सुर संगम - 01
सुप्रभात! दोस्तों, नये साल के इस पहले रविवार की इस सुहानी सुबह में मैं, सुजॊय चटर्जी, आप सभी का 'आवाज़' पर स्वागत करता हूँ। युं तो हमारी मुलाक़ात नियमित रूप से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर होती रहती है, लेकिन अब से मैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अलावा भी हर रविवार की सुबह आपसे मुख़ातिब होऊँगा इस नये स्तंभ में जिसकी हम आज से शुरुआत कर रहे हैं। दोस्तों, प्राचीनतम संगीत की अगर हम बात करें तो वो है हमारा शास्त्रीय संगीत, जिसका उल्लेख हमें वेदों में मिलता है। चार वेदों में सामवेद में संगीत का व्यापक वर्णन मिलता है। सामवेद ऋगवेद से निकला है और उसके जो श्लोक हैं उन्हे सामगान के रूप में गाया जाता था। फिर उससे 'जाती' बनी और फिर आगे चलकर 'राग' बनें। ऐसी मान्यता है कि ये अलग अलग राग हमारे अलग अलग 'चक्र' (उर्जाबिंदू) को प्रभावित करते हैं। ये अलग अलग राग आधार बनें शास्त्रीय संगीत का और युगों युगों से इस देश के सुरसाधक इस परम्परा को निरंतर आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं, हमारी संस्कृति को सहेजते हुए बढ़े जा रहे हैं। संगीत की तमाम धाराओं में सब से महत्वपूर्ण धारा है शास्त्रीय संगीत। बाकी जितनी भी तरह का संगीत है, उन सब से उपर है शास्त्रीय संगीत, और तभी तो संगीत की शिक्षा का अर्थ ही है शास्त्रीय संगीत की शिक्षा। अक्सर साक्षात्कारों में कलाकार इस बात का ज़िक्र करते हैं कि एक अच्छा गायक या संगीतकार बनने के लिए शास्त्रीय संगीत का सीखना बेहद ज़रूरी है। तो दोस्तों, आज से 'आवाज़' पर पहली बार एक ऐसा साप्ताहिक स्तंभ शुरु हो रहा है जो समर्पित है शुद्ध शास्त्रीय संगीत को। गायन और वादन, यानी साज़ और आवाज़, दोनों को ही बारी बारी से इसमें शामिल किया जाएगा। भारतीय शास्त्रीय संगीत से इस स्तंभ की हम शुरुआत कर रहे हैं, लेकिन आगे चलकर दूसरे देशों के शास्त्रीय संगीत और साज़ों को भी शामिल करने की उम्मीद रखते हैं। तो लीजिए प्रस्तुत है 'आवाज़' का नया साप्ताहिक स्तंभ - 'सुर संगम'।
'सुर संगम' के इस पहले अंक को हम समर्पित कर रहे हैं शास्त्रीय गायन के सशक्त स्तंभ उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब को। उनसे हम आज की कड़ी में सुनेंगे राग गुनकली। इस राग पर हम अभी आते हैं, उससे पहले आइए ख़ाँ साहब के बारे में आपको कुछ दिलचस्प जानकारियाँ दी जाए! बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का जन्म सन् १९०२ को पराधीन भारत के पंजाब के कसूर में हुआ था जो अब पाक़िस्तान में है। उनके पिता अली बक्श ख़ान पश्चिम पंजाब प्रोविन्स के एक संगीत परिवार से ताल्लुख़ रखते थे और ख़ुद भी एक जाने माने गायक थे। बड़े ग़ुलाम अली जब ७ वर्ष के थे, तभी उन्होंने सारंगी वादन और गायन सीखना शुरु किया अपने चाचा काले ख़ान साहब से, जो एक गायक थे। काले ख़ाँ साहब के निधन के बाद बड़े ग़ुलाम अली अपने पिता से संगीत सीखते रहे। बड़े ग़ुलाम अली ने अपना करीयर बतौर सारंगी वादक शुरु किया और कलकत्ता में आयोजित अपने पहले ही कॊन्सर्ट में उन्होंने लोकप्रियता हासिल कर ली। ख़ाँ साहब ने चार धाराओं - पटियाला-कसूर, ध्रुपद के बहराम ख़ानी तत्व, जयपुर घराने की हरकतें और ग्वालियर घराने के बहलावे का मिश्रण कर एक नई परम्परा की शुरुआत की। उनके गले की मिठास, गायकी का अंदाज़, हरकतें, सबकुछ मिलकर उन्हें शीर्ष स्थान पर बिठा दिया। सन् ४७ में बटवारे के बाद वो पाक़िस्तान चले गए, लेकिन बाद में भारत वापस आ गए और आजीवन यहीं पर रहे। ख़ाँ साहब ने बटवारे को कभी स्वीकार नहीं किया, उनके अनुसार, "अगर हर घर में एक बच्चे को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सिखाया गया होता तो इस देश का कभी भी बंटवारा नहीं होता"। कितनी बड़ी बात उन्होंने कही थी!
आज उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब की आवाज़ में हम आपको सुनवा रहे हैं राग गुनकली। यह एक प्रात:कालीन राग है जो ६ से ९ बजे के बीच गाया जाता है, ठाट है भैरव। स्वरों की जहाँ तक बात है, इस राग में गंधार और निशाद का प्रयोग नहीं होता, रिशभ और धैवत कोमल होते हैं। बाकी के सभी स्वर शुद्ध है। हर राग से किसी ना किसी मूड का रिश्ता होता है, गुनकली का रिश्ता है दर्द, ख़ालीपन और सूनेपन से। लीजिए उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब से सुनिए यह राग, उसके बाद इसी राग पर आधारित एक फ़िल्मी गीत भी हम सुनेंगे।
राग गुनकली (उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ)
फ़िल्मी गीतों का जहाँ तक सवाल है, बहुत ही कम गीतों में राग गुनकली का इस्तेमाल हमारे संगीतकारों ने किया है। कुछ गीतों की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करते हैं। पंकज मल्लिक का गाया "ये कौन आज आया सवेरे सवेरे" (नर्तकी), परवीन सुल्ताना का गाया "बिछुरत मोसे कान्हा" (विजेयता) और लता-किशोर के युगल स्वरों में फ़िल्म 'महबूबा' का लोकप्रिय गीत "पर्बत के पीछे चम्बे दा गाँव" जैसे गानें इसी राग पर आधारित है। तो इनमें से लीजिए फ़िल्म 'महबूबा' का गीत आज यहाँ सुनिए। आनंद बक्शी के बोल, राहुल देव बर्मन का संगीत।
गीत - पर्बत के पीछे चम्बे दा गाँव (महबूबा)
तो दोस्तों, यह था 'सुर संगम' स्तंभ का पहला अंक। अगले रविवार फिर किसी कलाकार और फिर किसी राग के साथ हम हाज़िर होंगे, यह अंक आपको कैसा लगा ज़रूर बताइएगा टिप्पणी में। चाहें तो oig@hindyugm.com पर भी आप मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। तो अब इजाज़त दीजिए, मस्ती के मूड में सण्डे बिताइए, और शाम को ज़रूर वापस पधारिएगा 'आवाज़' पर क्योंकि आज शाम से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रही है एक नई लघु शृंखला। तो मिलते हैं शाम ६:३० बजे। तब तक के लिए नमस्कार!
आप बताएं
फिल्म "गूँज उठी शहनाई" में भी रफ़ी साहब का गाया एक गीत है इस राग पर आधारित, क्या याद है आपको ?
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
अगर हर घर में एक बच्चे को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सिखाया गया होता तो इस देश का कभी भी बंटवारा नहीं होता
सुप्रभात! दोस्तों, नये साल के इस पहले रविवार की इस सुहानी सुबह में मैं, सुजॊय चटर्जी, आप सभी का 'आवाज़' पर स्वागत करता हूँ। युं तो हमारी मुलाक़ात नियमित रूप से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर होती रहती है, लेकिन अब से मैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अलावा भी हर रविवार की सुबह आपसे मुख़ातिब होऊँगा इस नये स्तंभ में जिसकी हम आज से शुरुआत कर रहे हैं। दोस्तों, प्राचीनतम संगीत की अगर हम बात करें तो वो है हमारा शास्त्रीय संगीत, जिसका उल्लेख हमें वेदों में मिलता है। चार वेदों में सामवेद में संगीत का व्यापक वर्णन मिलता है। सामवेद ऋगवेद से निकला है और उसके जो श्लोक हैं उन्हे सामगान के रूप में गाया जाता था। फिर उससे 'जाती' बनी और फिर आगे चलकर 'राग' बनें। ऐसी मान्यता है कि ये अलग अलग राग हमारे अलग अलग 'चक्र' (उर्जाबिंदू) को प्रभावित करते हैं। ये अलग अलग राग आधार बनें शास्त्रीय संगीत का और युगों युगों से इस देश के सुरसाधक इस परम्परा को निरंतर आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं, हमारी संस्कृति को सहेजते हुए बढ़े जा रहे हैं। संगीत की तमाम धाराओं में सब से महत्वपूर्ण धारा है शास्त्रीय संगीत। बाकी जितनी भी तरह का संगीत है, उन सब से उपर है शास्त्रीय संगीत, और तभी तो संगीत की शिक्षा का अर्थ ही है शास्त्रीय संगीत की शिक्षा। अक्सर साक्षात्कारों में कलाकार इस बात का ज़िक्र करते हैं कि एक अच्छा गायक या संगीतकार बनने के लिए शास्त्रीय संगीत का सीखना बेहद ज़रूरी है। तो दोस्तों, आज से 'आवाज़' पर पहली बार एक ऐसा साप्ताहिक स्तंभ शुरु हो रहा है जो समर्पित है शुद्ध शास्त्रीय संगीत को। गायन और वादन, यानी साज़ और आवाज़, दोनों को ही बारी बारी से इसमें शामिल किया जाएगा। भारतीय शास्त्रीय संगीत से इस स्तंभ की हम शुरुआत कर रहे हैं, लेकिन आगे चलकर दूसरे देशों के शास्त्रीय संगीत और साज़ों को भी शामिल करने की उम्मीद रखते हैं। तो लीजिए प्रस्तुत है 'आवाज़' का नया साप्ताहिक स्तंभ - 'सुर संगम'।
'सुर संगम' के इस पहले अंक को हम समर्पित कर रहे हैं शास्त्रीय गायन के सशक्त स्तंभ उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब को। उनसे हम आज की कड़ी में सुनेंगे राग गुनकली। इस राग पर हम अभी आते हैं, उससे पहले आइए ख़ाँ साहब के बारे में आपको कुछ दिलचस्प जानकारियाँ दी जाए! बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का जन्म सन् १९०२ को पराधीन भारत के पंजाब के कसूर में हुआ था जो अब पाक़िस्तान में है। उनके पिता अली बक्श ख़ान पश्चिम पंजाब प्रोविन्स के एक संगीत परिवार से ताल्लुख़ रखते थे और ख़ुद भी एक जाने माने गायक थे। बड़े ग़ुलाम अली जब ७ वर्ष के थे, तभी उन्होंने सारंगी वादन और गायन सीखना शुरु किया अपने चाचा काले ख़ान साहब से, जो एक गायक थे। काले ख़ाँ साहब के निधन के बाद बड़े ग़ुलाम अली अपने पिता से संगीत सीखते रहे। बड़े ग़ुलाम अली ने अपना करीयर बतौर सारंगी वादक शुरु किया और कलकत्ता में आयोजित अपने पहले ही कॊन्सर्ट में उन्होंने लोकप्रियता हासिल कर ली। ख़ाँ साहब ने चार धाराओं - पटियाला-कसूर, ध्रुपद के बहराम ख़ानी तत्व, जयपुर घराने की हरकतें और ग्वालियर घराने के बहलावे का मिश्रण कर एक नई परम्परा की शुरुआत की। उनके गले की मिठास, गायकी का अंदाज़, हरकतें, सबकुछ मिलकर उन्हें शीर्ष स्थान पर बिठा दिया। सन् ४७ में बटवारे के बाद वो पाक़िस्तान चले गए, लेकिन बाद में भारत वापस आ गए और आजीवन यहीं पर रहे। ख़ाँ साहब ने बटवारे को कभी स्वीकार नहीं किया, उनके अनुसार, "अगर हर घर में एक बच्चे को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सिखाया गया होता तो इस देश का कभी भी बंटवारा नहीं होता"। कितनी बड़ी बात उन्होंने कही थी!
आज उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब की आवाज़ में हम आपको सुनवा रहे हैं राग गुनकली। यह एक प्रात:कालीन राग है जो ६ से ९ बजे के बीच गाया जाता है, ठाट है भैरव। स्वरों की जहाँ तक बात है, इस राग में गंधार और निशाद का प्रयोग नहीं होता, रिशभ और धैवत कोमल होते हैं। बाकी के सभी स्वर शुद्ध है। हर राग से किसी ना किसी मूड का रिश्ता होता है, गुनकली का रिश्ता है दर्द, ख़ालीपन और सूनेपन से। लीजिए उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब से सुनिए यह राग, उसके बाद इसी राग पर आधारित एक फ़िल्मी गीत भी हम सुनेंगे।
राग गुनकली (उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ)
फ़िल्मी गीतों का जहाँ तक सवाल है, बहुत ही कम गीतों में राग गुनकली का इस्तेमाल हमारे संगीतकारों ने किया है। कुछ गीतों की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करते हैं। पंकज मल्लिक का गाया "ये कौन आज आया सवेरे सवेरे" (नर्तकी), परवीन सुल्ताना का गाया "बिछुरत मोसे कान्हा" (विजेयता) और लता-किशोर के युगल स्वरों में फ़िल्म 'महबूबा' का लोकप्रिय गीत "पर्बत के पीछे चम्बे दा गाँव" जैसे गानें इसी राग पर आधारित है। तो इनमें से लीजिए फ़िल्म 'महबूबा' का गीत आज यहाँ सुनिए। आनंद बक्शी के बोल, राहुल देव बर्मन का संगीत।
गीत - पर्बत के पीछे चम्बे दा गाँव (महबूबा)
तो दोस्तों, यह था 'सुर संगम' स्तंभ का पहला अंक। अगले रविवार फिर किसी कलाकार और फिर किसी राग के साथ हम हाज़िर होंगे, यह अंक आपको कैसा लगा ज़रूर बताइएगा टिप्पणी में। चाहें तो oig@hindyugm.com पर भी आप मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। तो अब इजाज़त दीजिए, मस्ती के मूड में सण्डे बिताइए, और शाम को ज़रूर वापस पधारिएगा 'आवाज़' पर क्योंकि आज शाम से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रही है एक नई लघु शृंखला। तो मिलते हैं शाम ६:३० बजे। तब तक के लिए नमस्कार!
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फिल्म "गूँज उठी शहनाई" में भी रफ़ी साहब का गाया एक गीत है इस राग पर आधारित, क्या याद है आपको ?
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.
Comments
रफी साहब के दो गाने है सोलो. लगता है 'कह दो कोई ना करे यहाँ प्यार' इस राग अपर आधारित हो सकता है.
यूँ मैंने पीना सीख लिया सुनने पर गुन्काली का सा अहसास होता है.बेशक अपने इन कार्यों और नए कोंसेप्त से आप दोनों मुझे रागों के बारे में पढ़ने और सुनने के लिए मजबूर कर दोगे.निसंदेह कुछ ले के ही जाऊंगी यहाँ से.
ऐसिच हूँ मैं तो चोट्टी नम्बर वन
पर लग रहा है कि 'कह दो कोई न करे यहाँ प्यार' होना चाहिए.
अवध लाल
उस्ताद बड़े गुलाम अली ख़ां साहब के बारे में मैं क्या कह सकता हूँ! मुगल-ए-आज़म में इनकी गायिकी और इनकी गायिकी के दीवाने (के० आसिफ़) की दीवानगी के किस्से अपने आप में हीं इनकी महानता के सुबूत हैं।
-विश्व दीपक