सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली
सुर संगम - 05
भारतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे।
सादे पहनावे, रहन-सहन और स्वभाव वाले भीमसेन जी को अपने बारे में कहने में हमेशा संकोच रहा। यह मेरा सौभाग्य ही है कि मुझे भीमसेनजी को लखनऊ, दिल्ली, ग्वालियर, आदि नगरों में आयोजित लगभग १०-१२ संगीत-सभाओं में प्रत्यक्ष सुनने का अवसर मिला. लगभग २५-२६ वर्ष पहले लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय (वर्तमान में विश्वविद्यालय) की ओर से तीन-दिवसीय भातखंडे जयन्ती समारोह में पण्डितजी आमंत्रित किये गए थे. संगीत सभा के उपरान्त 'अमृत प्रभात' दैनिक समाचार पत्र (उन दिनों इसी पत्र में मैं लिखा करता था) के लिए पण्डितजी का साक्षात्कार लेने का दुस्साहस कर बैठा. प्रस्तुति के तुरन्त बाद मैं डरते-डरते ग्रीन रूम की ओर भागा और भयभीत - कातर स्वर में उन्हें अपना मन्तव्य बताया. गायन के बाद, थकावट के बावजूद सहज भाव से उन्होंने कहा- 'पूछिए, क्या पूछना चाहते हैं?' एक विद्वान शस्त्रीय गायक को अपने सामने पाकर मेरी सिट्टी-पिट्टी पहले से ही गुम थी. उस हालत में मैंने पण्डितजी से क्या प्रश्न किया था, वह मुझे आज तक स्मरण नहीं. परन्तु उस प्रश्न का जादुई असर यह हुआ कि अगले दिन सुबह उन्होंने मुझे महाविद्यालय के छात्रावास परिसर (पण्डितजी वहीँ ठहरे थे) में बुला लिया. अगले दिन लगभग सवा घण्टे की बातचीत में पण्डितजी ने अपनी गायकी की विशेषताओं पर कम और अपने यायावरी अतीत पर अधिक चर्चा की. बचपन में अपने तैराकी के शौक के बारे में विस्तार से बताया, किन्तु अपनी संगीत साधना और विशेषताओं के सवाल को बड़ी सफाई से दूसरी ओर मोड़ देते थे. उस समय मुझे प्रतीत हुआ कि उन्होंने मुझ जैसे संगीत-अज्ञानी के कारण ऐसा किया. कुछ वर्ष पश्चात् ग्वालियर में पण्डितजी के एक शिष्य ने मुझे बताया कि वे आत्म-प्रचार से सदा दूर रहते हैं. उन्होंने यह भी बताया कि पण्डितजी अपनी गायकी और उपलब्धियों पर बात करने में सदैव संकोची रहे.
भीमसेनजी के विषय में अन्य सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार उन्होंने बचपन में उस्ताद अब्दुल करीम खां साहब का एक रिकार्ड सुना. यह राग झिंझोटी में एक ठुमरी थी, जिसके बोल थे- 'पिया बिन नाहीं आवत चैन ....'. १९३३ में ११ वर्ष कि आयु वह घर से निकल पड़े, सदगुरु की खोज में. घर से निकल कर किशोर भीमसेन पहले बीजापुर, फिर पुणे पहुँचे. पुणे के बाद ग्वालियर गए, जहाँ महाराजा ग्वालियर द्वारा संचालित माधव संगीत विद्यालय में प्रसिद्ध सरोद वादक उस्ताद हाफ़िज़ अली खां से मिले और संगीत की बारीकियाँ सीखीं. अपनी यायावरी वृत्ति के कारण अगले तीन वर्षों तक वह दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ, रामपुर आदि स्थानों पर भ्रमण करते रहे. अन्ततः उनके पिता ने जालन्धर में उन्हें खोज निकाला. वापस धारवाड़ लौट कर भीमसेनजी ने १९३६ से धारवाड़ के पण्डित रामचन्द्र गणेश कुन्दगोलकर (सवाई गन्धर्व) से विधिवत संगीत शिक्षा ग्रहण करना आरम्भ किया. इसी अवधि में सुप्रसिद्ध गायिका विदुषी गंगूबाई हंगल ने भी सवाई गन्धर्व से संगीत शिक्षा ग्रहण की. १९४३ में भीमसेनजी मुम्बई रेडिओ में बतौर गायक कलाकार के रूप में नियुक्त हो गए. १९४४ में कन्नड़ और हिन्दी में उनके गाये भजनों का पहला रिकार्ड HMV ने जारी किया. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. आइए आगे बढ़ने से पहले पंडितजी का गाया राग यमन-कल्याण सुना जाए।
गायन: राग यमनकल्याण (पंडित भीमसेन जोशी)
पण्डित भीमसेन जोशी ने जहाँ एक ओर अपनी विशिष्ट शैली विकसित करके किराना घराने को समृद्ध किया, वहीँ दूसरी ओर अन्य घरानों की विशिष्टताओं को भी अपने गायन में समाहित किया। उन्होंने राग कलाश्री और ललित भटियार जैसे नए रागों की रचना भी की। उन्हें खयाल गायन के साथ-साथ ठुमरी, भजन और अभंग गायन में भी महारत हासिल थी। यहाँ पर उनकी आवाज़ में इस भैरवी भजन को सुनने की तीव्र इच्छा हो रही है....
भजन: जो भजे हरि को सदा (पंडित भीमसेन जोशी)
भीमसेनजी ने कई फिल्मों में भी अपने कंठ-स्वर का योगदान किया हैI १९८४ में निर्मित, अमोल पालेकर द्वारा निर्देशित फिल्म 'अनकही' में पण्डितजी ने एक भक्तिपरक गीत गाया था- 'ठुमक ठुमक पग कुमत कुञ्ज मग, चपल चरण हरि आये ....'I इस फिल्म के संगीतकार जयदेव थे. फिल्म के इस गीत को १९८५ में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए वर्ष का सर्वश्रेष्ठ गीत (पुरुष स्वर) के रूप में पुरस्कृत किया गया थाI इससे पूर्व १९५६ में पण्डितजी ने फिल्म 'बसन्त बहार' में पार्श्व गायक मन्ना डे के साथ एक गीत गाया था- 'केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फूले ....'. शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फिल्म के शीर्षक के अनुरूप यह गीत राग 'बसन्त बहार' पर आधारित है. इस गीत की एक रोचक कथा मन्ना डे ने दूरदर्शन के एक साक्षात्कार में बताया था. श्री डे के अनुसार जब उन्हें यह बताया गया कि यह गीत उन्हें पण्डित भीमसेन जोशी के साथ गाना और कथानक की माँग के अनुसार उन्हें पण्डितजी से बेहतर गाकर राज-दरबार की प्रशंसा अर्जित करनी है तो वह बहुत डर गए. वह बोले- 'कहाँ पण्डितजी, कहाँ मैं?' 'परन्तु रिहर्सल में उनके मार्गदर्शन के कारण ही मैं वह गाना गा सका. आइए इस गीत का हम भी यहाँ पर आनंद लें। गीतकार शैलेन्द्र की यह रचना है।
गीत: केतकी गुलाब जूही चंपक बनफूले (फ़िल्म: बसंत बहार)
आज पंडित भीमसेन जोशी हमारे बीच मौजूद नहीं। लेकिन उनकी दिव्य आवाज़ दुनिया कि फ़िज़ाओं में इस तरह से प्रतिध्वनित हो रही है कि जिसकी अनुगूंज युगों युगों तक सुनाई देती रहेगी और संगीतरसिकों को अपना अमृत पान कराती रहेगी। स्वरगीय पंडित भीमसेन जोशी को हम दे रहे हैं भीगी पलकों से अपनी भावभीनी श्रद्धांजली।
शोध और आलेख: कृष्णमोहन मिश्र, लखनऊ
प्रस्तुति-सुजॉय चटर्जी
भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे।
भारतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे।
सादे पहनावे, रहन-सहन और स्वभाव वाले भीमसेन जी को अपने बारे में कहने में हमेशा संकोच रहा। यह मेरा सौभाग्य ही है कि मुझे भीमसेनजी को लखनऊ, दिल्ली, ग्वालियर, आदि नगरों में आयोजित लगभग १०-१२ संगीत-सभाओं में प्रत्यक्ष सुनने का अवसर मिला. लगभग २५-२६ वर्ष पहले लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय (वर्तमान में विश्वविद्यालय) की ओर से तीन-दिवसीय भातखंडे जयन्ती समारोह में पण्डितजी आमंत्रित किये गए थे. संगीत सभा के उपरान्त 'अमृत प्रभात' दैनिक समाचार पत्र (उन दिनों इसी पत्र में मैं लिखा करता था) के लिए पण्डितजी का साक्षात्कार लेने का दुस्साहस कर बैठा. प्रस्तुति के तुरन्त बाद मैं डरते-डरते ग्रीन रूम की ओर भागा और भयभीत - कातर स्वर में उन्हें अपना मन्तव्य बताया. गायन के बाद, थकावट के बावजूद सहज भाव से उन्होंने कहा- 'पूछिए, क्या पूछना चाहते हैं?' एक विद्वान शस्त्रीय गायक को अपने सामने पाकर मेरी सिट्टी-पिट्टी पहले से ही गुम थी. उस हालत में मैंने पण्डितजी से क्या प्रश्न किया था, वह मुझे आज तक स्मरण नहीं. परन्तु उस प्रश्न का जादुई असर यह हुआ कि अगले दिन सुबह उन्होंने मुझे महाविद्यालय के छात्रावास परिसर (पण्डितजी वहीँ ठहरे थे) में बुला लिया. अगले दिन लगभग सवा घण्टे की बातचीत में पण्डितजी ने अपनी गायकी की विशेषताओं पर कम और अपने यायावरी अतीत पर अधिक चर्चा की. बचपन में अपने तैराकी के शौक के बारे में विस्तार से बताया, किन्तु अपनी संगीत साधना और विशेषताओं के सवाल को बड़ी सफाई से दूसरी ओर मोड़ देते थे. उस समय मुझे प्रतीत हुआ कि उन्होंने मुझ जैसे संगीत-अज्ञानी के कारण ऐसा किया. कुछ वर्ष पश्चात् ग्वालियर में पण्डितजी के एक शिष्य ने मुझे बताया कि वे आत्म-प्रचार से सदा दूर रहते हैं. उन्होंने यह भी बताया कि पण्डितजी अपनी गायकी और उपलब्धियों पर बात करने में सदैव संकोची रहे.
भीमसेनजी के विषय में अन्य सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार उन्होंने बचपन में उस्ताद अब्दुल करीम खां साहब का एक रिकार्ड सुना. यह राग झिंझोटी में एक ठुमरी थी, जिसके बोल थे- 'पिया बिन नाहीं आवत चैन ....'. १९३३ में ११ वर्ष कि आयु वह घर से निकल पड़े, सदगुरु की खोज में. घर से निकल कर किशोर भीमसेन पहले बीजापुर, फिर पुणे पहुँचे. पुणे के बाद ग्वालियर गए, जहाँ महाराजा ग्वालियर द्वारा संचालित माधव संगीत विद्यालय में प्रसिद्ध सरोद वादक उस्ताद हाफ़िज़ अली खां से मिले और संगीत की बारीकियाँ सीखीं. अपनी यायावरी वृत्ति के कारण अगले तीन वर्षों तक वह दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ, रामपुर आदि स्थानों पर भ्रमण करते रहे. अन्ततः उनके पिता ने जालन्धर में उन्हें खोज निकाला. वापस धारवाड़ लौट कर भीमसेनजी ने १९३६ से धारवाड़ के पण्डित रामचन्द्र गणेश कुन्दगोलकर (सवाई गन्धर्व) से विधिवत संगीत शिक्षा ग्रहण करना आरम्भ किया. इसी अवधि में सुप्रसिद्ध गायिका विदुषी गंगूबाई हंगल ने भी सवाई गन्धर्व से संगीत शिक्षा ग्रहण की. १९४३ में भीमसेनजी मुम्बई रेडिओ में बतौर गायक कलाकार के रूप में नियुक्त हो गए. १९४४ में कन्नड़ और हिन्दी में उनके गाये भजनों का पहला रिकार्ड HMV ने जारी किया. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. आइए आगे बढ़ने से पहले पंडितजी का गाया राग यमन-कल्याण सुना जाए।
गायन: राग यमनकल्याण (पंडित भीमसेन जोशी)
पण्डित भीमसेन जोशी ने जहाँ एक ओर अपनी विशिष्ट शैली विकसित करके किराना घराने को समृद्ध किया, वहीँ दूसरी ओर अन्य घरानों की विशिष्टताओं को भी अपने गायन में समाहित किया। उन्होंने राग कलाश्री और ललित भटियार जैसे नए रागों की रचना भी की। उन्हें खयाल गायन के साथ-साथ ठुमरी, भजन और अभंग गायन में भी महारत हासिल थी। यहाँ पर उनकी आवाज़ में इस भैरवी भजन को सुनने की तीव्र इच्छा हो रही है....
भजन: जो भजे हरि को सदा (पंडित भीमसेन जोशी)
भीमसेनजी ने कई फिल्मों में भी अपने कंठ-स्वर का योगदान किया हैI १९८४ में निर्मित, अमोल पालेकर द्वारा निर्देशित फिल्म 'अनकही' में पण्डितजी ने एक भक्तिपरक गीत गाया था- 'ठुमक ठुमक पग कुमत कुञ्ज मग, चपल चरण हरि आये ....'I इस फिल्म के संगीतकार जयदेव थे. फिल्म के इस गीत को १९८५ में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए वर्ष का सर्वश्रेष्ठ गीत (पुरुष स्वर) के रूप में पुरस्कृत किया गया थाI इससे पूर्व १९५६ में पण्डितजी ने फिल्म 'बसन्त बहार' में पार्श्व गायक मन्ना डे के साथ एक गीत गाया था- 'केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फूले ....'. शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फिल्म के शीर्षक के अनुरूप यह गीत राग 'बसन्त बहार' पर आधारित है. इस गीत की एक रोचक कथा मन्ना डे ने दूरदर्शन के एक साक्षात्कार में बताया था. श्री डे के अनुसार जब उन्हें यह बताया गया कि यह गीत उन्हें पण्डित भीमसेन जोशी के साथ गाना और कथानक की माँग के अनुसार उन्हें पण्डितजी से बेहतर गाकर राज-दरबार की प्रशंसा अर्जित करनी है तो वह बहुत डर गए. वह बोले- 'कहाँ पण्डितजी, कहाँ मैं?' 'परन्तु रिहर्सल में उनके मार्गदर्शन के कारण ही मैं वह गाना गा सका. आइए इस गीत का हम भी यहाँ पर आनंद लें। गीतकार शैलेन्द्र की यह रचना है।
गीत: केतकी गुलाब जूही चंपक बनफूले (फ़िल्म: बसंत बहार)
आज पंडित भीमसेन जोशी हमारे बीच मौजूद नहीं। लेकिन उनकी दिव्य आवाज़ दुनिया कि फ़िज़ाओं में इस तरह से प्रतिध्वनित हो रही है कि जिसकी अनुगूंज युगों युगों तक सुनाई देती रहेगी और संगीतरसिकों को अपना अमृत पान कराती रहेगी। स्वरगीय पंडित भीमसेन जोशी को हम दे रहे हैं भीगी पलकों से अपनी भावभीनी श्रद्धांजली।
शोध और आलेख: कृष्णमोहन मिश्र, लखनऊ
प्रस्तुति-सुजॉय चटर्जी
आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.
Comments
इस अनुपम आलेख के लिए मैं कृष्ण मोहन जी और सुजॉय जी का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
धन्यवाद,
विश्व दीपक