सुर संगम - 28 - पारंपरिक संगीत शैली - टप्पा
सुर-संगम के सभी श्रोता-पाठकों को सुमित चक्रवर्ती का स्नेह भरा नमस्कार! तो कहिए कैसे बीते गर्मियों के दिन? जैसे किसी किसी मुसाफ़िर का मंज़िल पाने पर संघर्ष समाप्त हो जाता है, मानो ठीक उसी प्रकार गर्मियों के ये झुलसा देने वाले दिन भी अब बीत चुके हैं| और आ गयी है वर्षा ऋतु सबके जीवन में हर्ष की नई फुहार लिए| तो हम ने भी सोचा की क्यों न इस बार के अंक में कुछ अलग प्रकार का संगीत चर्चा में लाया जाए| आज का सुर-संगम आधारित है पंजाब व सिंध प्रांतों की प्रसिद्ध उप-शास्त्रीय गायन शैली 'टप्पा' पर|
टप्पा भारत की प्रमुख पारंपरिक संगीत शैलियों में से एक है| यह माना जाता है की इस शैली की उत्पत्ति पंजाब व सिंध प्रांतों के ऊँट चलाने वालों द्वारा की गई थी| इन गीतों में मूल रूप से हीर और रांझा के प्रेम व विरह प्रसंगो को दर्शाया जाता है| खमाज, भैरवी, काफ़ी, तिलांग, झिन्झोटि, सिंधुरा और देश जैसे रागों तथा पंजाबी, पश्तो जैसे तालों द्वारा प्रेम-प्रसंग अथवा करुणा भाव व्यक्त किए जाते हैं| टप्पा की विशेषता हैं इसमें लिए जाने वाले ऊर्जावान तान और असमान लयबद्ध लहज़े| टप्पा गायन को एक लोक-शैली से ऊपर उठाकर एक शास्त्रीय शैली का रूप दिया था मियाँ ग़ुलाम नबी शोरी नें जो अवध के नवाब असफ़-उद्-दौलह के दरबारी गायक थे| इस शैली के बारे में और जानने से पहले क्यों न एक अल्प-विराम ले कर प्रसिद्ध टप्पा गायिका विदुषी मालिनी राजुर्कर द्वारा राग भैरवी में प्रस्तुत इस टप्पे का आनंद लें!
टप्पा - राग भैरवी - विदुषी मालिनी राजुर्कर
टप्पा गायन शैली में ठेठ 'टप्पे के तान' प्रयोग में लाए जाते हैं| पंजाबी ताल, जिसे 'टप्पे का ठेका' भी कहा जाता है, में ताल के प्रत्येक चक्र में तान के खिंचाव और रिहाई का प्रयोग आवश्यक होता है| टप्पों को एकाएक प्रस्तुत करने हेतु नियमानुसार पहले आलाप को ठुमरी अंग में गाया जाता है तथा उसके पश्चात तेज़ी से असमान लयबद्ध लहज़े में बुने शब्दों के उपयोग से तानायत की ओर बढ़ा जाता है| टप्पा गायकी में जमजमा, गीतकारी, खटका, मुड़की व हरकत जैसे कई अलंकार प्रयोग में लाए जाते हैं| यह शैली मूलतः ग्वालियर घराने तथा बनारस घराने की विशेषता है| दोनो घरानों के टपपों में ताल और आशुरचना की शैली का उपयोग जैसे कुछ संरचनात्मक मतभेद हैं, लेकिन मौलिक सिद्धांत एक जैसे ही हैं| आइए सुनते हैं ग्वालियर घराने की प्रसिद्ध गायिका श्रीमती शाश्वती मंडल पाल द्वारा राग खमाज में गाए इस टप्पे को|
टप्पा - राग खमाज - शाश्वती मंडल पाल
आज के दौर में टप्पा प्रदर्शन के परिदृश्य में जब कलाकारों की बात आती है तो निस्संदेह सबसे शानदार माना जाता है विदुषी मालिनी राजुर्कर को| ७० के दशक से इन्होंने इस शैली को जनप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है| अपने स्पष्ट व उज्ज्वल तानों से न कावेल इन्होंने कई उत्कृष्ट प्रस्तुतियां दी हैं बल्कि टपपों में मूर्छना जैसी तकनीकों का प्रयोग करा इस शैली को एक नया रूप दिया है| इनके अलावा ग्वालियर घराने से आरती अंकालिकर, आशा खादिलकर, शाश्वती मंडल पाल जैसी गायिकाओं नें इस गायन शैली को लोकप्रिय किया| बनारस घराने से बड़े रामदासजी, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, पंडित गणेश प्रसाद मिश्र तथा राजन व साजन मिश्र जैसे दिग्गजों ने भी इस शैली में उल्लेखनीय प्रस्तुतियाँ दी हैं| आइए आज की चर्चा को समाप्त करते हुए सुनें पंडित गणेश प्रसाद मिश्र द्वारा राग काफ़ी में गाए इस टप्पे को|
टप्पा - राग काफ़ी - पंडित गणेश प्रसाद मिश्र
और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।
पहेली: यह सितार से मिलता जुलता वाद्य है जिसमें सितार की तुलना में नीचे के नोट्स का प्रयोग किया जाता है|
पिछ्ली पहेली का परिणाम: क्षिति जी ने एक बार फिर सही उत्तर दिया, अमित जी कहाँ ग़ायब हो गये?
अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे सुजॉय के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!
प्रस्तुति - सुमित चक्रवर्ती
टप्पों को एकाएक प्रस्तुत करने हेतु नियमानुसार पहले आलाप को ठुमरी अंग में गाया जाता है तथा उसके पश्चात तेज़ी से असमान लयबद्ध लहज़े में बुने शब्दों के उपयोग से तानायत की ओर बढ़ा जाता है|
सुर-संगम के सभी श्रोता-पाठकों को सुमित चक्रवर्ती का स्नेह भरा नमस्कार! तो कहिए कैसे बीते गर्मियों के दिन? जैसे किसी किसी मुसाफ़िर का मंज़िल पाने पर संघर्ष समाप्त हो जाता है, मानो ठीक उसी प्रकार गर्मियों के ये झुलसा देने वाले दिन भी अब बीत चुके हैं| और आ गयी है वर्षा ऋतु सबके जीवन में हर्ष की नई फुहार लिए| तो हम ने भी सोचा की क्यों न इस बार के अंक में कुछ अलग प्रकार का संगीत चर्चा में लाया जाए| आज का सुर-संगम आधारित है पंजाब व सिंध प्रांतों की प्रसिद्ध उप-शास्त्रीय गायन शैली 'टप्पा' पर|
टप्पा भारत की प्रमुख पारंपरिक संगीत शैलियों में से एक है| यह माना जाता है की इस शैली की उत्पत्ति पंजाब व सिंध प्रांतों के ऊँट चलाने वालों द्वारा की गई थी| इन गीतों में मूल रूप से हीर और रांझा के प्रेम व विरह प्रसंगो को दर्शाया जाता है| खमाज, भैरवी, काफ़ी, तिलांग, झिन्झोटि, सिंधुरा और देश जैसे रागों तथा पंजाबी, पश्तो जैसे तालों द्वारा प्रेम-प्रसंग अथवा करुणा भाव व्यक्त किए जाते हैं| टप्पा की विशेषता हैं इसमें लिए जाने वाले ऊर्जावान तान और असमान लयबद्ध लहज़े| टप्पा गायन को एक लोक-शैली से ऊपर उठाकर एक शास्त्रीय शैली का रूप दिया था मियाँ ग़ुलाम नबी शोरी नें जो अवध के नवाब असफ़-उद्-दौलह के दरबारी गायक थे| इस शैली के बारे में और जानने से पहले क्यों न एक अल्प-विराम ले कर प्रसिद्ध टप्पा गायिका विदुषी मालिनी राजुर्कर द्वारा राग भैरवी में प्रस्तुत इस टप्पे का आनंद लें!
टप्पा - राग भैरवी - विदुषी मालिनी राजुर्कर
टप्पा गायन शैली में ठेठ 'टप्पे के तान' प्रयोग में लाए जाते हैं| पंजाबी ताल, जिसे 'टप्पे का ठेका' भी कहा जाता है, में ताल के प्रत्येक चक्र में तान के खिंचाव और रिहाई का प्रयोग आवश्यक होता है| टप्पों को एकाएक प्रस्तुत करने हेतु नियमानुसार पहले आलाप को ठुमरी अंग में गाया जाता है तथा उसके पश्चात तेज़ी से असमान लयबद्ध लहज़े में बुने शब्दों के उपयोग से तानायत की ओर बढ़ा जाता है| टप्पा गायकी में जमजमा, गीतकारी, खटका, मुड़की व हरकत जैसे कई अलंकार प्रयोग में लाए जाते हैं| यह शैली मूलतः ग्वालियर घराने तथा बनारस घराने की विशेषता है| दोनो घरानों के टपपों में ताल और आशुरचना की शैली का उपयोग जैसे कुछ संरचनात्मक मतभेद हैं, लेकिन मौलिक सिद्धांत एक जैसे ही हैं| आइए सुनते हैं ग्वालियर घराने की प्रसिद्ध गायिका श्रीमती शाश्वती मंडल पाल द्वारा राग खमाज में गाए इस टप्पे को|
टप्पा - राग खमाज - शाश्वती मंडल पाल
आज के दौर में टप्पा प्रदर्शन के परिदृश्य में जब कलाकारों की बात आती है तो निस्संदेह सबसे शानदार माना जाता है विदुषी मालिनी राजुर्कर को| ७० के दशक से इन्होंने इस शैली को जनप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है| अपने स्पष्ट व उज्ज्वल तानों से न कावेल इन्होंने कई उत्कृष्ट प्रस्तुतियां दी हैं बल्कि टपपों में मूर्छना जैसी तकनीकों का प्रयोग करा इस शैली को एक नया रूप दिया है| इनके अलावा ग्वालियर घराने से आरती अंकालिकर, आशा खादिलकर, शाश्वती मंडल पाल जैसी गायिकाओं नें इस गायन शैली को लोकप्रिय किया| बनारस घराने से बड़े रामदासजी, सिद्धेश्वरी देवी, गिरिजा देवी, पंडित गणेश प्रसाद मिश्र तथा राजन व साजन मिश्र जैसे दिग्गजों ने भी इस शैली में उल्लेखनीय प्रस्तुतियाँ दी हैं| आइए आज की चर्चा को समाप्त करते हुए सुनें पंडित गणेश प्रसाद मिश्र द्वारा राग काफ़ी में गाए इस टप्पे को|
टप्पा - राग काफ़ी - पंडित गणेश प्रसाद मिश्र
और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।
पहेली: यह सितार से मिलता जुलता वाद्य है जिसमें सितार की तुलना में नीचे के नोट्स का प्रयोग किया जाता है|
पिछ्ली पहेली का परिणाम: क्षिति जी ने एक बार फिर सही उत्तर दिया, अमित जी कहाँ ग़ायब हो गये?
अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे सुजॉय के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!
प्रस्तुति - सुमित चक्रवर्ती
आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.
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