ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 696/2011/136
श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के तीसरे और समापन सप्ताह के प्रवेश द्वार पर खड़ा मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीतानुरागियों का अभिनन्दन करता हूँ| पिछले तीन सप्ताह की 15 कड़ियों में हमने आपको बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक से लेकर सातवें दशक तक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों का रसास्वादन कराया है| श्रृंखला के इस समापन सप्ताह की कड़ियों में हम आठवें दशक की फिल्मों से चुनी हुई ठुमरियाँ लेकर उपस्थित हुए हैं| श्रृंखला के पिछले अंकों में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक भारतीय संगीत शैलियों को समुचित राजाश्रय न मिलने और तवायफों के कोठों पर फलने-फूलने के कारण सुसंस्कृत समाज में यह उपेक्षित रहा| ऐसे कठिन समय में भारतीय संगीत के दो उद्धारकों ने जन्म लिया| आम आदमी को संगीत सुलभ कराने और इसे समाज में प्रतिष्ठित स्थान दिलाने में पं. विष्णु नारायण भातखंडे (1860) तथा पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर (1872) ने पूरा जीवन समर्पित कर दिया| इन दोनों 'विष्णु' को भारतीय संगीत का उद्धारक मानने में कोई मतभेद नहीं| भातखंडे जी ने पूरे देश में विस्तृत संगीत को एकत्र कर नई पीढी के सगीत शिक्षण का मार्ग प्रशस्त किया| दूसरी ओर पलुस्कर जी ने पूरे देश का भ्रमण कर संगीत की शुचिता को जन-जन तक पहुँचाया| दोनों विभूतियों के प्रयत्नों का प्रभाव ठुमरी शैली पर भी पड़ा|
भक्ति और आध्यात्मिक भाव की ठुमरियों के रचनाकारों में कुँवरश्याम, ललनपिया और बिन्दादीन महाराज के नाम प्रमुख हैं| भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अनेक ठुमरियों सहित चैती, कजरी आदि की रचनाएँ की हैं| सुप्रसिद्ध गायिका गिरिजा देवी भारतेन्दु की रचनाओं को बड़े सम्मान के साथ गातीं हैं| आज हम विदुषी सिद्धेश्वरी देवी और उनकी सुपुत्री सविता देवी की बात करेंगे| उपशास्त्रीय ही नहीं बल्कि शास्त्रीय गायकी के वर्तमान हस्ताक्षरों में एक नाम विदुषी सविता देवी का है| पूरब अंग की ठुमरियों के लिए विख्यात बनारस (वाराणसी) के कलासाधकों में सिद्धेश्वरी देवी का नाम आदर से लिया जाता है| सविता देवी इन्हीं सिद्धेश्वरी देवी की सुपुत्री हैं| संगीत-प्रेमियों के बीच "ठुमरी क्वीन" के नाम से विख्यात सिद्धेश्वरी देवी की संगीत-शिक्षा बचपन में ही गुरु सियाजी महाराज से प्रारम्भ हो गई थी| निःसन्तान होने के कारण सियाजी दम्पति ने सिद्धेश्वरी को गोद ले लिया और संगीत शिक्षा के साथ-साथ लालन-पालन भी किया| बाद में उनकी संगीत-शिक्षा बड़े रामदास जी से भी हुई| बनारस की गायिकाओं में सिद्धेश्वरी देवी, काशी बाई और रसूलन बाई समकालीन थीं| 1966 में उन्हें "पद्मश्री" सम्मान से अलंकृत किया गया| नई पीढी को गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत संगीत-शिक्षा को आगे बढाने के लिए 1965 में उन्हें दिल्ली के श्रीराम भारतीय कला केन्द्र आमंत्रित किया गया| लगभग बारह वर्षों तक कला केन्द्र में कार्य करते हुए 1977 में सिद्धेश्वरी देवी का निधन हुआ| 1989 में फिल्मकार मणि कौल ने सिद्धेश्वरी देवी के जीवन और संगीत-दर्शन पर एक वृत्तचित्र "सिद्धेश्वरी" का निर्माण किया था|
सिद्धेश्वरी देवी की सुपुत्री और सुप्रसिद्ध गायिका सविता देवी, दिल्ली में अपनी माँ की स्मृति में "श्रीमती सिद्धेश्वरी देवी भारतीय संगीत अकादमी" की स्थापना कर परम्परागत संगीत को विस्तार दे रही हैं| सविता जी बहुआयामी गायिका हैं| पूरब अंग की उपशास्त्रीय गायकी उन्हें विरासत में प्राप्त है| इसके अलावा किराना घराना की ख़याल गायकी में वह सिद्ध गायिका हैं| सविता देवी ने ख़याल गायकी की शिक्षा पण्डित मणिप्रसाद और पण्डित दिलीपचन्द्र वेदी से प्राप्त की| दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कालेज में संगीत की विभागाध्यक्ष रह चुकीं सविता देवी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संगीत में स्नातकोत्तर शिक्षा ग्रहण की थी| बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि सविता देवी शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन में जितनी सिद्ध हैं, उतनी ही दक्ष सितार वादन में भी हैं| सविता देवी की गायकी में एक प्रमुख गुण यह है कि जब वे गीत के शब्दों में छिपी वेदना और अध्यात्मिक भावों को परत-दर-परत खोलना शुरू करत्तीं हैं तो श्रोता पूरी तरह उन्ही भावों में डूब जाता है| मुझे आज भी स्मरण है, लगभग ढाई दशक पूर्व बदरीनाथ धाम के पवित्र परिवेश में उनका गायन जारी था| अचानक उन्होंने पूरब अंग में दादरा -"लग गइलें नैहरवा में दाग, धूमिल भईलें चुनरिया..." का गायन प्रारम्भ किया| गीत के शब्दों की जब उन्होंने बोल-बनाव के माध्यम से व्याख्या करना आरम्भ किया तो सभी श्रोताओं की आँखें भींग गईं थी| यहाँ तक कि गायन की समाप्ति पर लोगों को तालियाँ बजाना भी याद नहीं रहा| पता नहीं सविता जी के स्वरों में कैसा जादू है कि वह श्रृंगार रस के गीतों के गायन में भी अध्यात्म के दर्शन करा देतीं हैं|
आज की संध्या में आपको सुनवाने के लिए हमने जो फ़िल्मी ठुमरी चुनी है वह 1970 की फिल्म "दस्तक" से है| श्रृंगार रस से ओतप्रोत इस ठुमरी गीत को लता मंगेशकर ने अपने स्वरों से सँवारा है और इसे अभिनेता संजीव कुमार तथा अभिनेत्री रेहाना सुलतान पर फिल्माया गया है| ठुमरी के बोल हैं -"बैयाँ ना धरो ओ बलमा..."| यद्यपि यह पारम्परिक ठुमरी नहीं है, इसके बावजूद गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी ने ऐसी शब्द-रचना की है कि यह किसी परम्परागत ठुमरी जैसी ही प्रतीत होती है| ग़ज़लों को संगीतबद्ध करने में अत्यन्त कुशल संगीतकार मदनमोहन ने इस ठुमरी को राग "चारुकेशी" में निबद्ध कर श्रृंगार पक्ष को हल्का सा वेदना की ओर मोड़ दिया है, किन्तु सितारखानी और कहरवा तालों के लोच के कारण वेदना का भाव अधिक उभरता नहीं है| आइए, सुनते हैं, श्रृंगार रस से भींगी यह ठुमरी -
क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार मदन मोहन को फ़िल्म 'दस्तक' की इसी ठुमरी के लिए उन्हें उनका पहला राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 17/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - पारंपरिक ठुमरी नहीं है
सवाल १ - राग बताएं - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - संगीतकार का नाम बताएं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी क्या कहने, आप तो वाकई दिग्गज हैं, लगता है हिंदी फिल्म संगीत आप घोंट के पी चुके हैं. क्षिति जी आप भी निरंतर बढ़िया खेल रही हैं बधाई. इंदु जी नाम नहीं लेंगें तो वो नाराज़ हो जाएँगी :) आपको भी बधाई पहुंचे
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र
श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के तीसरे और समापन सप्ताह के प्रवेश द्वार पर खड़ा मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीतानुरागियों का अभिनन्दन करता हूँ| पिछले तीन सप्ताह की 15 कड़ियों में हमने आपको बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक से लेकर सातवें दशक तक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों का रसास्वादन कराया है| श्रृंखला के इस समापन सप्ताह की कड़ियों में हम आठवें दशक की फिल्मों से चुनी हुई ठुमरियाँ लेकर उपस्थित हुए हैं| श्रृंखला के पिछले अंकों में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक भारतीय संगीत शैलियों को समुचित राजाश्रय न मिलने और तवायफों के कोठों पर फलने-फूलने के कारण सुसंस्कृत समाज में यह उपेक्षित रहा| ऐसे कठिन समय में भारतीय संगीत के दो उद्धारकों ने जन्म लिया| आम आदमी को संगीत सुलभ कराने और इसे समाज में प्रतिष्ठित स्थान दिलाने में पं. विष्णु नारायण भातखंडे (1860) तथा पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर (1872) ने पूरा जीवन समर्पित कर दिया| इन दोनों 'विष्णु' को भारतीय संगीत का उद्धारक मानने में कोई मतभेद नहीं| भातखंडे जी ने पूरे देश में विस्तृत संगीत को एकत्र कर नई पीढी के सगीत शिक्षण का मार्ग प्रशस्त किया| दूसरी ओर पलुस्कर जी ने पूरे देश का भ्रमण कर संगीत की शुचिता को जन-जन तक पहुँचाया| दोनों विभूतियों के प्रयत्नों का प्रभाव ठुमरी शैली पर भी पड़ा|
भक्ति और आध्यात्मिक भाव की ठुमरियों के रचनाकारों में कुँवरश्याम, ललनपिया और बिन्दादीन महाराज के नाम प्रमुख हैं| भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अनेक ठुमरियों सहित चैती, कजरी आदि की रचनाएँ की हैं| सुप्रसिद्ध गायिका गिरिजा देवी भारतेन्दु की रचनाओं को बड़े सम्मान के साथ गातीं हैं| आज हम विदुषी सिद्धेश्वरी देवी और उनकी सुपुत्री सविता देवी की बात करेंगे| उपशास्त्रीय ही नहीं बल्कि शास्त्रीय गायकी के वर्तमान हस्ताक्षरों में एक नाम विदुषी सविता देवी का है| पूरब अंग की ठुमरियों के लिए विख्यात बनारस (वाराणसी) के कलासाधकों में सिद्धेश्वरी देवी का नाम आदर से लिया जाता है| सविता देवी इन्हीं सिद्धेश्वरी देवी की सुपुत्री हैं| संगीत-प्रेमियों के बीच "ठुमरी क्वीन" के नाम से विख्यात सिद्धेश्वरी देवी की संगीत-शिक्षा बचपन में ही गुरु सियाजी महाराज से प्रारम्भ हो गई थी| निःसन्तान होने के कारण सियाजी दम्पति ने सिद्धेश्वरी को गोद ले लिया और संगीत शिक्षा के साथ-साथ लालन-पालन भी किया| बाद में उनकी संगीत-शिक्षा बड़े रामदास जी से भी हुई| बनारस की गायिकाओं में सिद्धेश्वरी देवी, काशी बाई और रसूलन बाई समकालीन थीं| 1966 में उन्हें "पद्मश्री" सम्मान से अलंकृत किया गया| नई पीढी को गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत संगीत-शिक्षा को आगे बढाने के लिए 1965 में उन्हें दिल्ली के श्रीराम भारतीय कला केन्द्र आमंत्रित किया गया| लगभग बारह वर्षों तक कला केन्द्र में कार्य करते हुए 1977 में सिद्धेश्वरी देवी का निधन हुआ| 1989 में फिल्मकार मणि कौल ने सिद्धेश्वरी देवी के जीवन और संगीत-दर्शन पर एक वृत्तचित्र "सिद्धेश्वरी" का निर्माण किया था|
सिद्धेश्वरी देवी की सुपुत्री और सुप्रसिद्ध गायिका सविता देवी, दिल्ली में अपनी माँ की स्मृति में "श्रीमती सिद्धेश्वरी देवी भारतीय संगीत अकादमी" की स्थापना कर परम्परागत संगीत को विस्तार दे रही हैं| सविता जी बहुआयामी गायिका हैं| पूरब अंग की उपशास्त्रीय गायकी उन्हें विरासत में प्राप्त है| इसके अलावा किराना घराना की ख़याल गायकी में वह सिद्ध गायिका हैं| सविता देवी ने ख़याल गायकी की शिक्षा पण्डित मणिप्रसाद और पण्डित दिलीपचन्द्र वेदी से प्राप्त की| दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कालेज में संगीत की विभागाध्यक्ष रह चुकीं सविता देवी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संगीत में स्नातकोत्तर शिक्षा ग्रहण की थी| बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि सविता देवी शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन में जितनी सिद्ध हैं, उतनी ही दक्ष सितार वादन में भी हैं| सविता देवी की गायकी में एक प्रमुख गुण यह है कि जब वे गीत के शब्दों में छिपी वेदना और अध्यात्मिक भावों को परत-दर-परत खोलना शुरू करत्तीं हैं तो श्रोता पूरी तरह उन्ही भावों में डूब जाता है| मुझे आज भी स्मरण है, लगभग ढाई दशक पूर्व बदरीनाथ धाम के पवित्र परिवेश में उनका गायन जारी था| अचानक उन्होंने पूरब अंग में दादरा -"लग गइलें नैहरवा में दाग, धूमिल भईलें चुनरिया..." का गायन प्रारम्भ किया| गीत के शब्दों की जब उन्होंने बोल-बनाव के माध्यम से व्याख्या करना आरम्भ किया तो सभी श्रोताओं की आँखें भींग गईं थी| यहाँ तक कि गायन की समाप्ति पर लोगों को तालियाँ बजाना भी याद नहीं रहा| पता नहीं सविता जी के स्वरों में कैसा जादू है कि वह श्रृंगार रस के गीतों के गायन में भी अध्यात्म के दर्शन करा देतीं हैं|
आज की संध्या में आपको सुनवाने के लिए हमने जो फ़िल्मी ठुमरी चुनी है वह 1970 की फिल्म "दस्तक" से है| श्रृंगार रस से ओतप्रोत इस ठुमरी गीत को लता मंगेशकर ने अपने स्वरों से सँवारा है और इसे अभिनेता संजीव कुमार तथा अभिनेत्री रेहाना सुलतान पर फिल्माया गया है| ठुमरी के बोल हैं -"बैयाँ ना धरो ओ बलमा..."| यद्यपि यह पारम्परिक ठुमरी नहीं है, इसके बावजूद गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी ने ऐसी शब्द-रचना की है कि यह किसी परम्परागत ठुमरी जैसी ही प्रतीत होती है| ग़ज़लों को संगीतबद्ध करने में अत्यन्त कुशल संगीतकार मदनमोहन ने इस ठुमरी को राग "चारुकेशी" में निबद्ध कर श्रृंगार पक्ष को हल्का सा वेदना की ओर मोड़ दिया है, किन्तु सितारखानी और कहरवा तालों के लोच के कारण वेदना का भाव अधिक उभरता नहीं है| आइए, सुनते हैं, श्रृंगार रस से भींगी यह ठुमरी -
क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार मदन मोहन को फ़िल्म 'दस्तक' की इसी ठुमरी के लिए उन्हें उनका पहला राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 17/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - पारंपरिक ठुमरी नहीं है
सवाल १ - राग बताएं - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - संगीतकार का नाम बताएं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी क्या कहने, आप तो वाकई दिग्गज हैं, लगता है हिंदी फिल्म संगीत आप घोंट के पी चुके हैं. क्षिति जी आप भी निरंतर बढ़िया खेल रही हैं बधाई. इंदु जी नाम नहीं लेंगें तो वो नाराज़ हो जाएँगी :) आपको भी बधाई पहुंचे
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
Comments
और ये क्या लिखा मेरा ज़िक्र ना करोगे तो नाराज़ हो जाऊंगी 'हा हा हा मुझे जाना ही कितना है तुमने बाबु!
नाराज नही होऊंगी.झगड़ूगी.हर किसी से तो हर कोई नाराज नही हो जाता ना? मैं तो होती हूँ क्या करू?
ऐस्सिच हूँ मैं तो
सभी सफल उत्तर देने वालों को बधाई.
अवध लाल
सभी सफल उत्तर देने वालों को बधाई.
अवध लाल
This will work as a centralised source of Thumari with history.
My best wishes to Mr Krishnamohan for his work.
Regards.
Lov
Satna (MP)