसलिए बोल-बनाव की ठुमरियों को थोड़ा संक्षिप्त करके, शब्दों को भरपूर संयोजित करके, गीतों को ही ठुमरी का रूप दे दिया जाता है|" बोल-बनाव की ठुमरियों के फ़िल्मी संस्करण के बारे में डा. मिश्र का कथन बिलकुल ठीक है| फिल्मों में प्रयोग किये जाने वाले गीतों की अवधि सामान्यतः 4-5 मिनट की होती है, जबकि स्वर-विस्तार और शब्दों को अलग-अलग अन्दाज़ में प्रस्तुत किए जाने के कारण बोल-बनाव की ठुमरियों की अवधि अधिक होती है| फिल्म के दर्शकों में इस शैली की ठुमरियों के लिए प्रायः धैर्य नहीं होता| इसके बावजूद कई गायक-गायिकाओं ने अपने गायन कौशल से शब्दों में नाटकीयता देकर फिल्मों में बोल-बनाव की ठुमरियों को एक नया रंग दिया है| इन्हीं पार्श्वगायिकाओं में शीर्ष पर लता मंगेशकर का नाम है|

आज जो ठुमरी आपको सुनवाने के लिए हमने चुनी है वह कोकिल-कंठी गायिका लता मंगेशकर के स्वरों में ही है| 1962 में प्रदर्शित फिल्म "सौतेला भाई" में संगीतकार अनिल विश्वास ने यह परम्परागत ठुमरी -"जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ..." लता जी से गवाया था| राग "अड़ाना" और दादरा ताल में निबद्ध इस ठुमरी को लता जी ने बोल-बनाव के अन्दाज़ में गाया है| ऊपर की पंक्तियों में हमने सिद्ध गायिका रसूलन बाई का परिचय देते हुए जिक्र किया था कि ठुमरी "जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ..." रसूलन बाई के स्वरों में हमारे लिए धरोहर है| लता जी ने इस धरोहर को आनेवाली पीढ़ियों के लिए आगे बढ़ाया है| आप इस रसपूर्ण ठुमरी का रसास्वादन करें, इससे पूर्व मैं कृष्णमोहन मिश्र, अपनी ओर से, इस कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ताओं की ओर से और आप सभी पाठकों-श्रोताओं कि ओर से संगीतकार अनिल विश्वास की स्मृतियों को उनके द्वारा ही संयोजित इस ठुमरी गीत से स्वरांजलि अर्पित करते हैं| कल इस महान संगीतकार की 97 वीं जयन्ती है|



क्या आप जानते हैं...
कि फिल्म "सौतेला भाई" में संगीतकार अनिल विश्वास ने तवायफ के कोठे के प्रसंग में इस ठुमरी को संयोजित किया था| परदे पर दो नर्तकियों ने इस ठुमरी को नृत्य के साथ प्रस्तुत किया है, किन्तु दोनों के लिए स्वर लता मंगेशकर ने ही दिया है|

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 15/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान
सवाल १ - किस हास्य अभिनेता पर फिल्माई गयी है ये ठुमरी - ३ अंक
सवाल २ - किस संगीतकार ने इस पारंपरिक ठुमरी को संयोजित किया था - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह अमित जी न सिर्फ जल्दी आते हैं पर उनका ज्ञान भी कमाल का है. बधाई. क्षिति जी बस कुछ लेट हो जाती है. अनजाना जी आप कहाँ है, कब तक छुपे रहेंगें, हमें लगता है कि अमित जी का रथ अब बस आप ही रोक् सकते हैं :)

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Comments

Kshiti said…
Music - Roshan
AVADH said…
एक बात तो सर्वथा स्पष्ट है कि लगता है कि धुरंधर खिलाड़ी लोग एक अंक के उत्तर में रूचि नहीं रखते हैं और यूँ ही जान बूझ कर उसे छोड़ देते हैं.
भाई मैं तो प्रश्न को ऐसे ही अनुत्तरित नहीं जाने दूंगा.
फिल्म: दूज का चाँद.
इस फिल्म के निर्माता भी स्वयं भारत भूषण जी ही थे. इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर साधारण आय ही अर्जित की थी परन्तु यह गीत 'फुल गेंदवा न मारो लगत करेजवा में चोट' न केवल उस समय सबकी ज़बान पर चढ़ा था बल्कि आज भी सुननेवालों को आनंद देता है.
अवध लाल
राज सिंह जी,
पिछले गुरुवार को आपने अपनी एक ख्वाहिश व्यक्त की थी| चूँकि इस स्तम्भ में प्रस्तुत किये जाने वाले गीतों पर आधारित पहेली के प्रश्न पूछे जाते हैं, इसलिए आपको तत्काल उत्तर देने में हिचक रहा था, आप अन्यथा न लें| फ़िलहाल आपको इतना ही कह सकता हूँ कि आप "ओल्ड इज गोल्ड" की कड़ियों को नियमित पढ़ते रहें, आपकी ख्वाहिश बहुत जल्द फलीभूत होने वाली है|
कृष्णमोहन मिश्र

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट