रस के भरे तोरे नैन....हिंदी फ़िल्मी गीतों में ठुमरी परंपरा पर आधारित इस शृंखला को देते हैं विराम इस गीत के साथ
ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 700/2011/140
भारतीय फिल्मों में ठुमरियों के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के समापन अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| पिछली 19 कड़ियों में हमने आपको फिल्मों में 40 के दशक से लेकर 80 के दशक तक शामिल की गईं ठुमरियों से न केवल आपका परिचय कराने का प्रयत्न किया, बल्कि ठुमरी शैली की विकास-यात्रा के कुछ पड़ावों को रेखांकित करने का प्रयत्न भी किया| आज के इस समापन अंक में हम आपको 1978 में प्रदर्शित फिल्म "गमन" की एक मनमोहक ठुमरी का रसास्वादन कराएँगे; परन्तु इससे पहले वर्तमान में ठुमरी गायन के सशक्त हस्ताक्षर पण्डित छन्नूलाल मिश्र से आपका परिचय भी कराना चाहते हैं|
एक संगीतकार परिवार में 3 अगस्त,1936 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद में जन्में छन्नूलाल मिश्र की प्रारम्भिक संगीत-शिक्षा अपने पिता बद्रीप्रसाद मिश्र से प्राप्त हुई| बाद में उन्होंने किराना घराने के उस्ताद अब्दुल गनी खान से घरानेदार गायकी की बारीकियाँ सीखीं| जाने-माने संगीतविद ठाकुर जयदेव सिंह का मार्गदर्शन भी श्री मिश्र को मिला| निरन्तर शोधपूर्ण प्रवृत्ति के कारण उनकी ख्याल गायकी में कई घरानों की विशेषताओं के दर्शन होते हैं| पूरब अंग की उपशास्त्रीय गायकी के वह एक सिद्ध कलासाधक हैं| उनकी ठुमरी गायकी में जहाँ पूरब अंग की चैनदारी और ठहराव होता है वहीं पंजाब अंग की लयकारी का आनन्द भी मिलता है| संगीत के साथ-साथ छन्नूलाल जी ने साहित्य का भी गहन अध्ययन किया है| तुलसी और कबीर के साहित्य का जब वह स्वरों में निबद्ध कर गायन करते है, तब साहित्य का पूरा दर्शन स्वरों से परिभाषित होने लगता है| पण्डित छन्नूलाल मिश्र को वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2001 में तानसेन सम्मान तथा 2010 में पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया गया|
आज जो ठुमरी हम आपको सुनवाने जा रहे हैं, वह राग भैरवी में निबद्ध पूरब अंग की बेहद आकर्षक ठुमरी है| इस परम्परागत ठुमरी को उपशास्त्रीय गायिका हीरादेवी मिश्र ने अपने स्वरों से एक अलग रंग में ढाल दिया है| 1978 में प्रदर्शित मुज़फ्फर अली की फिल्म "गमन" में शामिल होने से पूर्व यह परम्परागत ठुमरी अनेक प्रसिद्ध गायक-गायिकाओं के स्वरों में बेहद लोकप्रिय थी| मूलतः श्रृंगार-प्रधान ठुमरी अपने समय की सुप्रसिद्ध गायिका गौहर जान के स्वर में अत्यन्त चर्चित हुई थी| इसके अलावा उस्ताद बरकत अली खान ने सटीक पूरब अंग शैली में दीपचन्दी ताल में गाया है| गायिका रसूलन बाई ने इसी ठुमरी को जत ताल में गाया है| विदुषी गिरिजा देवी ने स्थायी के बोल -"रस के भरे तोरे नैन..." के स्थान पर -"मद से भरे तोरे नैन..." परिवर्तित कर श्रृंगार भाव को अधिक मुखर कर दिया है| परन्तु फिल्म गमन में हीरादेवी मिश्र ने इसी ठुमरी में श्रृंगार के साथ-साथ भक्ति रस का समावेश अत्यन्त कुशलता से करके ठुमरी को एक अलग रंग दे दिया है|
गायिका हीरादेवी मिश्र जाने-माने संगीतज्ञ पण्डित कमल मिश्र की पत्नी थीं और पूरब अंग में ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती आदि की अप्रतिम गायिका थीं| फिल्म "गमन" के लिए उन्होंने इस ठुमरी के प्रारम्भ में एक पद -"अरे पथिक गिरिधारी सूँ इतनी कहियो टेर..." जोड़ कर और अन्तरे के शब्दों को बोल-बनाव के माध्यम से भक्ति रस का समावेश जिस सुगढ़ता से किया है, वह अनूठा है| फिल्म के संगीतकार हैं जयदेव, जिन्होंने ठुमरी के मूल स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं किया किन्तु सारंगी, बाँसुरी और स्वरमण्डल के प्रयोग से ठुमरी की रसानुभूति में वृद्धि कर दी| आइए सुनते हैं; श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की यह समापन प्रस्तुति-
राग भैरवी : आजा साँवरिया तोहें गरवा लगा लूँ , रस के भरे तोरे नैन..." : फिल्म - गमन
आपको यह श्रृंखला कैसी लगी, हमें अवगत अवश्य कराएँ| इस श्रृंखला को विराम देने से पहले इस श्रृंखला में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए मैं कानपुर के संगीत-प्रेमी और संगीत-पारखी डा. रमेश चन्द्र मिश्र और लखनऊ के भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर विदुषी कमला श्रीवास्तव का कृतज्ञ हूँ| डा. मिश्र के फ़िल्मी ठुमरियों के संग्रह ने इस श्रृंखला के लिए ठुमरी-चयन में मेरा बहुत सहयोग किया| इसके अलावा बोल-बनाव की ठुमरियों के चयन में भी उनके सहयोग के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ| प्रोफ़ेसर कमला श्रीवास्तव जी ने ठुमरियों के रागों के बारे में मेरा मार्गदर्शन किया| इस आभार प्रदर्शन के साथ ही मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने सभी पाठकों-श्रोताओं से श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" को यहीं विराम देने की अनुमति चाहता हूँ|
क्या आप जानते हैं...
कि आज १४ जुलाई, संगीतकार मदन मोहन की पुण्यतिथि है। १९७५ में स्वल्पायु में ही उनकी मृत्यु हुई थी। निराशा में घिर कर अपने आप को शराब में डूबोने की उनकी आदत उनके जीवन के लिए घातक सिद्ध हुई।
आज पहेली को देते हैं एक दिन का विराम, क्योंकि आज हम जानना चाहते हैं कि ७०० एपिसोडों की इस महायात्रा को हमारे नियमित श्रोता किस रूप में देखते हैं, हम आपको सुनना चाहते हैं आज, कृपया अपने विचार रखें, हमें खुशी होगी
पिछली पहेली का परिणाम -
एक और शृंखला अमित जी के नाम रही, बहुत बहुत बधाई जनाब.
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र
भारतीय फिल्मों में ठुमरियों के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के समापन अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| पिछली 19 कड़ियों में हमने आपको फिल्मों में 40 के दशक से लेकर 80 के दशक तक शामिल की गईं ठुमरियों से न केवल आपका परिचय कराने का प्रयत्न किया, बल्कि ठुमरी शैली की विकास-यात्रा के कुछ पड़ावों को रेखांकित करने का प्रयत्न भी किया| आज के इस समापन अंक में हम आपको 1978 में प्रदर्शित फिल्म "गमन" की एक मनमोहक ठुमरी का रसास्वादन कराएँगे; परन्तु इससे पहले वर्तमान में ठुमरी गायन के सशक्त हस्ताक्षर पण्डित छन्नूलाल मिश्र से आपका परिचय भी कराना चाहते हैं|
एक संगीतकार परिवार में 3 अगस्त,1936 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद में जन्में छन्नूलाल मिश्र की प्रारम्भिक संगीत-शिक्षा अपने पिता बद्रीप्रसाद मिश्र से प्राप्त हुई| बाद में उन्होंने किराना घराने के उस्ताद अब्दुल गनी खान से घरानेदार गायकी की बारीकियाँ सीखीं| जाने-माने संगीतविद ठाकुर जयदेव सिंह का मार्गदर्शन भी श्री मिश्र को मिला| निरन्तर शोधपूर्ण प्रवृत्ति के कारण उनकी ख्याल गायकी में कई घरानों की विशेषताओं के दर्शन होते हैं| पूरब अंग की उपशास्त्रीय गायकी के वह एक सिद्ध कलासाधक हैं| उनकी ठुमरी गायकी में जहाँ पूरब अंग की चैनदारी और ठहराव होता है वहीं पंजाब अंग की लयकारी का आनन्द भी मिलता है| संगीत के साथ-साथ छन्नूलाल जी ने साहित्य का भी गहन अध्ययन किया है| तुलसी और कबीर के साहित्य का जब वह स्वरों में निबद्ध कर गायन करते है, तब साहित्य का पूरा दर्शन स्वरों से परिभाषित होने लगता है| पण्डित छन्नूलाल मिश्र को वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2001 में तानसेन सम्मान तथा 2010 में पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया गया|
आज जो ठुमरी हम आपको सुनवाने जा रहे हैं, वह राग भैरवी में निबद्ध पूरब अंग की बेहद आकर्षक ठुमरी है| इस परम्परागत ठुमरी को उपशास्त्रीय गायिका हीरादेवी मिश्र ने अपने स्वरों से एक अलग रंग में ढाल दिया है| 1978 में प्रदर्शित मुज़फ्फर अली की फिल्म "गमन" में शामिल होने से पूर्व यह परम्परागत ठुमरी अनेक प्रसिद्ध गायक-गायिकाओं के स्वरों में बेहद लोकप्रिय थी| मूलतः श्रृंगार-प्रधान ठुमरी अपने समय की सुप्रसिद्ध गायिका गौहर जान के स्वर में अत्यन्त चर्चित हुई थी| इसके अलावा उस्ताद बरकत अली खान ने सटीक पूरब अंग शैली में दीपचन्दी ताल में गाया है| गायिका रसूलन बाई ने इसी ठुमरी को जत ताल में गाया है| विदुषी गिरिजा देवी ने स्थायी के बोल -"रस के भरे तोरे नैन..." के स्थान पर -"मद से भरे तोरे नैन..." परिवर्तित कर श्रृंगार भाव को अधिक मुखर कर दिया है| परन्तु फिल्म गमन में हीरादेवी मिश्र ने इसी ठुमरी में श्रृंगार के साथ-साथ भक्ति रस का समावेश अत्यन्त कुशलता से करके ठुमरी को एक अलग रंग दे दिया है|
गायिका हीरादेवी मिश्र जाने-माने संगीतज्ञ पण्डित कमल मिश्र की पत्नी थीं और पूरब अंग में ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती आदि की अप्रतिम गायिका थीं| फिल्म "गमन" के लिए उन्होंने इस ठुमरी के प्रारम्भ में एक पद -"अरे पथिक गिरिधारी सूँ इतनी कहियो टेर..." जोड़ कर और अन्तरे के शब्दों को बोल-बनाव के माध्यम से भक्ति रस का समावेश जिस सुगढ़ता से किया है, वह अनूठा है| फिल्म के संगीतकार हैं जयदेव, जिन्होंने ठुमरी के मूल स्वरुप में कोई परिवर्तन नहीं किया किन्तु सारंगी, बाँसुरी और स्वरमण्डल के प्रयोग से ठुमरी की रसानुभूति में वृद्धि कर दी| आइए सुनते हैं; श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की यह समापन प्रस्तुति-
राग भैरवी : आजा साँवरिया तोहें गरवा लगा लूँ , रस के भरे तोरे नैन..." : फिल्म - गमन
आपको यह श्रृंखला कैसी लगी, हमें अवगत अवश्य कराएँ| इस श्रृंखला को विराम देने से पहले इस श्रृंखला में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए मैं कानपुर के संगीत-प्रेमी और संगीत-पारखी डा. रमेश चन्द्र मिश्र और लखनऊ के भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर विदुषी कमला श्रीवास्तव का कृतज्ञ हूँ| डा. मिश्र के फ़िल्मी ठुमरियों के संग्रह ने इस श्रृंखला के लिए ठुमरी-चयन में मेरा बहुत सहयोग किया| इसके अलावा बोल-बनाव की ठुमरियों के चयन में भी उनके सहयोग के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ| प्रोफ़ेसर कमला श्रीवास्तव जी ने ठुमरियों के रागों के बारे में मेरा मार्गदर्शन किया| इस आभार प्रदर्शन के साथ ही मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने सभी पाठकों-श्रोताओं से श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" को यहीं विराम देने की अनुमति चाहता हूँ|
क्या आप जानते हैं...
कि आज १४ जुलाई, संगीतकार मदन मोहन की पुण्यतिथि है। १९७५ में स्वल्पायु में ही उनकी मृत्यु हुई थी। निराशा में घिर कर अपने आप को शराब में डूबोने की उनकी आदत उनके जीवन के लिए घातक सिद्ध हुई।
आज पहेली को देते हैं एक दिन का विराम, क्योंकि आज हम जानना चाहते हैं कि ७०० एपिसोडों की इस महायात्रा को हमारे नियमित श्रोता किस रूप में देखते हैं, हम आपको सुनना चाहते हैं आज, कृपया अपने विचार रखें, हमें खुशी होगी
पिछली पहेली का परिणाम -
एक और शृंखला अमित जी के नाम रही, बहुत बहुत बधाई जनाब.
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments
आपको इस स्तम्भ के 700 वें अंक के लिए बहुत-बहुत बधाई ! इस सफलता के कारक आप सब पाठक-श्रोता ही हैं| आप सब की टिप्पणियों और समालोचनाओं से हमें मार्गदर्शन प्राप्त होता है और हमारा उत्साह भी बढ़ता है| हम आपके ह्रदय से आभारी हैं|
कृष्णमोहन मिश्र
इस बार मैं कई दूसरी ठुमरीयों की अपेक्षा करा रहा था जैसे कि “प्रेम जोगन बन के", "बार बार तोहे क्या समझाए पायल की झंकार","मोरे सैंयाँ जी उतरेंगे पार हो" आदि
समझ सकता हूँ कि बीस कड़ियों में सब कुछ समेटना संभव नहीं है. पर प्रयास बहुत बढ़िया है.
इंतज़ार रहेगा अगली श्रृंखलाओं का कुछ नए की चाहत में.
आवाज़ की पहली पेशकश से आज तक प्रत्येक प्रस्तुति का मैंने रोज़ बेहद उत्सुकता से इन्तेज़ार किया है. क्रमशः १००वीं, २००वीं, ३००वीं, ४००वीं, ५००वीं, ६००वीं पायदान का आनंद उठाया है. और अब ७००वीं कड़ी पर आवाज़ टीम और हम सभी को बधाई.
जैसा कि लोकमान्य है It is not the quantity that matters but quality which is paramount.
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आवाज़ के स्तर में हमने उत्तरोत्तर श्रेष्ठता देखी है.संभवतः यही कारण है कि इसके प्रेमियों में एक के बाद एक रसिकजनों का जमावड़ा होता जा रहा है जो अपने संगीत ज्ञान से अन्य लोगों का भी ज्ञानवर्धन कर रहे हैं.
आप सभी गुणीजनों को अभिवादन और आभार सहित,
अवध लाल
Hats of to you Awaaz Team, keep it up, way to go !!!
रमेश चन्द्र मिश्र
rcm.phys@gmail.com
#ajay#